रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


अयोध्या काण्ड दोहा १८१ से १९०

दोहा

राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि ॥१८१ ॥

चौपाला

गुर बिबेक सागर जगु जाना । जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना ॥
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ । भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ ॥
परिहरि रामु सीय जग माहीं । कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं ॥
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी । अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी ॥
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू । परलोकहु कर नाहिन सोचू ॥
एकइ उर बस दुसह दवारी । मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी ॥
जीवन लाहु लखन भल पावा । सबु तजि राम चरन मनु लावा ॥
मोर जनम रघुबर बन लागी । झूठ काह पछिताउँ अभागी ॥

दोहा

आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ ॥१८२॥

चौपाला

आन उपाउ मोहि नहि सूझा । को जिय कै रघुबर बिनु बूझा ॥
एकहिं आँक इहइ मन माहीं । प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं ॥
जद्यपि मैं अनभल अपराधी । भै मोहि कारन सकल उपाधी ॥
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी । छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी ॥
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ । कृपा सनेह सदन रघुराऊ ॥
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा । मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा ॥
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी । आयसु आसिष देहु सुबानी ॥
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी । आवहिं बहुरि रामु रजधानी ॥

दोहा

जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस ॥१८३॥

चौपाला

भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे । राम सनेह सुधाँ जनु पागे ॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे । मंत्र सबीज सुनत जनु जागे ॥
मातु सचिव गुर पुर नर नारी । सकल सनेहँ बिकल भए भारी ॥
भरतहि कहहि सराहि सराही । राम प्रेम मूरति तनु आही ॥
तात भरत अस काहे न कहहू । प्रान समान राम प्रिय अहहू ॥
जो पावँरु अपनी जड़ताई । तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई ॥
सो सठु कोटिक पुरुष समेता । बसिहि कलप सत नरक निकेता ॥
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई । हरइ गरल दुख दारिद दहई ॥

दोहा

अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह ॥१८४॥

चौपाला

भा सब कें मन मोदु न थोरा । जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा ॥
चलत प्रात लखि निरनउ नीके । भरतु प्रानप्रिय भे सबही के ॥
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई । चले सकल घर बिदा कराई ॥
धन्य भरत जीवनु जग माहीं । सीलु सनेहु सराहत जाहीं ॥
कहहि परसपर भा बड़ काजू । सकल चलै कर साजहिं साजू ॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी । सो जानइ जनु गरदनि मारी ॥
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू । को न चहइ जग जीवन लाहू ॥

दोहा

जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ ॥१८५॥

चौपाला

घर घर साजहिं बाहन नाना । हरषु हृदयँ परभात पयाना ॥
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू । नगरु बाजि गज भवन भँडारू ॥
संपति सब रघुपति कै आही । जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही ॥
तौ परिनाम न मोरि भलाई । पाप सिरोमनि साइँ दोहाई ॥
करइ स्वामि हित सेवकु सोई । दूषन कोटि देइ किन कोई ॥
अस बिचारि सुचि सेवक बोले । जे सपनेहुँ निज धरम न डोले ॥
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा । जो जेहि लायक सो तेहिं राखा ॥
करि सबु जतनु राखि रखवारे । राम मातु पहिं भरतु सिधारे ॥

दोहा

आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान ॥१८६॥

चौपाला

चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी । चहत प्रात उर आरत भारी ॥
जागत सब निसि भयउ बिहाना । भरत बोलाए सचिव सुजाना ॥
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू । बनहिं देब मुनि रामहिं राजू ॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे । तुरत तुरग रथ नाग सँवारे ॥
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ । रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ ॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना । चले सकल तप तेज निधाना ॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना । चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना ॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी । चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी ॥

दोहा

सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ ॥१८७॥

चौपाला

राम दरस बस सब नर नारी । जनु करि करिनि चले तकि बारी ॥
बन सिय रामु समुझि मन माहीं । सानुज भरत पयादेहिं जाहीं ॥
देखि सनेहु लोग अनुरागे । उतरि चले हय गय रथ त्यागे ॥
जाइ समीप राखि निज डोली । राम मातु मृदु बानी बोली ॥
तात चढ़हु रथ बलि महतारी । होइहि प्रिय परिवारु दुखारी ॥
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू । सकल सोक कृस नहिं मग जोगू ॥
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई । रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई ॥
तमसा प्रथम दिवस करि बासू । दूसर गोमति तीर निवासू ॥

दोहा

पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग ॥१८८॥

चौपाला

सई तीर बसि चले बिहाने । सृंगबेरपुर सब निअराने ॥
समाचार सब सुने निषादा । हृदयँ बिचार करइ सबिषादा ॥
कारन कवन भरतु बन जाहीं । है कछु कपट भाउ मन माहीं ॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई । तौ कत लीन्ह संग कटकाई ॥
जानहिं सानुज रामहि मारी । करउँ अकंटक राजु सुखारी ॥
भरत न राजनीति उर आनी । तब कलंकु अब जीवन हानी ॥
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा । रामहि समर न जीतनिहारा ॥
का आचरजु भरतु अस करहीं । नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं ॥

दोहा

अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु ॥१८९॥

चौपाला

होहु सँजोइल रोकहु घाटा । ठाटहु सकल मरै के ठाटा ॥
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ । जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ ॥
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा । राम काजु छनभंगु सरीरा ॥
भरत भाइ नृपु मै जन नीचू । बड़ें भाग असि पाइअ मीचू ॥
स्वामि काज करिहउँ रन रारी । जस धवलिहउँ भुवन दस चारी ॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें । दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें ॥
साधु समाज न जाकर लेखा । राम भगत महुँ जासु न रेखा ॥
जायँ जिअत जग सो महि भारू । जननी जौबन बिटप कुठारू ॥

दोहा

बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु ॥१९०॥

चौपाला

बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ । सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ ॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा । एकहिं एक बढ़ावइ करषा ॥
चले निषाद जोहारि जोहारी । सूर सकल रन रूचइ रारी ॥
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं । भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं ॥
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं । फरसा बाँस सेल सम करहीं ॥
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े । कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े ॥
निज निज साजु समाजु बनाई । गुह राउतहि जोहारे जाई ॥
देखि सुभट सब लायक जाने । लै लै नाम सकल सनमाने ॥