रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


सुन्दरकाण्ड दोहा ५१ से ६०

दोहा

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह ।

प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥५१॥

चौपाला

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ । अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥

रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने । सकल बाँधि कपीस पहिं आने ॥

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर । अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥

सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए । बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥

बहु प्रकार मारन कपि लागे । दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥

जो हमार हर नासा काना । तेहि कोसलाधीस कै आना ॥

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए । दया लागि हँसि तुरत छोडाए ॥

रावन कर दीजहु यह पाती । लछिमन बचन बाचु कुलघाती ॥

दोहा

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार ।

सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार ॥५२॥

चौपाला

तुरत नाइ लछिमन पद माथा । चले दूत बरनत गुन गाथा ॥

कहत राम जसु लंकाँ आए । रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥

बिहसि दसानन पूँछी बाता । कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥

पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी । जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥

करत राज लंका सठ त्यागी । होइहि जब कर कीट अभागी ॥

पुनि कहु भालु कीस कटकाई । कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥

जिन्ह के जीवन कर रखवारा । भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ॥

कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी । जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥

दोहा

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर ।

कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥५३॥

चौपाला

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें । मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥

मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा । जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥

रावन दूत हमहि सुनि काना । कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ॥

श्रवन नासिका काटै लागे । राम सपथ दीन्हे हम त्यागे ॥

पूँछिहु नाथ राम कटकाई । बदन कोटि सत बरनि न जाई ॥

नाना बरन भालु कपि धारी । बिकटानन बिसाल भयकारी ॥

जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा । सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ॥

अमित नाम भट कठिन कराला । अमित नाग बल बिपुल बिसाला ॥

दोहा

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि ।

दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥५४॥

चौपाला

ए कपि सब सुग्रीव समाना । इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥

राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं । तृन समान त्रेलोकहि गनहीं ॥

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर । पदुम अठारह जूथप बंदर ॥

नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं । जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा । आयसु पै न देहिं रघुनाथा ॥

सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला । पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला ॥

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा । ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ॥

गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका । मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका ॥

दोहा

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम ।

रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम ॥५५॥

चौपाला

राम तेज बल बुधि बिपुलाई । तब भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ॥

तासु बचन सुनि सागर पाहीं । मागत पंथ कृपा मन माहीं ॥

सुनत बचन बिहसा दससीसा । जौं असि मति सहाय कृत कीसा ॥

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई । सागर सन ठानी मचलाई ॥

मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई । रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ॥

सचिव सभीत बिभीषन जाकें । बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥

सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी । समय बिचारि पत्रिका काढ़ी ॥

रामानुज दीन्ही यह पाती । नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ॥

बिहसि बाम कर लीन्ही रावन । सचिव बोलि सठ लाग बचावन ॥

दोहा

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस ।

राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥५६ -क॥

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग ।

होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥५६ -ख॥

चौपाला

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई । कहत दसानन सबहि सुनाई ॥

भूमि परा कर गहत अकासा । लघु तापस कर बाग बिलासा ॥

कह सुक नाथ सत्य सब बानी । समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥

सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा । नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ । जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥

मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही । उर अपराध न एकउ धरिही ॥

जनकसुता रघुनाथहि दीजे । एतना कहा मोर प्रभु कीजे ।

जब तेहिं कहा देन बैदेही । चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ । कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥

करि प्रनामु निज कथा सुनाई । राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी । राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ॥

बंदि राम पद बारहिं बारा । मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ॥

दोहा

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति ।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥५७॥

चौपाला

लछिमन बान सरासन आनू । सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती । सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥

ममता रत सन ग्यान कहानी । अति लोभी सन बिरति बखानी ॥

क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा । ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा । यह मत लछिमन के मन भावा ॥

संघानेउ प्रभु बिसिख कराला । उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥

मकर उरग झष गन अकुलाने । जरत जंतु जलनिधि जब जाने ॥

कनक थार भरि मनि गन नाना । बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥

दोहा

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच ।

बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥५८॥

चौपाला

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे । छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥

गगन समीर अनल जल धरनी । इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ॥

तव प्रेरित मायाँ उपजाए । सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ॥

प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई । सो तेहि भाँति रहे सुख लहई ॥

प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही । मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ॥

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ॥

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई । उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ॥

प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई । करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई ॥

दोहा

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ ।

जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥५९॥

चौपाला

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई । लरिकाई रिषि आसिष पाई ॥

तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे । तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥

मैं पुनि उर धरि प्रभुताई । करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥

एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ । जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ॥

एहि सर मम उत्तर तट बासी । हतहु नाथ खल नर अघ रासी ॥

सुनि कृपाल सागर मन पीरा । तुरतहिं हरी राम रनधीरा ॥

देखि राम बल पौरुष भारी । हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥

सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा । चरन बंदि पाथोधि सिधावा ॥

छंद

निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ ।

यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ ॥

सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना ॥

तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥

दोहा

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान ।

सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥६०॥

मासपारायण , चौबीसवाँ विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने

पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।

- सुन्दरकाण्ड समाप्त