गीतांजलि

गीतांजलि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओ का संग्रह है, जिनके लिए उन्हे सन् १९१३ में नोबेल पुरस्कार मिला था। 'गीतांजलि' शब्द गीत और अन्जलि को मिला कर बना है जिसका अर्थ है - गीतों का उपहार (भेंट)। यह अग्रेजी में लिखी १०३ कविताएँ हैं। इस रचना का मूल संस्करण बंगला मे था जिसमें ज्यादातर भक्तिमय गाने थे।


तुम अब तो मुझे स्वीकारो नाथ

तुम अब तो मुझे स्वीकारो नाथ, स्वीकार लो।
इस बार नहीं तुम लौटो नाथ-
हृदय चुराकर ही मानो।

गुजरे जो दिन बिना तुम्‍हारे
वे दिन वापस नहीं चाहिए
खाक में मिल जाएँ वे
अब तुम्‍हारी ज्‍योति से जीवन ज्‍योतित कर
देखो मैं जागूँ निरंतर।

किस आवेश में, किसकी बात में आकर
भटकता रहा मैं जहाँ-तहाँ-
पथ-प्रांतर में,
इस बार सीने से मुख मेरा लगा
तुम बोलो आप्‍तवचन।

कितना कलुष, कितना कपट
अभी भी हैं जो शेष कहीं
मन के गोपन में
मुझको उनके लिए फिर लौटा न देना
अग्नि में कर दो उनका दहन।