रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की । संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


उत्तरकाण्ड - दोहा २१ से ३०

दोहा

राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं ॥

काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं ॥२१॥

चौपाला

भूमि सप्त सागर मेखला । एक भूप रघुपति कोसला ॥

भुअन अनेक रोम प्रति जासू । यह प्रभुता कछु बहुत न तासू ॥

सो महिमा समुझत प्रभु केरी । यह बरनत हीनता घनेरी ॥

सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी । फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी ॥

सोउ जाने कर फल यह लीला । कहहिं महा मुनिबर दमसीला ॥

राम राज कर सुख संपदा । बरनि न सकइ फनीस सारदा ॥

सब उदार सब पर उपकारी । बिप्र चरन सेवक नर नारी ॥

एकनारि ब्रत रत सब झारी । ते मन बच क्रम पति हितकारी ॥

दोहा

दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज ।

जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ॥२२॥

चौपाला

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन । रहहि एक सँग गज पंचानन ॥

खग मृग सहज बयरु बिसराई । सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ॥

कूजहिं खग मृग नाना बृंदा । अभय चरहिं बन करहिं अनंदा ॥

सीतल सुरभि पवन बह मंदा । गूंजत अलि लै चलि मकरंदा ॥

लता बिटप मागें मधु चवहीं । मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं ॥

ससि संपन्न सदा रह धरनी । त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी ॥

प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी । जगदातमा भूप जग जानी ॥

सरिता सकल बहहिं बर बारी । सीतल अमल स्वाद सुखकारी ॥

सागर निज मरजादाँ रहहीं । डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं ॥

सरसिज संकुल सकल तड़ागा । अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ॥

दोहा

बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज ।

मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज ॥२३॥

चौपाला

कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे । दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे ॥

श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर । गुनातीत अरु भोग पुरंदर ॥

पति अनुकूल सदा रह सीता । सोभा खानि सुसील बिनीता ॥

जानति कृपासिंधु प्रभुताई । सेवति चरन कमल मन लाई ॥

जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी । बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी ॥

निज कर गृह परिचरजा करई । रामचंद्र आयसु अनुसरई ॥

जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ । सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ ॥

कौसल्यादि सासु गृह माहीं । सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं ॥

उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता । जगदंबा संततमनिंदिता ॥

दोहा

जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ ।

राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ ॥२४॥

चौपाला

सेवहिं सानकूल सब भाई । राम चरन रति अति अधिकाई ॥

प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं । कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं ॥

राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती । नाना भाँति सिखावहिं नीती ॥

हरषित रहहिं नगर के लोगा । करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा ॥

अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं । श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं ॥

दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए । लव कुस बेद पुरानन्ह गाए ॥

दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर । हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर ॥

दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे । भए रूप गुन सील घनेरे ॥

दोहा

ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार ।

सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार ॥२५॥

चौपाला

प्रातकाल सरऊ करि मज्जन । बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन ॥

बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं । सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं ॥

अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं । देखि सकल जननीं सुख भरहीं ॥

भरत सत्रुहन दोनउ भाई । सहित पवनसुत उपबन जाई ॥

बूझहिं बैठि राम गुन गाहा । कह हनुमान सुमति अवगाहा ॥

सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं । बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं ॥

सब कें गृह गृह होहिं पुराना । रामचरित पावन बिधि नाना ॥

नर अरु नारि राम गुन गानहिं । करहिं दिवस निसि जात न जानहिं ॥

दोहा

अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज ।

सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज ॥२६॥

चौपाला

नारदादि सनकादि मुनीसा । दरसन लागि कोसलाधीसा ॥

दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं । देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं ॥

जातरूप मनि रचित अटारीं । नाना रंग रुचिर गच ढारीं ॥

पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर । रचे कँगूरा रंग रंग बर ॥

नव ग्रह निकर अनीक बनाई । जनु घेरी अमरावति आई ॥

महि बहु रंग रचित गच काँचा । जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा ॥

धवल धाम ऊपर नभ चुंबत । कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत ॥

बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं । गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं ॥

छंद

मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची ।

मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची ॥

सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे ।

प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे ॥

दोहा

चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ ।

राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ ॥२७॥

चौपाला

सुमन बाटिका सबहिं लगाई । बिबिध भाँति करि जतन बनाई ॥

लता ललित बहु जाति सुहाई । फूलहिं सदा बंसत कि नाई ॥

गुंजत मधुकर मुखर मनोहर । मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर ॥

नाना खग बालकन्हि जिआए । बोलत मधुर उड़ात सुहाए ॥

मोर हंस सारस पारावत । भवननि पर सोभा अति पावत ॥

जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं । बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं ॥

सुक सारिका पढ़ावहिं बालक । कहहु राम रघुपति जनपालक ॥

राज दुआर सकल बिधि चारू । बीथीं चौहट रूचिर बजारू ॥

छंद

बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए ।

जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए ॥

बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते ।

सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे ॥

दोहा

उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर ।

बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर ॥२८॥

चौपाला

दूरि फराक रुचिर सो घाटा । जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ॥

पनिघट परम मनोहर नाना । तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना ॥

राजघाट सब बिधि सुंदर बर । मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर ॥

तीर तीर देवन्ह के मंदिर । चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर ॥

कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी । बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी ॥

तीर तीर तुलसिका सुहाई । बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई ॥

पुर सोभा कछु बरनि न जाई । बाहेर नगर परम रुचिराई ॥

देखत पुरी अखिल अघ भागा । बन उपबन बापिका तड़ागा ॥

छंद

बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं ।

सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं ॥

बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं ।

आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं ॥

दोहा

रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ ।

अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ ॥२९॥

चौपाला

जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं । बैठि परसपर इहइ सिखावहिं ॥

भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि । सोभा सील रूप गुन धामहि ॥

जलज बिलोचन स्यामल गातहि । पलक नयन इव सेवक त्रातहि ॥

धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि । संत कंज बन रबि रनधीरहि ॥

काल कराल ब्याल खगराजहि । नमत राम अकाम ममता जहि ॥

लोभ मोह मृगजूथ किरातहि । मनसिज करि हरि जन सुखदातहि ॥

संसय सोक निबिड़ तम भानुहि । दनुज गहन घन दहन कृसानुहि ॥

जनकसुता समेत रघुबीरहि । कस न भजहु भंजन भव भीरहि ॥

बहु बासना मसक हिम रासिहि । सदा एकरस अज अबिनासिहि ॥

मुनि रंजन भंजन महि भारहि । तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि ॥

दोहा

एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान ।

सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान ॥३०॥

चौपाला

जब ते राम प्रताप खगेसा । उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ॥

पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका । बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ॥

जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी । प्रथम अबिद्या निसा नसानी ॥

अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने । काम क्रोध कैरव सकुचाने ॥

बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ । ए चकोर सुख लहहिं न काऊ ॥

मत्सर मान मोह मद चोरा । इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ॥

धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना । ए पंकज बिकसे बिधि नाना ॥

सुख संतोष बिराग बिबेका । बिगत सोक ए कोक अनेका ॥