रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


अरण्यकाण्ड दोहा ४१ से ४६

दोहा

नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि ।

नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि ॥४१॥

चौपाला

सुनहु उदार सहज रघुनायक । सुंदर अगम सुगम बर दायक ॥

देहु एक बर मागउँ स्वामी । जद्यपि जानत अंतरजामी ॥

जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ । जन सन कबहुँ कि करउँ दुराऊ ॥

कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी । जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मागी ॥

जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें । अस बिस्वास तजहु जनि भोरें ॥

तब नारद बोले हरषाई । अस बर मागउँ करउँ ढिठाई ॥

जद्यपि प्रभु के नाम अनेका । श्रुति कह अधिक एक तें एका ॥

राम सकल नामन्ह ते अधिका । होउ नाथ अघ खग गन बधिका ॥

दोहा

राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम ।

अपर नाम उडगन बिमल बसुहुँ भगत उर ब्योम ॥४२ -क ॥

एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ ।

तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ ॥४२ -ख ॥

चौपाला

अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी । पुनि नारद बोले मृदु बानी ॥

राम जबहिं प्रेरेउ निज माया । मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ॥

तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा । प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा ॥

सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा । भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी । जिमि बालक राखइ महतारी ॥

गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई । तहँ राखइ जननी अरगाई ॥

प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता । प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता ॥

मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी । बालक सुत सम दास अमानी ॥

जनहि मोर बल निज बल ताही । दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही ॥

यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं । पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं ॥

दोहा

काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि ।

तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि ॥४३॥

चौपाला

सुनि मुनि कह पुरान श्रुति संता । मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता ॥

जप तप नेम जलाश्रय झारी । होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी ॥

काम क्रोध मद मत्सर भेका । इन्हहि हरषप्रद बरषा एका ॥

दुर्बासना कुमुद समुदाई । तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ॥

धर्म सकल सरसीरुह बृंदा । होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा ॥

पुनि ममता जवास बहुताई । पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई ॥

पाप उलूक निकर सुखकारी । नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी ॥

बुधि बल सील सत्य सब मीना । बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना ॥

दोहा

अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि ।

ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥४४॥

चौपाला

सुनि रघुपति के बचन सुहाए । मुनि तन पुलक नयन भरि आए ॥

कहहु कवन प्रभु कै असि रीती । सेवक पर ममता अरु प्रीती ॥

जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी । ग्यान रंक नर मंद अभागी ॥

पुनि सादर बोले मुनि नारद । सुनहु राम बिग्यान बिसारद ॥

संतन्ह के लच्छन रघुबीरा । कहहु नाथ भव भंजन भीरा ॥

सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ । जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ ॥

षट बिकार जित अनघ अकामा । अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ॥

अमितबोध अनीह मितभोगी । सत्यसार कबि कोबिद जोगी ॥

सावधान मानद मदहीना । धीर धर्म गति परम प्रबीना ॥

दोहा

गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह ॥

तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥४५॥

चौपाला

निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं । पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ॥

सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती । सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ॥

जप तप ब्रत दम संजम नेमा । गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ॥

श्रद्धा छमा मयत्री दाया । मुदिता मम पद प्रीति अमाया ॥

बिरति बिबेक बिनय बिग्याना । बोध जथारथ बेद पुराना ॥

दंभ मान मद करहिं न काऊ । भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥

गावहिं सुनहिं सदा मम लीला । हेतु रहित परहित रत सीला ॥

मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते । कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥

छंद

कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे ।

अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे ॥

सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए ॥

ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए ॥

दोहा

रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग ।

राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग ॥४६ -क ॥

दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग ।

भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥४६ -ख ॥

मासपारायण , बाईसवाँ विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने

तृतीयः सोपानः समाप्तः ।

- अरण्यकाण्ड समाप्त