रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


सुन्दरकाण्ड दोहा ३१ से ४०

दोहा

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति ।

बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥३१॥

चौपाला

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आए जल राजिव नयना ॥

बचन काँय मन मम गति जाही । सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ॥

केतिक बात प्रभु जातुधान की । रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥

सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥

प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥

सुनु सुत उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥

पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥

दोहा

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।

चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥३२॥

चौपाला

बार बार प्रभु चहइ उठावा । प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा । सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥

सावधान मन करि पुनि संकर । लागे कहन कथा अति सुंदर ॥

कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा । कर गहि परम निकट बैठावा ॥

कहु कपि रावन पालित लंका । केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥

प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत अभिमाना ॥

साखामृग के बड़ि मनुसाई । साखा तें साखा पर जाई ॥

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा ।

सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥

दोहा

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल ।

तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल ॥३३॥

चौपाला

नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥

सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी । एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥

यह संवाद जासु उर आवा । रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥

सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा । जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥

तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा । कहा चलैं कर करहु बनावा ॥

अब बिलंबु केहि कारन कीजे । तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ॥

कौतुक देखि सुमन बहु बरषी । नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥

दोहा

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ ।

नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥३४॥

चौपाला

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा । गरजहिं भालु महाबल कीसा ॥

देखी राम सकल कपि सेना । चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥

राम कृपा बल पाइ कपिंदा । भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥

हरषि राम तब कीन्ह पयाना । सगुन भए सुंदर सुभ नाना ॥

जासु सकल मंगलमय कीती । तासु पयान सगुन यह नीती ॥

प्रभु पयान जाना बैदेहीं । फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई । असगुन भयउ रावनहि सोई ॥

चला कटकु को बरनैं पारा । गर्जहि बानर भालु अपारा ॥

नख आयुध गिरि पादपधारी । चले गगन महि इच्छाचारी ॥

केहरिनाद भालु कपि करहीं । डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥

छंद

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे ।

मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे ॥

कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ।

जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥१ ॥

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई ।

गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ॥

रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी ।

जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥२ ॥

दोहा

एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर ।

जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥३५॥

चौपाला

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब ते जारि गयउ कपि लंका ॥

निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ॥

जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥

दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी । मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥

रहसि जोरि कर पति पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ॥

कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहु ॥

समुझत जासु दूत कइ करनी । स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी ॥

तासु नारि निज सचिव बोलाई । पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥

तब कुल कमल बिपिन दुखदाई । सीता सीत निसा सम आई ॥

सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें । हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥

दोहा –

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक ।

जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥३६॥

चौपाला

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी । बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥

सभय सुभाउ नारि कर साचा । मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥

जौं आवइ मर्कट कटकाई । जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥

कंपहिं लोकप जाकी त्रासा । तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥

अस कहि बिहसि ताहि उर लाई । चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥

मंदोदरी हृदयँ कर चिंता । भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ॥

बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई । सिंधु पार सेना सब आई ॥

बूझेसि सचिव उचित मत कहहू । ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ॥

जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं । नर बानर केहि लेखे माही ॥

दोहा

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।

राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥३७॥

चौपाला

सोइ रावन कहुँ बनि सहाई । अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥

अवसर जानि बिभीषनु आवा । भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥

पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन । बोला बचन पाइ अनुसासन ॥

जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता । मति अनुरुप कहउँ हित ताता ॥

जो आपन चाहै कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥

सो परनारि लिलार गोसाईं । तजउ चउथि के चंद कि नाई ॥

चौदह भुवन एक पति होई । भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥

गुन सागर नागर नर जोऊ । अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥

दोहा

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।

सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥३८॥

चौपाला

तात राम नहिं नर भूपाला । भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥

ब्रह्म अनामय अज भगवंता । ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥

गो द्विज धेनु देव हितकारी । कृपासिंधु मानुष तनुधारी ॥

जन रंजन भंजन खल ब्राता । बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा । प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥

देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही । भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा । बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥

जासु नाम त्रय ताप नसावन । सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥

दोहा

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस ।

परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥३९ -क॥

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात ।

तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥३९ -ख॥

चौपाला

माल्यवंत अति सचिव सयाना । तासु बचन सुनि अति सुख माना ॥

तात अनुज तव नीति बिभूषन । सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ॥

रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ । दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥

माल्यवंत गृह गयउ बहोरी । कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥

तव उर कुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥

कालराति निसिचर कुल केरी । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥

दोहा

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार ।

सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥४०॥

चौपाला

बुध पुरान श्रुति संमत बानी । कही बिभीषन नीति बखानी ॥

सुनत दसानन उठा रिसाई । खल तोहि निकट मुत्यु अब आई ॥

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा । रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ॥

कहसि न खल अस को जग माहीं । भुज बल जाहि जिता मैं नाही ॥

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥

अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहिं बारा ॥

उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥

तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा । रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥

सचिव संग लै नभ पथ गयऊ । सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥