दोहा
सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ ॥२९१॥
चौपाला
पूछन जोगु न तनय तुम्हारे । पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे ॥
जिन्ह के जस प्रताप कें आगे । ससि मलीन रबि सीतल लागे ॥
तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे । देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे ॥
सीय स्वयंबर भूप अनेका । समिटे सुभट एक तें एका ॥
संभु सरासनु काहुँ न टारा । हारे सकल बीर बरिआरा ॥
तीनि लोक महँ जे भटमानी । सभ कै सकति संभु धनु भानी ॥
सकइ उठाइ सरासुर मेरू । सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू ॥
जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा । सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा ॥
दोहा
तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।
भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल ॥२९२॥
चौपाला
सुनि सरोष भृगुनायकु आए । बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए ॥
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा । करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा ॥
राजन रामु अतुलबल जैसें । तेज निधान लखनु पुनि तैसें ॥
कंपहि भूप बिलोकत जाकें । जिमि गज हरि किसोर के ताकें ॥
देव देखि तव बालक दोऊ । अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥
दूत बचन रचना प्रिय लागी । प्रेम प्रताप बीर रस पागी ॥
सभा समेत राउ अनुरागे । दूतन्ह देन निछावरि लागे ॥
कहि अनीति ते मूदहिं काना । धरमु बिचारि सबहिं सुख माना ॥
दोहा
तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।
कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ ॥२९३॥
चौपाला
सुनि बोले गुर अति सुखु पाई । पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई ॥
जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं । जद्यपि ताहि कामना नाहीं ॥
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ । धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ ॥
तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी । तसि पुनीत कौसल्या देबी ॥
सुकृती तुम्ह समान जग माहीं । भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं ॥
तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें । राजन राम सरिस सुत जाकें ॥
बीर बिनीत धरम ब्रत धारी । गुन सागर बर बालक चारी ॥
तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना । सजहु बरात बजाइ निसाना ॥
दोहा
चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।
भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ ॥२९४॥
चौपाला
राजा सबु रनिवास बोलाई । जनक पत्रिका बाचि सुनाई ॥
सुनि संदेसु सकल हरषानीं । अपर कथा सब भूप बखानीं ॥
प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी । मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी ॥
मुदित असीस देहिं गुरु नारीं । अति आनंद मगन महतारीं ॥
लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती । हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती ॥
राम लखन कै कीरति करनी । बारहिं बार भूपबर बरनी ॥
मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए । रानिन्ह तब महिदेव बोलाए ॥
दिए दान आनंद समेता । चले बिप्रबर आसिष देता ॥
सोरठा
जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के ॥२९५॥
कहत चले पहिरें पट नाना । हरषि हने गहगहे निसाना ॥
समाचार सब लोगन्ह पाए । लागे घर घर होने बधाए ॥
भुवन चारि दस भरा उछाहू । जनकसुता रघुबीर बिआहू ॥
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे । मग गृह गलीं सँवारन लागे ॥
जद्यपि अवध सदैव सुहावनि । राम पुरी मंगलमय पावनि ॥
तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई । मंगल रचना रची बनाई ॥
ध्वज पताक पट चामर चारु । छावा परम बिचित्र बजारू ॥
कनक कलस तोरन मनि जाला । हरद दूब दधि अच्छत माला ॥
दोहा
मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ ॥२९६॥
चौपाला
जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि । सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि ॥
बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि । निज सरुप रति मानु बिमोचनि ॥
गावहिं मंगल मंजुल बानीं । सुनिकल रव कलकंठि लजानीं ॥
भूप भवन किमि जाइ बखाना । बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना ॥
मंगल द्रब्य मनोहर नाना । राजत बाजत बिपुल निसाना ॥
कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं । कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं ॥
गावहिं सुंदरि मंगल गीता । लै लै नामु रामु अरु सीता ॥
बहुत उछाहु भवनु अति थोरा । मानहुँ उमगि चला चहु ओरा ॥
दोहा
सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार ॥२९७॥
चौपाला
भूप भरत पुनि लिए बोलाई । हय गय स्यंदन साजहु जाई ॥
चलहु बेगि रघुबीर बराता । सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता ॥
भरत सकल साहनी बोलाए । आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए ॥
रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे । बरन बरन बर बाजि बिराजे ॥
सुभग सकल सुठि चंचल करनी । अय इव जरत धरत पग धरनी ॥
नाना जाति न जाहिं बखाने । निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने ॥
तिन्ह सब छयल भए असवारा । भरत सरिस बय राजकुमारा ॥
सब सुंदर सब भूषनधारी । कर सर चाप तून कटि भारी ॥
दोहा
छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन ॥२९८॥
चौपाला
बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े । निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े ॥
फेरहिं चतुर तुरग गति नाना । हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना ॥
रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए । ध्वज पताक मनि भूषन लाए ॥
चवँर चारु किंकिन धुनि करही । भानु जान सोभा अपहरहीं ॥
सावँकरन अगनित हय होते । ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते ॥
सुंदर सकल अलंकृत सोहे । जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे ॥
जे जल चलहिं थलहि की नाई । टाप न बूड़ बेग अधिकाई ॥
अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई । रथी सारथिन्ह लिए बोलाई ॥
दोहा
चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात ॥२९९॥
चौपाला
कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं । कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं ॥
चले मत्तगज घंट बिराजी । मनहुँ सुभग सावन घन राजी ॥
बाहन अपर अनेक बिधाना । सिबिका सुभग सुखासन जाना ॥
तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा । जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा ॥
मागध सूत बंदि गुनगायक । चले जान चढ़ि जो जेहि लायक ॥
बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती । चले बस्तु भरि अगनित भाँती ॥
कोटिन्ह काँवरि चले कहारा । बिबिध बस्तु को बरनै पारा ॥
चले सकल सेवक समुदाई । निज निज साजु समाजु बनाई ॥
दोहा
सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर ॥३००॥
चौपाला
निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना । निज पराइ कछु सुनिअ न काना ॥
महा भीर भूपति के द्वारें । रज होइ जाइ पषान पबारें ॥
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं । लिँएँ आरती मंगल थारी ॥
गावहिं गीत मनोहर नाना । अति आनंदु न जाइ बखाना ॥
तब सुमंत्र दुइ स्पंदन साजी । जोते रबि हय निंदक बाजी ॥
दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने । नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने ॥
राज समाजु एक रथ साजा । दूसर तेज पुंज अति भ्राजा ॥