रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


लंकाकाण्ड दोहा १११ से १२१

दोहा

बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात ।

सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात ॥१११॥

चौपाला

तेहि अवसर दसरथ तहँ आए । तनय बिलोकि नयन जल छाए ॥

अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा । आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा ॥

तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ । जीत्यों अजय निसाचर राऊ ॥

सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी । नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी ॥

रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना । चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना ॥

ताते उमा मोच्छ नहिं पायो । दसरथ भेद भगति मन लायो ॥

सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं । तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं ॥

बार बार करि प्रभुहि प्रनामा । दसरथ हरषि गए सुरधामा ॥

दोहा

अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस ।

सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस ॥११२॥

छंद

जय राम सोभा धाम । दायक प्रनत बिश्राम ॥

धृत त्रोन बर सर चाप । भुजदंड प्रबल प्रताप ॥१॥

जय दूषनारि खरारि । मर्दन निसाचर धारि ॥

यह दुष्ट मारेउ नाथ । भए देव सकल सनाथ ॥२॥

जय हरन धरनी भार । महिमा उदार अपार ॥

जय रावनारि कृपाल । किए जातुधान बिहाल ॥३॥

लंकेस अति बल गर्ब । किए बस्य सुर गंधर्ब ॥

मुनि सिद्ध नर खग नाग । हठि पंथ सब कें लाग ॥४॥

परद्रोह रत अति दुष्ट । पायो सो फलु पापिष्ट ॥

अब सुनहु दीन दयाल । राजीव नयन बिसाल ॥५॥

मोहि रहा अति अभिमान । नहिं कोउ मोहि समान ॥

अब देखि प्रभु पद कंज । गत मान प्रद दुख पुंज ॥६॥

कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव । अब्यक्त जेहि श्रुति गाव ॥

मोहि भाव कोसल भूप । श्रीराम सगुन सरूप ॥७॥

बैदेहि अनुज समेत । मम हृदयँ करहु निकेत ॥

मोहि जानिए निज दास । दे भक्ति रमानिवास ॥८॥

छंद

दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं ।

सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं ॥

सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुज तनु अतुलितबलं ।

ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं ॥

दोहा

अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल ।

काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल ॥११३॥

चौपाला

सुनु सुरपति कपि भालु हमारे । परे भूमि निसचरन्हि जे मारे ॥

मम हित लागि तजे इन्ह प्राना । सकल जिआउ सुरेस सुजाना ॥

सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी । अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी ॥

प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई । केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई ॥

सुधा बरषि कपि भालु जिआए । हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए ॥

सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर । जिए भालु कपि नहिं रजनीचर ॥

रामाकार भए तिन्ह के मन । मुक्त भए छूटे भव बंधन ॥

सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा । जिए सकल रघुपति कीं ईछा ॥

राम सरिस को दीन हितकारी । कीन्हे मुकुत निसाचर झारी ॥

खल मल धाम काम रत रावन । गति पाई जो मुनिबर पाव न ॥

दोहा

सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान ।

देखि सुअवसरु प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान ॥११४क॥

परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि ।

पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि ॥११४ख॥

छंद

मामभिरक्षय रघुकुल नायक । धृत बर चाप रुचिर कर सायक ॥

मोह महा घन पटल प्रभंजन । संसय बिपिन अनल सुर रंजन ॥१॥

अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर । भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर ॥

काम क्रोध मद गज पंचानन । बसहु निरंतर जन मन कानन ॥२॥

बिषय मनोरथ पुंज कंज बन । प्रबल तुषार उदार पार मन ॥

भव बारिधि मंदर परमं दर । बारय तारय संसृति दुस्तर ॥३॥

स्याम गात राजीव बिलोचन । दीन बंधु प्रनतारति मोचन ॥

अनुज जानकी सहित निरंतर । बसहु राम नृप मम उर अंतर ॥४॥

मुनि रंजन महि मंडल मंडन । तुलसिदास प्रभु त्रास बिखंडन ॥५॥

दोहा

नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार ।

कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार ॥११५॥

चौपाला

करि बिनती जब संभु सिधाए । तब प्रभु निकट बिभीषनु आए ॥

नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी । बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी ॥

सकुल सदल प्रभु रावन मार् यो । पावन जस त्रिभुवन बिस्तार् यो ॥

दीन मलीन हीन मति जाती । मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती ॥

अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे । मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे ॥

देखि कोस मंदिर संपदा । देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा ॥

सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ । पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ ॥

सुनत बचन मृदु दीनदयाला । सजल भए द्वौ नयन बिसाला ॥

दोहा

तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात ।

भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात ॥११६क॥

तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि ।

देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि ॥११६ख॥

बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर ।

सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर ॥११६ग॥

करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं ।

पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं ॥११६घ॥

चौपाला

सुनत बिभीषन बचन राम के । हरषि गहे पद कृपाधाम के ॥

बानर भालु सकल हरषाने । गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने ॥

बहुरि बिभीषन भवन सिधायो । मनि गन बसन बिमान भरायो ॥

लै पुष्पक प्रभु आगें राखा । हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा ॥

चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन । गगन जाइ बरषहु पट भूषन ॥

नभ पर जाइ बिभीषन तबही । बरषि दिए मनि अंबर सबही ॥

जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं । मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं ॥

हँसे रामु श्री अनुज समेता । परम कौतुकी कृपा निकेता ॥

दोहा

मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद ।

कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद ॥११७क॥

उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम ।

राम कृपा नहि करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम ॥११७ख॥

चौपाला

भालु कपिन्ह पट भूषन पाए । पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए ॥

नाना जिनस देखि सब कीसा । पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा ॥

चितइ सबन्हि पर कीन्हि दाया । बोले मृदुल बचन रघुराया ॥

तुम्हरें बल मैं रावनु मार् यो । तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार् यो ॥

निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू । सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू ॥

सुनत बचन प्रेमाकुल बानर । जोरि पानि बोले सब सादर ॥

प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा । हमरे होत बचन सुनि मोहा ॥

दीन जानि कपि किए सनाथा । तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा ॥

सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं । मसक कहूँ खगपति हित करहीं ॥

देखि राम रुख बानर रीछा । प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा ॥

दोहा

प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि ।

हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि ॥११८क॥

कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान ।

सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान ॥११८ख॥

कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि ।

सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि ॥११८ग॥

चौपाला

अतिसय प्रीति देख रघुराई । लिन्हे सकल बिमान चढ़ाई ॥

मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो । उत्तर दिसिहि बिमान चलायो ॥

चलत बिमान कोलाहल होई । जय रघुबीर कहइ सबु कोई ॥

सिंहासन अति उच्च मनोहर । श्री समेत प्रभु बैठै ता पर ॥

राजत रामु सहित भामिनी । मेरु सृंग जनु घन दामिनी ॥

रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर । कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर ॥

परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी । सागर सर सरि निर्मल बारी ॥

सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा । मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा ॥

कह रघुबीर देखु रन सीता । लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता ॥

हनूमान अंगद के मारे । रन महि परे निसाचर भारे ॥

कुंभकरन रावन द्वौ भाई । इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई ॥

दोहा

इहाँ सेतु बाँध्यो अरु थापेउँ सिव सुख धाम ।

सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम ॥११९क॥

जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम ।

सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम ॥११९ख॥

चौपाला

तुरत बिमान तहाँ चलि आवा । दंडक बन जहँ परम सुहावा ॥

कुंभजादि मुनिनायक नाना । गए रामु सब कें अस्थाना ॥

सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा । चित्रकूट आए जगदीसा ॥

तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा । चला बिमानु तहाँ ते चोखा ॥

बहुरि राम जानकिहि देखाई । जमुना कलि मल हरनि सुहाई ॥

पुनि देखी सुरसरी पुनीता । राम कहा प्रनाम करु सीता ॥

तीरथपति पुनि देखु प्रयागा । निरखत जन्म कोटि अघ भागा ॥

देखु परम पावनि पुनि बेनी । हरनि सोक हरि लोक निसेनी ॥

पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि । त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि ॥

दोहा

सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम ।

सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम ॥१२०क॥

पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह ।

कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह ॥१२०ख॥

चौपाला

प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई । धरि बटु रूप अवधपुर जाई ॥

भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु । समाचार लै तुम्ह चलि आएहु ॥

तुरत पवनसुत गवनत भयउ । तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ ॥

नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही । अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही ॥

मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी । चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी ॥

इहाँ निषाद सुना प्रभु आए । नाव नाव कहँ लोग बोलाए ॥

सुरसरि नाघि जान तब आयो । उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो ॥

तब सीताँ पूजी सुरसरी । बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी ॥

दीन्हि असीस हरषि मन गंगा । सुंदरि तव अहिवात अभंगा ॥

सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल । आयउ निकट परम सुख संकुल ॥

प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही । परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही ॥

प्रीति परम बिलोकि रघुराई । हरषि उठाइ लियो उर लाई ॥

छंद

लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती ।

बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती ।

अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे ।

सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते ॥१॥

सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो ।

मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो ॥

यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा ।

कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा ॥२॥

दोहा

समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान ।

बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान ॥१२१क॥

यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार ।

श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार ॥१२१ख॥

मासपारायण , सत्ताईसवाँ विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने

षष्ठः सोपानः समाप्तः ।

लंकाकाण्ड समाप्त