रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


लंकाकाण्ड दोहा ४१ से ५०

दोहा

एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ ।

ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ ॥४१॥

चौपाला

राम प्रताप प्रबल कपिजूथा । मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा ॥

चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर । जय रघुबीर प्रताप दिवाकर ॥

चले निसाचर निकर पराई । प्रबल पवन जिमि घन समुदाई ॥

हाहाकार भयउ पुर भारी । रोवहिं बालक आतुर नारी ॥

सब मिलि देहिं रावनहि गारी । राज करत एहिं मृत्यु हँकारी ॥

निज दल बिचल सुनी तेहिं काना । फेरि सुभट लंकेस रिसाना ॥

जो रन बिमुख सुना मैं काना । सो मैं हतब कराल कृपाना ॥

सर्बसु खाइ भोग करि नाना । समर भूमि भए बल्लभ प्राना ॥

उग्र बचन सुनि सकल डेराने । चले क्रोध करि सुभट लजाने ॥

सन्मुख मरन बीर कै सोभा । तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा ॥

दोहा

बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि ।

ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारी ॥४२॥

चौपाला

भय आतुर कपि भागन लागे । जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे ॥

कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता । कहँ नल नील दुबिद बलवंता ॥

निज दल बिकल सुना हनुमाना । पच्छिम द्वार रहा बलवाना ॥

मेघनाद तहँ करइ लराई । टूट न द्वार परम कठिनाई ॥

पवनतनय मन भा अति क्रोधा । गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा ॥

कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा । गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा ॥

भंजेउ रथ सारथी निपाता । ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता ॥

दुसरें सूत बिकल तेहि जाना । स्यंदन घालि तुरत गृह आना ॥

दोहा

अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल ।

रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल ॥४३॥

चौपाला

जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर । राम प्रताप सुमिरि उर अंतर ॥

रावन भवन चढ़े द्वौ धाई । करहि कोसलाधीस दोहाई ॥

कलस सहित गहि भवनु ढहावा । देखि निसाचरपति भय पावा ॥

नारि बृंद कर पीटहिं छाती । अब दुइ कपि आए उतपाती ॥

कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं । रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं ॥

पुनि कर गहि कंचन के खंभा । कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा ॥

गर्जि परे रिपु कटक मझारी । लागे मर्दै भुज बल भारी ॥

काहुहि लात चपेटन्हि केहू । भजहु न रामहि सो फल लेहू ॥

दोहा

एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड ।

रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड ॥४४॥

चौपाला

महा महा मुखिआ जे पावहिं । ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं ॥

कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा । देहिं राम तिन्हहू निज धामा ॥

खल मनुजाद द्विजामिष भोगी । पावहिं गति जो जाचत जोगी ॥

उमा राम मृदुचित करुनाकर । बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर ॥

देहिं परम गति सो जियँ जानी । अस कृपाल को कहहु भवानी ॥

अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी । नर मतिमंद ते परम अभागी ॥

अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा । कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा ॥

लंकाँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें । मथहि सिंधु दुइ मंदर जैसें ॥

दोहा

भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत ।

कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवंत ॥४५॥

चौपाला

प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए । देखि सुभट रघुपति मन भाए ॥

राम कृपा करि जुगल निहारे । भए बिगतश्रम परम सुखारे ॥

गए जानि अंगद हनुमाना । फिरे भालु मर्कट भट नाना ॥

जातुधान प्रदोष बल पाई । धाए करि दससीस दोहाई ॥

निसिचर अनी देखि कपि फिरे । जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे ॥

द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी । लरत सुभट नहिं मानहिं हारी ॥

महाबीर निसिचर सब कारे । नाना बरन बलीमुख भारे ॥

सबल जुगल दल समबल जोधा । कौतुक करत लरत करि क्रोधा ॥

प्राबिट सरद पयोद घनेरे । लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे ॥

अनिप अकंपन अरु अतिकाया । बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया ॥

भयउ निमिष महँ अति अँधियारा । बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा ॥

दोहा

देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार ।

एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार ॥४६॥

चौपाला

सकल मरमु रघुनायक जाना । लिए बोलि अंगद हनुमाना ॥

समाचार सब कहि समुझाए । सुनत कोपि कपिकुंजर धाए ॥

पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा । पावक सायक सपदि चलावा ॥

भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं । ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं ॥

भालु बलीमुख पाइ प्रकासा । धाए हरष बिगत श्रम त्रासा ॥

हनूमान अंगद रन गाजे । हाँक सुनत रजनीचर भाजे ॥

भागत पट पटकहिं धरि धरनी । करहिं भालु कपि अद्भुत करनी ॥

गहि पद डारहिं सागर माहीं । मकर उरग झष धरि धरि खाहीं ॥

दोहा

कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ ।

गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ ॥४७॥

चौपाला

निसा जानि कपि चारिउ अनी । आए जहाँ कोसला धनी ॥

राम कृपा करि चितवा सबही । भए बिगतश्रम बानर तबही ॥

उहाँ दसानन सचिव हँकारे । सब सन कहेसि सुभट जे मारे ॥

आधा कटकु कपिन्ह संघारा । कहहु बेगि का करिअ बिचारा ॥

माल्यवंत अति जरठ निसाचर । रावन मातु पिता मंत्री बर ॥

बोला बचन नीति अति पावन । सुनहु तात कछु मोर सिखावन ॥

जब ते तुम्ह सीता हरि आनी । असगुन होहिं न जाहिं बखानी ॥

बेद पुरान जासु जसु गायो । राम बिमुख काहुँ न सुख पायो ॥

दोहा

हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान ।

जेहि मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान ॥४८क॥

मासपारायण , पचीसवाँ विश्राम

कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध ।

सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध ॥४८ख॥

चौपाला

परिहरि बयरु देहु बैदेही । भजहु कृपानिधि परम सनेही ॥

ताके बचन बान सम लागे । करिआ मुह करि जाहि अभागे ॥

बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही । अब जनि नयन देखावसि मोही ॥

तेहि अपने मन अस अनुमाना । बध्यो चहत एहि कृपानिधाना ॥

सो उठि गयउ कहत दुर्बादा । तब सकोप बोलेउ घननादा ॥

कौतुक प्रात देखिअहु मोरा । करिहउँ बहुत कहौं का थोरा ॥

सुनि सुत बचन भरोसा आवा । प्रीति समेत अंक बैठावा ॥

करत बिचार भयउ भिनुसारा । लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा ॥

कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा । नगर कोलाहलु भयउ घनेरा ॥

बिबिधायुध धर निसिचर धाए । गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए ॥

छंद

ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले ।

घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले ॥

मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए ।

गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए ॥

दोहा मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ ।

उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ ॥४९॥

चौपाला

कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता । धन्वी सकल लोक बिख्याता ॥

कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा । अंगद हनूमंत बल सींवा ॥

कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही । आजु सबहि हठि मारउँ ओही ॥

अस कहि कठिन बान संधाने । अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने ॥

सर समुह सो छाड़ै लागा । जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा ॥

जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर । सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर ॥

जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा । बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा ॥

सो कपि भालु न रन महँ देखा । कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा ॥

दोहा

दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर ।

सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर ॥५० ॥

चौपाला

देखि पवनसुत कटक बिहाला । क्रोधवंत जनु धायउ काला ॥

महासैल एक तुरत उपारा । अति रिस मेघनाद पर डारा ॥

आवत देखि गयउ नभ सोई । रथ सारथी तुरग सब खोई ॥

बार बार पचार हनुमाना । निकट न आव मरमु सो जाना ॥

रघुपति निकट गयउ घननादा । नाना भाँति करेसि दुर्बादा ॥

अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे । कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे ॥

देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना । करै लाग माया बिधि नाना ॥

जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला । डरपावै गहि स्वल्प सपेला ॥