भवनभास्कर

वास्तुविद्याके अनुसार मकान बनानेसे कुवास्तुजनित कष्ट दूर हो जाते है ।


उन्नीसवाँ अध्याय

उन्नीसवाँ अध्याय

द्वार - वेध

( १ ) मुख्य द्वारके सामने कोई वस्तु हो तो उस द्वार - वेध कहते हैं । द्वारके सामने किस वस्तुके होनेसे क्या फल होता है, इसे बताया जाता है -

द्वारके सामने मार्ग ( गली या सड़क ) होनेसे गृहस्वामीकी मृत्यु, कुलका क्षय, बन्धन तथा अनेक रोग व शोक होते हैं ।

वृक्ष होनेसे बालकोंमें दोष, ऐश्वर्यका नाश तथा नाना रोग होते हैं ।

कीचड़ होनेसे शोक होता है ।

जलप्रवह होनेसे व्यर्थ खर्च तथा अनेक अनर्थ होते हैं ।

कुआँ होनेसे मृगी रोग, अतिसार रोग, भय तथा बन्धन होता हैं ।

मन्दिर होनेसे गृहस्वामीका नाश और बालकोंको दुःख होता है ।

मन्दिर्का द्वार होनेसे विनाश होता है ।

खम्भा होनेसे स्त्रियोंमें दोष, गृहस्वामीकी मृत्यु, दासत्व तथा दुर्भाग्यकी प्राप्ति होती है ।

कील होनेसे अग्निभय होता है ।

अपवित्र वस्तु होनेसे गृहस्वामिनी वन्ध्या होती है ।

दूसरे घरका द्वार होनेसे धन - धान्यका विनाश होता है ।

ध्वजा होनेसे द्रव्यका नाश तथा रोग होता है ।

दीवार होनेसे दरिद्रता होती है ।

गड्ढा होनेसे कलह, विरोध तथा धनकी हानि होती है ।

श्मशान होनेसे भूत - प्रेत, पिशाचोंसे भय होता है ।

चबूतरा होनेसे मृत्यु होती है ।

पनाला होनेसे दुःख, भय तथा कलह होता है ।

बावड़ी होनेसे अतिसार रोग, सन्निपात तथा दरिद्रता होती है ।

कुम्हारका चक्र होनेसे ह्नदयरोग तथा परदेशवास होता है ।

ओखली होनेसे निर्धनता होती है ।

शिला होनेसे शत्रुता तथा पथरी - रोग होता है ।

भस्म होनेसे बवासीर रोग होता है ।

दीमककी बाँबी होनेसे परदेशगमन होता है ।

किसी मकान आदिका कोना होनेसे दुर्गाति तथा मृत्युभय होता है ।

ब्राह्मणका घर होनेसे कुलका नाश होता है ।

भट्ठी या आवाँ होनेसे पुत्रका नाश होता है ।

छाया होनेसे निर्धनता आती है ।

( २ ) निम्रलिखित अवस्थाओंमे द्वार - वेधका दोष नहीं लगता -

( क ) यदि घरकी ऊँचाईसे दुगुनी जमीन छोड़कर वेध - वस्तु हो तो उसका कोई दोष नहीं लगता ।

( ख ) यदि घर और वेध - वस्तुके बीचमें राजमार्ग हो तो उसका दोष नहीं लगता ।

( ग ) यदि वेध - वस्तु घरके सम्मुख न होकर पीछे अथवा बगलमें हो तो उसका दोष नहीं लगता ।

( घ ) प्रासाद ( राजमहल या देवमन्दिर ) और मण्डपके द्वारमें मार्गवेधका दोष नहीं लगता - ' प्रासादमण्डपद्वारे मार्गवेधो न विद्यते ' ( शुक्रनीति १। २३४ )