रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


अयोध्या काण्ड दोहा १ से १०

दोहा

सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु ॥१॥
चौपाला
एक समय सब सहित समाजा । राजसभाँ रघुराजु बिराजा ॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू । राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू ॥
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें । लोकप करहिं प्रीति रुख राखें ॥
तिभुवन तीनि काल जग माहीं । भूरि भाग दसरथ सम नाहीं ॥
मंगलमूल रामु सुत जासू । जो कछु कहिज थोर सबु तासू ॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा । बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा ॥
श्रवन समीप भए सित केसा । मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा ॥
नृप जुबराज राम कहुँ देहू । जीवन जनम लाहु किन लेहू ॥

दोहा

यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ ॥२॥

चौपाला

कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक । भए राम सब बिधि सब लायक ॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी । जे हमारे अरि मित्र उदासी ॥
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही । प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही ॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं । करहिं छोहु सब रौरिहि नाई ॥
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं । ते जनु सकल बिभव बस करहीं ॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें । सबु पायउँ रज पावनि पूजें ॥
अब अभिलाषु एकु मन मोरें । पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें ॥
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू । कहेउ नरेस रजायसु देहू ॥

दोहा

राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार ॥३॥

चौपाला

सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी । बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी ॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू । कहिअ कृपा करि करिअ समाजू ॥
मोहि अछत यहु होइ उछाहू । लहहिं लोग सब लोचन लाहू ॥
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं । यह लालसा एक मन माहीं ॥
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ । जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ ॥
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए । मंगल मोद मूल मन भाए ॥
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं । जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं ॥
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी । रामु पुनीत प्रेम अनुगामी ॥

दोहा

बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु ॥४॥

चौपाला

मुदित महिपति मंदिर आए । सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए ॥
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए । भूप सुमंगल बचन सुनाए ॥
जौं पाँचहि मत लागै नीका । करहु हरषि हियँ रामहि टीका ॥
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी । अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी ॥
बिनती सचिव करहि कर जोरी । जिअहु जगतपति बरिस करोरी ॥
जग मंगल भल काजु बिचारा । बेगिअ नाथ न लाइअ बारा ॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा । बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा ॥

दोहा

कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ ॥५॥

चौपाला

हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी । आनहु सकल सुतीरथ पानी ॥
औषध मूल फूल फल पाना । कहे नाम गनि मंगल नाना ॥
चामर चरम बसन बहु भाँती । रोम पाट पट अगनित जाती ॥
मनिगन मंगल बस्तु अनेका । जो जग जोगु भूप अभिषेका ॥
बेद बिदित कहि सकल बिधाना । कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना ॥
सफल रसाल पूगफल केरा । रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा ॥
रचहु मंजु मनि चौकें चारू । कहहु बनावन बेगि बजारू ॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा । सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा ॥

दोहा

ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग ॥६॥

चौपाला

जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा । सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा ॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा । करत राम हित मंगल काजा ॥
सुनत राम अभिषेक सुहावा । बाज गहागह अवध बधावा ॥
राम सीय तन सगुन जनाए । फरकहिं मंगल अंग सुहाए ॥
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं । भरत आगमनु सूचक अहहीं ॥
भए बहुत दिन अति अवसेरी । सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी ॥
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं । इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं ॥
रामहि बंधु सोच दिन राती । अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती ॥

दोहा

एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु ॥७॥

चौपाला

प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए । भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए ॥
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं । मंगल कलस सजन सब लागीं ॥
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी । मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी ॥
आनँद मगन राम महतारी । दिए दान बहु बिप्र हँकारी ॥
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा । कहेउ बहोरि देन बलिभागा ॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू । देहु दया करि सो बरदानू ॥
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं । बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं ॥

दोहा

राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि ॥८॥

चौपाला

तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए । रामधाम सिख देन पठाए ॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा । द्वार आइ पद नायउ माथा ॥
सादर अरघ देइ घर आने । सोरह भाँति पूजि सनमाने ॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी । बोले रामु कमल कर जोरी ॥
सेवक सदन स्वामि आगमनू । मंगल मूल अमंगल दमनू ॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती । पठइअ काज नाथ असि नीती ॥
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू । भयउ पुनीत आजु यहु गेहू ॥
आयसु होइ सो करौं गोसाई । सेवक लहइ स्वामि सेवकाई ॥

दोहा

सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस ॥९॥

चौपाला

बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ । बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू । चाहत देन तुम्हहि जुबराजू ॥
राम करहु सब संजम आजू । जौं बिधि कुसल निबाहै काजू ॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ । राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ ॥
जनमे एक संग सब भाई । भोजन सयन केलि लरिकाई ॥
करनबेध उपबीत बिआहा । संग संग सब भए उछाहा ॥
बिमल बंस यहु अनुचित एकू । बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू ॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई । हरउ भगत मन कै कुटिलाई ॥

दोहा

तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद ॥१०॥

चौपाला

बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना । पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना ॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं । आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं ॥
हाट बाट घर गलीं अथाई । कहहिं परसपर लोग लोगाई ॥
कालि लगन भलि केतिक बारा । पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा ॥
कनक सिंघासन सीय समेता । बैठहिं रामु होइ चित चेता ॥
सकल कहहिं कब होइहि काली । बिघन मनावहिं देव कुचाली ॥
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा । चोरहि चंदिनि राति न भावा ॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं । बारहिं बार पाय लै परहीं ॥