रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


अयोध्या काण्ड दोहा ९१ से १००

दोहा

कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह।
जेहीं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह ॥९१॥

चौपाला

भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी । कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी ॥
भयउ बिषादु निषादहि भारी । राम सीय महि सयन निहारी ॥
बोले लखन मधुर मृदु बानी । ग्यान बिराग भगति रस सानी ॥
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
जोग बियोग भोग भल मंदा । हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा ॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू । संपती बिपति करमु अरु कालू ॥
धरनि धामु धनु पुर परिवारू । सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू ॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं । मोह मूल परमारथु नाहीं ॥

दोहा

सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ ॥९२॥

चौपाला

अस बिचारि नहिं कीजअ रोसू । काहुहि बादि न देइअ दोसू ॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा ॥
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच बियोगी ॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा । जब जब बिषय बिलास बिरागा ॥
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा । तब रघुनाथ चरन अनुरागा ॥
सखा परम परमारथु एहू । मन क्रम बचन राम पद नेहू ॥
राम ब्रह्म परमारथ रूपा । अबिगत अलख अनादि अनूपा ॥
सकल बिकार रहित गतभेदा । कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।

दोहा

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहि जग जाल ॥९३॥

मासपारायण , पंद्रहवा विश्राम

चौपाला

सखा समुझि अस परिहरि मोहु । सिय रघुबीर चरन रत होहू ॥
कहत राम गुन भा भिनुसारा । जागे जग मंगल सुखदारा ॥
सकल सोच करि राम नहावा । सुचि सुजान बट छीर मगावा ॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए । देखि सुमंत्र नयन जल छाए ॥
हृदयँ दाहु अति बदन मलीना । कह कर जोरि बचन अति दीना ॥
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा । लै रथु जाहु राम कें साथा ॥
बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई । आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई ॥
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी । संसय सकल सँकोच निबेरी ॥

दोहा

नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ करौं बलि सोइ।
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ ॥९४॥

चौपाला

तात कृपा करि कीजिअ सोई । जातें अवध अनाथ न होई ॥
मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा । तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा ॥
सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा । सहे धरम हित कोटि कलेसा ॥
रंतिदेव बलि भूप सुजाना । धरमु धरेउ सहि संकट नाना ॥
धरमु न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुरान बखाना ॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा । तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा ॥
संभावित कहुँ अपजस लाहू । मरन कोटि सम दारुन दाहू ॥
तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ । दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ ॥

दोहा

पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि ॥९५॥

चौपाला

तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें । बिनती करउँ तात कर जोरें ॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें । दुख न पाव पितु सोच हमारें ॥
सुनि रघुनाथ सचिव संबादू । भयउ सपरिजन बिकल निषादू ॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी । प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी ॥
सकुचि राम निज सपथ देवाई । लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई ॥
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू । सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू ॥
जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया । सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया ॥
नतरु निपट अवलंब बिहीना । मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना ॥

दोहा

मइकें ससरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान ॥
तँह तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान ॥९६॥

चौपाला

बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती । आरति प्रीति न सो कहि जाती ॥
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना । सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना ॥
सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू । फिरतु त सब कर मिटै खभारू ॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही । सुनहु प्रानपति परम सनेही ॥
प्रभु करुनामय परम बिबेकी । तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी ॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई । कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई ॥
पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई । कहति सचिव सन गिरा सुहाई ॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी । उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी ॥

दोहा

आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात।
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात ॥९७॥

चौपाला

पितु बैभव बिलास मैं डीठा । नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा ॥
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें । पिय बिहीन मन भाव न भोरें ॥
ससुर चक्कवइ कोसलराऊ । भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ ॥
आगें होइ जेहि सुरपति लेई । अरध सिंघासन आसनु देई ॥
ससुरु एतादृस अवध निवासू । प्रिय परिवारु मातु सम सासू ॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा । मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा ॥
अगम पंथ बनभूमि पहारा । करि केहरि सर सरित अपारा ॥
कोल किरात कुरंग बिहंगा । मोहि सब सुखद प्रानपति संगा ॥

दोहा

सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ ॥
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ ॥९८॥

चौपाला

प्राननाथ प्रिय देवर साथा । बीर धुरीन धरें धनु भाथा ॥
नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें । मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें ॥
सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी । भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी ॥
नयन सूझ नहिं सुनइ न काना । कहि न सकइ कछु अति अकुलाना ॥
राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँति । तदपि होति नहिं सीतलि छाती ॥
जतन अनेक साथ हित कीन्हे । उचित उतर रघुनंदन दीन्हे ॥
मेटि जाइ नहिं राम रजाई । कठिन करम गति कछु न बसाई ॥
राम लखन सिय पद सिरु नाई । फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई ॥

दोहा

रथ हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं।
देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं ॥९९॥

चौपाला

जासु बियोग बिकल पसु ऐसे । प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें ॥
बरबस राम सुमंत्रु पठाए । सुरसरि तीर आपु तब आए ॥
मागी नाव न केवटु आना । कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना ॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई । मानुष करनि मूरि कछु अहई ॥
छुअत सिला भइ नारि सुहाई । पाहन तें न काठ कठिनाई ॥
तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई । बाट परइ मोरि नाव उड़ाई ॥
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू । नहिं जानउँ कछु अउर कबारू ॥
जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू । मोहि पद पदुम पखारन कहहू ॥

छंद

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं ॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं ॥

सोरठा

सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन ॥१००॥

चौपाला

कृपासिंधु बोले मुसुकाई । सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई ॥
वेगि आनु जल पाय पखारू । होत बिलंबु उतारहि पारू ॥
जासु नाम सुमरत एक बारा । उतरहिं नर भवसिंधु अपारा ॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा । जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा ॥
पद नख निरखि देवसरि हरषी । सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी ॥
केवट राम रजायसु पावा । पानि कठवता भरि लेइ आवा ॥
अति आनंद उमगि अनुरागा । चरन सरोज पखारन लागा ॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं । एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं ॥