सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ ।
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ ॥११ -क॥
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि ।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि ॥११ -ख॥
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद ।
चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद ॥११ग॥
चौपाला
प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा । तुरत दिब्य सिंघासन मागा ॥
रबि सम तेज सो बरनि न जाई । बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई ॥
जनकसुता समेत रघुराई । पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई ॥
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे । नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे ॥
प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा । पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा ॥
सुत बिलोकि हरषीं महतारी । बार बार आरती उतारी ॥
बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे । जाचक सकल अजाचक कीन्हे ॥
सिंघासन पर त्रिभुअन साई । देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं ॥
छंद
नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं ।
नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं ॥
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते ।
गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ॥१॥
श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई ।
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई ॥
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे ।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे ॥२॥
दोहा
वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस ।
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस ॥१२ -क॥
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम ।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ॥१२ -ख॥
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान ।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान ॥१२ग॥
छंद
जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने ।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने ॥
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे ।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे ॥१॥
तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे ।
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ॥
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे ।
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ॥२॥
जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी ।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ॥
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे ।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ॥३॥
जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी ।
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी ॥
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे ।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे ॥४॥
अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने ।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने ॥
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे ।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ॥५॥
जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं ।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं ॥
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं ।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं ॥६॥
दोहा
सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार ।
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार ॥१३ -क॥
बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर ।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ॥१३ -ख॥
छंद
जय राम रमारमनं समनं । भव ताप भयाकुल पाहि जनं ॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो । सरनागत मागत पाहि प्रभो ॥१॥
दससीस बिनासन बीस भुजा । कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे । सर पावक तेज प्रचंड दहे ॥२॥
महि मंडल मंडन चारुतरं । धृत सायक चाप निषंग बरं ॥
मद मोह महा ममता रजनी । तम पुंज दिवाकर तेज अनी ॥३॥
मनजात किरात निपात किए । मृग लोग कुभोग सरेन हिए ॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे । बिषया बन पावँर भूलि परे ॥४॥
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए । भवदंघ्रि निरादर के फल ए ॥
भव सिंधु अगाध परे नर ते । पद पंकज प्रेम न जे करते ॥५॥
अति दीन मलीन दुखी नितहीं । जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं ॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के ॥प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ॥६॥
नहिं राग न लोभ न मान मदा ॥तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा ॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा । मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥७॥
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ । पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ॥
सम मानि निरादर आदरही । सब संत सुखी बिचरंति मही ॥८॥
मुनि मानस पंकज भृंग भजे । रघुबीर महा रनधीर अजे ॥
तव नाम जपामि नमामि हरी । भव रोग महागद मान अरी ॥९॥
गुन सील कृपा परमायतनं । प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं । महिपाल बिलोकय दीन जनं ॥१०॥
दोहा
बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥१४ -क॥
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास ।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ॥१४ -ख॥
चौपाला
सुनु खगपति यह कथा पावनी । त्रिबिध ताप भव भय दावनी ॥
महाराज कर सुभ अभिषेका । सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका ॥
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं । सुख संपति नाना बिधि पावहिं ॥
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं । अंतकाल रघुपति पुर जाहीं ॥
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई । लहहिं भगति गति संपति नई ॥
खगपति राम कथा मैं बरनी । स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी ॥
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी । मोह नदी कहँ सुंदर तरनी ॥
नित नव मंगल कौसलपुरी । हरषित रहहिं लोग सब कुरी ॥
नित नइ प्रीति राम पद पंकज । सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज ॥
मंगन बहु प्रकार पहिराए । द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए ॥
दोहा
ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति ।
जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति ॥१५॥
चौपाला
बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं । जिमि परद्रोह संत मन माही ॥
तब रघुपति सब सखा बोलाए । आइ सबन्हि सादर सिरु नाए ॥
परम प्रीति समीप बैठारे । भगत सुखद मृदु बचन उचारे ॥
तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई । मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई ॥
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे । मम हित लागि भवन सुख त्यागे ॥
अनुज राज संपति बैदेही । देह गेह परिवार सनेही ॥
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना । मृषा न कहउँ मोर यह बाना ॥
सब के प्रिय सेवक यह नीती । मोरें अधिक दास पर प्रीती ॥
दोहा
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम ।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम ॥१६॥
चौपाला
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए । को हम कहाँ बिसरि तन गए ॥
एकटक रहे जोरि कर आगे । सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे ॥
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा । कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा ॥
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं । पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं ॥
तब प्रभु भूषन बसन मगाए । नाना रंग अनूप सुहाए ॥
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए । बसन भरत निज हाथ बनाए ॥
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए । लंकापति रघुपति मन भाए ॥
अंगद बैठ रहा नहिं डोला । प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला ॥
दोहा
जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ ।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ ॥१७ -क॥
तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि ।
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि ॥१७ -ख॥
चौपाला
सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो । दीन दयाकर आरत बंधो ॥
मरती बेर नाथ मोहि बाली । गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली ॥
असरन सरन बिरदु संभारी । मोहि जनि तजहु भगत हितकारी ॥
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता । जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता ॥
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा । प्रभु तजि भवन काज मम काहा ॥
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना । राखहु सरन नाथ जन दीना ॥
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ । पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ ॥
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही । अब जनि नाथ कहहु गृह जाही ॥
दोहा
अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव ।
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव ॥१८ -क॥
निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ ।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ ॥१८ -ख॥
चौपाला
भरत अनुज सौमित्र समेता । पठवन चले भगत कृत चेता ॥
अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा । फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा ॥
बार बार कर दंड प्रनामा । मन अस रहन कहहिं मोहि रामा ॥
राम बिलोकनि बोलनि चलनी । सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी ॥
प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी । चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी ॥
अति आदर सब कपि पहुँचाए । भाइन्ह सहित भरत पुनि आए ॥
तब सुग्रीव चरन गहि नाना । भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना ॥
दिन दस करि रघुपति पद सेवा । पुनि तव चरन देखिहउँ देवा ॥
पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा । सेवहु जाइ कृपा आगारा ॥
अस कहि कपि सब चले तुरंता । अंगद कहइ सुनहु हनुमंता ॥
दोहा
कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि ।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि ॥१९ -क॥
अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत ।
तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत ॥ !९ -ख॥
कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि ।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि ॥१९ -ग॥
चौपाला
पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा । दीन्हे भूषन बसन प्रसादा ॥
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू । मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू ॥
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता । सदा रहेहु पुर आवत जाता ॥
बचन सुनत उपजा सुख भारी । परेउ चरन भरि लोचन बारी ॥
चरन नलिन उर धरि गृह आवा । प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा ॥
रघुपति चरित देखि पुरबासी । पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी ॥
राम राज बैंठें त्रेलोका । हरषित भए गए सब सोका ॥
बयरु न कर काहू सन कोई । राम प्रताप बिषमता खोई ॥
दोहा
बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग ।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ॥२०॥
चौपाला
दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ॥
चारिउ चरन धर्म जग माहीं । पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं ॥
राम भगति रत नर अरु नारी । सकल परम गति के अधिकारी ॥
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा । सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ॥
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना । नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ॥
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी । नर अरु नारि चतुर सब गुनी ॥
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी । सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ॥