रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


अयोध्या काण्ड दोहा १२१ से १३०

दोहा

अबला बालक बृद्ध जन कर मीजहिं पछिताहिं ॥
होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिं ॥१२१॥

चौपाला

गाँव गाँव अस होइ अनंदू । देखि भानुकुल कैरव चंदू ॥
जे कछु समाचार सुनि पावहिं । ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं ॥
कहहिं एक अति भल नरनाहू । दीन्ह हमहि जोइ लोचन लाहू ॥
कहहिं परस्पर लोग लोगाईं । बातें सरल सनेह सुहाईं ॥
ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए । धन्य सो नगरु जहाँ तें आए ॥
धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ । जहँ जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ ॥
सुख पायउ बिरंचि रचि तेही । ए जेहि के सब भाँति सनेही ॥
राम लखन पथि कथा सुहाई । रही सकल मग कानन छाई ॥

दोहा

एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत।
जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत ॥१२२॥

चौपाला

आगे रामु लखनु बने पाछें । तापस बेष बिराजत काछें ॥
उभय बीच सिय सोहति कैसे । ब्रह्म जीव बिच माया जैसे ॥
बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई । जनु मधु मदन मध्य रति लसई ॥
उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही । जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही ॥
प्रभु पद रेख बीच बिच सीता । धरति चरन मग चलति सभीता ॥
सीय राम पद अंक बराएँ । लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ ॥
राम लखन सिय प्रीति सुहाई । बचन अगोचर किमि कहि जाई ॥
खग मृग मगन देखि छबि होहीं । लिए चोरि चित राम बटोहीं ॥

दोहा

जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ।
भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ ॥१२३॥

चौपाला

अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ । बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ ॥
राम धाम पथ पाइहि सोई । जो पथ पाव कबहुँ मुनि कोई ॥
तब रघुबीर श्रमित सिय जानी । देखि निकट बटु सीतल पानी ॥
तहँ बसि कंद मूल फल खाई । प्रात नहाइ चले रघुराई ॥
देखत बन सर सैल सुहाए । बालमीकि आश्रम प्रभु आए ॥
राम दीख मुनि बासु सुहावन । सुंदर गिरि काननु जलु पावन ॥
सरनि सरोज बिटप बन फूले । गुंजत मंजु मधुप रस भूले ॥
खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं । बिरहित बैर मुदित मन चरहीं ॥

दोहा

सुचि सुंदर आश्रमु निरखि हरषे राजिवनेन।
सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन ॥१२४॥

चौपाला

मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा । आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा ॥
देखि राम छबि नयन जुड़ाने । करि सनमानु आश्रमहिं आने ॥
मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए । कंद मूल फल मधुर मगाए ॥
सिय सौमित्रि राम फल खाए । तब मुनि आश्रम दिए सुहाए ॥
बालमीकि मन आनँदु भारी । मंगल मूरति नयन निहारी ॥
तब कर कमल जोरि रघुराई । बोले बचन श्रवन सुखदाई ॥
तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा । बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥
अस कहि प्रभु सब कथा बखानी । जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी ॥

दोहा

तात बचन पुनि मातु हित भाइ भरत अस राउ।
मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ ॥१२५॥

चौपाला

देखि पाय मुनिराय तुम्हारे । भए सुकृत सब सुफल हमारे ॥
अब जहँ राउर आयसु होई । मुनि उदबेगु न पावै कोई ॥
मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं । ते नरेस बिनु पावक दहहीं ॥
मंगल मूल बिप्र परितोषू । दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू ॥
अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ । सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ ॥
तहँ रचि रुचिर परन तृन साला । बासु करौ कछु काल कृपाला ॥
सहज सरल सुनि रघुबर बानी । साधु साधु बोले मुनि ग्यानी ॥
कस न कहहु अस रघुकुलकेतू । तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू ॥

छंद

श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रूख पाइ कृपानिधान की ॥
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी ॥

सोरठा

राम सरुप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नित निगम कह ॥१२६॥
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे । बिधि हरि संभु नचावनिहारे ॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा । औरु तुम्हहि को जाननिहारा ॥
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई । जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन । जानहिं भगत भगत उर चंदन ॥
चिदानंदमय देह तुम्हारी । बिगत बिकार जान अधिकारी ॥
नर तनु धरेहु संत सुर काजा । कहहु करहु जस प्राकृत राजा ॥
राम देखि सुनि चरित तुम्हारे । जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे ॥
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा । जस काछिअ तस चाहिअ नाचा ॥

दोहा

पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ ॥१२७॥

चौपाला

सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने । सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने ॥
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी । बानी मधुर अमिअ रस बोरी ॥
सुनहु राम अब कहउँ निकेता । जहाँ बसहु सिय लखन समेता ॥
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना । कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ॥
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे । तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ॥
लोचन चातक जिन्ह करि राखे । रहहिं दरस जलधर अभिलाषे ॥
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी । रूप बिंदु जल होहिं सुखारी ॥
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक । बसहु बंधु सिय सह रघुनायक ॥

दोहा

जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु ॥१२८॥

चौपाला

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा । सादर जासु लहइ नित नासा ॥
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं । प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं ॥
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी । प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी ॥
कर नित करहिं राम पद पूजा । राम भरोस हृदयँ नहि दूजा ॥
चरन राम तीरथ चलि जाहीं । राम बसहु तिन्ह के मन माहीं ॥
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा । पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा ॥
तरपन होम करहिं बिधि नाना । बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना ॥
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी । सकल भायँ सेवहिं सनमानी ॥

दोहा

सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ ॥१२९॥

चौपाला

काम कोह मद मान न मोहा । लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया । तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया ॥
सब के प्रिय सब के हितकारी । दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी ॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी । जागत सोवत सरन तुम्हारी ॥
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं । राम बसहु तिन्ह के मन माहीं ॥
जननी सम जानहिं परनारी । धनु पराव बिष तें बिष भारी ॥
जे हरषहिं पर संपति देखी । दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी ॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे । तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ॥

दोहा

स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात ॥१३०॥

चौपाला

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं । बिप्र धेनु हित संकट सहहीं ॥
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका । घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका ॥
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा । जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा ॥
राम भगत प्रिय लागहिं जेही । तेहि उर बसहु सहित बैदेही ॥
जाति पाँति धनु धरम बड़ाई । प्रिय परिवार सदन सुखदाई ॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई । तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई ॥
सरगु नरकु अपबरगु समाना । जहँ तहँ देख धरें धनु बाना ॥
करम बचन मन राउर चेरा । राम करहु तेहि कें उर डेरा ॥