रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


बालकाण्ड दोहा २६१ से २७०

सोरठा

संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।
बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस ॥२६१॥
चौपाला
प्रभु दोउ चापखंड महि डारे । देखि लोग सब भए सुखारे ॥
कोसिकरुप पयोनिधि पावन । प्रेम बारि अवगाहु सुहावन ॥
रामरूप राकेसु निहारी । बढ़त बीचि पुलकावलि भारी ॥
बाजे नभ गहगहे निसाना । देवबधू नाचहिं करि गाना ॥
ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा । प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा ॥
बरिसहिं सुमन रंग बहु माला । गावहिं किंनर गीत रसाला ॥
रही भुवन भरि जय जय बानी । धनुषभंग धुनि जात न जानी ॥
मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी । भंजेउ राम संभुधनु भारी ॥

दोहा

बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर ॥२६२॥

चौपाला
झाँझि मृदंग संख सहनाई । भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई ॥
बाजहिं बहु बाजने सुहाए । जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए ॥
सखिन्ह सहित हरषी अति रानी । सूखत धान परा जनु पानी ॥
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई । पैरत थकें थाह जनु पाई ॥
श्रीहत भए भूप धनु टूटे । जैसें दिवस दीप छबि छूटे ॥
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती । जनु चातकी पाइ जलु स्वाती ॥
रामहि लखनु बिलोकत कैसें । ससिहि चकोर किसोरकु जैसें ॥
सतानंद तब आयसु दीन्हा । सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा ॥

दोहा

संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार ॥२६३॥

चौपाला
सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे । छबिगन मध्य महाछबि जैसें ॥
कर सरोज जयमाल सुहाई । बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई ॥
तन सकोचु मन परम उछाहू । गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू ॥
जाइ समीप राम छबि देखी । रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी ॥
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई । पहिरावहु जयमाल सुहाई ॥
सुनत जुगल कर माल उठाई । प्रेम बिबस पहिराइ न जाई ॥
सोहत जनु जुग जलज सनाला । ससिहि सभीत देत जयमाला ॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली । सियँ जयमाल राम उर मेली ॥

सोरठा

रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन ॥२६४॥
पुर अरु ब्योम बाजने बाजे । खल भए मलिन साधु सब राजे ॥
सुर किंनर नर नाग मुनीसा । जय जय जय कहि देहिं असीसा ॥
नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं । बार बार कुसुमांजलि छूटीं ॥
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं । बंदी बिरदावलि उच्चरहीं ॥
महि पाताल नाक जसु ब्यापा । राम बरी सिय भंजेउ चापा ॥
करहिं आरती पुर नर नारी । देहिं निछावरि बित्त बिसारी ॥
सोहति सीय राम कै जौरी । छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी ॥
सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता । करति न चरन परस अति भीता ॥

दोहा

गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि ॥२६५॥

चौपाला
तब सिय देखि भूप अभिलाषे । कूर कपूत मूढ़ मन माखे ॥
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे । जहँ तहँ गाल बजावन लागे ॥
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ । धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ ॥
तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई । जीवत हमहि कुअँरि को बरई ॥
जौं बिदेहु कछु करै सहाई । जीतहु समर सहित दोउ भाई ॥
साधु भूप बोले सुनि बानी । राजसमाजहि लाज लजानी ॥
बलु प्रतापु बीरता बड़ाई । नाक पिनाकहि संग सिधाई ॥
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई । असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई ॥

दोहा

देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु ॥२६६॥

चौपाला
बैनतेय बलि जिमि चह कागू । जिमि ससु चहै नाग अरि भागू ॥
जिमि चह कुसल अकारन कोही । सब संपदा चहै सिवद्रोही ॥
लोभी लोलुप कल कीरति चहई । अकलंकता कि कामी लहई ॥
हरि पद बिमुख परम गति चाहा । तस तुम्हार लालचु नरनाहा ॥
कोलाहलु सुनि सीय सकानी । सखीं लवाइ गईं जहँ रानी ॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं । सिय सनेहु बरनत मन माहीं ॥
रानिन्ह सहित सोचबस सीया । अब धौं बिधिहि काह करनीया ॥
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं । लखनु राम डर बोलि न सकहीं ॥

दोहा

अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप ॥२६७॥

चौपाला
खरभरु देखि बिकल पुर नारीं । सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं ॥
तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा । आयसु भृगुकुल कमल पतंगा ॥
देखि महीप सकल सकुचाने । बाज झपट जनु लवा लुकाने ॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा । भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा ॥
सीस जटा ससिबदनु सुहावा । रिसबस कछुक अरुन होइ आवा ॥
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते । सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते ॥
बृषभ कंध उर बाहु बिसाला । चारु जनेउ माल मृगछाला ॥
कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें । धनु सर कर कुठारु कल काँधें ॥

दोहा

सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।
धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप ॥२६८॥

चौपाला
देखत भृगुपति बेषु कराला । उठे सकल भय बिकल भुआला ॥
पितु समेत कहि कहि निज नामा । लगे करन सब दंड प्रनामा ॥
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी । सो जानइ जनु आइ खुटानी ॥
जनक बहोरि आइ सिरु नावा । सीय बोलाइ प्रनामु करावा ॥
आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं । निज समाज लै गई सयानीं ॥
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई । पद सरोज मेले दोउ भाई ॥
रामु लखनु दसरथ के ढोटा । दीन्हि असीस देखि भल जोटा ॥
रामहि चितइ रहे थकि लोचन । रूप अपार मार मद मोचन ॥

दोहा

बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर ॥
पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर ॥२६९॥

चौपाला
समाचार कहि जनक सुनाए । जेहि कारन महीप सब आए ॥
सुनत बचन फिरि अनत निहारे । देखे चापखंड महि डारे ॥
अति रिस बोले बचन कठोरा । कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा ॥
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू । उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू ॥
अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं । कुटिल भूप हरषे मन माहीं ॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी ॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी ॥
मन पछिताति सीय महतारी । बिधि अब सँवरी बात बिगारी ॥
भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता । अरध निमेष कलप सम बीता ॥

दोहा

सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु ॥२७०॥

मासपारायण , नवाँ विश्राम

चौपाला
नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ॥
आयसु काह कहिअ किन मोही । सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई । अरि करनी करि करिअ लराई ॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा । सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा । न त मारे जैहहिं सब राजा ॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने । बोले परसुधरहि अपमाने ॥
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं । कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ॥