रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


अयोध्या काण्ड दोहा ११ से २०

दोहा

बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु ॥११॥

चौपाला

सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती । भइउँ सरोज बिपिन हिमराती ॥
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी । मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी ॥
बिसमय हरष रहित रघुराऊ । तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ ॥
जीव करम बस सुख दुख भागी । जाइअ अवध देव हित लागी ॥
बार बार गहि चरन सँकोचौ । चली बिचारि बिबुध मति पोची ॥
ऊँच निवासु नीचि करतूती । देखि न सकहिं पराइ बिभूती ॥
आगिल काजु बिचारि बहोरी । करहहिं चाह कुसल कबि मोरी ॥
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई । जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई ॥

दोहा

नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि ॥१२॥

चौपाला

दीख मंथरा नगरु बनावा । मंजुल मंगल बाज बधावा ॥
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू । राम तिलकु सुनि भा उर दाहू ॥
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती । होइ अकाजु कवनि बिधि राती ॥
देखि लागि मधु कुटिल किराती । जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती ॥
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी । का अनमनि हसि कह हँसि रानी ॥
ऊतरु देइ न लेइ उसासू । नारि चरित करि ढारइ आँसू ॥
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें । दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें ॥
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि । छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि ॥

दोहा

सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु ॥१३॥

चौपाला

कत सिख देइ हमहि कोउ माई । गालु करब केहि कर बलु पाई ॥
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू । जेहि जनेसु देइ जुबराजू ॥
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन । देखत गरब रहत उर नाहिन ॥
देखेहु कस न जाइ सब सोभा । जो अवलोकि मोर मनु छोभा ॥
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें । जानति हहु बस नाहु हमारें ॥
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई । लखहु न भूप कपट चतुराई ॥
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी । झुकी रानि अब रहु अरगानी ॥
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी । तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी ॥

दोहा

काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि ॥१४॥

चौपाला

प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही । सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही ॥
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई । तोर कहा फुर जेहि दिन होई ॥
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई । यह दिनकर कुल रीति सुहाई ॥
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली । देउँ मागु मन भावत आली ॥
कौसल्या सम सब महतारी । रामहि सहज सुभायँ पिआरी ॥
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी । मैं करि प्रीति परीछा देखी ॥
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू । होहुँ राम सिय पूत पुतोहू ॥
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें । तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें ॥

दोहा

भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ ॥१५॥

चौपाला

एकहिं बार आस सब पूजी । अब कछु कहब जीभ करि दूजी ॥
फोरै जोगु कपारु अभागा । भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा ॥
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई । ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई ॥
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती । नाहिं त मौन रहब दिनु राती ॥
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा । बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा ॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी । चेरि छाड़ि अब होब कि रानी ॥
जारै जोगु सुभाउ हमारा । अनभल देखि न जाइ तुम्हारा ॥
तातें कछुक बात अनुसारी । छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी ॥

दोहा

गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि ॥१६॥

चौपाला

सादर पुनि पुनि पूँछति ओही । सबरी गान मृगी जनु मोही ॥
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी । रहसी चेरि घात जनु फाबी ॥
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ । धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ ॥
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली । अवध साढ़साती तब बोली ॥
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी । रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी ॥
रहा प्रथम अब ते दिन बीते । समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते ॥
भानु कमल कुल पोषनिहारा । बिनु जल जारि करइ सोइ छारा ॥
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी । रूँधहु करि उपाउ बर बारी ॥

दोहा

तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ ॥१७॥

चौपाला

चतुर गँभीर राम महतारी । बीचु पाइ निज बात सँवारी ॥
पठए भरतु भूप ननिअउरें । राम मातु मत जानव रउरें ॥
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें । गरबित भरत मातु बल पी कें ॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई । कपट चतुर नहिं होइ जनाई ॥
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी । सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी ॥
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई । राम तिलक हित लगन धराई ॥
यह कुल उचित राम कहुँ टीका । सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका ॥
आगिलि बात समुझि डरु मोही । देउ दैउ फिरि सो फलु ओही ॥

दोहा

रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु ॥
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु ॥१८॥

चौपाला

भावी बस प्रतीति उर आई । पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई ॥
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना । निज हित अनहित पसु पहिचाना ॥
भयउ पाखु दिन सजत समाजू । तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू ॥
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें । सत्य कहें नहिं दोषु हमारें ॥
जौं असत्य कछु कहब बनाई । तौ बिधि देइहि हमहि सजाई ॥
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ। þ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ ॥
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी । भामिनि भइहु दूध कइ माखी ॥
जौं सुत सहित करहु सेवकाई । तौ घर रहहु न आन उपाई ॥

दोहा

कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब ॥१९॥

चौपाला

कैकयसुता सुनत कटु बानी । कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी ॥
तन पसेउ कदली जिमि काँपी । कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी ॥
कहि कहि कोटिक कपट कहानी । धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी ॥
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली । बकिहि सराहइ मानि मराली ॥
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी । दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी ॥
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने । कहउँ न तोहि मोह बस अपने ॥
काह करौ सखि सूध सुभाऊ । दाहिन बाम न जानउँ काऊ ॥

दोहा

अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह ॥२०॥

चौपाला

नैहर जनमु भरब बरु जाइ । जिअत न करबि सवति सेवकाई ॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही । मरनु नीक तेहि जीवन चाही ॥
दीन बचन कह बहुबिधि रानी । सुनि कुबरीं तियमाया ठानी ॥
अस कस कहहु मानि मन ऊना । सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना ॥
जेहिं राउर अति अनभल ताका । सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका ॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि । भूख न बासर नींद न जामिनि ॥
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची । भरत भुआल होहिं यह साँची ॥
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ । है तुम्हरीं सेवा बस राऊ ॥