रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


बालकाण्ड दोहा २२१ से २३०

दोहा

बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि ॥२२१॥

चौपाला
देखि राम छबि कोउ एक कहई । जोगु जानकिहि यह बरु अहई ॥
जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू । पन परिहरि हठि करइ बिबाहू ॥
कोउ कह ए भूपति पहिचाने । मुनि समेत सादर सनमाने ॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई । बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई ॥
कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता । सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता ॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू । नाहिन आलि इहाँ संदेहू ॥
जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू । तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू ॥
सखि हमरें आरति अति तातें । कबहुँक ए आवहिं एहि नातें ॥

दोहा

नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि ।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि ॥२२२॥

चौपाला
बोली अपर कहेहु सखि नीका । एहिं बिआह अति हित सबहीं का ॥
कोउ कह संकर चाप कठोरा । ए स्यामल मृदुगात किसोरा ॥
सबु असमंजस अहइ सयानी । यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी ॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं । बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं ॥
परसि जासु पद पंकज धूरी । तरी अहल्या कृत अघ भूरी ॥
सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें । यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें ॥
जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी । तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी ॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं । ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी ॥

दोहा

हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद ।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद ॥२२३॥

चौपाला
पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई । जहँ धनुमख हित भूमि बनाई ॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी । बिमल बेदिका रुचिर सँवारी ॥
चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला । रचे जहाँ बेठहिं महिपाला ॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा । अपर मंच मंडली बिलासा ॥
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई । बैठहिं नगर लोग जहँ जाई ॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए । धवल धाम बहुबरन बनाए ॥
जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी । जथा जोगु निज कुल अनुहारी ॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना । सादर प्रभुहि देखावहिं रचना ॥

दोहा

सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात ।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात ॥२२४॥

चौपाला
सिसु सब राम प्रेमबस जाने । प्रीति समेत निकेत बखाने ॥
निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई । सहित सनेह जाहिं दोउ भाई ॥
राम देखावहिं अनुजहि रचना । कहि मृदु मधुर मनोहर बचना ॥
लव निमेष महँ भुवन निकाया । रचइ जासु अनुसासन माया ॥
भगति हेतु सोइ दीनदयाला । चितवत चकित धनुष मखसाला ॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं । जानि बिलंबु त्रास मन माहीं ॥
जासु त्रास डर कहुँ डर होई । भजन प्रभाउ देखावत सोई ॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं । किए बिदा बालक बरिआई ॥

दोहा

सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ ॥२२५॥

चौपाला
निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा । सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा ॥
कहत कथा इतिहास पुरानी । रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी ॥
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई । लगे चरन चापन दोउ भाई ॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी । करत बिबिध जप जोग बिरागी ॥
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते । गुर पद कमल पलोटत प्रीते ॥
बारबार मुनि अग्या दीन्ही । रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही ॥
चापत चरन लखनु उर लाएँ । सभय सप्रेम परम सचु पाएँ ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता । पौढ़े धरि उर पद जलजाता ॥

दोहा

उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान ॥
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान ॥२२६॥

चौपाला
सकल सौच करि जाइ नहाए । नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए ॥
समय जानि गुर आयसु पाई । लेन प्रसून चले दोउ भाई ॥
भूप बागु बर देखेउ जाई । जहँ बसंत रितु रही लोभाई ॥
लागे बिटप मनोहर नाना । बरन बरन बर बेलि बिताना ॥
नव पल्लव फल सुमान सुहाए । निज संपति सुर रूख लजाए ॥
चातक कोकिल कीर चकोरा । कूजत बिहग नटत कल मोरा ॥
मध्य बाग सरु सोह सुहावा । मनि सोपान बिचित्र बनावा ॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा । जलखग कूजत गुंजत भृंगा ॥

दोहा

बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत ।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत ॥२२७॥

चौपाला
चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन । लगे लेन दल फूल मुदित मन ॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई । गिरिजा पूजन जननि पठाई ॥
संग सखीं सब सुभग सयानी । गावहिं गीत मनोहर बानी ॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा । बरनि न जाइ देखि मनु मोहा ॥
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता । गई मुदित मन गौरि निकेता ॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा । निज अनुरूप सुभग बरु मागा ॥
एक सखी सिय संगु बिहाई । गई रही देखन फुलवाई ॥
तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई । प्रेम बिबस सीता पहिं आई ॥

दोहा

तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन ॥२२८॥

चौपाला
देखन बागु कुअँर दुइ आए । बय किसोर सब भाँति सुहाए ॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी । गिरा अनयन नयन बिनु बानी ॥
सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी । सिय हियँ अति उतकंठा जानी ॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली । सुने जे मुनि सँग आए काली ॥
जिन्ह निज रूप मोहनी डारी । कीन्ह स्वबस नगर नर नारी ॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू । अवसि देखिअहिं देखन जोगू ॥
तासु वचन अति सियहि सुहाने । दरस लागि लोचन अकुलाने ॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई । प्रीति पुरातन लखइ न कोई ॥

दोहा

सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत ॥
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत ॥२२९॥

चौपाला
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि । कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि ॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही ॥मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही ॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा । सिय मुख ससि भए नयन चकोरा ॥
भए बिलोचन चारु अचंचल । मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल ॥
देखि सीय सोभा सुखु पावा । हृदयँ सराहत बचनु न आवा ॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई । बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई ॥
सुंदरता कहुँ सुंदर करई । छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई ॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी । केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी ॥

दोहा

सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि ।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि ॥२३०॥

चौपाला
तात जनकतनया यह सोई । धनुषजग्य जेहि कारन होई ॥
पूजन गौरि सखीं लै आई । करत प्रकासु फिरइ फुलवाई ॥
जासु बिलोकि अलोकिक सोभा । सहज पुनीत मोर मनु छोभा ॥
सो सबु कारन जान बिधाता । फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता ॥
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ । मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी । जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी ॥
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी । नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी ॥
मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं । ते नरबर थोरे जग माहीं ॥