रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


उत्तरकाण्ड - दोहा ११ से २०

सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ ।

दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ ॥११ -क॥

राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि ।

देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि ॥११ -ख॥

सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद ।

चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद ॥११ग॥

चौपाला

प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा । तुरत दिब्य सिंघासन मागा ॥

रबि सम तेज सो बरनि न जाई । बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई ॥

जनकसुता समेत रघुराई । पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई ॥

बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे । नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे ॥

प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा । पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा ॥

सुत बिलोकि हरषीं महतारी । बार बार आरती उतारी ॥

बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे । जाचक सकल अजाचक कीन्हे ॥

सिंघासन पर त्रिभुअन साई । देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं ॥

छंद

नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं ।

नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं ॥

भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते ।

गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ॥१॥

श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई ।

नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई ॥

मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे ।

अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे ॥२॥

दोहा

वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस ।

बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस ॥१२ -क॥

भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम ।

बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ॥१२ -ख॥

प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान ।

लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान ॥१२ग॥

छंद

जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने ।

दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने ॥

अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे ।

जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे ॥१॥

तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे ।

भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ॥

जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे ।

भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ॥२॥

जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी ।

ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ॥

बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे ।

जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ॥३॥

जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी ।

नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी ॥

ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे ।

पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे ॥४॥

अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने ।

षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने ॥

फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे ।

पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ॥५॥

जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं ।

ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं ॥

करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं ।

मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं ॥६॥

दोहा

सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार ।

अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार ॥१३ -क॥

बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर ।

बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ॥१३ -ख॥

छंद

जय राम रमारमनं समनं । भव ताप भयाकुल पाहि जनं ॥

अवधेस सुरेस रमेस बिभो । सरनागत मागत पाहि प्रभो ॥१॥

दससीस बिनासन बीस भुजा । कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ॥

रजनीचर बृंद पतंग रहे । सर पावक तेज प्रचंड दहे ॥२॥

महि मंडल मंडन चारुतरं । धृत सायक चाप निषंग बरं ॥

मद मोह महा ममता रजनी । तम पुंज दिवाकर तेज अनी ॥३॥

मनजात किरात निपात किए । मृग लोग कुभोग सरेन हिए ॥

हति नाथ अनाथनि पाहि हरे । बिषया बन पावँर भूलि परे ॥४॥

बहु रोग बियोगन्हि लोग हए । भवदंघ्रि निरादर के फल ए ॥

भव सिंधु अगाध परे नर ते । पद पंकज प्रेम न जे करते ॥५॥

अति दीन मलीन दुखी नितहीं । जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं ॥

अवलंब भवंत कथा जिन्ह के ॥प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ॥६॥

नहिं राग न लोभ न मान मदा ॥तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा ॥

एहि ते तव सेवक होत मुदा । मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥७॥

करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ । पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ॥

सम मानि निरादर आदरही । सब संत सुखी बिचरंति मही ॥८॥

मुनि मानस पंकज भृंग भजे । रघुबीर महा रनधीर अजे ॥

तव नाम जपामि नमामि हरी । भव रोग महागद मान अरी ॥९॥

गुन सील कृपा परमायतनं । प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ॥

रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं । महिपाल बिलोकय दीन जनं ॥१०॥

दोहा

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग ।

पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥१४ -क॥

बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास ।

तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ॥१४ -ख॥

चौपाला

सुनु खगपति यह कथा पावनी । त्रिबिध ताप भव भय दावनी ॥

महाराज कर सुभ अभिषेका । सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका ॥

जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं । सुख संपति नाना बिधि पावहिं ॥

सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं । अंतकाल रघुपति पुर जाहीं ॥

सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई । लहहिं भगति गति संपति नई ॥

खगपति राम कथा मैं बरनी । स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी ॥

बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी । मोह नदी कहँ सुंदर तरनी ॥

नित नव मंगल कौसलपुरी । हरषित रहहिं लोग सब कुरी ॥

नित नइ प्रीति राम पद पंकज । सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज ॥

मंगन बहु प्रकार पहिराए । द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए ॥

दोहा

ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति ।

जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति ॥१५॥

चौपाला

बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं । जिमि परद्रोह संत मन माही ॥

तब रघुपति सब सखा बोलाए । आइ सबन्हि सादर सिरु नाए ॥

परम प्रीति समीप बैठारे । भगत सुखद मृदु बचन उचारे ॥

तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई । मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई ॥

ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे । मम हित लागि भवन सुख त्यागे ॥

अनुज राज संपति बैदेही । देह गेह परिवार सनेही ॥

सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना । मृषा न कहउँ मोर यह बाना ॥

सब के प्रिय सेवक यह नीती । मोरें अधिक दास पर प्रीती ॥

दोहा

अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम ।

सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम ॥१६॥

चौपाला

सुनि प्रभु बचन मगन सब भए । को हम कहाँ बिसरि तन गए ॥

एकटक रहे जोरि कर आगे । सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे ॥

परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा । कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा ॥

प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं । पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं ॥

तब प्रभु भूषन बसन मगाए । नाना रंग अनूप सुहाए ॥

सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए । बसन भरत निज हाथ बनाए ॥

प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए । लंकापति रघुपति मन भाए ॥

अंगद बैठ रहा नहिं डोला । प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला ॥

दोहा

जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ ।

हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ ॥१७ -क॥

तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि ।

अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि ॥१७ -ख॥

चौपाला

सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो । दीन दयाकर आरत बंधो ॥

मरती बेर नाथ मोहि बाली । गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली ॥

असरन सरन बिरदु संभारी । मोहि जनि तजहु भगत हितकारी ॥

मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता । जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता ॥

तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा । प्रभु तजि भवन काज मम काहा ॥

बालक ग्यान बुद्धि बल हीना । राखहु सरन नाथ जन दीना ॥

नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ । पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ ॥

अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही । अब जनि नाथ कहहु गृह जाही ॥

दोहा

अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव ।

प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव ॥१८ -क॥

निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ ।

बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ ॥१८ -ख॥

चौपाला

भरत अनुज सौमित्र समेता । पठवन चले भगत कृत चेता ॥

अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा । फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा ॥

बार बार कर दंड प्रनामा । मन अस रहन कहहिं मोहि रामा ॥

राम बिलोकनि बोलनि चलनी । सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी ॥

प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी । चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी ॥

अति आदर सब कपि पहुँचाए । भाइन्ह सहित भरत पुनि आए ॥

तब सुग्रीव चरन गहि नाना । भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना ॥

दिन दस करि रघुपति पद सेवा । पुनि तव चरन देखिहउँ देवा ॥

पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा । सेवहु जाइ कृपा आगारा ॥

अस कहि कपि सब चले तुरंता । अंगद कहइ सुनहु हनुमंता ॥

दोहा

कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि ।

बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि ॥१९ -क॥

अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत ।

तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत ॥ !९ -ख॥

कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि ।

चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि ॥१९ -ग॥

चौपाला

पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा । दीन्हे भूषन बसन प्रसादा ॥

जाहु भवन मम सुमिरन करेहू । मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू ॥

तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता । सदा रहेहु पुर आवत जाता ॥

बचन सुनत उपजा सुख भारी । परेउ चरन भरि लोचन बारी ॥

चरन नलिन उर धरि गृह आवा । प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा ॥

रघुपति चरित देखि पुरबासी । पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी ॥

राम राज बैंठें त्रेलोका । हरषित भए गए सब सोका ॥

बयरु न कर काहू सन कोई । राम प्रताप बिषमता खोई ॥

दोहा

बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग ।

चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ॥२०॥

चौपाला

दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ॥

सब नर करहिं परस्पर प्रीती । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ॥

चारिउ चरन धर्म जग माहीं । पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं ॥

राम भगति रत नर अरु नारी । सकल परम गति के अधिकारी ॥

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा । सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ॥

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना । नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ॥

सब निर्दंभ धर्मरत पुनी । नर अरु नारि चतुर सब गुनी ॥

सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी । सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ॥