रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


बालकाण्ड दोहा ३११ से ३२०

सोरठा

कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ ॥३११॥
चौपाला

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं । आनँद उमगि उमगि उर भरहीं ॥
जे नृप सीय स्वयंबर आए । देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए ॥
कहत राम जसु बिसद बिसाला । निज निज भवन गए महिपाला ॥
गए बीति कुछ दिन एहि भाँती । प्रमुदित पुरजन सकल बराती ॥
मंगल मूल लगन दिनु आवा । हिम रितु अगहनु मासु सुहावा ॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू । लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू ॥
पठै दीन्हि नारद सन सोई । गनी जनक के गनकन्ह जोई ॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता । कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता ॥

दोहा

धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल ॥३१२॥

चौपाला
उपरोहितहि कहेउ नरनाहा । अब बिलंब कर कारनु काहा ॥
सतानंद तब सचिव बोलाए । मंगल सकल साजि सब ल्याए ॥
संख निसान पनव बहु बाजे । मंगल कलस सगुन सुभ साजे ॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता । करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता ॥
लेन चले सादर एहि भाँती । गए जहाँ जनवास बराती ॥
कोसलपति कर देखि समाजू । अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू ॥
भयउ समउ अब धारिअ पाऊ । यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा । चले संग मुनि साधु समाजा ॥

दोहा

भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि ॥३१३॥

चौपाला
सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना । बरषहिं सुमन बजाइ निसाना ॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा । चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा ॥
प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू । चले बिलोकन राम बिआहू ॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे । निज निज लोक सबहिं लघु लागे ॥
चितवहिं चकित बिचित्र बिताना । रचना सकल अलौकिक नाना ॥
नगर नारि नर रूप निधाना । सुघर सुधरम सुसील सुजाना ॥
तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं । भए नखत जनु बिधु उजिआरीं ॥
बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी । निज करनी कछु कतहुँ न देखी ॥

दोहा

सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु ॥३१४॥

चौपाला
जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं । सकल अमंगल मूल नसाहीं ॥
करतल होहिं पदारथ चारी । तेइ सिय रामु कहेउ कामारी ॥
एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा । पुनि आगें बर बसह चलावा ॥
देवन्ह देखे दसरथु जाता । महामोद मन पुलकित गाता ॥
साधु समाज संग महिदेवा । जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा ॥
सोहत साथ सुभग सुत चारी । जनु अपबरग सकल तनुधारी ॥
मरकत कनक बरन बर जोरी । देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी ॥
पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे । नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे ॥

दोहा

राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि ॥३१५॥

चौपाला
केकि कंठ दुति स्यामल अंगा । तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा ॥
ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए । मंगल सब सब भाँति सुहाए ॥
सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन । नयन नवल राजीव लजावन ॥
सकल अलौकिक सुंदरताई । कहि न जाइ मनहीं मन भाई ॥
बंधु मनोहर सोहहिं संगा । जात नचावत चपल तुरंगा ॥
राजकुअँर बर बाजि देखावहिं । बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं ॥
जेहि तुरंग पर रामु बिराजे । गति बिलोकि खगनायकु लाजे ॥
कहि न जाइ सब भाँति सुहावा । बाजि बेषु जनु काम बनावा ॥

छंद

जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई ॥
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे ॥

दोहा

प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव ॥३१६॥

चौपाला
जेहिं बर बाजि रामु असवारा । तेहि सारदउ न बरनै पारा ॥
संकरु राम रूप अनुरागे । नयन पंचदस अति प्रिय लागे ॥
हरि हित सहित रामु जब जोहे । रमा समेत रमापति मोहे ॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने । आठइ नयन जानि पछिताने ॥
सुर सेनप उर बहुत उछाहू । बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू ॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना । गौतम श्रापु परम हित माना ॥
देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं । आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं ॥
मुदित देवगन रामहि देखी । नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी ॥

छंद

अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी ॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं ॥

दोहा

सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि ॥३१७॥

चौपाला
बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि । सब निज तन छबि रति मदु मोचनि ॥
पहिरें बरन बरन बर चीरा । सकल बिभूषन सजें सरीरा ॥
सकल सुमंगल अंग बनाएँ । करहिं गान कलकंठि लजाएँ ॥
कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं । चालि बिलोकि काम गज लाजहिं ॥
बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा । नभ अरु नगर सुमंगलचारा ॥
सची सारदा रमा भवानी । जे सुरतिय सुचि सहज सयानी ॥
कपट नारि बर बेष बनाई । मिलीं सकल रनिवासहिं जाई ॥
करहिं गान कल मंगल बानीं । हरष बिबस सब काहुँ न जानी ॥

छंद

को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली ॥
आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई ॥
अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई ॥

दोहा

जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु ॥३१८॥

चौपाला
नयन नीरु हटि मंगल जानी । परिछनि करहिं मुदित मन रानी ॥
बेद बिहित अरु कुल आचारू । कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू ॥
पंच सबद धुनि मंगल गाना । पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना ॥
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा । राम गमनु मंडप तब कीन्हा ॥
दसरथु सहित समाज बिराजे । बिभव बिलोकि लोकपति लाजे ॥
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला । सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला ॥
नभ अरु नगर कोलाहल होई । आपनि पर कछु सुनइ न कोई ॥
एहि बिधि रामु मंडपहिं आए । अरघु देइ आसन बैठाए ॥

छंद

बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं ॥
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं ॥
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं ॥

दोहा

नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ ॥३१९॥

चौपाला
मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं । करि बैदिक लौकिक सब रीतीं ॥
मिलत महा दोउ राज बिराजे । उपमा खोजि खोजि कबि लाजे ॥
लही न कतहुँ हारि हियँ मानी । इन्ह सम एइ उपमा उर आनी ॥
सामध देखि देव अनुरागे । सुमन बरषि जसु गावन लागे ॥
जगु बिरंचि उपजावा जब तें । देखे सुने ब्याह बहु तब तें ॥
सकल भाँति सम साजु समाजू । सम समधी देखे हम आजू ॥
देव गिरा सुनि सुंदर साँची । प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची ॥
देत पाँवड़े अरघु सुहाए । सादर जनकु मंडपहिं ल्याए ॥

छंद

मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे ॥
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे ॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही ॥

दोहा

बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस।
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस ॥३२०॥

चौपाला
बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा । जानि ईस सम भाउ न दूजा ॥
कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई । कहि निज भाग्य बिभव बहुताई ॥
पूजे भूपति सकल बराती । समधि सम सादर सब भाँती ॥
आसन उचित दिए सब काहू । कहौं काह मूख एक उछाहू ॥
सकल बरात जनक सनमानी । दान मान बिनती बर बानी ॥
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ । जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ ॥
कपट बिप्र बर बेष बनाएँ । कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ ॥
पूजे जनक देव सम जानें । दिए सुआसन बिनु पहिचानें ॥

छंद

पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई।
आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई ॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए ॥