रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


बालकाण्ड दोहा २८१ से २९०

दोहा

प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु ॥२८१॥

चौपाला
देखि कुठार बान धनु धारी । भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी ॥
नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा । बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा ॥
जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं । पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं ॥
छमहु चूक अनजानत केरी । चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी ॥
हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा ॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा ॥
राम मात्र लघु नाम हमारा । परसु सहित बड़ नाम तोहारा ॥
देव एकु गुनु धनुष हमारें । नव गुन परम पुनीत तुम्हारें ॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे । छमहु बिप्र अपराध हमारे ॥

दोहा

बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम ॥२८२॥

चौपाला
निपटहिं द्विज करि जानहि मोही । मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही ॥
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू । कोप मोर अति घोर कृसानु ॥
समिधि सेन चतुरंग सुहाई । महा महीप भए पसु आई ॥
मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे । समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे ॥
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें । बोलसि निदरि बिप्र के भोरें ॥
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा । अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा ॥
राम कहा मुनि कहहु बिचारी । रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी ॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना । मैं कहि हेतु करौं अभिमाना ॥

दोहा

जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ ॥२८३॥

चौपाला
देव दनुज भूपति भट नाना । समबल अधिक होउ बलवाना ॥
जौं रन हमहि पचारै कोऊ । लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥
छत्रिय तनु धरि समर सकाना । कुल कलंकु तेहिं पावँर आना ॥
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी । कालहु डरहिं न रन रघुबंसी ॥
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई । अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ॥
सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के । उघरे पटल परसुधर मति के ॥
राम रमापति कर धनु लेहू । खैंचहु मिटै मोर संदेहू ॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ । परसुराम मन बिसमय भयऊ ॥

दोहा

जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात ॥२८४॥

चौपाला
जय रघुबंस बनज बन भानू । गहन दनुज कुल दहन कृसानु ॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी । जय मद मोह कोह भ्रम हारी ॥
बिनय सील करुना गुन सागर । जयति बचन रचना अति नागर ॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा । जय सरीर छबि कोटि अनंगा ॥
करौं काह मुख एक प्रसंसा । जय महेस मन मानस हंसा ॥
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता । छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता ॥
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू । भृगुपति गए बनहि तप हेतू ॥
अपभयँ कुटिल महीप डेराने । जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने ॥

दोहा

देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल ॥२८५॥

चौपाला
अति गहगहे बाजने बाजे । सबहिं मनोहर मंगल साजे ॥
जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं । करहिं गान कल कोकिलबयनी ॥
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई । जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई ॥
गत त्रास भइ सीय सुखारी । जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी ॥
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा । प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा ॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं । अब जो उचित सो कहिअ गोसाई ॥
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना । रहा बिबाहु चाप आधीना ॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू । सुर नर नाग बिदित सब काहु ॥

दोहा

तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु ॥२८६॥

चौपाला
दूत अवधपुर पठवहु जाई । आनहिं नृप दसरथहि बोलाई ॥
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला । पठए दूत बोलि तेहि काला ॥
बहुरि महाजन सकल बोलाए । आइ सबन्हि सादर सिर नाए ॥
हाट बाट मंदिर सुरबासा । नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा ॥
हरषि चले निज निज गृह आए । पुनि परिचारक बोलि पठाए ॥
रचहु बिचित्र बितान बनाई । सिर धरि बचन चले सचु पाई ॥
पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना । जे बितान बिधि कुसल सुजाना ॥
बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा । बिरचे कनक कदलि के खंभा ॥

दोहा

हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल ॥२८७॥

चौपाला
बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे । सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे ॥
कनक कलित अहिबेल बनाई । लखि नहि परइ सपरन सुहाई ॥
तेहि के रचि पचि बंध बनाए । बिच बिच मुकता दाम सुहाए ॥
मानिक मरकत कुलिस पिरोजा । चीरि कोरि पचि रचे सरोजा ॥
किए भृंग बहुरंग बिहंगा । गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा ॥
सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी । मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी ॥
चौंकें भाँति अनेक पुराईं । सिंधुर मनिमय सहज सुहाई ॥

दोहा

सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि ॥
हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि ॥२८८॥

चौपाला
रचे रुचिर बर बंदनिबारे । मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे ॥
मंगल कलस अनेक बनाए । ध्वज पताक पट चमर सुहाए ॥
दीप मनोहर मनिमय नाना । जाइ न बरनि बिचित्र बिताना ॥
जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही । सो बरनै असि मति कबि केही ॥
दूलहु रामु रूप गुन सागर । सो बितानु तिहुँ लोक उजागर ॥
जनक भवन कै सौभा जैसी । गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी ॥
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी । तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी ॥
जो संपदा नीच गृह सोहा । सो बिलोकि सुरनायक मोहा ॥

दोहा

बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु ॥
तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु ॥२८९॥

चौपाला
पहुँचे दूत राम पुर पावन । हरषे नगर बिलोकि सुहावन ॥
भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई । दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई ॥
करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही । मुदित महीप आपु उठि लीन्ही ॥
बारि बिलोचन बाचत पाँती । पुलक गात आई भरि छाती ॥
रामु लखनु उर कर बर चीठी । रहि गए कहत न खाटी मीठी ॥
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची । हरषी सभा बात सुनि साँची ॥
खेलत रहे तहाँ सुधि पाई । आए भरतु सहित हित भाई ॥
पूछत अति सनेहँ सकुचाई । तात कहाँ तें पाती आई ॥

दोहा

कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस ॥२९०॥

चौपाला
सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता । अधिक सनेहु समात न गाता ॥
प्रीति पुनीत भरत कै देखी । सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी ॥
तब नृप दूत निकट बैठारे । मधुर मनोहर बचन उचारे ॥
भैया कहहु कुसल दोउ बारे । तुम्ह नीकें निज नयन निहारे ॥
स्यामल गौर धरें धनु भाथा । बय किसोर कौसिक मुनि साथा ॥
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ । प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ ॥
जा दिन तें मुनि गए लवाई । तब तें आजु साँचि सुधि पाई ॥
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने । सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने ॥