रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


बालकाण्ड दोहा ६१ से ७०

दोहा

पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ ॥६१॥

चौपाला
कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा । यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाई । हमरें बयर तुम्हउ बिसराई ॥
ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना । तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना ॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी । रहइ न सीलु सनेहु न कानी ॥
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा । जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा ॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई । तहाँ गएँ कल्यानु न होई ॥
भाँति अनेक संभु समुझावा । भावी बस न ग्यानु उर आवा ॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ । नहिं भलि बात हमारे भाएँ ॥

दोहा

कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ॥६२॥

चौपाला
पिता भवन जब गई भवानी । दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी ॥
सादर भलेहिं मिली एक माता । भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता ॥
दच्छ न कछु पूछी कुसलाता । सतिहि बिलोकि जरे सब गाता ॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा । कतहुँ न दीख संभु कर भागा ॥
तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ । प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा । जस यह भयउ महा परितापा ॥
जद्यपि जग दारुन दुख नाना । सब तें कठिन जाति अवमाना ॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा । बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा ॥

दोहा

सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध ॥६३॥

चौपाला
सुनहु सभासद सकल मुनिंदा । कही सुनी जिन्ह संकर निंदा ॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ । भली भाँति पछिताब पिताहूँ ॥
संत संभु श्रीपति अपबादा । सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा ॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई । श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ॥
जगदातमा महेसु पुरारी । जगत जनक सब के हितकारी ॥
पिता मंदमति निंदत तेही । दच्छ सुक्र संभव यह देही ॥
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू । उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू ॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । भयउ सकल मख हाहाकारा ॥

दोहा

सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस ॥६४॥

चौपाला
समाचार सब संकर पाए । बीरभद्रु करि कोप पठाए ॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा । सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा ॥
भे जगबिदित दच्छ गति सोई । जसि कछु संभु बिमुख कै होई ॥
यह इतिहास सकल जग जानी । ताते मैं संछेप बखानी ॥
सतीं मरत हरि सन बरु मागा । जनम जनम सिव पद अनुरागा ॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई । जनमीं पारबती तनु पाई ॥
जब तें उमा सैल गृह जाईं । सकल सिद्धि संपति तहँ छाई ॥
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे । उचित बास हिम भूधर दीन्हे ॥

दोहा

सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति ॥६५॥

चौपाला
सरिता सब पुनित जलु बहहीं । खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं ॥
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा । गिरि पर सकल करहिं अनुरागा ॥
सोह सैल गिरिजा गृह आएँ । जिमि जनु रामभगति के पाएँ ॥
नित नूतन मंगल गृह तासू । ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू ॥
नारद समाचार सब पाए । कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए ॥
सैलराज बड़ आदर कीन्हा । पद पखारि बर आसनु दीन्हा ॥
नारि सहित मुनि पद सिरु नावा । चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा ॥
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना । सुता बोलि मेली मुनि चरना ॥

दोहा

त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि ॥
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि ॥६६॥

चौपाला
कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी । सुता तुम्हारि सकल गुन खानी ॥
सुंदर सहज सुसील सयानी । नाम उमा अंबिका भवानी ॥
सब लच्छन संपन्न कुमारी । होइहि संतत पियहि पिआरी ॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता । एहि तें जसु पैहहिं पितु माता ॥
होइहि पूज्य सकल जग माहीं । एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं ॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा । त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा ॥
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी । सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी ॥
अगुन अमान मातु पितु हीना । उदासीन सब संसय छीना ॥

दोहा

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष ॥
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख ॥६७॥

चौपाला
सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी । दुख दंपतिहि उमा हरषानी ॥
नारदहुँ यह भेदु न जाना । दसा एक समुझब बिलगाना ॥
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना । पुलक सरीर भरे जल नैना ॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा । उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा ॥
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू । मिलन कठिन मन भा संदेहू ॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई । सखी उछँग बैठी पुनि जाई ॥
झूठि न होइ देवरिषि बानी । सोचहि दंपति सखीं सयानी ॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ । कहहु नाथ का करिअ उपाऊ ॥

दोहा

कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार ॥६८॥

चौपाला
तदपि एक मैं कहउँ उपाई । होइ करै जौं दैउ सहाई ॥
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं । मिलहि उमहि तस संसय नाहीं ॥
जे जे बर के दोष बखाने । ते सब सिव पहि मैं अनुमाने ॥
जौं बिबाहु संकर सन होई । दोषउ गुन सम कह सबु कोई ॥
जौं अहि सेज सयन हरि करहीं । बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं ॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं । तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं ॥
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई । सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई । रबि पावक सुरसरि की नाई ॥

दोहा

जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान ॥६९॥

चौपाला
सुरसरि जल कृत बारुनि जाना । कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना ॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें । ईस अनीसहि अंतरु तैसें ॥
संभु सहज समरथ भगवाना । एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना ॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू । आसुतोष पुनि किएँ कलेसू ॥
जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी । भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी ॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं । एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं ॥
बर दायक प्रनतारति भंजन । कृपासिंधु सेवक मन रंजन ॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधे । लहिअ न कोटि जोग जप साधें ॥

दोहा

अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस ॥७०॥

चौपाला
कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ । आगिल चरित सुनहु जस भयऊ ॥
पतिहि एकांत पाइ कह मैना । नाथ न मैं समुझे मुनि बैना ॥
जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा । करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा ॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी । कंत उमा मम प्रानपिआरी ॥
जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू । गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू ॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू । जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू ॥
अस कहि परि चरन धरि सीसा । बोले सहित सनेह गिरीसा ॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं । नारद बचनु अन्यथा नाहीं ॥