सोरठा
अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन ॥२०१॥
चौपाला
सखा बचन सुनि उर धरि धीरा । बास चले सुमिरत रघुबीरा ॥
यह सुधि पाइ नगर नर नारी । चले बिलोकन आरत भारी ॥
परदखिना करि करहिं प्रनामा । देहिं कैकइहि खोरि निकामा ॥
भरी भरि बारि बिलोचन लेंहीं । बाम बिधाताहि दूषन देहीं ॥
एक सराहहिं भरत सनेहू । कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू ॥
निंदहिं आपु सराहि निषादहि । को कहि सकइ बिमोह बिषादहि ॥
एहि बिधि राति लोगु सबु जागा । भा भिनुसार गुदारा लागा ॥
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं । नईं नाव सब मातु चढ़ाईं ॥
दंड चारि महँ भा सबु पारा । उतरि भरत तब सबहि सँभारा ॥
दोहा
प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ ॥२०२॥
चौपाला
कियउ निषादनाथु अगुआईं । मातु पालकीं सकल चलाईं ॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा । बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा ॥
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू । सुमिरे लखन सहित सिय रामू ॥
गवने भरत पयोदेहिं पाए । कोतल संग जाहिं डोरिआए ॥
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा । होइअ नाथ अस्व असवारा ॥
रामु पयोदेहि पायँ सिधाए । हम कहँ रथ गज बाजि बनाए ॥
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा । सब तें सेवक धरमु कठोरा ॥
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी । सब सेवक गन गरहिं गलानी ॥
दोहा
भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग ॥२०३॥
चौपाला
झलका झलकत पायन्ह कैंसें । पंकज कोस ओस कन जैसें ॥
भरत पयादेहिं आए आजू । भयउ दुखित सुनि सकल समाजू ॥
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए । कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए ॥
सबिधि सितासित नीर नहाने । दिए दान महिसुर सनमाने ॥
देखत स्यामल धवल हलोरे । पुलकि सरीर भरत कर जोरे ॥
सकल काम प्रद तीरथराऊ । बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ ॥
मागउँ भीख त्यागि निज धरमू । आरत काह न करइ कुकरमू ॥
अस जियँ जानि सुजान सुदानी । सफल करहिं जग जाचक बानी ॥
दोहा
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन ॥२०४॥
चौपाला
जानहुँ रामु कुटिल करि मोही । लोग कहउ गुर साहिब द्रोही ॥
सीता राम चरन रति मोरें । अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें ॥
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ । जाचत जलु पबि पाहन डारउ ॥
चातकु रटनि घटें घटि जाई । बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई ॥
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें । तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें ॥
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी । भइ मृदु बानि सुमंगल देनी ॥
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू । राम चरन अनुराग अगाधू ॥
बाद गलानि करहु मन माहीं । तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं ॥
दोहा
तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल ॥२०५॥
चौपाला
प्रमुदित तीरथराज निवासी । बैखानस बटु गृही उदासी ॥
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा । भरत सनेह सीलु सुचि साँचा ॥
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए । भरद्वाज मुनिबर पहिं आए ॥
दंड प्रनामु करत मुनि देखे । मूरतिमंत भाग्य निज लेखे ॥
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे । दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे ॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे । चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे ॥
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू । बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू ॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई । बिधि करतब पर किछु न बसाई ॥
दोहा
तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति ॥२०६॥
चौपाला
यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ । लोकु बेद बुध संमत दोऊ ॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई । पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई ॥
लोक बेद संमत सबु कहई । जेहि पितु देइ राजु सो लहई ॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई । देत राजु सुखु धरमु बड़ाई ॥
राम गवनु बन अनरथ मूला । जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला ॥
सो भावी बस रानि अयानी । करि कुचालि अंतहुँ पछितानी ॥
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू । कहै सो अधम अयान असाधू ॥
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू । रामहि होत सुनत संतोषू ॥
दोहा
अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु ॥२०७॥
चौपाला
सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना । भूरिभाग को तुम्हहि समाना ॥
यह तम्हार आचरजु न ताता । दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता ॥
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं । पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं ॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती । निसि सब तुम्हहि सराहत बीती ॥
जाना मरमु नहात प्रयागा । मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा ॥
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें । सुख जीवन जग जस जड़ नर कें ॥
यह न अधिक रघुबीर बड़ाई । प्रनत कुटुंब पाल रघुराई ॥
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू । धरें देह जनु राम सनेहू ॥
दोहा
तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु ॥२०८॥
चौपाला
नव बिधु बिमल तात जसु तोरा । रघुबर किंकर कुमुद चकोरा ॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना । घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना ॥
कोक तिलोक प्रीति अति करिही । प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही ॥
निसि दिन सुखद सदा सब काहू । ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू ॥
पूरन राम सुपेम पियूषा । गुर अवमान दोष नहिं दूषा ॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ । कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ ॥
भूप भगीरथ सुरसरि आनी । सुमिरत सकल सुंमगल खानी ॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं । अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं ॥
दोहा
जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ ॥
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ ॥२०९॥
चौपाला
कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा । जहँ बस राम पेम मृगरूपा ॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ । डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ ॥ ॥
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं । उदासीन तापस बन रहहीं ॥
सब साधन कर सुफल सुहावा । लखन राम सिय दरसनु पावा ॥
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा । सहित पयाग सुभाग हमारा ॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ । कहि अस पेम मगन पुनि भयऊ ॥
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे । साधु सराहि सुमन सुर बरषे ॥
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा । सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा ॥
दोहा
पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन ॥२१०॥
चौपाला
मुनि समाजु अरु तीरथराजू । साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू ॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई । एहि सम अधिक न अघ अधमाई ॥
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ । उर अंतरजामी रघुराऊ ॥
मोहि न मातु करतब कर सोचू । नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू ॥
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू । पितहु मरन कर मोहि न सोकू ॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए । लछिमन राम सरिस सुत पाए ॥
राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू । भूप सोच कर कवन प्रसंगू ॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं । करि मुनि बेष फिरहिं बन बनही ॥