हरिगीता

भारतीय दार्शनिकों का सर्वश्रेष्ठ दर्शन


अध्याय ४

श्रीभगवान् ने कहा - -
मैंने कहा था सूर्य के प्रति योग यह अव्यय महा ।
फिर सूर्य ने मनु से कहा इक्ष्वाकु से मनु ने कहा ॥१॥

यों राजऋषि परिचित हुए सुपरम्परागत योग से ।
इस लोक में वह मिट गया बहु काल के संयोग से ॥२॥

मैंने समझकर यह पुरातन योग- श्रेष्ठ रहस्य है ।
तुझसे कहा सब क्योंकि तू मम भक्त और वयस्य है ॥३॥

अर्जुन ने कहा - -
पैदा हुए थे सूर्य पहले आप जन्मे हैं अभी ।
मैं मानलूं कैसे कहा यह आपने उनसे कभी ॥४॥

श्रीभगवान् ने कहा - -
मैं और तू अर्जुन! अनेकों बार जन्मे हैं कहीं ।
सब जानता हूँ मैं परंतप! ज्ञान तुझको है नहीं ॥५॥

यद्यपि अजन्मा, प्राणियों का ईश मैं अव्यय परम् ।
पर निज प्रकृति आधीन कर, लूं जन्म माया से स्वयम् ॥६॥

हे पार्थ! जब जब धर्म घटता और बढ़ता पाप ही ।
तब तब प्रकट मैं रूप अपना नित्य करता आप ही ॥७॥

सज्जन जनों का त्राण करने दुष्ट- जन- संहार- हित ।
युग- युग प्रकट होता स्वयं मैं, धर्म के उद्धार हित ॥८॥

जो दिव्य मेरा जन्म कर्म रहस्य से सब जान ले ।
मुझमें मिले तन त्याग अर्जुन! फिर न वह जन जन्म ले ॥९॥

मन्मय ममाश्रित जन हुए भय क्रोध राग- विहीन हैं ।
तप यज्ञ से हो शुद्ध बहु मुझमें हुए लवलीन हैं ॥१०॥

जिस भाँति जो भजते मुझे उस भाँति दूं फल- भोग भी ।
सब ओर से ही वर्तते मम मार्ग में मानव सभी ॥११॥

इस लोक में करते फलेच्छुक देवता- आराधना ।
तत्काल होती पूर्ण उनकी कर्म फल की साधना ॥१२॥

मैंने बनाये कर्म गुण के भेद से चहुँ वर्ण भी ।
कर्ता उन्हों का जान तू, अव्यय अकर्ता मैं सभी ॥१३॥

फल की न मुझको चाह बँधता मैं न कर्मों से कहीं ।
यों जानता है जो मुझे वह कर्म से बँधता नहीं ॥१४॥

यह जान कर्म मुमुक्षपुरुषों ने सदा पहले किये ।
प्राचीन पूर्वज- कृत करो अब कर्म तुम इस ही लिये ॥१५॥

क्या कर्म और अकर्म है भूले यही विद्वान् भी ।
जो जान पापों से छुटो, वह कर्म कहता हूँ सभी ॥१६॥

हे पार्थ! कर्म अकर्म और विकर्म का क्या ज्ञान है ।
यह जान लो सब, कर्म की गति गहन और महान् है ॥१७॥

जो कर्म में देखे अकर्म, अकर्म में भी कर्म ही ।
है योग- युत ज्ञानी वही, सब कर्म करता है वही ॥१८॥

ज्ञानी उसे पंडित कहें उद्योग जिसके हों सभी ।
फल- वासना बिन, भस्म हों ज्ञानाग्नि में सब कर्म भी ॥१९॥

जो है निराश्रय तॄप्त नित, फल कामनाएँ तज सभी ।
वह कर्म सब करता हुआ, कुछ भी नहीं करता कभी ॥२०॥

जो कामना तज, सर्वसंग्रह त्याग, मन वश में करे ।
केवल करे जो कर्म दैहिक, पाप से है वह परे ॥२१॥

बिन द्वेष द्वन्द्व असिद्धि सिद्धि समान हैं जिसको सभी ।
जो है यदृच्छा- लाभ- तृप्त न बद्ध वह कर कर्म भी ॥२२॥

चित ज्ञान में जिनका सदा जो मुक्त संग- विहीन हों ।
यज्ञार्थ करते कर्म उनके सर्व कर्म विलीन हों ॥२३॥

मख ब्रह्म से, ब्रह्माग्नि से, हवि ब्रह्म, अर्पण ब्रह्म है ।
सब कर्म जिसको ब्रह्म, करता प्राप्त वह जन ब्रह्म है ॥२४॥

योगी पुरुष कुछ दैव- यज्ञ उपासना में मन धरें ।
ब्रह्माग्नि में कुछ यज्ञ द्वारा यज्ञ ज्ञानी जन करें ॥२५॥

कुछ होंमते श्रोत्रादि इन्द्रिय संयमों की आग में ।
इन्द्रिय- अनल में कुछ विषय शब्दादि आहुति दे रमें ॥२६॥

कर आत्म- संयमरूप योगानल प्रदीप्त सुज्ञान से ।
कुछ प्राण एवं इन्द्रियों के कर्म होमें ध्यान से ॥२७॥

कुछ संयमी जन यज्ञ करते योग, तप से, दान से ।
स्वाध्याय से करते यती, कुछ यज्ञ करते ज्ञान से ॥२८॥

कुछ प्राण में होमें अपान व प्राणवायु अपान में ।
कुछ रोक प्राण अपान प्राणायाम ही के ध्यान में ॥२९॥

कुछ मिताहारी हवन करते, प्राण ही में प्राण हैं ।
क्षय पाप यज्ञों से किये, ये यज्ञ- विज्ञ महान् हैं ॥३०॥

जो यज्ञ का अवशेष खाते, ब्रह्म को पाते सभी ।
परलोक तो क्या, यज्ञ- त्यागी को नहीं यह लोक भी । ४ । ३१॥

बहु भाँति से यों ब्रह्म- मुख में यज्ञ का विस्तार है ।
होते सभी हैं कर्म से, यह जान कर निस्तार है ॥३२॥

धन- यज्ञ से समझो सदा ही ज्ञान- यज्ञ प्रधान है ।
सब कर्म का नित ज्ञान में ही पार्थ! पर्यवसान है ॥३३॥

सेवा विनय प्रणिपात पूर्वक प्रश्न पूछो ध्यान से ।
उपदेश देंगे ज्ञान का तब तत्त्व- दर्शी ज्ञान से ॥३४॥

होगा नहीं फिर मोह ऐसे श्रेष्ठ शुद्ध विवेक से ।
तब ही दिखेंगे जीव मुझमें और तुझमें एक से ॥३५॥

तेरा कहीं यदि पापियों से घोर पापाचार हो ।
इस ज्ञान नय्या से सहज में पाप सागर पार हो ॥३६॥

ज्यों पार्थ! पावक प्रज्ज्वलित ईंधन जलाती है सदा ।
ज्ञानाग्नि सारे कर्म करती भस्म यों ही सर्वदा ॥३७॥

इस लोक में साधन पवित्र न और ज्ञान समान है ।
योगी पुरुष पाकर समय पाता स्वयं ही ज्ञान है ॥३८॥

जो कर्म- तत्पर है जितेन्द्रिय और श्रद्धावान् है ।
वह प्राप्त करके ज्ञान पाता शीघ्र शान्ति महान् है ॥३९॥

जिसमें न श्रद्धा ज्ञान, संशयवान डूबे सब कहीं ।
उसके लिये सुख, लोक या परलोक कुछ भी है नहीं ॥४०॥

तज योग- बल से कर्म, काटे ज्ञान से संशय सभी ।
उस आत्म- ज्ञानी को न बांधे कर्म बन्धन में कभी ॥४१॥

अज्ञान से जो भ्रम हृदय में, काट ज्ञान कृपान से ।
अर्जुन खड़ा हो युद्ध कर, हो योग आश्रित ज्ञान से ॥४२॥

चौथा अध्याय समाप्त हुआ ॥४॥