दूसरा भाग: गीता

स्वामी सहजानन्द सरस्वती लिखित भगवद गीता का हिंदी में सार


दूसरा अध्याय

पहले अध्याबय में जो कुछ कहा गया है वह अर्जुन के अपने विचार थे जो बेरोक बाहर आए थे। उनसे उसकी मनोवृत्ति पर पूरा प्रकाश पड़ता है। कृष्ण ने देखा कि यह तो अजीब बात है। लड़ाई के मैदान में ऐन मौके पर यह ज्ञान-वैराग्य की बात और तन्मूलक कर्तव्यविमूढ़ता, या यों कहिए कि निठल्ले बैठ जाना तो निराली चीज है। सो भी युद्ध में सबके अग्रणी और नेता - पेशवा - का ही बैठ जाना। अतएव वह कुछ घबराये सही। मगर फिर खयाल किया कि आखिर अर्जुन भी तो आदमी ही ठहरा और आदमियों को ऐसे मौकों पर मानवसुलभ कमजोरियाँ दबाती ही हैं। मालूम होता है, यही बात अर्जुन की भी है। वह कुछ दयार्द्र हो जाने के कारण ही कमजोरी दिखा रहा है। हिंसा का भीषण रूप यहाँ आँखों के सामने नाच रहा है। इसीलिए यह कमजोरी स्वाभाविक है। उनने यह भी खयाल किया कि इसी भावोद्रेक और प्रेमप्रवाह के करते वह अपने आपको शायद भूल गया है कि उसे वहाँ क्या करना है - वह इस युद्ध-क्षेत्र में क्या लक्ष्य और कौन मिशन (mission) ले के आया है। वह यह भी इसीलिए नहीं सोच रहा है कि इसमें उसकी बदनामी है। इसलिए यदि यह बात उसे याद दिला दी जाए और इसके चलते होने वाली हानि सुझा दी जाए तो शायद फिर तैयार हो जाए। आखिर ऐन लड़ाई के समय का यह आगा-पीछा अब तक सब किए-कराए पर पानी जो फेर देगा। इसीलिए दूसरे अध्या य का श्रीगणेश कृष्ण की इन्हीं बातों से ही हुआ। इसीलिए संजय ने यही बात धृतराष्ट्र से कही भी। फलत: इस अध्याकय के शुरू में ही -

संजय उवाच

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:॥ 1 ॥

संजय ने कहा - इस तरह कृपा से ओतप्रोत, आँसू भरी बेचैन आँखों वाले और विषादयुक्त उस उर्जन से मधुसूदन ने आगे वाली बात कही। 1।

श्रीभगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्य म की र्त्ति करमर्जुन॥ 2 ॥

श्रीभगवान बोले - अर्जुन, ऐसे संकट के समय में - लड़ाई के मैदान में - तुम में यह गंदगी कहाँ से आ गई? गंदगी भी ऐसी कि जिसे भले लोग कभी अपनाते नहीं, जो उन्नति की ओर तो ले जाने वाली नहीं। (हाँ) बदनामी फैलानेवाली (जरूर) है। 2।

क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप॥ 3 ॥

पार्थ, नामर्दी मत दिखाओ। यह तुम्हें शोभा नहीं देती। ओ दुश्मनों को तपानेवाले, हृदय की (इस) नाचीज कमजोरी को छोड़ के खड़ा हो जाओ। 3।

अब अर्जुन ने देखा कि कृष्ण को मेरे दिल की बातों का ठीक-ठीक पता नहीं है। वह समझते हैं कि मैं केवल माया-ममता की कमजोरी से ऐसा कर रहा हूँ इसलिए जरूरत इस बात की है कि सारी बातें खोल के उनके समाने रख दी जाए, ताकि परिस्थिति का पूरा पता उन्हें लग जाए। इससे यह भी होगा कि यदि संभव होगा और उचित समझेंगे तो कोई रास्ता भी सुझाएँगे। नहीं तो युद्ध में तो अब पड़ना हई नहीं। इसलिए -

अर्जुन उवाच

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।

इषुभि: प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥ 4 ॥

अर्जुन कहने लगा - हे मधुसूदन - मधुदैत्य के नाशक -, हे अरिसूदन - शत्रुनाशक -, (चंदन, पुष्पादि से) पूजा करने योग्य भीष्मपितामह तथा द्रोणाचार्य के साथ इस युद्ध में वाणों से लड़ूँ कैसे? 4।

गुरूनह त्त्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।

हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान॥ 5 ॥

गुरुजनों - बड़े-बूढ़ों - को न मार के इस दुनिया में भीख से भी गुजर करना कहीं अच्छा है। अर्थलोलुप गुरुजनों को मारकर तो यहीं पर (उन्हीं के) खून से रंगे पदार्थों को भोगना होगा। 5।

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।

यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिता: प्रमुखे धार्त्तराष्ट्रा:॥ 6 ॥

यह भी तो नहीं मालूम कि हमारे लिए (दोनों में) कौन-सी चीज अच्छी है (और यह भी नहीं जानते कि) हम (उन्हें) जीतेंगे या वे लोग ही हमें जीतेंगे। जिन्हीं को मार के हम जीना नहीं चाहते वही धृतराष्ट्र के बेटे सामने ही डटे हैं। 6।

इस श्लोक के उत्तरार्द्ध के बारे में तो कोई विवाद नहीं। उसका अर्थ तो सभी लोग एक ही समझते हैं। मगर पूर्वार्द्ध में गड़बड़ है और कुछ लोग भटक के दूसरा ही अर्थ कर डालते हैं। असल में यदि इससे पूर्व के श्लोक से इसे जोड़ के उसी प्रसंग में इसे भी मान लें तो यह दिक्कत न हो। इसी के साथ एक बात और भी करनी होगी। हमें इस श्लोक के 'कतरत्' और 'गरीयस्' शब्दों का भी खयाल करना होगा। हमारे जानते तो इसका सीधा अर्थ इस तरह है। पहले श्लोक में जो कहा गया है कि गुरुजनों को न मार के भिक्षावृत्ति से गुजर करना कहीं अच्छा है; क्योंकि उन्हें मारने पर तो परलोक की कौन कहे यहीं पर खून में सने पदार्थों को ही भोगना होगा, उससे दो पक्ष सिद्ध होते हैं। एक तो है युद्ध न करके भिक्षावृत्ति तक के लिए तैयारी और दूसरा है लड़कर के इसी शरीर से खूनी पदार्थों का भोग। इनमें पहले पक्ष को यद्यपि अर्जुन ने अच्छा ठहरा दिया है। फिर भी इस बात की पूरी जानकारी तो उन्हें है नहीं। इसीलिए अगले श्लोक में इसी जानकारी की बात जानने के लिए 'विज्ञ:' शब्द बोलते हैं। जिस विद धातु से यह शब्द बना है उसी से वेद, वेत्ता, विद्वान आदि शब्द बनते हैं। उसका अर्थ है पूरी जानकारी और वही हमें नहीं है यही बात 'न चैतद्विद्मः' - 'यही तो नहीं जानते' - शब्दों में कहते हैं। इसीलिए आगे के भी सातवें श्लोक में पाँचवें जैसा ही 'श्रेय:' शब्द कहके कहते हैं कि जो मेरे लिए अच्छा हो सो कहिए।

एक बात और भी है। पाँचवें में सिर्फ इतना ही कहा है कि गुरुजनों को न मार के भीख माँगना भी अच्छा है और यह सर्वसाधारण बात है। इसका यह मतलब तो हर्गिज नहीं होता कि यह चीज सभी के लिए अच्छी है। हो सकता है क्षत्रिय के लिए ठीक न हो के भी औरों के ही लिए ठीक हो। यह चीज अच्छी है यह आम लोगों की धारणा ही तो उनने कही है, न कि अपने लिए भी उसे खामख्वाह अच्छा कह दिया है। इसीलिए सातवें श्लोक में 'मे' शब्द देकर साफ कहते हैं कि मेरे लिए जो बात 'श्रेय' हो, ठीक हो वही कहिए। यही वजह है कि पाँचवें के उत्तरार्द्ध में जो दलील देते हैं कि रोटी-पैसे के ही लिए दुर्योधन के यहाँ फँसे गुरुजनों को मार के उन्हीं के खून से रँगे पदार्थ यहीं भोगने होंगे, उससे यह झलकता है कि यदि मरने के बाद नरक आदि की बात होती तो एक बात भी थी। तब देखा जाता। तब सोचते कि चलो, यहाँ तो आराम कर लें, आगे देखा जाएगा। मगर यह तो कुछ ऐसी चीज हो जाती है कि उन्हीं के खून से रँगे पदार्थ ही हमें यहाँ मिलते हैं। उसमें एक बात और भी हो जाती है कि ये बेचारे हमारे बड़े-बूढ़े जिन्हीं चीजों को लेके एक प्रकार से पथभ्रष्ट हुए वही चीजें आखिर उनसे हम छीन ही लें, सो भी उनका खून करके, यह कैसा तो लगता है। यह तो कुछ ऐसा मालूम होता है कि वे लोग तो पथभ्रष्ट हुए ही थे। मगर अब हम भी ऐसा करके वैसे ही हो जाएँगे और यह ठीक नहीं लगता। गुरुजनों को 'अर्थकाम' कहने का यही मतलब है। इसी अर्थ में 'कामकामी' (2। 70) शब्द आया है।

इस प्रकार अर्जुन का मन कुछ अजीब पसोपेश और घपले में पड़ा है। क्या वह इन बातों को करते हुए भी यह नहीं जानता कि आखिर क्षत्रिय का ही धर्म तो लड़ना है, दूसरे का नहीं? फिर वह यों ही निश्चय कैसे कर लेता कि भीख माँगना ही अच्छा? मगर इतने पर भी उसके पसोपेश की गुंजाइश सिर्फ इसलिए रह जाती कि आखिर युद्ध में सीधे अपने ही लोगों एवं गुरुजनों को ही मारना पड़े यह तो कोई जरूरी नहीं है। लड़ाई तो ऐसी भी हो सकती है जिसमें यह कुछ भी न करना पड़े। ऐसी दशा में वैसी ही लड़ाई क्षत्रिय का धर्म क्यों न माना जाए, न कि ऐसी? यह शंका तो स्वाभाविक थी। उधर कृष्ण इसी में प्रोत्साहित कर रहे थे। रोकते तो थे नहीं। इसलिए यह भी खयाल होता था कि यदि यह बुरी होती तो वह ऐसा कदापि नहीं करते। यही था पूरा घपला। अर्जुन इसी की सफाई के लिए कहता है कि हमें यह भी तो पता नहीं कि इन दोनों पक्षों में कौन-सा हमारे लिए उत्तम है, अच्छा है।

'गरीयस्' और 'कतरत्' शब्द भी यही अर्थ ठीक है ऐसा सूचित करते हैं। पहले 'गरीयस्' शब्द को ही लें। यह शब्द, गुरु शब्द से बना है और गुरु शब्द का अर्थ है भारी, वजनी, बड़ा, श्रेष्ठ, अच्छा। इसलिए 'गरीयस्' शब्द का अर्थ हो जाता है ज्यादा अच्छा, ज्यादा वजनदार, और भी अच्छा, और भी श्रेष्ठ। अर्जुन के कहने का यही आशय है कि यों तो दोनों ही पक्ष अच्छे हैं, वजनी हैं, श्रेष्ठ हैं। क्योंकि तर्क-दलीलें दोनों ही पक्षों में हैं जिन्हें मैं दे भी चुका हूँ। मगर दोनों में भी ज्यादा वजनदार, ज्यादा अच्छा, ज्यादा श्रेष्ठ कौन है इसका पता मुझे नहीं लगता। मेरे लिए यही तो बड़ी दिक्कत है। मेरी हालत तो 'दोलाचलचित्तवृत्ति:' है, मेरा दिमाग तो झूले की तरह दोनों ही ओर बराबर जा रहा है - कभी इधर और कभी उधर। फलत: निर्णय नहीं कर सकता है।

अब इसी के साथ 'कतरत्' शब्द को भी मिला के देखें। ये दोनों ही शब्द यहाँ पर नपुंसक-लिंगी ही हैं। पुल्लिंग होने पर 'कतर:' और 'गरीयान्' होते। 'कतर' शब्द दो में से एक को चुन लेने, अलग कर लेने के मानी में आता है। इसका अर्थ है दो में कौन-सा? दो से ज्यादे में से चुनना हो तो 'कतम' शब्द बोलते हैं। इसी तरह 'न:' शब्द का अर्थ है हमारा या हमारे लिए। सब मिला के अर्थ हो जाता है कि हमारे लिए इन दोनों पक्षों में कौन-सा पक्ष ज्यादा अच्छा है। जहाँ कोई निश्चित लिंग न हो वहाँ नपुंसक ही बोला जाता है। यहाँ भी वही बात है। दो पक्ष, दो बातें, दी चीजें हैं और इनके लिंग का कोई ठिकाना है नहीं। मगर जब 'न:' का अर्थ करते हैं 'हम लोगों में' या 'हम लोगों में से', तो वह साफ ही पुलिंग हो जाता है। तब तो साफ ही पता चलता है कि अर्जुन अपना और दुर्योधन का खयाल करके ही कहता है कि हम दोनों में कौन वजनी है, कौन जीतेगा, यह मालूम नहीं। मगर उस दशा में उसे 'कतरो नो गरीयान्' ऐसा ही कहना उचित था। श्लोक भी ठीक ही रह जाता है। इसलिए मानना पड़ता है कि यह बात नहीं है। साफ ही पुलिंग की जगह नपुंसक देने से निस्संदेह वही अर्थ ठीक है जो हमने माना है।

जो लोग इस नपुंसकवाली बात को मान के भी आगे के 'यद्वाजयेम' आदि को इसी के साथ मिलाते हुए यह अर्थ करते हैं कि 'हम जीतें या हमें वे लोग जीत लें - इन दोनों में श्रेयस्कर कौन है, यह भी समझ नहीं पड़ता', उनका भी कहना ठीक नहीं है। पहले की सारी दलीलें ऐसे अर्थ के विरुद्ध जाती हैं। शायद 'जयेम' और 'जयेसु:' का विधिलिंग देख के वे लोग इस भ्रम में पड़ गए हैं। मगर यहाँ तो चाहे विधिलिंग हो या भविष्य की क्रिया हो हर हालत में भविष्य ही अर्थ होगा 'जीतेंगे'। पहले के श्लोक में 'भुंजीय' क्रिया भी तो ऐसी ही है। मगर वहाँ उनने भी भविष्य ही अर्थ किया है। फिर यहाँ भी वही क्यों न किया जाए? विधिलिंग और आशीर्लिंग का भविष्य भी अर्थ होता है यह तो 'भविष्यति लिंगलौटौ' (3। 3। 173) सूत्र में पाणिनि ने खुद माना है। अर्जुन का तो यही कहना है कि हम यह भी तो नहीं जानते कि हम जीतेंगे या वे लोग। इस पूर्वार्द्ध में अर्जुन ने एक तो यही कहा है। इसके पहले दूसरा यह कि इन दोनों बातों में कौन ज्यादा अच्छी है। यह भी नहीं जानते।

इन दोनों को एक साथ घोलमट्ठा करके ऐसा कहना कि हम जीतें या वह जीतें इन दोनों में हमारे लिए कौन बात अच्छी है यह मालूम ही नहीं है, कुछ अच्छा जँचता भी नहीं। भविष्य की अनिश्चित बात को अभी तौलना ठीक नहीं लगता। मारना और मरना तो निश्चित है, चाहे जीते कोई। इसलिए उसके बारे में अच्छे-बुरे का खोद-विनोद ठीक हो सकता है। मगर जो चीज अनिश्चित है उसके भले-बुरे का क्या विचार? उसी में से किसी एक को पहले ही चुन लेने का क्या प्रसंग? और जीत-हार में किसी एक को चुनने का तो यों भी प्रश्न नहीं उठता। हार तो कोई भी नहीं चाहता। फिर अर्जुन क्यों चाहने लगा? यह तो परले दर्जे की नादानी ही होगी। हाँ, उस सिलसिले में मरने-मारने का प्रश्न और उसे चुनने या पसंद करने न करने की बात जरूर उठती है। हमने उसे माना भी है। अर्जुन ने वही बात 'या नेवहत्वा' में कही भी है। श्लोक में 'यद्वा' और 'यदिवा' शब्द भी जीत की संदिग्धता ही को सूचित करते हैं। उनका ऐसा ही अर्थ होता है। 'यदि' शब्द तो खामख्वाह शक की सूचना करता है। उसी का साथी 'यद्वा' शब्द भी यहाँ यही काम करता है।

इस श्लोक में तो अर्जुन साफ-साफ कहता है कि एक तो यही पता नहीं कि भिक्षावृत्ति ही हमारे लिए ठीक है, या मारकाट के बाद मिलने वाला राजपाट। दूसरे; अगर हम राजपाट की ही बात ठीक मान भी लें तो यह भी तो पता नहीं कि हमीं जीतेंगे या वही लोग। इसलिए यह तो 'गुनाह बेलज्जत' सी ही बात लगती है। मारकाट भी करें और राजपाट भी न हाथ लगे, यह तो और भी बुरा होगा। यह भी नहीं कि लड़ने में अपने लोगों की मारकाट न होगी। यहाँ तो साफ ही देखते हैं कि जिन्हें मारने से हटना चाहते हैं वही दुर्योधनादि ही सामने डटे हैं। यह अर्थ इतना स्वाभाविक और मौजूँ है कि इसमें ननु नच करने की जगह रही नहीं जाती।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढ़चेता:। यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥ 7 ॥

कुछ भी निश्चय न कर सकने के फलस्वरूप मुझे कुछ सूझता ही नहीं और धर्म के निर्णय के बारे में मेरी बुद्धि घपले में पड़ गई है। (इसीलिए) आप से पूछता हूँ। मेरे लिए जो ठीक हो वही पक्का-पक्की कहिए। मैं आपका शिष्य हूँ। मुझ शरण में आए को - शरणागत को - सिखाइए - रास्ता बताइए। 7।

यहाँ धर्म का अर्थ है कर्तव्य और वह कर्तव्य-अकर्तव्य दोनों का ही वाचक है। अर्जुन का कहना यही है कि मैं कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय कर सकता नहीं। मेरी अक्ल काम करती ही नहीं। वह चकरा उठी है। इसका कारण वह बताता है। कार्पण्यरूपी दोष। कृपण शब्द से कार्पण्य बनता है और इसका अर्थ है कृपणता। उसके जानते कृपणता ही वह दोष वा बुराई है जिसने बुद्धि को घपले में डाल दिया है। शराब या भाँग के नशे में जैसे दिमाग चकराता है वैसे ही यहाँ कृपणता के नशे से बुद्धि चकरा गई है। कहाँ नशा और दोष एक ही चीज है। कृपण और कृपणता किसे कहते हैं इसके संबंध में बृहदारण्यक उपनिषद के तीसरे अध्या।य के आठवें ब्राह्मण का दसवाँ मंत्र इस तरह है - 'यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणोऽथ य एतदक्षरं गार्गिविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स ब्राह्मण:।' इसका आशय यही है कि 'गार्गि; इस अविनाशी आत्मा को जाने बिना ही जो मर जाता है वही कृपण है, और जो इसे जान के मरता है वही ब्राह्मण है।'

गीता को जब उपनिषद का ही रूप मानते हैं तब तो कृपण और कृपणता के अर्थ के संबंध में उपनिषद के उक्त वचन का सहारा लेना ही होगा। आमतौर से कंजूस के अर्थ में कृपण शब्द बोला है। मगर वह मतलब तो यहाँ है नहीं। अर्जुन की कंजूसी का यहाँ सवाल ही है क्या? उसे कुछ खर्चना तो है नहीं। यह भी नहीं कि युद्ध में शक्ति खर्चने से डरता हो। उसके सामने तो मरने-मारनेवाला सवाल चट्टान की तरह खड़ा है। उसी को ले के स्वर्ग, नरक और धर्मनाश, कुलनाशादि की समस्याएँ उठ पड़ी हैं। फिर खर्च की कंजूसी की क्या बात? वह यह खुद-ब-खुद कहता भी कैसे कि मैं कंजूसी कर रहा हूँ? और अगर कंजूसी होती तो फिर कृष्ण का जवाब दूसरे ढंग का क्यों होता? वह तो आत्मा की अजरता, अमरता और अविनाशिता से ही शुरू करते हैं। इससे भी पता चलता है कि आत्मा के यथार्थ स्वरूप के न जानने को जो बृहदारण्यक में कृपणता के नाम से पुकारा है उसी से यहाँ अभिप्राय है। नहीं तो प्रश्न कुछ और उत्तर कुछ दूसरा ही हो जाएगा न? मर्ज दूसरा और दवा निरालीवाली बात जो हो जाएगी। इसलिए कृपण शब्द का वास्तविक अर्थ तो यही है। कंजूस के अर्थ में तो वह इसीलिए बोला जाता है कि वैसा आदमी भी अज्ञानी होता है। वह अपनी चीज का ठीक उपयोग या खर्च जानता नहीं। इसीलिए तो मुनासिब मौके पर ही उलटा खिंच जाता और काम बिगाड़ देता है जिसके फलस्वरूप दूसरे ढंग से कहीं ज्यादा खर्च हो जाता है। आत्मा को ठीक-ठीक न जानने वाले भी उलटा ही काम करते रहते हैं। इसीलिए अर्जुन जानना चाहता है कि आत्मतत्त्व क्या है, आत्मा का असली रूप क्या है, बुरे-भले कर्मों का क्या रहस्य है, आदि बातें उसे अच्छी तरह समझा दी जाए। ताकि उसके दिमाग का अँधेरा दूर हो के कर्तव्य पथ प्रशस्त हो सके। इसीलिए 'उपहतस्वभाव' में जो स्वभाव शब्द है और जिसका अर्थ पहले ही आत्मा का असली रूप या हस्ती किया जा चुका है वह भी ठीक ही है। अज्ञान के चलते आत्मा के स्वरूप का उपहत, विकृत या मरने-मारने वाला मालूम होना ठीक ही है।

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।

अवाप्य भूमावसपत्नमृ द्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥ 8 ॥

क्योंकि भूमंडल का निष्कंटक समृद्ध राजपाट देवताओं का आधिपत्य - इंद्र का पद - मिल जाने पर भी मुझे तो (ऐसी चीज) नजर नहीं आ रही है जो इंद्रियों (तक) को सुखा डालने वाले मेरे इस शोक को दूर कर सके। 8।

संजय उवाच

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परंतप।

न योत्स्य इति गोविंदमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥ 9 ॥

संजय कहने लगा - शत्रु को तपाने वाला अर्जुन हृषीकेश - कृष्ण - से इस तरह कह के और (उन्हीं) गोविंद से (यह भी) कह के कि (हर्गिज) न लड़ूँगा, चुप हो गया। 9।

तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत।

सेनयोरुभयोर्म ध्ये विषीदन्तमिदं वच:॥ 10 ॥

(इस पर), दोनों फौजों के बीच (खड़े) शोकाकुल अर्जुन से कृष्ण (उसका) कुछ उपहास करते हुए से कहने लगे। 10।

यहाँ यह जान लेना होगा कि अर्जुन की इन आखिरी बातों से कृष्ण को पता चल गया कि यह मर्ज बहुत गहरा है। उनने बखूबी समझ लिया कि उनका पहला खयाल कि अर्जुन सिर्फ माया-ममता में पड़ के ही मानव स्वभाव सुलभ कमजोरियों के करते आगा-पीछा कर रहा है, गलत है। यदि यह बात होती तो पहली ही ललकार से काम चल गया होता। मगर यहाँ तो बात ही दूसरी मालूम हुई। अर्जुन तो बहुत गहराई में घुस चुका था। आमतौर से धर्मशास्त्रों के आदेशों और धर्म के अनुशासनों का अब उस पर तब तक असर नहीं हो सकता था जब तक उसकी असली कमजोरी दूर न कर दी जाए। जब तक उसे यह पता न लग जाए कि आत्मा अविनाशी है, वह किसी को मारती नहीं और न खुद मरती है, तब तक उसमें युद्ध की मुस्तैदी आ नहीं सकती।

असल में जो साधारण समझ के या बिना समझवाले लोग होते हैं उन्हें तो पशुओं की तरह नीति एवं धर्मशास्त्रों के वचनों की लाठी से ही हाँक ले जाते हैं और जहाँ चाहें भिड़ा दे सकते हैं। उनके लिए यही बात काफी होती हैं। मगर जो आगे बढ़ गया और भले-बुरे का विचार स्वतंत्र रूप से खुद ही कर सकता है उसके सामने ये आदेश और वचन बेकार होते हैं। इतना ही नहीं। गुरुजनों की आज्ञा भी उस पर कोई असर डाल नहीं सकती। जब तक उसके दिमाग में वह बात जँच न जाए। यही कारण है कि कृष्ण जैसे महापुरुष की भी बात का प्रभाव अर्जुन पर जरा भी न पड़ सका और वह टस से मस न हो सका।

इसीलिए कृष्ण को भी गहराई में जाना पड़ा। इस प्रकार जिस सूक्ष्म एवं दार्शनिक दिमाग से वह दलीलें कर रहा था उसी का आश्रय ले के उसे निरुत्तर करना और मनाना पड़ा। वह बार-बार भीष्म, द्रोण आदि के मरने और अपने मारने की बातें करता था। इसलिए लाचार हो के कृष्ण को सबसे पहले इस मरने-मारने का रहस्य बताना एवं भंडाफोड़ करना ही पड़ा। उनने साफ ही देखा कि इसे तो आत्मा के ककहरे का भी ज्ञान नहीं है - यह जानता ही नहीं कि वह क्या चीज है। यह तो समझता है कि सचमुच वह मरने-मारने वाली कोई चीज है। यही कारण है कि वह धर्म-अधर्म, हिंसा-अहिंसा; पुण्य-पाप और स्वर्ग-नरक का ताल्लुक आत्मा से ही जोड़ के हिचकता है। क्योंकि युद्ध में जब आत्मा ने हिंसा की तो पाप भागी होके खामख्वाह नरक जाएगी ही। इसीलिए वह हिंसा से बचना चाहता है। फलत: कुलसंहार के भयंकर दोषों से उसकी आत्मा काँपती है। क्योंकि वह उसमें अपनी और दूसरों की भी - सभी की - अधोगति देखता है।

इस प्रकार आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जाने बिना ही यह सारी बला है, यह कृष्ण को साफ नजर आया। उनने देख लिया कि उस स्वरूप के जानते ही यह सारा परदा कुहासे की तरह फट जाएगा। इसीलिए उनने आत्मा के ही स्वरूप को ले के गीतोपदेश आरंभ किया। यदि आत्मा अकर्त्ता और अविनाशी सिद्ध हो जाए तो फिर स्वर्ग-नरक और पाप-पुण्य का सवाल उठता ही कहाँ है? इसलिए पहले जड़ को ही साफ करना उनने उचित समझा और जरूरी भी। क्योंकि आगे चल के जो कर्मों और कर्मयोग का विवेचन उनने किया है वह भी आत्मज्ञान के बिना नहीं समझा जा सकता और न वह योग ही हासिल हो सकता है। यह बात पहले विस्तार के साथ बताई जा चुकी हैं। कर्मयोग का भी मूलाधार आत्मविवेक ही माना गया है। इसीलिए आत्मविवेक पहले और कर्म का विवेक पीछे इसी दूसरे ही अध्यावय में आया है। शेष अध्यायों में तो उसी का प्रकारांतर से स्वतंत्र रूप से स्पष्टीकरण किया जाकर एक-एक चीज पर काफी प्रकाश डाला गया है।

यहाँ जो प्रहास या उपहास की बात कही गई है उसका भी मतलब समझ लेना होगा। 'इव' शब्द देकर पूरा प्रहास रोका गया है। कहने का मतलब यह हो जाता है कि ऐसा मालूम पड़ता था कि कृष्ण अर्जुन का उपहास कर रहे हैं - उसकी मखौल उड़ा रहे हैं। अगले श्लोक में उनके कहने का जो तरीका है उससे भी ऐसा ही प्रतीत होता है। वह कहते हैं कि बातें तो बड़ी अक्ल की करते हो। मगर अफसोस ऐसे पदार्थों का करते हो जिनका करना चाहिए ही नहीं। यह एक तरह का परिहास ही तो है। यदि किसी विपक्षी से बातें करनी हों तो यही बात परिहास हो जाएगी। मगर अर्जुन तो शिष्य बन के शरण में आ चुका है। वह इहलोक तथा परलोक के सुखों से पूरा विरागी भी हो चुका है, जिससे साफ हो जाता है कि वह आत्मज्ञान का पूर्ण अधिकारी बन चुका है। भला ऐसे आदमी का उपहास कृष्ण जैसा विवेकी महापुरुष कैसे कर सकता है? यह तो उनकी महत्त्व के विपरीत अत्यंत छोटी बात और विवेकशून्यता हो जाएगी। उपहास तो प्रतिवादी, प्रतिपक्षी या शत्रु का करते हैं, या उसका जो समानता का दावा करे। जो शरणागत हो, शिष्य हो, संसार और स्वर्गादि के सुखों से विरागी हो, उन्हें कुछ न समझता हो और ज्ञानप्राप्ति की ही जिसे भूख हो उसका उपहास कैसा? इसीलिए कह दिया है कि कृष्ण अर्जुन का उपहास करते जैसे मालूम हुए। जिस तरह उनने उपदेश देना शुरू किया उसे बाहर से देख के सारी बातों को न जानने वाला कोई भी आदमी उपहास ही मान सकता है। यही वैसा कहने का आशय है।

असल बात यह है कि उस समय की कृष्ण की भावभंगी अजीब और मनोवृत्ति निराली थी। उनकी विलक्षण दशा थी। वैसे संकट के समय एकाएक अर्जुन की वैसी हालत देख के, जिसका उन्हें या किसी को जरा-सा आभास भी पहले न मिला था, उन्हें आश्चर्य से दंग हो जाना पड़ा कि यह क्या हो गया! इस लड़ाई को ले के वह काफी दौड़े-धूपे। परेशान भी पूरे हो चुके थे। इसी के करते उनके सगे भाई बलराम एक तरह से विरागी भी हो गए थे। दुर्योधन के साथ न सिर्फ उनकी, बल्कि औरों की भी, काफी तनातनी हो चुकी थी और मामला बहुत दूर तक पहुँच चुका था। ऐसी दशा में जिस चीज की जरा भी आशा-आशंका न थी वही हो जाने से एक तो उन्हें लड़कपन जैसे जँची भी। आखिर वह बच्चा तो था नहीं। उसकी तर्क-दलीलों से ही साफ झलकता है कि काफी समझदार और दूरंदेश था। फिर उसने मैदाने जंग में आने के जरा भी पहले इसका क्यों न इशारा तक किया? आखिर जो बातें वह वहाँ कह गया। वह कोई नई तो थीं नहीं। उन्हीं के लिए तो वर्षों से सारी तैयारी हो रही थी। इसीलिए अर्जुन का लड़कपन समझ के उन्हें कुछ क्रोध भी आया। हँसी भी आई! साथ ही, उन्हें एकाएक भारी अंदेशा भी हो गया कि कहीं सचमुच सारा गुड़ गोबर ही न हो जाए। क्योंकि ऐसी आकस्मिक घटनाओं के चलते जो न हो जाए उसी में आश्चर्य हो सकता है। अर्जुन का वह बच्चों जैसा रोना-धोना, उसकी वह परेशानी और बेचैनी, उसकी वह निराली मनोवृत्ति वगैरह देख के उन्हें दया भी हो आई। उनका बहुत पुराना प्रेमी तो था ही और उसी की यह दशा! इसके सिवाय जब इतनी गंभीर बातों का उपदेश करना था और बारीकियों की तह में अच्छी तरह घुसना एवं उसे भी घुसाना था, तो गंभीरता का होना भी जरूरी था।

इस प्रकार उनमें आश्चर्य, क्रोध, हँसी, दया; अंदेशा और गंभीरता आदि अनेक बातों तथा भावनाओं एक ही साथ जमघट हो गया। उन्हीं के साथ आगे-पीछे की जानें कितनी ही घटनाओं की स्मृति भी आ धमकी। ऐसे मौके पर तो स्वभावत: हजारों बातें याद आई जाती हैं। ऐसी दशा में कृष्ण का उस समय का, जब उनने गीतोपदेश शुरू किया, स्वरूप, चेहरा और भावभंगी - ये सभी - निराले ढंग के थे, अजीब थे, अलौकिक थे। आधे दर्जन से ज्यादा खयालों और भावनाओं का, जो प्राय: एक साथ कभी पाई जाती ही नहीं और परस्पर विरोधी-सी हैं, एक साथ सम्मिलित एक अलौकिक चीज थी, जिसका ठीक-ठीक वर्णन किया जा सकता नहीं। इसीलिए यहाँ यद्यपि 'परिहास करते हुए की तरह' कह के ही खत्म किया। तथापि अंत में अठारहवें अध्यालय के 77वें श्लोक में तो उस रूप को - कृष्ण की उस दशा और भावभंगी को - अत्यंत अद्भुत, अत्यंत निराला, न भूतो न भविष्यति, कह दिया है। वहाँ संजय साफ ही कहता है कि कृष्ण के उस अद्भुत रूप को बार-बार बखूबी याद करके मुझे महान आश्चर्य हो रहा है - मैं आश्चर्य में डूब रहा हूँ और रह-रह के मुझमें आनंद का प्रवाह भी बह रहा है - 'तच्च संस्मृत्य सस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:। विस्मयो मे महान राजन् हृष्यामि च पुन: पुन:'। सचमुच ही वह अकथनीय, अनिर्वचनीय आकृति थी।

कुछ लोगों ने 'इव' देखकर ही प्रहास का अर्थ मुस्कुराहट करके संतोष किया मगर यह तो प्रहास शब्द के साथ ज्यादती है। प्रहास, परिहास और अवहास ये शब्द प्राय: एक ही मानी में आते हैं। अवहास में कुछ अपमान की बात भी साफ मालूम होती है जो शेष दो में पाई नहीं जाती। किंतु अर्थात आती है। केवल मुस्कुराने का सवाल तो वहाँ था नहीं। वहाँ तो पेचीदा पहेली खड़ी थी जिसे सुलझाना था। इसलिए तो सारी दलीलें दी गई है। केवल मुस्कुराहट की बात कहने पर सारी परिस्थिति का अनादर करना हो जाएगा।

अब रही एक ही बात। आत्मा को अविनाशी, अजन्मा अकर्त्ता सिद्ध करने के पूर्व यह प्रश्न हो सकता है कि जब भीष्मादि का मरना-मारना सामने है तो देखना चाहिए कि भीष्मादि कहने से कौन-सी चीज समझी जाती है। भीष्म शब्द से दो ही वस्तुओं का बोध हो सकता है - या तो शरीर का या उसमें रहने वाली आत्मा का। इन दोनों को ही मान के कृष्ण ने उत्तर देना उचित समझा और दिया भी है। मगर पहले आत्मा की ही बात उठा के पीछे देह की इसीलिए उठाई है कि आमतौर से लोग भीष्म आदि शब्दों से आत्मा को ही समझते हैं, न कि देह को। अर्जुन ने भी स्वर्ग, नरक आदि की बातें उठा के खुद मान लिया है कि भीष्म का अर्थ है आत्मा। क्योंकि शरीर तो यहीं रह जाता, सड़-गल या जल जाता है। वह तो स्वर्ग या नरक में जाता है नहीं। वहाँ जाने वाली चीज तो शरीर से जुदा आत्मा ही है। इसीलिए उसी आत्मा की बात ले के पहले कृष्ण ने कहना शुरू किया। मगर जो लोग भीष्मादि कहने से उनके भौतिक शरीरों या इंद्रियादि को ही समझते हैं उन्हें भी मुँह तोड़ उत्तर देना ही चाहिए, इसीलिए आगे 'मात्र-स्पर्शा:' (2। 14) 'अंतवंत इमे' (2। 18) तथा 'अथ चैन' (2। 26) में उनकी बात भी आई है। इसीलिए पहले -

श्रीभगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंति पंडिता:॥ 11 ॥

श्री भगवान ने कहा - (यह अजीब बात है कि एक ओर तो) तू उन्हीं की चिंता करता है जिनकी करना न चाहिए और (दूसरी ओर) अक्ल की बातें बोलता है! (क्योंकि) पंडित लोग (तो) मरे-जियों की चिंता करते ही नहीं। (शोक या चिंता के मानी हैं यहाँ परवाह करना)। 11।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।

न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम॥ 12 ॥

ऐसा तो हो सकता नहीं कि हम पहले कभी न भी थे, तुम्हीं न थे (या) ये राजे ही न थे और यह भी नहीं कि इसके बाद भी हम सभी न होंगे। 12।

आत्मा को अविनाशी सिद्ध करने में कृष्ण की जो दलील यहाँ है उसका आशय यही है कि सभी आत्माओं के तीन विभाग हो सकते हैं - कहने वाली (कृष्ण की) सुनने वाली (अर्जुन की) और शेष उन सभी की जो या तो वहाँ लड़ने को मौजूद थे या और जगह थे। लेकिन मरने-मारने का प्रसंग होने के कारण ही और जगह वालों का नाम न लेके सिर्फ रणक्षेत्र में मौजूद तीन तरह के लोगों की ओर इशारा किया है। इसीलिए 'ये राजे' - "इमे जनाधिपा:" - कहने का अभिप्राय केवल राजा लोगों से ही न होके जो वहाँ मौजूद थे सभी से है। यह ठीक है कि कुछ को छोड़ सभी राजे या क्षत्रिय ही थे - उन्हीं की प्रधानता थी। इसीलिए सभी को राजे - 'जनाधिपा:' कह दिया। जैसे जहाँ ब्राह्मण अधिक हों उस गाँव को ब्राह्मणों का गाँव कह देते हैं। क्योंकि आखिर कुछ और लोग तो गाँव में खामख्वाह होंगे। नहीं तो काम कैसे चलेगा?

जो कुछ तर्क युक्ति दी है उससे यह साफ हो जाता है कि जब सभी आत्माएँ मौजूद ही हैं तो वर्तमान के लिए तो कोई बात हई नहीं। रह गई भूत और भविष्य की बात सो तो साफ ही कह दिया है कि न तो पहले ही ऐसा कोई समय था जब हम सभी मौजूद न थे और न आगे ही ऐसा वक्त होगा जब हम न रहें। नतीजा यह हुआ कि जो पदार्थ सभी समयों में रहे वह तो नित्य एवं अविनाशी ही हुआ। नित्य या अविनाशी का लक्षण ही यही है कि जो तीनों कालों में - सदा - रहे। फिर आत्मा के मरने का सवाल आता ही कहाँ से है? मरने का अर्थ ही है न रहना, और आत्मा को तो आगे भी सदा रहना ही है।

यदि किसी का खयाल हो कि पहले वाली आत्मा दूसरी थी, वर्तमान वाली और ही है और आगे तीसरी ही होगी। भूत, वर्तमान, भविष्य में एक ही कैसे रहेगी? भूत, वर्तमान और भविष्य की शरीरें तो निश्चय ही तीन हैं। फिर उनमें रहने वाली आत्माएँ भी तीन क्यों न हों? तो उसका उत्तर यह है कि -

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहांतरप्राप्ति र्धीर स्तत्र न मुह्यति॥ 13 ॥

जिस तरह आत्मा या जीव के इस शरीर की लड़कपन, जवानी, बुढ़ापा (ये तीन दशाएँ होती हैं), ठीक उसी तरह दूसरी देहों - जन्मों की प्राप्ति भी है। (इसलिए) उस बात में समझदार (कभी) धोखे में नहीं पड़ता है। 13।

इसके संबंध में ज्यादा बातें पहले ही कही जा चुकी हैं और यह बात खूब साफ की जा चुकी है। कहने का निचोड़ यही है कि जिस प्रकार इस जन्म में बालपन, बुढ़ापा और जवानी के तीन विभिन्न एवं भूत, वर्तमान तथा भविष्य कालवर्ती शरीरों में एक ही आत्मा सभी मानते हैं, जरा भी शक नहीं करते और न धोखे में पड़ते हैं। ठीक उसी प्रकार तीन या ज्यादा जन्मों की भूत, वर्तमान और भावी देहों में भी एक ही आत्मा क्यों न मानी जाए? तर्क-युक्ति तो दोनों जगह एक ही है। एक शरीर की तीनों अवस्थाएँ भूत, वर्तमान और भविष्य की तो हईं। बाल्यावस्था की अपेक्षा यद्यपि जवानी एवं बुढ़ापा भविष्य की चीजें हैं। फिर भी बाल्य के गुजरने पर जवानी ही वर्तमान होती है, बालपन भूत और बुढ़ापा भावी। श्लोक में तीन अवस्थाएँ जो शरीर की दिखाई गई हैं वह एक दूसरे से बिलकुल ही जुदी हैं और उन्हीं में सारा शरीर गुजर जाता है। इन तीन अवस्थाओं से यहाँ कोई खास मतलब यह नहीं है कि कितने वर्ष तक कौन-सी रहती है। यहाँ बाल की खाल खींचना है नहीं।

इस प्रकार तर्क दलीलों से आत्मा की अमरता सिद्ध हो गई। मगर संसार का काम सिर्फ तर्क दलीलों से ही तो नहीं चलता। यहाँ तो कुछ ठोस बातें हैं जिनसे इनकार किया जा सकता है नहीं, और उन्हीं के अनुसार यह बराबर देखा जाता है कि प्रियजनों के संयोग-वियोग से सुख-दु:ख होते ही हैं। चाहे आत्मा अमर हो या उससे भी बढ़ के हो। मगर शरीरांत होने पर सगे-संबंधियों को अपार कष्ट होता ही है, और यही बात इस युद्ध के चलते विस्तृत रूप में होने वाली है। फिर क्यों न इससे किनाराकशी की जाए? भीष्मादि कहने से शरीर भी तो लिए ही जाते हैं और उनका नाश होता ही है। इसी बात का उत्तर यों देते हैं -

मा त्रा स्पर्शास्तु कौंतेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥ 14 ॥

हे कौंतेय, भौतिक पदार्थों के संबंध सरदी-गरमी की तरह कभी सुख और कभी दु:ख देते रहते हैं (जरूर)। मगर यह ठहरे तो आने-जाने वाले ही और इसीलिए चंदरोजा ही। (अतएव) इन्हें तो बरदाश्त करना ही होगा हे भारत! 14।

मात्र स्पर्श ही गीता (5। 21-22) में बाह्य स्पर्श कहा है। स्पर्श नाम है संबंध का। बाह्य कहते हैं भौतिक को। वहीं देखने से यह साफ हो जाता है।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ 15 ॥

क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ, सुख-दु:ख में एक रस रहने वाले जिस पुरुष को ये पदार्थ उद्विग्न नहीं कर पाते वही अमृतत्व - मुक्ति - प्राप्त करता है। 15।

'सम दु:ख-सुख' का यह मतलब नहीं कि दोनों को एक बना दें। ऐसा तो होना असंभव है। दोनों दो चीजें हैं। फिर एक कैसे होंगी? यह भी न कि दु:ख या सुख जरा भी मालूम ही न हों। चेतन पुरुष के लिए यह भी अनहोनी चीज है। किंतु जैसे पानी की लकीर बनते ही मिट जाती है ठीक वैसे ही दिल-दिमाग पर जब ये दोनों नाममात्र का ही असर करें तभी मनुष्य सम दु:ख-सुख कहा जाता है। सारांश यह कि दिल-दिमाग की गंभीरता (serenity or balance) को ये बिगाड़ न सकें। यही गीता का साम्यवाद है जो अभी पहली बार आया है।

इस प्रकार आत्मा को अविनाशी या नित्य और शरीरादि को अनित्य तो बता दिया। इससे काम भी चल गया। मगर कौन-सा पदार्थ नित्य और कौन-सा अनित्य है इसे कौन जानें? हरेक पदार्थ को गिन-गिन के देखना और समझना तो असंभव है। क्योंकि पदार्थ ठहरे अनंत। फिर सभी को जाना कैसे जाए? और अगर किसी को न जान सके तो उसी को लेकर भ्रम और गड़बड़ हो सकती है कि यही आत्मा तो नहीं है? इस तरह अनिश्चय का वायुमंडल बना रह सकता है। फलत: पूर्व के प्रतिपादन से पूरा काम चलता दीखता नहीं। इसीलिए एक तो नित्य और अनित्य या सत्य और मिथ्या के बारे में कोई दार्शनिक नियम, लक्षण तथा परिभाषा चाहिए। ताकि बेखटके पहचान हो सके। दूसरे, आत्मा की पहचान भी पक्की होनी चाहिए कि वह कौन है। नहीं तो शायद घपला हो जाए। ऐसे मामले में जितनी सफाई हो जाए उतना ही अच्छा।

एक बात और भी है। ऐसी शंका कर सकते हैं कि यह क्यों न माना जाए कि इस शरीर में जो आत्मा है उसका अस्तित्व इससे पहले न था? वह अस्तित्व तो पहले-पहल इसी शरीर में ही आया है, हुआ है। इसी तरह यह भी क्यों न मान लिया जाए कि इसी शरीर के अंत के साथ आत्मा का भी अंत हो जाता है और आगे उसे पा नहीं सकते? यह भी प्रश्न हो सकता है। अतएव इसका पूरा-पूरा समाधन हो जाना जरूरी है। आगे के 16वें से लेकर 25वें श्लोक तक यही बात समझाई गई है। उसमें भी पहले शुरू किया है इस आखिरी शंका को ही लेकर कि इस शरीर में जो आत्मा है वह पहले न थी।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्त त्त्व दर्शिभि:॥ 16 ॥

जो पदार्थ पहले न हो उसका अस्तित्व होई नहीं सकता - वह बनी नहीं सकता, (और) जो मौजूद है - सत्तावाला है - उसका नाश या खात्मा भी नहीं हो सकता। इन दोनों बातों का निर्णय तत्त्वदर्शी लोगों ने (ही) कर दिया है। 16।

यहाँ अंत शब्द तत्त्वदर्शी शब्द के साथ होने से निश्चय या निर्णय के ही अर्थ में आया है। क्योंकि तत्त्वदर्शी तो दार्शनिक होते हैं। जिस बात का आखिरी फैसला वाद-विवाद के बाद कर लेते हैं उसे ही सिद्धांत, राद्धांत तथा कृतांत भी कहते हैं। इन तीनों शब्दों का एक ही अर्थ है। वह यह है कि जिन पदार्थों के बारे में अंत या अंतिम बात हो चुकी, फैसला हो चुका वही सिद्धांत है। 'सांख्ये कृतांते' (18। 13) में कृतांत शब्द और उसके अंत शब्द का यही अर्थ है।

इस तरह सिद्ध हो जाता है कि यदि आत्मा नाम का कोई पदार्थ पहले न होता तो उसका अस्तित्व इस शरीर में होता ही नहीं। इसी तरह जब यहाँ वह है तो आगे भी रहेगा। क्योंकि जो चीज है वह खत्म हो नहीं सकती। इसलिए आत्मा अनित्य है। उसकी पहचान यों है -

अविनाशि तु त द्धिद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्क र्त्तु मर्हति॥ 17 ॥

अविनाशी तो वही वस्तु - आत्मवस्तु - जानो जो इस समूचे जगत को फैलाती, बनाती है और जो इसमें व्याप्त है - इसकी रग-रग में घुसी है। इस अविनाशी - निर्विकार - का नाश कोई भी कर नहीं सकता। 17।

जो सभी पदार्थों का स्व है, निजी रूप है, अपना रूप है, स्वरूप है वही तो उसकी आत्मा है, सबकी आत्मा है। यह स्व कहाँ नहीं है? यह तो सभी जगह है, सभी में है। आखिर अपना तो सभी का कुछ न कुछ होता ही है। इसीलिए वह आत्मा अविनाशी है। क्योंकि स्व तो रहेगा ही। और नहीं, तो जो पदार्थ नष्ट होगा उसके नाश की हस्ती, सत्ता तो रहेगी ही और वह भी तो स्व है। कभी पदार्थ के रूप में वह स्व, वह आत्मा नजर आती है तो कभी पदार्थ के नाश के रूप में कभी विधि रूप में (Positively) तो कभी निषेध रूप में (negatively)। इसीलिए तो उसे अविनाशी और नित्य मानना ही होगा। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कभी यह स्व, यह आत्मा रहेगी न। क्योंकि जब कुछ न होगा, तो और नहीं तो न होने का स्व या अस्तित्व तो रहेगा ही। कम से कम उसे तो उस समय मानना ही होगा। नहीं तो यह कहेंगे कैसे कि कुछ नहीं रह गया है? इसीलिए उसे नाश की आत्मा मान के नित्य और अविनाशी मानते है। जब विधि और निषेध उसी के रूप हैं और सभी पदार्थ भी उसी के हैं तो यह भी ठीक ही है कि उसी ने सबका प्रसार किया है, जगत का यह ताना बाना फैलाया है।

मगर शरीर, घड़ा, कपड़ा, रोटी, जमीन वगैरह की क्या हालत है? ये तो सर्वत्र फैले हैं नहीं। शरीर में कपड़े का, कपड़े में शरीर का पता कहाँ है? दोनों में घड़े का और घड़े में भी दोनों की सत्ता है कहाँ? इसी प्रकार सभी पदार्थों को एक-एक करके देख सकते हैं। यहाँ तो अपनी-अपनी डफली बज रही है। किसी का किसी से ताल्लुक नहीं है, नाता-रिश्ता हई नहीं। सभी अपने ही तक सीमित हैं। यह तो घोर विभिन्नता है, अजीब जुदाई है, निराली फूट है। यह अनोखा गृहयुद्ध (Civil war) है भयंकर गृहकलह है। यही तो वास्तविक कौरव-पांडव का महाभारत है। यहाँ कोई किसी को पूछता नहीं। फलत: सभी आपस में एक दूसरे से टकरा के खत्म हो जाते हैं। कभी घड़े से टकरा के शरीर खत्म होता है, तो कभी शरीर से टकरा के घड़ा और दोनों से टकरा के कपड़ा। यही हालत सभी पदार्थों की है। ठीक ही है। मेल में, ऐक्य में जीवन है, जिंदगी है, सृष्टि है। परमाणुओं का परस्पर या प्रकृति का पुरुष से संयोग होने से ही मेल होने से हो तो सृष्टि होती है। विपरीत इसके उनकी जुदाई या पार्थक्य होने से ही प्रलय होती है, विनाश होता है। जब गुण आपस में मिलते हैं तभी सृष्टि होती है और ज्योंही तन गए कि प्रलय आ धमकी। यही बात जगत के सभी पदार्थों की है। मगर इन सभी के भीतर मालिक बनके स्व बैठा है, आत्मा मौजूद है और इन बच्चों के घरौंदों के बनने-बिगड़ने का तमाशा देख रही है। वह निरंतर न रहे तो आखिर यह तमाशा देखे कौन? यही बात इस तरह कहते हैं -

अंतवंत इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माषु ध्य स्व भारत॥ 18 ॥

इन शरीरों के मालिक अविनाशी तथा अचिंत्य (आत्मा) के ये शरीर तो विनाशी ही कहे गए हैं - माने गए हैं - । इसलिए युद्ध करो हे अर्जुन! 18।

जब इन शरीरों का नाश होना ही है तो फिर युद्ध में आनाकानी क्यों? ये शरीर अगर लड़ाई में खत्म न हुए तो कहीं और ही जगह दूसरी ही चोट खा के या बीमारी से ही खत्म होंगे ही। और नहीं तो बिजली गिरने, पानी में डूबने या हिंसक जानवरों के आक्रमण से ही खत्म होंगे। तब हर्ज ही क्या कि यहीं रणांगण में खत्म हों? फर्क इतना ही है कि यहाँ 'समर मरण अरु सुरसरि तीरा। राम काज क्षणभंग शरीरा।' है। यहाँ मरने से यश है, शान है, कर्तव्य पालन का संतोष है, मनस्तुष्टि है, और अंत में सद्गति है। मगर और जगह दूसरी तरह मरने में यह बात नहीं होने से जबर्दस्त घाटा है। इसलिए जरूर लड़ो।

आत्मा को जो अप्रमेय कहा है और जिसका अर्थ है कि बुद्धि या दिमाग भी जिसे पकड़ नहीं सकता, जो उसकी भी पहुँच के बाहर की चीज है, उसका मतलब साफ है। यदि वह किसी की पकड़ या कब्जे में आ जाए तो एक तो उसका स्वातंत्र्य जाता रहे। दूसरे पराधीन होने पर वह जिसके अधीन होगी उसके हाथों उसका सब कुछ किया जा सकता है, यहाँ तक कि खात्मा भी। दिमाग या बुद्धि आदि भी तो शरीर आदि की तरह भौतिक पदार्थ ही ठहरे, जिनकी अपनी-अपनी खिचड़ी अलग पकती रहती है। इसीलिए उनका खात्मा भी होता है। और अगर आत्मा भी उनकी मातहती में आ जाए तो वह कैसे बच पाएगी? तब तो उसकी खैरियत न होगी लेकिन यहाँ तो बात ही दूसरी है। बुद्धि भले ही चली जाए, खत्म हो जाए। मगर उसके स्व को निषेध रूप में रहना ही है और वही स्व है आत्मा। फिर आत्मा बुद्धि के पंजे में कैसे रहे? वह तो साफ ही उसकी पहुँच से बाहर है। यही कारण है कि उसके बारे में तरह-तरह के खयाल होते हैं। कोई उसे मरणशील मानता है, तो कोई उसे मारनेवाली ही कहता है। कोई नित्य मानता है, तो कोई अनित्य। जब बुद्धि ठोकरें खा के वहाँ तक पहुँची नहीं सकती, तो आखिर और हो ही क्या सकता है? जब वहाँ तक बुद्धि पहुँचती ही नहीं तो उसे मारने-मरने वाली कहना केवल नादानी है, उलटी बात है। क्योंकि इससे तो ऐसा हो जाता है कि बुद्धि ने उसे पहचान लिया है, उसकी हकीकत जान ली है, वह उस तक पहुँच चुकी है। मारने-मरने की बात तो शरीरादि में ही है और यह है आपसी टक्कर, जैसा कि अभी कहा है। आत्मा में यह बातें मानना कोरा अज्ञान है, मूर्खता है। यही बात आगे यों लिखी हैं -

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हंति न हन्यते॥ 19 ॥

(इसलिए) जो इस आत्मा को मारनेवाली मानता है और जो इसे मरनेवाली समझता है उन दोनों ही को असलियत मालूम नहीं है। क्योंकि यह तो न मारनेवाली है (और) न मरनेवाली। 19।

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।

अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ 20 ॥

(क्योंकि) यह (आत्म वस्तु) न तो कभी जनमती है और न मरती है (और यह भी इसीलिए कि) यह पहले न रह के पीछे होती जो नहीं और हो के उसके बाद नहीं रहती भी नहीं। इसीलिए यह जन्मरहित, नित्य-काल से जो घिरी न हो - हमेशा रहने वाली और प्राचीन (से भी प्राचीन) चीज है (जो) शरीर नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती। 20।

इसमें एकाध बातें कुछ समझने की हैं, हालाँकि वह नई नहीं हैं। जो बात 'नासतो विद्यते' में कही जा चुकी है वही यहाँ दूसरे शब्दों में कही गई है। श्लोक के पूर्वार्द्ध के आधे में आत्मा के जनमने-मरने का निषेध है। शेष आधे में उसका कारण दिया गया है। जन्म लेने का मतलब ही है पहले न रह के पीछे होना या अस्तित्व में आना। परंतु आत्मा में यह बात नहीं है। वह तो पहले भी थी ही। फिर उसका जन्म हो कैसे? इसी तरह मरने के मानी है कभी रह के बाद में न रहना। मगर आत्मा में तो यह भी बात नहीं है। उसके कभी भी न रहने का तो सवाल ही नहीं है। तब उसका मरना कैसे संभव है?

आत्मा को बुद्धि पकड़ तो सकती नहीं। फिर भी उधर जाने की कोशिश करती रहती है। उसके लिए आत्मा तक पहुँचने की सीढ़ी यही है कि जो चीजें उसकी पकड़ में आती जाएँ उन्हें छाँटती चली जाए। इसी को उपनिषदों में 'नेति-नेति' की रीति या निषेध प्रक्रिया कहा है। इस तरह सब भौतिक पदार्थों को छाँटते-छाँटते जो सभी का मूलाधार बच रहेगा आत्मा वही पदार्थ होगा। क्योंकि निराधार तो कोई चीज होती नहीं। इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में यही निषेधवाली रीति का अनुसरण है। इसीलिए 'अज' का अर्थ है जन्मरहित या जन्म लेने वालों से निराला। नित्य का अर्थ है जो समय से बँधा न हो। अनित्य पदार्थों को समय घेरे रहता है, वह समय के ही पेट में, उसके भीतर रहते हैं। मगर आत्मा के बारे में यह बात नहीं है। नित्य शब्द यद्यपि निषेध रूप में मालूम नहीं होता, तथापि ऐसा ही अर्थ करना ही होगा। शाश्वत का भी यही अर्थ है। जब समय से घिरा नहीं है तब उसे हमेशा रहने वाला कहने के मानी क्या हैं? इसका सीधा अर्थ है कि वह समूचे समय से घिरा है। मगर यह बात पहले कथन के विरुद्ध हो जाती है। जो समय से घिरा न हो वही समूचे समय से घिरा हो, यह कुछ अजीब-सी बात हो जाती है। बात दरअसल यह है कि हरेक भौतिक पदार्थ कुछ न कुछ समय से घिरे रहते हैं - किसी वक्त जन्म के कभी खत्म हो जाते हैं। यह भी बात है कि समय तो उनके जन्म के पहले भी था और खत्म होने के बाद भी रहता ही है। इसीलिए प्रत्येक भौतिक पदार्थों की यही बात है कि किसी न किसी समय के ही भीतर रहते हैं। समूचे समय के भीतर कोई भी नहीं रहता है। मगर आत्मा तो उनसे भिन्न है। क्योंकि निषेध की बात कह चुके है। इसीलिए उसे समूचे समय से घिरी वस्तु या हमेशा रहने वाली कह देते हैं। न कि सचमुच समय का अधिकार उस पर है। इसीलिए शाश्वत शब्द भी निषेधात्मक ही है। यही हालत पुराण की भी समझिए। पीछे जितने पदार्थ मिलते जाते हैं सभी का निषेध करते हैं कि यह आत्मा नहीं है यह आत्मा नहीं है। इस तरह पीछे बढ़ते जाने पर जो पुरानी से भी पुरानी चीजें मिलें उनका भी निषेध करने के बाद अर्थत: यह दिया जाता है कि वह तो पुरानों से भी पुरानी है। जब जन्म होता ही नहीं तो खामख्वाह उसे पुराने से भी पुरानी कहना ही पड़ता है?

इस तरह अज और पुराण शब्द पीछे की तरफ जा के आत्मा को ढूँढ़ते और उसकी ओर इशारा करते हैं। उत्तरार्द्ध का 'न हन्यते' आगे की तरफ जा के ढूँढ़ता और इशारा करता है और नित्य एवं शाश्वत शब्द बीच में रह के वही काम करते हैं। जैसे आवश्यकता पड़ने पर यदि कोई चूहा किसी को बिल्ली का परिचय कराना चाहे तो बिल्ली के निकट तो वह जा सकता नहीं; किंतु दूर से ही इशारा करता है कि देखा वह है, वह या जैसे उल्लू पक्षी सूर्य की ओर इशारा करे; ठीक उसी तरह बुद्धि आत्मा की ओर सिर्फ इशारा करती ह कि देखो वह है, वह । वह उसे ठीक-ठीक बता नहीं सकती।

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।

कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हंति कम्॥ 21 ॥

(इसलिए) हे पार्थ, जो पुरुष - मर्दाना - इस आत्मा को जन्मरहित, विकार शून्य, अविनाशी और काल के घेरे से बाहर जानता है - मानता है, समझता है, अनुभव करता है - वह (भला) किसे मरवाता (और) किसे मारता है? 21।

अब यह प्रश्न होता है कि तो मरना-मारना आखिर कहते हैं किस चीज को? दुनिया में मरने-मारने जैसी चीज नहीं है, यह तो कही नहीं सकते हैं। यह तो आए दिन की चीज है, हमारे रोज के व्यवहार की बात है। हम हमेशा ही यह मरा, वह मरा, इसने मारा, उसने मारा, फलाँ ने मरवाया, की बातें करते ही रहते हैं। सभी लोग ऐसी ही बातें करते हैं। यह तो कही नहीं सकते कि सबके-सब पागल हैं। इसलिए इतना तो मानना ही होगा कि यह कोई चीज है। अब रही बात कि वह क्या चीज है? और अगर यह कुछ भी है तो फिर उसके लिए चिंता-फिक्र करना मुनासिब ही है। फिर भी इसकी चिंता न करके खुशी की चीज इसे कैसे मानें? इसका उत्तर इस तरह देते हैं -

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ 22 ॥

जिस तरह पुराने कपड़ों को (खुशी-खुशी) छोड़ के (कोई भी कपड़ा पहने) आदमी दूसरे नए कपड़े पहनता है। ठीक उसी तरह देह धारण करने वाली - देही - आत्मा पुराने शरीरों को छोड़ के दूसरे नए शरीरों में पहुँचती है - उन्हें स्वीकार करती है। 22।

यहाँ कई बातों का खयाल करना होगा। पहली बात तो यह कि जन्म-मरण नए-पुराने कपड़े बदलने जैसी ही बातें हैं। जब ताजे से ताजे कपड़ों को भी खुशी-खुशी छोड़ के एकदम नए कपड़े पहनने में लोग आनंद मनाते हैं तो मरने में गम क्यों मनाया जाए? यह तो उलटी बात होगी। इस श्लोक में 'जीर्ण' शब्द का फटा-पुराना अर्थ नहीं है। नए शरीरों का भी तो त्याग होता ही है और नए कपड़ों का भी। महाभारत में अभिमन्यु जैसा कोरा जवान भी तो मारा गया था। तो क्या उसके बारे में कोई और सिद्धांत लागू होगा? या कि उसके संबंध में गम मनाना ही ठीक था? ये बातें तो ठीक नहीं। इसलिए जीर्ण शब्द का अर्थ है त्यागने के योग्य या जिसके त्यागने का समय आ गया था। 'जृ' धातु, जिससे यह शब्द बना है, का अर्थ भी वय की हानि ही है, नी अवस्था - उम्र - का पूरा हो जाना। जिसे छोड़ेंगे उसकी अवस्था तो छोड़नेवाले के लिहाज से पूरी हो ही जाती है। या नहीं तो, यों समझें कि अधिकांश लोग तो पुराने ही थे। इसीलिए जीर्ण शब्द प्रयुक्त हुआ है। मगर पहली ही बात ज्यादा युक्तिसंगत लगती है।

दूसरी बात है नए शरीर के ग्रहण करने या जन्म लेने की। कोई ऐसा मान सकता है कि पुराने के छोड़ने और नए कपड़े के पहनने में तो देर नहीं लगती। किंतु छोड़ने के बाद फौरन ही नया पहन लेते है। बीच में समय गुजरने पाता ही नहीं। जब यही उदाहरण दिया गया है मरने और जनमने का, तब तो नया जन्म भी फौरन ही होना चाहिए। बीच में जरा भी समय नहीं लगना चाहिए। लेकिन यह समझ गलत होगी। कपड़े का दृष्टांत केवल इसी मानी मानी में दिया है कि एक तो कपड़े वाले की ही तरह शरीर वाला - देही - जीव शरीर से जुदा है। दूसरे वह पुराने शरीर को छोड़ के नए को खुशी से स्वीकार करता है। बस। इससे आगे दृष्टांत का कोई भी मतलब नहीं है। नहीं तो हमें यह भी मानना पड़ जाएगा कि जैसे धोती वगैरह के बदलने में ऐसा होता है कि नई धोती को पहले ऊपर से पहन लेते और पीछे पुरानी को हटाते है, शायद उसी तरह जीव भी नए शरीरों को धारण करके ही पीछे पुराने शरीरों को छोड़ता हो। और अगर इतनी दूर जाने की या तो जरूरत नहीं है; या जाने में अड़चन है; क्योंकि यह बात सरासर असंभव है, तो फौरन ही शरीर ग्रहण करने की बात तक जाने में भी वही अड़चन है। इसीलिए वहाँ तक जाने की जरूरत नहीं है।

हमने जो यह कहा है कि नए शरीरों को धारण करने के बाद ही पुरानों के छोड़ने की भी कल्पना की जा सकती है, वह केवल कल्पना ही नहीं है और न गीता के इस श्लोक से ही उसकी संभावना मानी जाती है। बृहदारण्यक उपनिषद के चौथे अध्याीय के चौथे ब्राह्मण के तीसरे मंत्र में जोंक या कीड़े का दृष्टांत देकर कहा गया है कि जिस प्रकार एक तृण पर रेंगने वाला कीड़ा जब उसके आखिरी सिरे पर पहुँचता है तो जब तक दूसरे तृण का सहारा उसे न मिल जाए पहले तृण से अपने शरीर को कभी नहीं समेटता है, हटाता है। ठीक उसी तरह इस शरीर के त्याग के बारे में भी आत्मा की हालत है। मगर यह बात कोई अक्षरश: लागू न कर ले, इसीलिए आगे फौरन कह दिया है कि इस शरीर को छोड़ने के बाद अविद्या - सूक्ष्म और कारण शरीर - का आश्रय ले के आत्मा दूसरे शरीर में जाती है - 'तद्यथा तृणजलायु का तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानमुपसंहरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानमुपसंहरति।'

इसी कथन से समाधन भी हो जाता है। इस स्थूल शरीर के छोड़ने पर भी अविद्या नामक अज्ञान तो रहता ही है। वही तो जन्म-मरण का कारण है। उसी अविद्या से बना सूक्ष्म शरीर भी तो रहता ही है। उसी के आधार से आत्मा इस स्थूल शरीर से बाहर जाती है और समय पा के दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करती है। गीता के पंदरहवें अध्याीय के 'ममैवांशो जीवलोके' (15। 7-8) आदि दो श्लोकों में साफ ही यह बात कही भी गई है कि चक्षु आदि इंद्रियों और मन आदि को ही ले के वह जीव शरीर छोड़ता और नए शरीर में जाता है। यही उसकी सवारी है। अपने लक्ष्य स्थान दूर देश में पहुँचने के लिए। हम भी यह चीज पहले ही अच्छी तरह समझा चुके हैं। असल में फौरन ही दूसरे शरीर का मिलना असंभव भी तो है। कोई बने-बनाए शरीर में घुसा तो देते नहीं, जैसी बनी-बनाई कोट में शरीर घुसाते हैं। शरीर तो गर्भ में बनता है। सो भी पूरे दस महीने तक लग जाते हैं। मगर इस दस महीनों के पहले भी तो यह मानना ही होगा कि यह जीव माता और पिता दोनों के ही रज-वीर्य में रहता है। तभी तो दोनों के संयोग से बच्चे के शरीर का श्रीगणेश होता है।

फिर भी इतने से ही काम चलता नही। रज और वीर्य तो अन्न से बनता है। इसलिए यह भी मानना ही होगा कि रज-वीर्य में जाने के पहले वह जीव अन्न में था जिसे स्त्री -पुरुष दोनों ने खाया था। अब प्रश्न है कि अन्न में कहाँ से कैसे आया? इसका उत्तर छांदोग्य, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषदों में लिखी पंचाग्नि-विद्या के प्रकरण में मिलेगा। वहीं लिखा गया है कि जीव मेघ में हो के वृष्टि के द्वारा अन्न या फलादि में आता है। मेघ में भी क्रमश: चंद्रलोक, आकाश, वायु और धूम में होता हुआ आता है। यह बात भी पहले कर्मवाद के प्रकरण में विस्तार से लिखी जा चुकी है कि वह चंद्रलोक में कैसे पहुँचता है। गीता में भी उत्तरायण-दक्षिणायन मार्गों का जो वर्णन (8। 24-25) आया है उसमें लिखा है कि अग्नि, धूम आदि के जरिए ही वहाँ पहुँचता है। यह तो बड़ी ही गंभीर और अलौकिक बात है। मगर है यह सही। इसी प्रकार कर्मों के चलते एक जगह शरीर छोड़ने के बाद वही जीव हजारों कोस पर जा के जन्म लेता है। तब फौरन कैसे शरीर ग्रहण करेगा? बीच में तो काफी समय जरूर ही लगेगा।

प्रश्न हो सकता है कि आत्मा का भी अंत क्यों न हो जाए? जब और चीजें खत्म होती हैं तो वह भी खत्म हो जाए, नष्ट हो जाए। पानी में डूब के, सड़ के, आग में जल के, हवा से सूख के या अस्त्र-शस्त्रादि की चोट से सभी पदार्थ नष्ट होते ही हैं। तब यह क्या बात है कि आत्मा भी इसी तरह नष्ट नहीं हो जाती? इसका उत्तर देते हैं कि ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि -

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।

न चेनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥ 23 ॥

इसे शस्त्र काटते ही नहीं, न अग्नि जलाती है। पानी भी भिगोता नहीं और न हवा सुखाती है। 23। (क्यों? इसीलिए कि, - )

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥ 24 ॥

यह काटा जा सकता नहीं, जलाया भी नहीं जा सकता। यह न (तो) भिगोया ही जा सकता है और न सुखाया जा सकता ही है। (इसीलिए) यह (आत्मा रूप पदार्थ) समय के घेरे से बाहर, सर्वत्र मौजूद, सभी का आधार, अचल और हमेशा रहने वाला है। 24।

यहाँ सनातन शब्द का वही अर्थ है जो पहले शाश्वत का कह चुके हैं। इसी प्रकार जो 'येन सर्वमिदं ततम्' (2। 17) में आत्मा का सब पदार्थों में घुसा रहना कहा गया है वही सर्वगत के मानी हैं। सबों के आधार की बात जो पहले आई है वही स्थाणु का अर्थ है। सिर्फ अचल शब्द नया है। मगर अव्यय शब्द पहले जा चुका है। उसके ही मानी में अचल आया है। विकार या गड़बड़ होने के लिए पूरी वस्तु को या उसके कुछ हिस्से को ही हिलाना-डुलाना जरूरी हो जाता है। जब तक उसमें चाल या क्रिया (action) न हो, किसी तरह की भी गड़बड़ या खराबी - विकार - का होना असंभव है। परंतु जो सर्वत्र मौजूद है उसमें क्रिया होगी कैसे? क्रिया का अर्थ ही है एक स्थान से दूसरे में पहुँचना या जाना।

श्लोक में जो अच्छेद्य आदि शब्द आए हैं उनका अर्थ हमने किया है काटा जा सकता नहीं, आदि। इन शब्दों के बनने में व्याकरण का जो 'ण्य' प्रत्यय लगा है उसे कृत्य प्रत्यय कहते हैं और पाणिनि के 'शकि लिंग च' (3। 3। 172) सूत्र के अनुसार कृत्य और लिंग प्रत्यय 'सकने' अर्थ में भी आते हैं। यहाँ यही अर्थ ठीक बैठ जाता है भी। जब हथियार वगैरह काट सकते ही नहीं, जब उनकी ताकत ही नहीं कि आत्मा को काट सकें, तो फिर काटें कैसे? इस तरह पहले श्लोक में नहीं काटने आदि की जो बात कही गई है उसका कारण इस श्लोक में स्पष्ट कर दिया है। आखिर ये शस्त्रादि काट या जला भी सकें तो कैसे? जब यह आत्मा ही है तो जैसे हमारी और आपकी, अर्जुन और कृष्ण की आत्मा है, वैसे ही अस्त्र, शस्त्र, आग, पानी, हवा वगैरह की भी। यह तो सभी की स्व है, सभी का स्वभाव है, सभी का अस्तित्व है, सत्ता है। तब यह कैसे हो कि अग्नि अपने आपको ही जलाए? क्योंकि तब तो खुद अग्नि ही खत्म हो जाएगी न? फिर औरों को जलाएगी कैसे? जब वह रही ही नहीं, जब उसका अस्तित्व रही नहीं गया तो वह जलाए किसे? यही बात पानी, हवा आदि की भी है। भला अपने आपको ही ये खत्म करें! यह हिम्मत किसे होगी? यह तो सोचना भी भूल है।

पहले के 6 और 7 श्लोकों में जो 'भुंजीय', 'जयेम' आदि में लिंग आया है उसका भविष्य के अलावे यह 'सकना' भी अर्थ हो सकता है। उसका तब यह मतलब होगा कि इन गुरुजनों को मार के ज्यादे से ज्यादा खून से रँगे पदार्थों को भोग ही तो सकते हैं। और कौन कहे कि कौन जीत सकता है? हम जीत सकते हैं या वही लोग, अभी से यह कौन बताए?

हाँ, तो इस श्लोक में जो आत्मा को अचल कहा उसकी तो वजह साफ ही है। जब वह स्थूल, या व्यक्त पदार्थ नहीं है जो इंद्रियों के कब्जे में आ सके तो उसे हिलाए-डुलाएँगे कैसे? और जब वह बुद्धि की भी पकड़ के बाहर है तो यह बात और भी असंभव है। इसलिए उसे निर्विकार - विकारशून्य - ही मानना पड़ेगा। यही बात आगे इस तरह कहते हैं -

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥ 25 ॥

यह आत्मा व्यक्त (स्थूल पदार्थ - दृष्टि में आने वाली - तो) है नहीं और न बुद्धि की ही पकड़ में आ सकती है। (इसीलिए) यह निर्विकार कही जाती है। अतएव इसे इस तरह जान लेने पर तुम्हारा बार-बार रोना-धोना ठीक नहीं है। 25।

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥ 26 ॥

और अगर तुम इसे बराबर जनमने और मरने वाली ही मानते हो, तो भी ओ बहादुर - शक्तिशाली भुजा वाले - तुम्हारा इस तरह अफसोस करना अच्छा नहीं है। 26।

पहले श्लोक में अनुशोचितम् में जो अनु शब्द आया है। उसी की जगह यहाँ उत्तरार्द्ध में एवं आया है। उसका भी वही अर्थ है कि बार-बार शोक करना या रोना-धोना ठीक नहीं है।

जातस्य हि ध्रु वो मृत्यु र्ध्रु वं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥ 27 ॥

क्योंकि पैदा होने वाले की मौत ध्रुव - अवश्यंभावी - है। मरे हुए का जन्म भी ध्रुव है। इसलिए जिन बातों में किसी का वश हई नहीं उन्हीं के बारे में तुम्हारी यह चिंता-फिक्र कभी मुनासिब नहीं हो सकती है। 27।

जब जन्म और मरण को कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती - जब ये दोनों बातें अनिवार्य हैं - तो इनके बारे में हाय-हाय कैसी? यदि आसमान के तारे टूटें और इससे हम लोगों का भारी नुकसान हो जाए, या अगर भूकंप से चारों ओर हड़कंप पड़ जाए तो भी कोई समझदार हाय-हाय क्यों करेगा, कि उफ, हम ये बातें रोक न सके?

इतना ही नहीं। जिन शरीरों के मरने या नष्ट होने का खयाल करके हाय-तोबा का यह पँवारा फैला रहे हो आखिर उनकी हकीकत भी तो देखो और विचारो। ये चीजें तो सिर्फ 'चार दिनों की चाँदनी' है, सपने की संपत्ति है, जादूगर के तमाशे है। क्या यह नहीं होता कि सपने में भी हम बंधु-बांधवों से मिलते-जुलते, बातें करते और मौज करते हैं? हम हजार कोस दूर कहीं पड़े हैं, या जेल के भीतर बंद हैं। फिर भी सपने में स्वजनों के साथ हमारा मधुर मिलन तो हो ही जाता है और उससे आनंद भी होता ही है। मगर एकाएक नींद खुली और सब मजा किरकिरा! सभी प्रेमी, स्वजन और गुरुजन गायब! ऐसी बेमुरव्वती की कुछ पूछिए मत! लेकिन क्या इसके लिए हम माथा पटकते, छाती पीटते या हाय-हाय करते हैं? क्यों? इसीलिए न, कि यह मिलन कुछी देर पहले लापता था, सपने में मिलने वाले ये स्वजन लापता थे, नजर के ओझल थे, दीखते न थे। फिर बीच में कुछ देर के लिए आ गए, दिख गए, मिल गए! और फिर? फिर थोड़ी ही देर बाद एकाएक गायब हो गए, लापता हो गए, कहीं दीखते ही नहीं, हजार ढूँढ़ो सही, मगर मिलते ही नहीं! मालूम पड़ता है, जिस अदर्शन से अव्यक्त दशा से व्यक्त हुए थे, आए थे, दीखने लगे थे, पुनरपि उसी हालत में चले गए, उसी अव्यक्त और अदर्शन में जा मिले!

इसीलिए महाभारत के अंत के स्त्री पर्व में अव्यक्त न कहके अदर्शन शब्द ही आया है - 'अदर्शनादापतिता: पुनश्चादर्शनं गता:। न ते तव न तेषां त्वं तत्र का परिदेवना' (2। 13)। इसका आशय यह है कि ये सभी अदर्शन से ही आए थे और पुनरपि वहीं चले गए। न तो वाकई में ये तुम्हारे हैं और न तुम इनके। फिर इसमें अफसोस क्या? इसी श्लोक का 'तत्रकापरिदेवना' गीता के अगले श्लोक में भी है। हर्बर्ट स्पेन्सर (Herbert Spencer) नामक पश्चिमी दार्शनिक ने अपनी पुस्तक 'मूल सिद्धांत' (First principles) में यही बात यों लिखी है कि यदि किसी पदार्थ का पूरा परिचय प्राप्त किया जाए तो पता लगेगा कि वह किसी अदृश्य दशा से निकल के कुछ दिनों बाद फिर उसी दशा में चला जाता है - 'An entire history of anything must include its appearance out of the imperceptible and its disappearance into the imperceptible' (page 253) यही बात स्वयं कृष्ण इस तरह कहते हैं -

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तम ध्या नि भारत।

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥ 28 ॥

हे भारत, सभी भौतिक पदार्थ आरंभ में - पहले - अव्यक्त ही होते हैं, अदृश्य ही रहते हैं, बीच में व्यक्त और दृश्य होते हैं और अंत में फिर खामख्वाह अदृश्य हो ही जाते हैं। तब इसमें चिंता क्या? 28।

इस पर अब एक ही बात उठती है और वह यह है कि - कहना-सुनना और तर्क-युक्ति तो यह सब कुछ ठीक है और बात भी दर हकीकत यही है। मगर दिक्कत यही है कि हमें ऐसी मालूम होती नहीं। अगर हमारे नित्य के अनुभव में यह चीज आ जाए तभी न हम समझें कि दुरुस्त है? नहीं तो जंगल में पका फल हमारे किस काम का? उस तक हमारी पहुँच हो तभी न हमारी भूख बुझे? ये सभी बातें तो सपने के साम्राज्य या बच्चों के खिलवाड़ की मिठाई जैसी ही हैं। इसीलिए इनसे असली काम तो होता नहीं, पेट तो भरता नहीं और यही है ठोस चीज। निरी बातों से तो कुछ होता जाता नहीं।

और नहीं तो कम से कम पढ़े-लिखों को तो इन बातों का अनुभव हो। नहीं तो कैसे जानें कि ये चीजें सही हैं, सत्य हैं? बड़े-बूढ़े बताएँ तो भी मान सकते हैं। मगर सो भी तो नहीं है। और यह बात भी क्या है कि ऐसी खाँटी और पक्की चीज जनसाधारण की समझ में न आए? वह सौदा ही कैसा जो आम लोगों की पहुँच के बाहर हो? वह उनके किस काम का, यों चाहे वह सोना ही क्यों न हो? लाख अच्छा-भला क्यों न हो? आखिर किसी वस्तु की सचाई-झुठाई की तराजू भी तो यह जनसाधारण का अनुभव ही है और इस आत्मा के बारे में वही अनुभव लापता ठहरा! और हमें समझाना भी तो जनसाधारण को ही है न? तब इसे क्योंकर माना जाए? इसी का उत्तर आगे देते हुए कहते हैं कि यह कुँजड़े की साग-भाजी नहीं है कि दर-दर मारी फिरे। यह तो जौहरी का अमूल्य रत्न है जिसे बिरले ही परख पाते हैं -

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।

आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥ 29 ॥

इस (आत्मा) को जाननेवाला कोई बिरला ही होता है। (जानकर भी दूसरों को इसे) बताने वाला तो (और भी) बिरला होता है। (यदि कोई बताने वाला हुआ भी तो) इसके संबंध में बात सुनने वाला (तो उससे भी) बिरला होता है। (खूबी तो यह है कि) इसे पढ़-सुन के भी कोई जानता ही नहीं - शायद ही कोई मुश्किल से जाने। 29।

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।

तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥ 30 ॥

(इसलिए जब) हे भारत, सभी के देह की मालिक यह (आत्मा) कभी भी मारी जा सकती है नहीं, तो (नाहक) किसी भी भौतिक पदार्थ के बारे में तुम्हारा अफसोस करना अच्छा नहीं है। 30।

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।

धार्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥ 31 ।

अपने धर्म का खयाल करके भी तुम्हारा (युद्ध से) डिगना उचित नहीं है। क्योंकि क्षत्रिय के लिए (तो) धर्म-युद्ध से बढ़ के कोई चीज हो ही नहीं सकती। 31।

धर्मशास्त्र की बात पहले तो चला सकते न थे। क्योंकि अर्जुन स्मृतियों के कोरे विधानों और आदेशों को आँख मूँद के मानने को तैयार न था। वह तो कोई अनाड़ी या साधारण आदमी था नहीं कि स्मृतियाँ अपनी लाठी से उसे हाँक सकें। वह तर्क-दलील की कसौटी पर कसके ही किसी चीज को भली-बुरी मानने को तैयार था। इसीलिए कृष्ण ने पहले यही किया और दार्शनिक युक्तियों से उसे माकूल किया। उसके बाद स्मृतियों के आदेश भी मजबूती के साथ काम कर सकते थे। इसीलिए पीछे उनकी चर्चा भी दो श्लोकों में आ गई है। मगर यह यों ही है। इसका कोई स्वतंत्र महत्त्व नहीं है। इसीलिए गीताधर्म या गीता की अपनी चीजों के भीतर इसकी गिनती नहीं। यह वैसी ही बात है जैसी अपयश और मान-अपमानवाली 33-37 श्लोकों में कही बातें। वह तो गीताधर्म में आती हईं नहीं, यह निर्विवाद है। वे कही गई हैं व्यावहारिकता की दृष्टि से ही अर्जुन में केवल गरमी लाने के लिए। गीता व्यावहारिक मार्ग को ही पकड़ के अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है और यश-अपयश की बात सबसे ज्यादा चुभने के कारण ही व्यावहारिक है।

धर्म-युद्ध कहने का मतलब यह है कि युद्ध के समय क्या किया जाए क्या न किया जाए, आदि बातों के लिए कुछ सर्वसम्मत नियम-कायदे हमेशा से माने जाते रहे हैं। हेग की परंपरा (Hague Convention) के नाम से वर्तमान समय में भी ऐसी अनेक बातें सर्वमान्य समझी जाती हैं। इन्हीं में घायलों की सेवा-शुश्रूषा, युद्धबंदियों के साथ सलूक, जो स्थान खुले (open) घोषित कर दिए गए उन पर आक्रमण न करना, आम जनता (Civil population) पर प्रहार न करना जहरीली गैस का प्रयोग न करना आदि बातें आ जाती हैं। हालाँकि अपनी-अपनी गर्ज से आज कभी इन नियमों में किसी को कोई तोड़ता है, तो किसी को दूसरा ही। फलत: नात्सी जर्मनी के इस युद्ध में उसके पक्ष के सभी ने ही इन्हें तोड़-ताड़ के खत्म कर दिया है। महाभारत के भीष्म पर्व के देखने से पता चलता है कि युद्धारंभ के पहले ऐसे सभी नियम दोनों पक्षों ने साफ-साफ स्वीकार कर लिए थे। अतएव इन्हीं नियमों के अनुसार होने वाले युद्ध को धर्मयुद्ध और इन्हें तोड़-ताड़ के होने वाले को अधर्मयुद्ध कहा है। यहाँ धर्म शब्द का दूसरा अर्थ असंभव है। धर्मशास्त्र में लिखा युद्ध ही धर्म युद्ध है यह भी मतलब यहाँ नहीं है। सभी युद्ध तो धर्म शास्त्र में ही लिखे रहते हैं। इसलिए जब तक उनके संबंध में लागू पूर्वोक्त नियमों को नहीं कहते तब तक धर्मयुद्ध कहना बेकार है। और जब स्वधर्म कही चुके हैं, तो फिर दुहराने का क्या प्रयोजन?

जो लोग यहाँ स्वधर्म की बात लिखी देख के इसकी मिलान आगे के 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (2। 47) से करते हैं वह भी भूलते हैं। यह प्रकरण ज्ञान का ही है। 'ऐषा तेऽभिहिता' (2। 39) से ही कर्मयोग का प्रकरण शुरू होता है। इसलिए बीच में ही उसकी बात यहाँ कैसे आ सकती है? इसी प्रकार 'श्रेयान् स्वधर्म: (3। 35 तथा 18। 47) में भी स्वधर्म शब्द स्मृतियों के धर्मों के लिए ही नहीं आया है। वह तो व्यापक अर्थ में कर्ममात्र का ही वाचक है। यह बात हम पहले ही अच्छी तरह लिख चुके हैं। इन नियमों के साथ लड़ी जाने वाली लड़ाई भी धर्मशास्त्र-सम्मत होनी चाहिए, यही आशय यहाँ है। 'श्रेयस' शब्द के बारे में भी जान लेना चाहिए कि मोक्ष के अर्थ में उसका खासतौर से प्रयोग गीता में कहीं शायद ही हुआ हो, जैसा कि कठोपनिषद् के 'अन्यच्छ्रेरयोऽन्यदुतैव' तथा 'श्रेयश्च प्रेयश्च' (1। 2। 1-2) में आया है। तीसरे अध्या य के शुरू के दूसरे श्लोक के 'श्रेय:' शब्द को कल्याण या मोक्ष के अर्थ में ले सकते हैं और इसका कारण भी आगे लिखा है कि कहाँ ऐसा अर्थ होता है। मगर यहाँ कल्याण ही अर्थ उचित लगता है। इसीलिए आगे 'श्रेय: परमवाप्स्यथ' (3। 11) में श्रेय: का विशेषण परं हो जाने से परमश्रेय या परमकल्याण का अर्थ मोक्ष ठीक लगता है। क्योंकि वही तो आखिरी कल्याण है। असल में प्रशस्य शब्द से ही यह श्रेयस शब्द 'प्रशस्यस्य श्र:' (5। 3। 60) पाणिनि सूत्र की सहायता से बनता है। इसमें प्रशस्य का अर्थ है प्रशंसनीय या प्रशंसा के योग्य अर्थात अच्छा। उसी से बने श्रेयस शब्द का प्रयोग करते हैं ऐसी ही जगह जहाँ कइयों में एक को अच्छा समझ के चुन लेना हो। इससे स्वभावत: ज्यादा अच्छा सभी से अच्छा इसी मानी में श्रेयस शब्द आता है और हमने यही लिखा है। जब दो में एक को अच्छा लिखते हैं तो उतने ही से यह बात अर्थात सिद्ध हो जाती है कि वह बहुत अच्छा है। दूसरे की अपेक्षा कहने का यही अर्थ होता है। गीता में आमतौर से ऐसा ही पाया जाता है भी। इसी के अर्थ में 'विशिष्यते' शब्द आया है। दोनों का ठीक-ठाक एक ही अर्थ है। हाँ, जहाँ किसी का मुकाबिला न हो, या दो में एक को चुनना न हो वहीं पर मोक्ष आदि अर्थ आते हैं, जैसा कठोपनिषद् का दृष्टांत दिया गया है। वहाँ श्रेयस शब्द का स्वतंत्र प्रयोग है।

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।

सुखिन: क्षत्रि या : पार्थ लभंते युद्धमीदृशम्॥ 32 ॥

हे पार्थ, अकस्मात या आप ही आप खुले स्वर्ग के द्वार के रूप में हाजिर इस तरह का युद्ध तो खुशकिस्मत क्षत्रियों को ही मयस्सर होता है। 32।

अथ चे त्त्व मिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।

तत: स्वधर्मं की र्त्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥ 33 ॥

और अगर तुम यह धर्मयुद्ध न करोगे तो अपने धर्म और कीर्ति दोनों को गँवा के (केवल) पाप बटोरोगे। 33।

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।

संभावितस्य चाकीर्त्ति र्मरणादतिरिच्यते॥ 34 ॥

(इतना ही नहीं), लोग तुम्हारे अखंड अपयश - हमेशा रहने वाली बदनामी - की चर्चा भी करते रहेंगे। और प्रतिष्ठित (पुरुष) के लिए (यह) अपयश तो मौत से भी बढ़कर (बुरा) है। 34।

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:।

षां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥ 35 ॥

(यही नहीं), महारथी लोग भी समझेंगे कि तू डर के मारे ही युद्ध से भाग गया है। (फलत:) जो लोग (आज) तुझे ऊँची नजर से देखते हैं उन्हीं की नजरों में तू गिर जाएगा। 35।

अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिता:।

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम्॥ 36 ॥

(इसी प्रकार) तेरे दुश्मन भी तुझे बहुत-सी गालियाँ देंगे (और) तेरी ताकत की भी शिकायत करेंगे। भला, उससे बढ़ के बुरा और क्या हो सकता है? 36।

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।

तस्मादुत्तिष्ठ कौंतेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥ 37 ॥

(यह भी तो देख कि) यदि युद्ध में मर जाएगा तो स्वर्ग जाएगा और अगर जीतेगा तो राजपाट मिलेगा। (इस प्रकार तेरे दोनों ही हाथों में लड्डू है।) इसलिए ओ कौंतेय, लड़ने का निश्चय करके खड़ा हो जा - डट जा। 37।

सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ 38 ॥

जय-पराजय, हानि-लाभ और सुख-दु:ख में एक रस रह के युद्ध में डट जा। ऐसा होने पर तुझे पाप छूएगा भी नहीं। 38।

इसी श्लोक के साथ ही अध्या त्म विवेक के प्रकरण का इस अध्या य में अंत हो के आगे कर्मयोग का प्रसंग शुरू होता है। उसके शुरू के आठ श्लोक भूमिका की तरह हैं। नवें या गीता के 47वें श्लोक में कर्मयोग का निरूपण शुरू हुआ है। इस श्लोक में भी समत्व या समता की बात कही गई है। जिसे समदर्शन भी कहते हैं। यह दूसरी बार समदर्शन की बात आई है। पहली बार, जैसा कि कह चुके हैं, 15वें श्लोक के 'समदु:खसुखं' में आ चुकी है। इसलिए इस श्लोक का अर्थ समझने में उसे भी दृष्टि के सामने रखना पड़ेगा, खासकर उसके पूर्वार्द्ध 'यंहि न व्यथयन्त्येते' आदि को। नहीं, तो बहुत गड़बड़-घोटाला हो सकता है।

बात यह है कि जब कम पानी वाले तालाब या गढ़े में मछुए मछली मारना चाहते हैं, तो उसके पानी को नीचे-ऊपर इतना ज्यादा हिला-डुला, चला और मथ देते हैं कि पानी और कीचड़ मिल के एक हो जाते हैं। इससे मछलियाँ घबरा के ऊपर आ जाती या थक-थका के ढीली पड़ जाती हैं। फलत: पहले की तरह तेजी से इधर-उधर भाग-फिर सकती हैं नहीं। इस तरह उनके पकड़ने में आसानी हो जाती है और बात की बात में वे मछुओं के कब्जे में आ जाती हैं। नहीं तो उन्हें पकड़ने में मछुओं को बहुत परेशानी होती है। इसी तरह दही को भी मथानी से ऐसा मथ देते हैं कि पानी और दही एक हो जाते हैं। बंदर जब किसी पेड़ पर पहले-पहल चढ़ता है तो अकसर उसकी डालों को पकड़-पकड़ के झकझोर देता है और सारे पेड़ को कँपा देता है, बेचैन कर देता है। जब छोटा-सा शिकार जबर्दस्त शिकारी कुत्ते के हाथ लगता है तो उसे पकड़ के शुरू में ही वह ऐसा झकझोरता है कि शिकार के होश ही गायब हो जाते हैं और कुत्ता उसे आसानी से खा जाता है।

यही दशा मन की है। वह आत्मा को अपनी मर्जी के मुताबिक नचाने के पहले उसे अपने कब्जे में सोलहों आना करना चाहता है और उसी की तरकीब करता रहता है। मात्रास्पर्श या भौतिक पदार्थों के संबंध की जो बात पहले कही जा चुकी है वह उसी तरकीब का एक भाग है। मन इंद्रियों की पीठ ठोंकता है और वह भले-बुरे सभी पदार्थों के साथ जुट जाती है। यही तो है मात्रास्पर्श। गुरुजनों, इष्ट-मित्रों, बंधु-बांधवों एवं पुत्र-कलत्र आदि का ताल्लुक और है क्या यदि मात्रास्पर्श नहीं है? जो सहृदय न हो, जड़-पत्थर हो या पत्थर जैसा हो, पागल हो उसमें या तो इंद्रियाँ होती ही नहीं, या वह काम करती ही नहीं। इसीलिए वैसों को क्या सुख-दु:ख होगा?

इस प्रकार मात्रास्पर्श होने के बाद ही बुरी-भली चीजों का अनुभव होता है उनकी जानकारी होती है, शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण, अपने-पराए आदि की जानकारी होती है। जैसा कि आग को छूते ही गरमी का अनुभव हुआ करता है और बर्फ को छूते ही सरदी का। उसी के बाद हाथ-पाँव जलते या ठिठुरते हैं और फौरन तकलीफ या आराम का, दु:ख और सुख का अनुभव होता है। फिर तो इनसान या तो आनंद में विभोर हो जाता है, या कलेजा पीट के बेहोश। यदि सुख-दु:ख हल्के रहे तो यह बात कम हुई। मगर अगर काफी हुए तो यह हालत भी परले दर्जे की हो गई! मन के जाल की बात को लेकर हम आनंद-विभोरता या तकलीफ वाली बेसुधी को ही यहाँ ले रहे हैं। इस तरह जब यही बात बार-बार होने लगी तो मन ने समझ लिया कि आत्माराम पर हमारा पूरा कब्जा हो गया। वह ताड़ जाता है कि अब तो बंदर अच्छी तरह फँस गया, इसलिए इसे जैसे चाहें नचा सकेंगे। युद्ध में भी पहले जय-पराजय, बाद में लाभ-हानि और अंत में सुख-दु:ख होता है जिसका जिक्र श्लोक में आया है।

मगर ऐसा भी होता है कि किन्हीं मस्तराम फकीर के पास चाहे आप अच्छी से अच्छी या बुरी से बुरी चीजें लाएँ, उन पर उनका कोई असर होता ही नहीं! क्यों असल में वहाँ उलटी बात जो है। कहाँ तो दूसरों के मनीराम - मन - आत्माराम को नाचने और फँसाने की कोशिश में रहते तथा सफल भी होते हैं और कहाँ मस्तराम के आत्माराम ने ही उलट के मनीराम पर मुसक चढ़ा दी है। यहाँ तो मन ही मस्तराम के कब्जे में पड़ा रो रहा है। उसकी आई-बाई ही हजम है। इसीलिए उसके सभी के सभी चेले-चाटी और दूत-मनहूस है, बेकार-सी पड़ी हैं। तब मात्रास्पर्श कैसे हो और आगे की लीला भी कैसे खड़ी हो? यहाँ तो सारा नाटक ही बंद है। यह भी नहीं कि मस्तराम पत्थर हैं या मुर्दा, जिससे सुख-दु:ख आदि जानते ही नहीं। वह तो सब कुछ जानते ही हैं। मगर जान लेना दूसरी चीज है और उसमें चिपक जाना निराली बात है। स्त्री। को विरागी भी देखता है और लंपट भी। मगर दोनों के देखने में फर्क है - बहुत बड़ा बुनियादी फर्क है। यही बात सुख-दु:खादि के मुतल्लिक भी है।

पंदरहवें श्लोक में जो 'व्यथयन्ति' लिखा है वही इस फर्क को ठीक-ठीक बताता है। उसका अर्थ गढ़े के पानी या दही के मथने और बंदर या कुत्ते के झकझोरने के दृष्टांत में बताया जा चुका है। भौतिक पदार्थों के संसर्ग जिसे व्यग्र, उद्विग्न, परेशान या बेचैन नहीं कर सकते, नहीं कर पाते वही सुख-दु:ख में सम है, एक रस है। समदु:ख-सुख है, समदर्शी है। उसके दिल-दिमाग की गंभीरता, स्थिरता और एकरसता बिगड़ पाती नहीं। वह इन अंधड़-तूफानों के हजार आने पर भी पर्वत की तरह अचल, अटल रहता है, न कि घास-पात या पेड़-पल्लव की तरह काँपता और बेचैन हो जाता है। उसके दिल-दिमाग की ममता और गंभीरता (Serenity and balance) कभी बिगड़ती (upset) नहीं। फिर पाप-पुण्य का क्या सवाल? ये तो बहुत नीचे दर्जे की चीजें हैं और वह इतना ऊँचा उठा है कि जैसे चाँद को कोई छू नहीं सकता चाहे हजार कोशिश करे, वैसे ही उसे पुण्य-पाप छू नहीं सकते, उसके निकट फटक नहीं सकते। वह तो मस्त है। बेशक, दुनिया की बेचैनी देख-देख के मुस्कुरा उठता है, कभी-कभी हँस देता है। इस चीज का ज्यादा विचार पहले ही हो चुका है। यहाँ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगेत्विमां शृणु।

बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्म बंधं प्रहास्यसि॥ 39 ॥

यहाँ तक (तो) आत्मतत्त्व की जानकारी - अध्याकत्मज्ञान की खूबी और बारीकी - तुम्हें बताई जा चुकी। अब योग की भी जानकारी - कर्म की पूरी जानकारी और उसकी बारीकी - वाली वह बात भी सुन लो जिसके करते कर्मों के बंधन से अपना पिंड छुड़ा लोगे। 39।

इस पर बहुत अधिक बातें लिखी जा चुकी हैं। इसका स्पष्टीकरण भी बूखबी किया जा चुका है। इसलिए यहाँ या आगे कुछ भी लिखना बेमानी है। फिर भी जिस कर्मयोग का निरूपण आगे चल के 47वें श्लोक में शुरू करेंगे वह सचमुच निराली चीज है, गीता की अपनी खास देन है। इसीलिए और कहीं वह पाई जाती नहीं। अधूरी-सी कहीं मिले भी तो क्या? सर्वांगपूर्ण कहीं भी नहीं मिलती। इसीलिए उसके पूर्व अर्जुन का दिमाग उसके अनुकूल कर लेना जरूरी था। सर्वसाधारण परंपरा के अनुसार वह वैसी बात एकाएक सुन के चौंक उठता कि यह क्या चीज है? यह तो अजीब बात है जो न देखी न सुनी गई ऐसा खयाल करके वह उस बात से हट सकता था। कम से कम यह तो जरूर हो जाता कि उसका दिल-दिमाग उसमें पूरी तौर से लगता नहीं। उसमें उसे चसका तो आता नहीं, मजा तो मिलता नहीं। फिर तो वैसे गंभीर विषय को हृदयंगम करना असंभव ही हो जाता। इसीलिए उससे पहले के सात श्लोकों में उसी का रास्ता साफ कर रहे हैं।

कर्मकांड एवं धर्माधर्म के निर्णय तथा अनुष्ठान का सारा दारमदार सिर्फ मीमांसाशास्त्र और मीमांसकों पर ही है। उनका अपना यही खास विषय है। इसीलिए उनने इस संबंध की बहुत-सी बातें लिखते हुए लिखा और माना है कि कर्मों के करने में कौन-कौन से विघ्न होते हैं, कैसा हो जाने पर सारा किया-कराया चौपट हो जाता है, क्या हो जाने पर पुण्य के बदले पाप ही पाप हो जाता है और सांगोपांग कर्म पूरा न हो जाने पर उसका फल नहीं मिलता। इस तरह की हजारों बातें और बाधाएँ कर्ममार्ग में बताई गई हैं, खतरे खड़े किए गए हैं। यदि इनसे बचने का कोई भी रास्ता हो तो कितना अच्छा हो? तब तो लोग आसानी से मीमांसकों का मार्ग छोड़ के वही मार्ग पसंद करें। गीता ने लोगों की इस मनोवृत्ति का खयाल करके पहले तो यही किया है कि कर्मयोग में इन खतरों का रास्ता ही बंद कर दिया है। वहाँ थोड़ा-बहुत या अधूरा काम होने पर भी न तो पाप का डर है, न विफलता की परेशानी और न दूसरी ही दिक्कत।

मीमांसकों के मार्ग में दूसरी दिक्कत यह होती है कि उन्हें परेशानी बड़ी होती है। पहले तो हजारों तरह के उद्देश्यों को ले के कर्म किए जाते हैं। फिर एक-एक उद्देश्य की शाखा-प्रशाखाएँ होती हैं और शाखा-प्रशाखाओं की भी शाखा-प्रशाखाएँ। लोभ-लालच का कोई ठिकाना भी तो होता नहीं। ज्योंही सफलता हुई या उसकी आशा नजर आई कि नई-नई कामनाएँ पैदा होने लगती हैं। यह भी होता है कि शक-शुबहे में कभी मन इधर जाता है और कभी उधर - कभी आगे बढ़ने को मुस्तैद होता है, तो कभी पीछे खिसक पड़ता है। इस तरह हजारों तरह की आशा-आकांक्षाओं, कल्पनाओं एवं उमंग-मनहूसियों के घोर जंगल में भटकता रहता है और कभी भी चैन मिलता नहीं। गीता ने इस सारी बला से भी बचने का रास्ता कर्मयोग को ही माना है। उसने साफ कह दिया है। फिर तो लोग उधर उत्सुक होंगे ही।

मीमांसकों की एक तीसरी चीज यह है कि वह स्वर्ग, धन, राज्य आदि सुख साधनों की गारंटी करते हैं। वे कहते हैं कि विविध कर्मों के अलावे दूसरा उपाय हई नहीं कि ये सभी चीजें हासिल की जा सकें। यह भी नहीं कि इन्हें कोई चाहता न हो। ये सभी लोगों की अभिलषित हैं। इसमें कोई भी शक नहीं। परंतु हजार युद्धादि के संकटों को पार करने पर भी इन सभी की गारंटी है नहीं। स्वर्गादि तो युद्ध से शायद ही मिल सकें। यह तो कर्म मार्ग ही ऐसा है कि इन सभी पदार्थों को प्राप्त करवा देता है। उससे आसान रास्ता, सभी बातों पर गौर करने के बाद, दूसरा रही नहीं जाता।

बेशक उनकी यह बात काफ़ी मोहनी रखती है। मगर गीता ने कह दिया है कि ये पदार्थ बड़ी दिक्कत से यदि मिलें भी तो इनके लिए, और इनके परिणाम स्वरूप भी, जन्म-मरण का सिलसिला निरंतर लगा ही रह जाता है। जन्म-मरण के कष्ट किसे पसंद है? यह भी बात है कि मनोरथों में जब इस तरह मनुष्य फँस जाता है तो उसे कोई और बात सूझती ही नहीं। स्वर्गादि की हाय-हाय के पीछे एक तरह से वह अंधा हो जाता है। उसे चैन तो कभी मिलता नहीं। यह करो, वह करो, यह क्रिया बिगड़ी, उस कर्म में विघ्न, इसकी तैयारी, उसकी पूर्ति की हाय तोबा दिन-रात लगी ही तो रहती है। अगर इतनी बेचैनी के बाद यदि ये चीजें मिलीं भी तो किस काम की? यह भी बात है कि मिलने पर चसका लग जाने से फिर जन्म, पुनरपि क्रिया, फिर मरण, यह ताँता टूटता ही नहीं। मनुष्य विषयासक्त हो के विवेक मार्ग से जानें कितनी दूर जा पहुँचता है और कोई निश्चय कर पाता नहीं। मगर कर्मयोग इन सभी झंझटों से पाक साफ है।

चौथी बात उनकी यह है कि वेदों की आज्ञा जब यही है तो किया क्या जाए? उनके आदेशों को कौन टाले? हिम्मत भी ऐसी किसकी हो सकती है? इसलिए चाहे हजार दिक्कत मालूम हो, फिर भी इसमें आना ही पड़ेगा। इसका उत्तर गीता साफ ही देती है कि ये तो सांसारिक झमेले हैं, दुनिया की झंझटें हैं जिनमें ये कर्म हमें फँसाते हैं। हमें चैन लेने तो ये देते नहीं। वेदों का काम भी तो यह आफत ही है न? वह भी तो इस त्रिगुणात्मक संसार में ही हमें फँसाते हैं। आखिर वह भी तो त्रिगुण के भीतर ही हैं। इसीलिए तो 'मियाँ की दौड़ मस्जिद तक' ही है। लेकिन जिसे दुनिया की, सांसारिक पदार्थों की परवाह न हो वह क्या करे? वह इन वेदों के झमेले में क्यों पड़े? वेदों से अभिप्राय है उसके कर्मकांड भाग से ही। क्योंकि वही वेदों का प्रधान भाग है - प्राय: सब कुछ है। ज्ञान कांड तो बहुत ही थोड़ा है - एक लाख में सिर्फ चार हजार! वेदों के एक लाख मंत्रों में पूरे छियानबे हजार कर्मकांड के और केवल चार हजार ज्ञानकांड के माने जाते हैं। 'लक्षं तु वेदाश्चत्वार:' कहा है। गृहस्थों के यज्ञोपवीत के छियानबे चतुरंगुलों का अभिप्राय उन्हीं छियानबे हजार से है। संन्यासी को यज्ञोपवीत नहीं है। उसका ताल्लुक चार ही हजार से जो है और है वह छियानबे के बाहर! बस, गीता ने कह दिया कि - 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी'। संसार की त्रैगुण्य की परवाह छोड़ दो और वेदों के दायरे से बाहर आ जाओ। फिर तो कर्मयोग का रास्ता साफ है।

ऐसी दशा में आखिरी और पाँचवाँ सवाल यही हो सकता है कि इस प्रकार संसार के भौतिक पदार्थों से लापरवाह होने से काम कैसे चलेगा? वेदों का आश्रय लेते हैं क्या उन पर रहम करके, या किसी की मुरव्वत से? उनके बिना हमारा काम चलता जो नहीं। वेदों में तो छोटे-बडे सभी कर्म आते हैं और उनके बिना हमारी रोज की जरूरतें भी पूरी हो पातीं नहीं। जब हम संसार से बिरागी हो जाएँगे तो वेदों की परवाह नहीं करेंगे, यह कहना जितना आसान है इस पर अमल करना उतना ही सहज नहीं है। क्योंकि तब हमारी जरूरतें कौन पूरा करेगा? हमारी चीज-वस्तु की रक्षा भी कौन करेगा? एक यह बात भी है कि वैदिक कर्मकांड से संकटों से तो हम जरूर बच जाएँगे। मगर उनके चलते जो आनंद मिलता है उसकी कमी कैसे पूरी होगी? वह तो रही जाएगी न? कर्मयोग के आनंद में स्वर्ग का आनंद कैसे मिलेगा? यह तो असंभव है।

इसका सीधा उत्तर गीता यही देती है कि इसमें सभी चीजें आ जाती हैं। कुएँ, तालाब, नदी वगैरह सभी का काम एक अकेला समुद्र जैसा लंबा-चौड़ा जलाशय ही दे सकता है। फिर इन चीजों को अलग जरूरत नहीं रह जाती। उसी प्रकार जिसने कर्मयोग का रहस्य जान लिया उसे सभी वैदिक कर्मों के फलों की - आनंद की प्राप्ति होई जाती है। उसके भीतर अमृत-समुद्र की जैसी गंभीरता होती है मस्ती रहती है। फिर और चीजों की जरूरत ही क्यों हो? जरूरत की चीजों की प्राप्ति और रक्षा - योग-क्षेम - भी होता ही रहता है। यह तो आगे 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' (9। 22) में कहा ही है।

यही पाँच बातें, या यों कहिए कि मीमांसकों की पाँच मुख्य दलीलों के उत्तर क्रमश: 40 से 46 तक के सात श्लोकों में दिए जाके कर्मयोग की पूरी भूमिका तैयार कर दी गई है। इनमें पहले दो (40-41) श्लोकों में क्रमश: पहली दो बातें आती हैं। फिर बाद के तीन (42-44) श्लोकों में तीसरी आती है। अनंतर 45वें चौथी और 46वें में पाँचवीं आ जाती है।

नेहाभिक्रमनाशाऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रा यते महतो भयात्॥ 40 ॥

इस (योग) में (किसी भी) कदम - काम - का नाश तो होता नहीं - कोई भी कदम बेकार नहीं जाता, इसमें पाप (का सवाल) हई नहीं और इस (महान) धर्म का थोड़ा भी (अनुष्ठान) (इसके करने वाले को) महान भय से बचा लेता है। अर्थात इसमें कोई खतरा भी नहीं है कि कहीं अधूरा रह जाने में उलटा ही परिणाम हो जाए। इसका परिणाम सदा ही सुंदर होता है। 40।

यहाँ अभिक्रम का अर्थ हमने कदम किया है और यही अर्थ उस शब्द का दरअसल है भी। कोई भी काम शुरू करने के मानी में कदम उठाना या बढ़ाना बोलते हैं। अंग्रेजी में इसी को स्टेप (Step) कहते हैं। कहने का आशय यहाँ यही है कि इस कर्मयोग के सिलसिले में उठाया गया कोई भी कदम बेकार नहीं जाता। इसी प्रकार महान भय से रक्षा का भी यही अभिप्राय है कि जैसे और कामों में खतरे हुआ करते हैं और अगर किसी आफत से बचने के लिए कोई उपाय किया जाए तो जब तक वह पूरा न हो जाए उस आफत से छुटकारा नहीं होता, सो बात यहाँ नहीं है। न तो यहाँ कोई खतरा है और न यही बात कि काम पूरा न हुआ तो आफत से पिंड न छूटेगा। यहाँ तक कि आवागमन जैसे बड़ी से बड़ी बला से भी छुड़ा लेता है इस चीज का थोड़ा भी अनुष्ठान। फिर तो निर्वाणमुक्ति ध्रुव हो जाती है।

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनंदन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥ 41 ॥

हे कुरुनंदन (अर्जुन), इसमें तो एक ही (तरह) की बुद्धि रहती है (सो भी) निश्चयात्मक। (विपरीत इसके और मार्ग में) अनिश्चयात्मक बुद्धिवालों की बुद्धियाँ (एक तो) असंख्य होती हैं। (दूसरे उनमें भी हरेक की) अनेक शाखा-प्रशाखाएँ होती हैं। 41।

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।

वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:॥ 42 ॥


कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।

क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥ 43 ॥

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तया पहृतचेतसाम्।

व्यवसायात्मिका बुद्धि : समाधौ न विधीयते॥ 44 ॥

हे पार्थ, वेद के कर्म-प्रशंसक वचनों को ही सब कुछ मान के उनके अलावे असल चीज दूसरी हई नहीं ऐसा कहनेवाले, वासनाओं में डूबे हुए मनवाले और स्वर्ग को ही अंतिम ध्येउय माननेवाले नासमझ लोग इस तरह के जिन लुभावने (वैदिक) वाक्यों को दुहराते रहते हैं उन (वचनों का तो सिर्फ यही काम है कि) भोग और शासन की प्राप्ति के लिए ही अनेक तरह के बहुत से कर्मों की बताएँ। (इस तरह) उनका नतीजा यही है कि लोग बार-बार जनमते तथा कर्म करते रहें। जिन भोग एवं शासन के लोलुप लोगों की बुद्धि वैसे ही वचनों में फँस चुकी है। उनके दिमाग में तो (कभी) निश्चयात्मक बुद्धि पैदा ही नहीं होती। 42। 43। 44।

इन तीन श्लोकों में जिन लोगों का सुंदर चित्र खींचा गया है वही कर्मकांडी मीमांसक लोग हैं। उन्हें नासमझ कहके फटकार सुनाई गई है। 'अपाम सोमममृता अभूम' - 'सोमयाग में सोम का रस पी के हम लोग अमर बन गए,' स्वर्ग में देवताओं की इस तरह की गोष्ठी और बातचीत का उल्लेख ब्राह्मण ग्रंथों में पाया जाता है। कठोपनिषद् के प्रथमाध्या य की द्वितीयवल्ली के शुरू के पाँच मंत्रों में कल्याण या मोक्ष के मुकाबिले में स्वर्गादि पदार्थों तथा उनके इच्छुकों की घोर निंदा की गई है। इसी प्रकार मुण्डकोपनिषद् के प्रथम मुंडक के दूसरे खंड के शुरू के दस मंत्रों में विस्तार के साथ लिखा गया है कि कर्मकांडी लोग किन-किन कर्मों को कैसे करते और उन्हें कौन-कौन से फल कैसे मिलते हैं। वहीं दसवें मंत्र 'इष्टपूर्त्तं मन्यमाना वरिष्ठा:' में 'प्रमूढ़ा' शब्द आया है जो गीता के इन श्लोकों के 'अविपश्चित:' के ही अर्थ में बोला गया है। उस मंत्र में जो बातें लिखी हैं उनका उल्लेख भी कुछ-कुछ इन तीन श्लोकों में पाया जाता है। इनके सिवाय 'दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यजेत्,' 'ज्योतिष्ठोमेन स्वर्गकामो यजेत्,' तथा 'वाजपेयेन स्वराज्यकामो यजेत्' आदि ब्राह्मण वचनों में कर्मठों के कर्मों एवं उनके फलों का पूरा वर्णन मिलता है। वहाँ इनकी प्रशंसा के पुल बाँधे गए हैं। इन्हीं प्रशंसक वचनों को वेदवाद और अर्थवाद कहते हैं। इन्हें पढ़ के लोग कर्मों में फँस जाते हैं। इसी का निर्देश इन श्लोकों में है। पूर्वोक्त मुंडक के वचनों में 'एक ने प्लवाह्येते अदृढ़ा यज्ञरूपा:' (1। 2। 7) के द्वारा इन यज्ञयागों को कमजोर नाव करार दिया है, जिस पर चढ़नेवाले अंत में डूबते हैं। गीता ने भी इसलिए इनकी निंदा की है।

इनमें चसक जाने पर मनुष्य को दूसरी बात सूझती ही नहीं। एक बार इन्हें करके जब इनके रमणीय फलों को भोगता है, या ऐश्वर्य - शासन और इंद्र आदि की गद्दी - प्राप्त कर लेता है तो फिर बार-बार इन्हीं के करने पर उतारू होता है। यही चसका है। इसका नतीजा यही होता है कि जन्म ले के इन्हें करता, मरके फल भोगता और चसक के स्वर्गादि फल भोगने के बाद पुनरपि जनमता और कर्म करता है। यही चक्कर चलता रहता है। एक कोढ़ी और गंदे स्वभाव के आदमी की कहानी है कि वह साल भर में कभी शायद ही नहाता हो। जाड़ों में तो हर्गिज नहीं। मगर घोर जाड़े में मकर की संक्रांति के दिन तड़के ही जरूर नहा लेता था। क्यों? क्योंकि उसने सुना था कि माघ के महीने में सूर्योदय के ठीक पहले पानी बहुत तेज चिल्लाता है कि यदि महापापी भी हममें एक गोता लगा ले तो उसे फौरन पवित्र कर दें - 'माघमासि रटन्त्याप: किंचिदभ्युदिते रवौ। महापातकिनं वापि कं पतन्तं पुनीमहे।' यही है वेदवादों और अर्थवादों की मोहनी शक्ति जिसका उल्लेख यहाँ है।

इस श्लोक में समाधि शब्द का अर्थ दिमाग या अंत:करण लिखा गया है। अनेक माननीय भाष्यकारों ने यही अर्थ किया है और यह घटता भी है अच्छी तरह। मगर समाधि का अर्थ योग करना भी ठीक ही है। 'समाधिस्थस्य' (2। 54) के व्याख्यान में हमने इस ओर भी इशारा किया है। यहाँ 'समाधि के लिए' यही अर्थ 'समाधौ' का है जैसा कि 'यतते च ततो भूय: संसिद्धौ' (6। 43) में 'संसिद्धौ' का अर्थ है। 'संसिद्धि के लिए'। यहाँ अभिप्राय यही है कि आगे जिस योग का निरूपण है उसके लिए जो मूलभूत जरूरी बुद्धि है वह ऐसे लोगों को होती ही नहीं।

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥ 45 ।

हे अर्जुन, वेद तो (प्रधानतया) त्रैगुण्य या सांसारिक बातों के ही प्रतिपादक हैं। तुम इन बातों को छोड़ो, राग-द्वेषादि द्वन्द्व - जोड़े - दो दो - से रहित हो, हमेशा सत्त्वगुण की ही शरण लो, योगक्षेम की परवाह छोड़ दो, मन को वश में करो और आत्मतत्त्व में रम जाओ। 45।

यहाँ कुछ बातें जान लेने की हैं। साधारणतया खयाल हो सकता है कि जब त्रैगुण्य शब्द यहाँ आया है जिसका अर्थ है तीनों गुणों से बनाया त्रिगुणात्मक, तो यहाँ तीनों ही गुण बुरे बताए गए हैं। मगर सत्त्वगुण तो प्रकाशमय होने से ज्ञानवर्द्धक है। इसलिए उसे क्यों बुरा कहा। इतना ही नहीं। आगे उत्तरार्द्ध में लिखते हैं कि बराबर सत्त्वगुण की शरण लो - 'नित्यसत्त्वस्थ:'। यदि बुरा होता तो सत्त्व की शरण जाने की बात कहते क्यों? तब तो परस्पर विरोध हो जाता न? इसलिए सत्त्व को बुरा कहना ठीक नहीं। हाँ, रज और तम तो बुरे जरूर ही हैं। उनके बारे में कोई शक नहीं।

असल में तीनों गुणों का क्या स्वरूप है, काम है और यह करते क्या हैं, इसका पूरा विवरण गीता के चौदहवें अध्या य में मिलता है। वहाँ देखने से पता चलता है कि जीवात्मा को बांधने और फँसाने का काम तीनों ही करते हैं। इसमें जरा भी कसर नहीं होती। सत्त्व यदि ज्ञान और सुख में फँसा देता है तो बाकी और-और चीजों में। मगर फँसाते सभी हैं। इसलिए 'बध्ना ति', 'निबध्नणन्ति' आदि बंधन वाचक पद वहाँ बार-बार सभी के बारे में समानरूप से आए हैं। इसीलिए जो मनुष्य इनके पंजे से छूट जाता है उसे उसी अध्या-य के अंत में गुणातीत - तीनों गुणों से रहित उनके पंजे से बाहर - कहा गया है। इन तीनों से अपना पल्ला कैसे छुड़ाया जाए, यह प्रश्न करके उत्तर भी लिखा गया है। इसी तरह 'त्रिभिर्गुणभयैर्भावै:' (7। 13-14) आदि दो श्लोकों में, बल्कि इनके पूर्व के 12वें में भी यही लिखा है कि त्रिगुणात्मक पदार्थ ही लोगों को मोह में, भ्रम में, घपले में डालते हैं।

तब सवाल यह जरूर होता है कि आगे इसी श्लोक में सत्त्व की शरण की बात क्यों कही गई? बात असल यह है कि आखिर इन तीनों से पिंड छूटने का उपाय भी तो होना चाहिए, और जैसा कि चौदहवें अध्याआय के अंत में कहा है, 'विषस्य विषमौषधाम्' के अनुसार जैसे जहर को जहर से ही मिटाते हैं, और 'कण्टकेनेव कण्टकम्' के अनुसार काँटे से ही काँटे को हटाते हैं, ठीक उसी तरह गुण की ही मद से गुणों से पिंड छुड़ाना होगा। दूसरा उपाय है नहीं। गुणों में भी दो तो चौपट ही ठहरे। हाँ, सत्त्व का काम है ज्ञान, प्रकाश, सुझाव, आलस्य त्याग, फुर्ती और मुस्तैदी। इसीलिए कहा गया है कि सत्त्व का ही आश्रय बराबर ले के उक्त विशेषताएँ हासिल करो और अंत में तीनों से ही छुटकारा लो। बराबर, निरंतर, नित्य सत्त्वगुण का आश्रय लेने को कहने का आशय यही है। जब-जब रज और तम दबा के आलस्य आदि में फँसाना चाहें तब-तब मुस्तैद हो के सत्त्वगुण की मदद से लड़ना और उन्हें भगाना होगा। तभी काम चलेगा। यही बात शांतिपर्व के धर्मानुशासन के 110वें अध्यााय के 'ये च संशांतरजस: संशांततमसश्च ये। सत्त्वे स्थिता महात्मनो दुर्गाण्यतितरन्ति ते' (15), में भी 'सत्त्वे स्थित:' शब्द से बताई गई है। पहले यह कहा है कि उनके रज और तम एकबारगी दब गए हैं। फिर सत्त्व के कायम रहने की बात आई है। इससे साफ हो जाता है कि सत्त्व नित्य रहता है, बराबर रहता है। क्योंकि दोनों शत्रु शांत जो हो गए! खत्म जो हो गए!

शांतिपर्व के इसी श्लोक का 'महात्मान:' शब्द गीता के 'आत्मवान' के ही अर्थ को कहता है। महात्मा लोगों की आत्मा महान होती है। इसका तात्पर्य यह है कि उनका मन छोटी-छोटी, संसार की क्षुद्र बातों में न पड़ के बहुत ऊपर चला जाता है, बड़ा बन जाता है, आत्मतत्त्व में लग जाता है। यही वजह है कि वह द्वन्द्व या राग-द्वेष, शत्रु-मित्र, सुख-दु:ख आदि से अलग हो जाता है। उसे इस बात की भी फिक्र नहीं होती कि अमुक चीज नहीं है, उसे कैसे लाऊँ और मिली हुई की रक्षा कैसे हो आदि-आदि। इसे ही योग - जोड़ना या प्राप्त करना और क्षेम - रक्षा करना - कहते हैं। वह इससे भी मुक्त हो जाता है। हमने यही लिखा भी है।

शांतिपर्व के 52वें तथा 158वें अध्यायों में जो कुछ भीष्म को आशीर्वाद तथा अर्जुन को उपदेश दिया गया है वहाँ भी बार-बार यह 'सत्त्वस्थ' पद आया है। 'ज्ञानानि च समग्राणि प्रतिभास्यन्ति तेऽनघ। नच ते क्वचिदासत्तिर्बुद्धे: प्रादुर्भविष्यति॥ सत्त्वस्थं च मनो नित्यं तव भीष्म भविष्यति। रजस्तमोऽभ्यां रहितं घनैर्मुक्तइवोडुराट्' (52। 17-18), 'ये न हृष्यन्ति लाभेषु नालाभेषु व्यथन्ति च। निर्ममा निरहंकारा: सत्त्वस्था: समदर्शिन:॥ लाभालाभौ सुखदु:खे च तात प्रियाप्रिये मरणं जीवितं च। समानि येषां स्थिरविक्रमाणां बुभुत्सतां सत्त्वपथे स्थितानाम्। धर्मप्रियांस्तान् सुमहानुभावान्दान्तोऽप्रमत्तश्च समर्च्चयेथा:' (158। 33-35) इन श्लोकों में अक्षरश: गीता के इस श्लोक की ही बात है।

यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत:॥ 46 ॥

(जिस तरह) जितना काम छोटे-बड़े जलाशयों से निकलता है वह सभी केवल एक ही विस्तृत जलराशिवाले समुद्र या जलाशय से चल जाता है; (उसी तरह) वेदों से जितना काम चलता है आत्मज्ञानी विद्वान का वह सबका-सब (यों ही) चल जाता है - पूरा हो जाता है। 46।

इस श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसका निष्कर्ष यही है कि छोटे जलाशय का काम बड़े से, दोनों का उससे भी बड़े से और अंत में सभी का काम सबसे बड़े-से - बड़े से बड़े से - चल जाता है। अत: उसके मिलने पर बाकियों की परवाह नहीं की जाती। आत्मज्ञान हो जाने पर सांसारिक सुखों और भौतिक पदार्थों की परवाह नहीं रह जाती है। क्योंकि आत्मा तो आनंद सागर ही ठहरी। बृहदारण्यक के चौथे अध्यांय के तृतीय ब्राह्मण के 32वें मंत्र के 'ऐषोऽस्य परम आनंद एतस्यैवानंदस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति' से शुरू करके समूचे लंबे 33वें मंत्र में लोक-परलोक के सभी सुखों एवं आनन्दों का तारतम्य दिखाते हुए आखिर में आत्मानंद को ही सबके ऊपर माना है। कहा है कि भी उसी के भीतर शेष सभी समा जाते हैं। अन्य उपनिषदों में भी यही बात आती है। यहाँ इसी की ओर इशारा है।

इस श्लोक में ब्राह्मण शब्द का अर्थ ब्राह्मण जाति न हो के आत्मज्ञानी ही है, यह बात पहले ही कृपण शब्द की व्याख्या के सिलसिले में कही जा चुकी है। इसीलिए 'ब्राह्मणस्य' के आगे 'विजानत:' शब्द आया है जो विज्ञ या विद्वान का वाचक है।

इस श्लोक का अर्थ करने में किसी-किसी ने उस अर्थ पर तानाजनी की है और उसे खींचतानवाला बताया है जो हमने किया है। ऐसे लोगों का कहना है कि 'सर्वत: संप्लुतोदके' का अर्थ समुद्र या समुद्र जैसा महान जलाशय न करके बाढ़ या जल-प्लावन कर लेना ही ठीक है। इससे श्लोक का यह अर्थ हो जाएगा कि जैसे जल-प्लावन होने पर जितना प्रयोजन ताल-तलैया का रह जाता है, अर्थात कुछ भी प्रयोजन रह जाता नहीं, वैसे ही आत्मज्ञानी विद्वान के लिए भी उतना ही प्रयोजन वेदों से रह जाता है - अर्थात कुछ भी नहीं रह जाता है। इस प्रकार आत्मज्ञानी के लिए वेदों की निष्प्रयोजनता का प्रतिपादन खुले शब्दों में वे लोग इस श्लोक में मानते हैं।

बेशक, इस अर्थ में वैसी खींचतान नहीं है। जैसी हमारे अर्थ में है। हालाँकि, उनके अर्थ में भी द्रविड़ प्राणायाम जरूर है। क्योंकि कुछ भी प्रयोजन नहीं रह जाता यह बात श्लोक के शब्दों से सिद्ध न हो के अर्थात सिद्ध होती है। लेकिन ऐसा अर्थ मानने में एक बड़ी अड़चन है। असल में साफ-साफ वेदों को निष्प्रयोजन या बेकार कह देने की हिम्मत किसी भी सनातनी ग्रंथ या महापुरुष को नहीं होती। वेदों का स्थान हिंदू-समाज में इतना ऊँचा है कि उनके बारे में स्पष्ट निंदासूचक शब्द बोला और लिखा जा सकता नहीं। ऐसी बात अब तक तो पाई गई है नहीं। ऐसी दशा में गीता जैसे सर्वप्रिय ग्रंथ यह बात कहे, सो भी स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के ही मुखों से, यह बात ठीक जँचती नहीं। इसीलिए तो इससे पहले के 'त्रैगुण्यविषया' श्लोक में जहाँ मुनासिब था यह कह देना कि तुम तीनों वेदों की परवाह छोड़ो - 'निस्त्रिवेदो भवार्जुन' या 'निस्त्रैविद्यो भवार्जुन', वहाँ यही कहा कि तुम त्रैगुण्य-रहित या संसार के पदार्थों से अलग हो जाओ - 'निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन'। यदि श्लोक को गौर से पढ़ा जाए और उसका आशय देखा जाए तो वह यही है कि वेदों के इस जाल से बच जाओ। मगर ऐसा न कहके यही बात घुमा के कहो कि सांसारिक बातों की लालसा छोड़ दो। इससे भी अर्थात वैदिक कर्मकांड छूट ही जाएँगे। फिर भी स्पष्टत: ऐसा नहीं कहा। ठीक इसी तरह यहाँ भी कह दिया है कि वेदों का काम आत्मज्ञान से भी चल जाता है। मगर उस सीधे अर्थ में तो कुछ न कुछ छींटा वेदों पर आई जाता है। यदि गौर से देखा जाए। इसी से शंकर ने वह अर्थ नहीं किया है। हमने भी उन्हीं का अनुसरण किया है।

एक बात और भी है। यदि 'सर्वत: संप्लुतोदके शब्दों का सर्वत्र जल-प्लावन अर्थ होता है, तो 'संप्लुतोदके' की जगह 'संप्लुते दके' लिखना कहीं अच्छा होता। दक और उदक शब्दों का अर्थ एक ही है पानी। मगर उदक शब्द रखने पर संप्लुत के साथ उसका समास करना पड़ता है, जिसकी जरूरत उन लोगों के अर्थ में कतई रह जाती नहीं। वह तो तब होती है जब समुद्र अर्थ करना हो इसीलिए बहुब्रीहि समास करना पड़ता है। 'संप्लुतोदके' लिखने पर समास की गुंजाइश रह जाने से लोग वैसा कर डालते हैं। मगर यदि वैसा अर्थ इष्ट न होता तो साफ-साफ 'संप्लुते दके' लिख देते। फिर तो झमेला ही मिट जाता। इससे भी पता चलता है कि ऐसा अभिप्राय हुई नहीं।

शांतिपर्व के मोक्षधर्म के 241वें अध्याहय वाला 'ये स्म बुद्धिं परां प्राप्ता धर्मनैपुण्यदर्शिन:। न ते कर्म प्रशंसन्ति कूपं नद्यां पिवन्निव' (10) श्लोक देखने से पता लगता है कि वह भी परमज्ञान या आत्मज्ञान की ही बात कहता है। उसमें साफ ही कहा है कि इस परा या सर्वोच्च बुद्धि - ब्रह्म-विद्या - क्योंकि उपनिषदों में ब्रह्मविद्या को ही परा विद्या कहा है - को जिनने हासिल कर लिया है वे कर्मों की बड़ाई नहीं करते, उनकी ओर रुजू नहीं होते। इसमें दृष्टांत देते हैं कि पीने आदि के लिए जो मनुष्य नदी में पानी पा लेता है वह कूप की परवाह नहीं करता। इससे भी पता लगता है कि जल-प्लावन से यहाँ अभिप्राय न हो के क्रमश: छोटे-बड़े और उनसे भी बड़े जलाशयों से ही मतलब है। इसी मानी में नदी और कूप का नाम लेना ठीक हो सकता है।

इस प्रकार यहाँ तक कर्मयोग की भूमिका पूरी करके अगले दो श्लोकों में उसी योग का स्वरूप बताया गया है। कर्म के संबंध की हिकमत, तरकीब, चातुरी या उपाय होने के कारण ही इसे कर्मयोग कहते है। इसका बहुत ज्यादा विवेचन और विश्लेषण पहले किया जा चुका है। शांतिपर्व के राजधर्मानुशासन के 112वें अध्यावय में भी योग शब्द उपाय या हिकमत के मानी में यों आया है, 'त्वमप्येवंविर्धं हित्वा योगेन नियतेन्द्रिय: वर्त्तस्व बुद्धिमूलं तु विजयं मनुरब्रवीत' (17)। यहाँ 'योगेन' शब्द का अर्थ नीलकंठ ने अपनी टीका में 'उपायेन' ऐसा ही किया है। शांतिपर्व के 130वें अध्या्य में भी 'अविज्ञानादयोगो हि पुरुषस्योपजायते। विज्ञानादपि योगश्च योगो भूतिकर पर' (12) श्लोक में नीलकंठ लिखता है कि 'अयोग उपायाभाव:' - "अयोग शब्द का अर्थ है उपाय का न होना।" इससे भी योग शब्द उपायवाचक सिद्ध होता है। योग का स्वरूप दो श्लोकों को मिला के पूरा हुआ है -

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥ 47 ॥

योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।

सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ 48 ॥

तुम्हारा अधिकार केवल कर्म में है; (कर्मों के) फलों में हर्गिज नहीं। कर्मों के फलों का खयाल (भी) न करो। कर्म के त्याग में तुम्हारा हठ न रहे। हे धनंजय, योग में ही कायम रह के, आसक्ति या करने का हठ छोड़ के तथा वे खामख्वाह पूरे हों यह परवाह छोड़ के कर्मों को करो। इसी समता या लापरवाही - बेफिक्री और मस्तागी - को ही योग कहते हैं। 47। 48।

पहले दो बार कहे गए समत्व में और इसमें क्या अंतर है और इसका मतलब क्या है ये सारी बातें पहले ही अत्यंत विस्तार के साथ लिखी चा चुकी हैं। यह तीसरा समत्व कुछ और ही है यह भी वहीं लिखा गया है।

कर्मयोग में असल चीज योग ही है, जिसका रूप अभी बताया गया है। वह विवेक या ज्ञानस्वरूप ही है। यह बात पहले कही जा चुकी है। 46वें श्लोक में इसी योग के संबंध की भूमिका स्वरूप जो 'विजानत: ब्राह्मणस्य' कहा है उससे यह बात निस्संदेह सिद्ध हो जाती है कि इस योग के मूल में आत्मतत्त्व का पूर्ण विवेक ही काम करता है। उसके बिना इस योग - कर्मयोग - का स्वरूप तैयार हो ही नहीं सकता। इसीलिए जो लोग ऐसा समझते हैं कि कर्मयोग में भी वास्तविक चीज एवं मूलाधार कर्म ही है और योग या बुद्धि - हिकमत, तरकीब - के रूप में जो ऊँची मनोवृत्ति काम करती है, वह सिर्फ सहायक है, उसके स्वरूप को मार्जित और शुद्ध होने में केवल मदद करती है, वह भूलते हैं। यहाँ तो उलटी गंगा बहती है। कर्म तो उसका एक कार्यक्षेत्र जैसा है। असल चीज तो वह बुद्धि ही है। उसके मुकाबिले में कर्म को ऊँचा दर्जा देने का सवाल हई नहीं। किंतु -

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:॥ 49 ॥

हे धनंजय, विवेक-बुद्धिरूपी योग की अपेक्षा कर्म कहीं छोटी चीज है। (इसलिए) उसी विवेक बुद्धि की ही शरण जा। क्योंकि जो लोग उस विवेक बुद्धि से रहित होते हैं वही तो फल की आकांक्षा करते (और इसलिए कर्म करते हैं)। 49।

यहाँ भी कृपण शब्द का वही अर्थ है जो पहले कहा गया है, अर्थात विवेक बुद्धि या आत्मतत्त्व के ज्ञान से रहित।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्॥ 50 ॥

इस संसार में (उस) विवेकबुद्धिवाला (मनुष्य ही तो) पुण्य-पाप दोनों से पिंड छुड़ा लेता है। इसलिए (उस) बुद्धयात्मक योग (की ही प्राप्ति) के लिए यत्न करो। वह योग ही तो कर्मों (के करने) की चातुरी या विशेषज्ञता है, कुशलता है। 50।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलंत्यक्त्वा मनीषिण:।

जन्मबंधविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्॥ 51 ॥

क्योंकि बुद्धियुक्त मनीषी - पहुँचे हुए - लोग ही कर्मों से होने वाले (सभी) फलों से नाता तोड़ के जन्म (मरण) के बंधनों से छुटकारा पा जाते (तथा) निरुपद्रव पद - निर्वाणमुक्ति - प्राप्त कर लेते हैं। 51।

अब सवाल यह होता है कि तो यह बुद्धि प्राप्त होती है कब और इसकी प्राप्ति की पहचान क्या है? यह तो कोई विचित्र-सी चीज है, अलौकिक-सा पदार्थ है, नायाब वस्तु है, और जैसा कि पहले दिखलाया जा चुका है, जीते ही मौत के समान असंभव-सी है। इसलिए इसकी प्राप्ति आसान तो हो सकती नहीं। यह भी नहीं कि यह कोई स्थूल या साधारण भौतिक पदार्थ हो। यह तो असाधारण चीज है। बाहरी नजरों से देखी भी नहीं जा सकती। तब हम कैसे जानेंगे कि अब यह हासिल हो गई? इसका उत्तर यह है -

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ 52 ॥

जब तेरी अक्ल इस बुद्धि भ्रम के कीचड़ से पार हो जाएगी (तो) उस समय तुझे सभी बातों से विराग हो जाएगा, (फिर चाहे वह) जानी-सुनी हों या जानने योग्य हों। 52।

श्रु तिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।

समा धा वचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ 53 ॥

(इस प्रकार वेदशास्त्रों की सभी बातों से मन के विरागी हो जाने पर) उनके करते घपले तथा दुविधे में पड़ी तेरी अक्ल जब अंत:करण या दिमाग के भीतर ही रुक के वहीं सदा के लिए जम जाएगी तभी (समझना कि) बुद्धिरूपी योग प्राप्त हो गया। 53।

इन दोनों श्लोकों में जो बातें कही गई हैं। उनका जरा-सा स्पष्टीकरण जरूरी है। यह तो पहले ही कर्तव्याकर्तव्य के विवेचन में बता चुके हैं कि वेदशास्त्रों के अनेक वचनों और ऋषि-मुनियों के बहुतेरे उपदेशों के करते लोगों की अक्ल कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय कर पाने के बदले और भी दुविधे में पड़ जाती है। उसकी हालत ठीक वही हो जाती है जैसे अँधेरी गुफा में पड़ी कोई चीज अंदाज से ही टटोलने वाले की। वह कोई निश्चय कर पाता नहीं और भीतर ही भीतर ऊब जाता है। निश्चय की जितनी ज्यादा कोशिश वह करता है उतना ही ज्यादा दुविधा और पचड़ा बढ़ जाता है। ठीक 'ज्यों-ज्यों भीगै कामरी त्यों-त्यों भारी होय' या 'मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की' की हालत हो जाती है। मगर करे क्या? वेदशास्त्रों को छोड़ते भी तो नहीं बनता। जितना पढ़-सुन चुका होता है उसका भी बार-बार खोद-विनोद करता ही जाता है। नए-नए जो भी वचन पढ़ने-सुनने योग्य होते हैं उन्हें भी पढ़ता जाता है। समझदारी की यही तो दिक्कत है। यदि अपढ़-अजान होता तो यह कुछ नहीं होता। तब तो गलत-सही किसी बात को पकड़ के बैठ रहता कि यही ठीक है। इसीलिए तो नादानी को बहुत हद तक दिक्कतों की ढाल माना है। मगर हो क्या? यह बेचारा तो समझदार ठहरा।

इसीलिए पहले श्लोक में कहा है कि जब योगरूपी विवेक बुद्धि मिल जाएगी तो यह सभी पढ़ने-पढ़ाने एवं विचार-विमर्श की परेशानी एकाएक जाती रहेगी। तब दिल चाहेगा ही नहीं कि एक भी पन्ना उलटे या एक बात का भी खोद-विनोद करें। जैसे पका फल डाल से अकस्मात अलग हो जाता है, वैसे ही ये सभी बातें दिल से हट जाती हैं या दिल ही इनसे अलग हो जाता है। वह इन्हें पूछता भी नहीं। इसी को निर्वेद या वैराग्य कहा है।

जब मन या दिल विरागी बन गया तो फिर वेदशास्त्र के हजार तरह के वचनों के करते जो बुद्धि की परेशानी थी, बेकली और बेचैनी थी उस पर भी परदा पड़ जाता है, वह भी आप ही आप जाती रहती है - मिट जाती है। जैसे कोई आदमी बड़ी परेशानी में चारों ओर दौड़-धूप करता-कराता तबाह हो, मगर अंदेशे या परेशानी के मिटते ही शांत हो जाएँ और सुख की साँस लें। ठीक वही हालत बुद्धि की हो जाती है। उसकी सारी दौड़-धूप बंद हो जाती है। हमेशा के लिए वह निश्चल एवं निश्चिंत बन जाती है। यही बात दूसरे श्लोक में कही गई है। यह भी बात योग के प्रताप से ही होती है। इसलिए इसे भी योगप्राप्ति की पहचान बताया है।

यहाँ पर अचला और निश्चला ये दो शब्द आए हैं जिनका अर्थ एक ही है। इसीलिए खयाल हो सकता है कि दो में एक बेकार है। मगर बात यह है कि बुद्धि में जो स्थिरता आ गई वह दो तरह की हो सकती है। एक तो तात्कालिक या कुछ समय के ही लिए। दूसरी हमेशा के लिए। कहीं ऐसा न समझ लें कि तात्कालिक शांति और स्थिरता से ही काम चल जाता है। इसीलिए लिखा है कि निश्चल बुद्धि जब अचल हो जाती है। निश्चल को अचल कह देने से ही उसकी शांति एवं स्थिरता में स्थायित्व का अभिप्राय सिद्ध हो जाता है। निश्चल का अक्षरार्थ भी है। चलने से बरी और अचल का अर्थ है जो कभी न चले। बरी तो थोड़े समय के लिए भी रहा जा सकता है।

समाधि शब्द का भी मनमाना अर्थ किया जाता है। अभी तक केवल दो ही बार यह शब्द आया है। एक बार इस श्लोक में। दूसरी बार इससे पूर्व 'समाधौ न विधीयते' (44) में। हमने दोनों जगह एक ही अर्थ अंत:करण या दिमाग किया है। समाधि का अर्थ है जिस दशा में या जहाँ मन स्थिर हो, बुद्धि स्थिर हो, और दिमाग या अंत:करण ही ऐसी चीज है जहाँ से मन या बुद्धि की दौड़ बार-बार हुआ करती है। मगर ज्योंही यह दौड़ रुकी कि वहीं वे दोनों शांत हो जाते हैं। एकाग्रता की दशा में यही होता है। इसीलिए हमने यही अर्थ मुनासिब समझा है। जहाँ के हैं वहीं रुक गए, यही तो शांति, स्थिरता या निश्चलता है और यही निश्चयात्मकता भी है। क्योंकि निश्चय न रहने पर बीस चीजों में उनकी दौड़ जारी ही रहती है।

इतना कह देने से यह तो हो गया कि योगी की पहचान मालूम हो गई। मगर इतने से ही तो काम चलता नहीं दीखता। पहले जब गोलमटोल बात थी तो अर्जुन भी चुप थे। कृष्ण ने भी अपने ही मन से शंका उठा के जवाब दे दिया। मगर कर्मयोगी की पहचान सुनने के बाद स्वभावत: अर्जुन को नई जिज्ञासाएँ पैदा हुईं और उसे पूछना पड़ा। उसे यह सुनते ही एकाएक खयाल आया कि जो कुछ भी पहचान योगी की बताई गई है वह तो भीतरी है, बाहरी नहीं। बुद्धि की स्थिरता या पढ़ने-लिखने से वैराग्य यह तो मनोवृत्ति ही है न? फिर यह बाहर कैसे हो और दूसरों की पहचान में कैसे आए? अपना काम तो शायद इससे चल जाए। क्योंकि हर आदमी अपनी मनोवृत्ति को बखूबी समझ सकता है। मगर बाहर के लोग कैसे जानें कि कौन योगी है? यह नहीं कि दूसरों के जानने की जरूरत ही न हो। यदि दूसरे न जानें तो उन्हें उपदेशक कैसे मिलेगा? क्योंकि जो खुद योगी न हो वह तो उपदेश कर सकता नहीं। फलत: यदि हमें योग का रहस्य जानना है तो योगी के पास ही जाना होगा। मगर बिना पहचाने जाएँगे कैसे? इसीलिए पहचान की जरूरत है, और इसके लिए बाहरी लक्षण, जो उठने-बैठने, बोलने आदि से ही जाना जा सके, मालूम होना चाहिए।

इसके सिवाय जो लक्षण, जो पहचान बताई गई है वह बहुत ही संक्षिप्त है। उसमें एक ही बात है, या ज्यादे से ज्यादे दो बातें हैं। मगर ज्यादा बातें पहचान के रूप में मालूम हो जाएँ तो आसानी हो। इन ज्यादा लक्षणों और बाहरी पहचानों से यह भी लाभ होगा कि जो खुद योगी होगा वह भी अपने आपको समय-समय पर तौलता रहेगा। आखिर योग की पूर्णता एकाएक तो हो जाती नहीं। इसमें तो समय लगता ही है। इस दरम्यान में त्रुटियों एवं कमजोरियों का पता लगा-लगा के उन्हें दूर करना जरूरी हो जाता है। इन्हीं त्रुटियों और कमजोरियों का आसानी से पता लगता है। बाहरी लक्षणों से ही। क्योंकि अपनी कमजोरी अपने आपको जल्द मालूम न होने पर भी दूसरे चटपट जान जाते हैं। फलत: उनकी बातों से सजग हो के योगी खुद अपनी मनोवृत्ति पर कड़ी नजर रखता और उसे ठीक करता है। यही सब खयाल करके -

अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।

स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥ 54 ॥

अर्जुन ने पूछा - हे केशव, जिसकी बुद्धि स्थिर तथा समाधि में अचल हो गई है - जो योगी बन चुका है - उसकी परिभाषा - लक्षण - क्या है? वह किस तरह बोलता है, कैसे बैठता और कैसे चलता? 54।

यहाँ 'समाधिस्थ' शब्द का वही अर्थ है जो 'योगस्थ: कुरु कर्माणि' में 'योगस्थ' का है। यदि गौर से देखा जाए, और हम पहले विस्तार के साथ लिख भी चुके हैं, तो इस योगी की भी वैसी ही समाधि होती है जैसी पतंजलि के योगी की। यह प्राणायाम भले ही नहीं करे। फिर भी कर्म से बालभर भी इधर-उधर इसकी दृष्टि, इसकी बुद्धि जाने पाती ही नहीं। वहीं जम जाती है, रम जाती है। इसीलिए यह समाधिस्थ और योगस्थ कहा जाता है।

श्रीभगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥ 55 ॥

श्रीभगवान ने कहा, हे पार्थ, जब मन के भीतर घुसी सभी कामनाओं को जड़-मूल से खत्म कर देता और आत्मा में ही - अपने आप में ही - अपने से ही - खुद-ब-खुद संतुष्ट रहता है तभी उसे स्थितप्रज्ञ या अचलबुद्धिवाला कहते हैं। 55।

दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।

वीतरागभयक्रोध : स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ 56 ॥

दु:खों से जिनका मन उद्विग्न न हो सके, सुखों (की प्राप्ति) के लिए जो परेशान न हो और राग, भय एवं द्वेष - क्रोध - ये तीनों ही - जिसके बीत गए या खत्म हो चुके हों वही मननशील - मुनि - स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। 56।

इन दो श्लोकों में योगी या स्थितप्रज्ञ का लक्षण बताया गया है। इस प्रकार अर्जुन के पहले प्रश्न का उत्तर हो जाता है। बाद के 57वें में 'किस तरह बोलता है' का और 58वें में 'कैसे बैठता है' का उत्तर दिया गया है। उसके बाद के (59-70) बारह श्लोकों में उसी उत्तर के प्रसंग में आई बातों पर विचार करके 71वें में 'कैसे चलता है' का उत्तर दिया गया है। इस तरह सभी प्रश्नों के उत्तर के रूप में कर्मयोगी का पूर्ण परिचय दे के उसकी वास्तविक दशा का चित्र खींचा गया है। उसी दशा को ब्रह्मनिष्ठा या ब्राह्मीस्थिति भी कहते है, यही बात अंतिम श्लोक में कह के समूचे प्रकरण एवं अध्यामय का भी उपसंहार कर दिया गया है।

यहाँ जो दो श्लोकों में दो लक्षण कहे गए हैं उनमें पहला तो नितांत भीतरी पदार्थ है जिसका पता बाहर से लगना प्राय: असंभव है। किसे पता लग सकता है कि दूसरे आदमी की सभी वासनाएँ खत्म हो गईं? अपने ही भीतर वह मस्त है यह भी जानना क्या संभव है? आसान है? इसीलिए दूसरे श्लोक वाली बातें कही गई हैं। इन बातों के जानने में आसानी जरूर है। तकलीफों में सिर और छाती पीटना, हाय-हाय करना आसानी से जाना जा सकता है। इसी तरह आराम पाने के लिए जो बेचैनी होती है उसका भी पता लगे बिना रहता नहीं। सबसे बड़ी बात यह है कि राग, भय और क्रोध तो छिपनेवाली चीजें हैं नहीं। खासकर भय और उससे भी बढ़ के क्रोध हर्गिज छिप सकता नहीं। इस प्रकार इन लक्षणों से योगी को आसानी से पहचान सकते हैं। सभी तरह के लोग इन लक्षणों से फायदा उठा सकते हैं, यही इनकी खूबी हैं।

य: सर्व त्रा नभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।

नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ 57 ॥

जो किसी भी पदार्थ में ममता नहीं रखता - चिपका नहीं होता; इसीलिए जो बुरे-भले (पदार्थों) के मिल जाने पर न तो उनका अभिनंदन ही करता है और न उन्हें कोसता ही है, उसी की बुद्धि स्थिर मानी जाती है। 57।

इसके उत्तरार्द्ध में योगी के बोलने की बात अभिनंदन न करने और न कोसने की बात के रूप में साफ ही आई है। योगी के बोलने की यही खास बात है कि वह न तो किसी की स्तुति करता है और न निंदा।

यदा संहरते चायं कूर्मो s गांनीव सर्वश:।

इंद्रियाणोन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ 58 ।

जब यह (योगी) अपनी इंद्रियों को उनके विषयों से एकबारगी ठीक उसी तरह समेट लेता है जैसे (संकट के समय) कछुआ अपने सभी अंगों को, (तब) उसकी बुद्धि स्थिर मानी जाती है। 58।

कछुए के चलने-फिरने से एकाएक रुक जाने और सभी गरदन, पाँव आदि को खींच लेने की बात कहके 'योगी कैसे बैठता है' का उत्तर दिया गया है। वह अपनी सभी इंद्रियों का दरवाजा ही बंद कर देता है। फिर न तो किसी मनोरंजन पदार्थ के लिए कहीं आना होता है और न जाना। यों शरीर-यात्रार्थ नित्य क्रियादि के करने में आने-जाने पर कोई भी रोक नहीं होती। 61वें श्लोक में भी इंद्रियों के ही रोकने की बात दुहराई गई है और कहा गया है कि इंद्रियाँ जिसके वश में हों वही स्थिर बुद्धिवाला है।

इंद्रियों को विषयों से रोक देने की बात सुन के सवाल होता है कि यदि योगी की यही बात है तो हठयोगी तपस्वी को भी क्या कभी गीता का कर्मयोगी कह सकते हैं? वह भी तो आखिर विषयों से किनाराकशी करी लेता है। अपनी इंद्रियों पर वह इतनी सख्ती के साथ लगाम चढ़ाता है कि वे टस से मस होने पाती हैं नहीं। सरदी-गरमी और भूख-प्यास पर उसका कब्जा साफ ही नजर आता है। मगर ऐसे हठी तपस्वियों और योगियों में तो जमीन-आसमान का अंतर है। यह कैसे होगा कि गीता का योगी तपस्वी के साथ मिल जाए - उसी तपस्वी से जिसका वर्णन स्मृतिग्रंथों में पाया जाता है? तब तो यह योगी और योग गीता की अपनी चीज रह जाएगी नहीं। वह एक प्रकार से बहुत ही आसान चीज हो जाएगी। इसीलिए इसका स्पष्टीकरण आगे के बारह श्लोकों में करना जरूरी हो गया। क्योंकि यह विषय जरा गहन है। यह भी बात है कि क्या केवल विषयों के रोकने मात्र की ही जरूरत होती है, या और कुछ भी जरूरी होता है, यह भी जान लेना आवश्यक है। नहीं तो धोखा हो सकता है, होता है।

विषया वि निवर्त्तंते निराहारस्य देहिन:।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्त्त ते॥ 59 ॥

आहार छोड़ देने वाले मनुष्य के विषय तो (स्वयं) हट जाते हैं। (मगर उनके प्रति) रागद्वेष बने रह जाते हैं। ये भी निवृत्त हो जाते हैं (सही; लेकिन) ब्रह्म-रूपी आत्मा को देखने पर ही, आत्मतत्त्व के ज्ञान के बाद ही। 59।

यहाँ आहार शब्द विचित्र है। सर्वसाधारण में प्रचलित आहार शब्द का अर्थ है भोजन। यह भी माना जाता है कि केवल खाना-पीना - अन्न - छोड़ देने से ही सभी इंद्रियाँ अपने आप शिथिल हो के पस्त और अकर्मण्य हो जाती हैं। फलत: विषयों तक पहुँच नहीं सकती हैं। हालत यहाँ तक हो जाती हैं कि निराहार या अनशन करनेवाले के कान में हारमोनियम बजाइए तो भी उसे कुछ पता ही नहीं चलता है। नासिका के पास इतर-गुलाब लाइए तो भी उसे गंध का पता नहीं चलता। इसीलिए छांदोग्योपनिषद् के सातवें प्रपाठक - अध्याकय - के नवें खंड में लिखा भी है कि यदि दस दिन भोजन न करे तो उसके प्राण भले ही न जाएँ, फिर भी सुनना, सोचना, विचारना वगैरह तो खत्म ही हो जाता है - 'यद्यपि दशरात्रीर्नाश्नीयाद्यद्युहजीवेदथवाऽद्रष्टाऽश्रोताऽमन्ताऽ- बोद्धाऽकर्त्ताऽविज्ञाता भवति' (9। 1)

दूसरी ओर यह मानने वाले भी बहुत से लोग हैं कि आहार का अर्थ केवल अन्न न हो के इंद्रियों के पदार्थ या विषय को ही आहार कहना उचित है। आहार शब्द का अर्थ भी यही होता है कि जो अपनी ओर खींचे। विषय तो खामख्वाह इंद्रियों को खींचते ही हैं। पहले श्लोक में सिर्फ भोजन की बात न आ के विषयों की ही बात आई है। बादवाले श्लोक में भी इंद्रियों के विषयों की ओर ही खिंच जाने और मन को खींच ले जाने की बात कही गई है। छांदोग्योपनिषद् के सातवें प्रपाठक के अंत में यह भी लिखा गया है कि आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि और सत्त्व की शुद्धि से पक्की एवं चिरस्थाई स्मृति, जिसे स्मरण या तत्त्वज्ञान कहते हैं, होती है, जिससे सारे बंधन कट के मुक्ति होती है - 'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति: स्मृतिलम्भे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्ष:' (7। 26। 2)। यदि इस वचन से पहले वाले इसी 26वें खंड के ही वाक्य पढ़े जाए या सारा प्रकरण देखा जाए तो साफ पता चलता है कि यहाँ आहार शब्द का अर्थ इंद्रियों के विषय ही उचित हैं, न कि भोजन। यही ठीक भी है। केवल भोजन तो ठीक हो और बाकी काम ठीक न रहें तो सत्त्वगुण या उस गुण वाले अंत:करण की शुद्धि कैसे होगी और उसकी मैल कैसे दूर होगी? तब तो खामख्वाह रज और तम का धावा होता ही रहेगा। फलत: वे सत्त्व या सत्त्व-प्रधान अंत:करण को रह-रह के दबाते ही रहेंगे। इसीलिए चौदहवें अध्याफय के अंत में गीता में भी गुणों से पिंड छूटने के लिए ऐसी चीजें बताई गई हैं जो भोजन से निराली और विभिन्न विषय रूप ही हैं।

यह ठीक है कि जब अनशन करने वाले लोग कहें कि इंद्रियों को वश में करने के लिए आत्मतत्त्व विवेक की जरूरत है नहीं; केवल निराहार होने से ही काम चल जाएगा, तो उनके उत्तर में इस श्लोक में यह कहने का सुंदर मौका है कि हाँ, इंद्रियाँ तो रुक जाती हैं जरूर। मगर रस या चसका तो बना ही रहता है, जिसे राग और द्वेष के नाम से पुकारते हैं इसीलिए तत्त्वज्ञान की जरूरत है। क्योंकि वह रस तो उसी से खत्म होता है। इस प्रकार श्लोक की संगति भी बैठ जाती है। मगर यह संगति तो विषयों की बात मान लेने पर भी बैठ जाती ही है। क्योंकि हठी तपस्वी लोग एकदम निराहार तो नहीं हो जाते। शरीररक्षार्थ कुछ तो खाते-पीते हईं। हाँ, काम-चलाऊ मात्र ही स्वीकार करते और शीत-उष्ण की सख्ती के साथ सह के इंद्रियों को बलपूर्वक रोक रखते हैं। आखिर उनका भी तो जवाब चाहिए। ऐसे ही लोग ज्यादा होते हैं भी। इसीलिए गीता ने उनका और दूसरों का भी उत्तर इसी श्लोक में दिया है। राग और द्वेष को ही यहाँ रस कहा गया है। इन्हीं का दूसरा नाम काम एवं क्रोध और भय तथा प्रीति भी है। इसे गीता ने खासतौर से संग कहा है।

इसी के लिए आत्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान जरूरी माना गया है। वही योग का मूलाधार है। उसी के लिए सबसे पहले महान यत्न करना जरूरी है। मगर कुछ लोग ऐसा गुमान कर सकते हैं कि आत्मज्ञान जैसी दुर्लभ चीज के लिए परेशान होने और मरने की क्या जरूरत है? इंद्रियों के रोकने का ही ज्यादे से ज्यादा यत्न और अभ्यास करके यह काम हो सकता है कि वे आगे चल के कभी भी विषयों की ओर न ताकें। आखिर राग-द्वेष लाठी से तो मारते नहीं। होता है यही कि उनके रहते इंद्रियों के लिए खतरा बना रहता है कि कभी विषयों में जा फँसेंगी। यही बात न होने का उपाय अभ्यास है। अभ्यास करते-करते ऐसी आदत पड़ जाएगी कि अंत में विषय भूल जाएँगे। मगर ऐसे गुमानवाले न तो इंद्रियों की ही ताकत जानते हैं और न राग-द्वेष की मोहनी और महिमा ही। यह राग-द्वेष ही ऐसी रस्सी है जो विषयों को इंद्रियों से और इंद्रियों को मन से जोड़ती है। जब तक यह रस्सी जल न जाए कोई उपाय नहीं। तब तक इंद्रियाँ खुद तो विषयों में जाएँगी ही। मन को भी घसीट लेंगी। यही बात आगे यों कहते हैं -

यततो ह्यपि कौंतेय पुरुषस्य विपश्चित:।

इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:॥ 60 ॥

हे कौंतेय, पूरा समझदार पुरुष के (हजार) यत्न करते रहने पर भी (ये) बेचैन कर देने वाली इंद्रियाँ मन को (अपनी ओर) बलात खींच लेती हैं। 60।

इस श्लोक में 'पुरुषस्य विपश्चित:' कहने का प्रयोजन यही है कि ऐरे-गैरे की तो बात ही मत पूछिए। विवेकी और मुस्तैद - मर्दाने - लोगों की भी दुर्गति ये बदजात इंद्रियाँ कर डालती हैं। इसी तरह 'हरन्ति' शब्द का आशय यह है कि हमें पता नहीं लगने पाता और चुपके से मन उधर खिंच जाता है। हम हजार चाहें कि ऐसा न हो। मगर इंद्रियाँ तो ललकार के ऐसा करती हैं और हमें पता तब चलता है जब एकाएक देखते हैं कि मनीराम गायब हैं!

इस बात का बहुत ही सुंदर आलंकारिक वर्णन कठोपनिषद् के प्रथमाध्या य की द्वितीयवल्ली में इस तरह किया गया है। जब कोई भला आदमी घोड़ागाड़ी पर चढ़ के पक्की सड़क के रास्ते कहीं जाए तो उसे सजग रह के चलना तो होता ही है। नहीं तो घोड़े कहीं बहक जाएँ और गाड़ी नीचे जा गिरे। उसकी यात्रा में वह खुद होता है। कोचवान, लगाम, घोड़े, गाड़ी ये भी होते ही हैं। सड़क भी होती है और उसके किनारे दोनों ओर अकसर नीचे और गहरे गढ़े भी होते हैं। यदि उस नीची जगह में हरी घास लहलहाती हो तो क्या कहना? घोड़े तो घास की ओर जरूर ही जोर मारते हैं। उन्हें लक्ष्य स्थान पर पहुँचने से क्या मतलब? वह यह भी क्या समझने गए कि यदि नीचे उतरे तो गाड़ी और गाड़ी के मालिक वगैरह के साथ खुद भी उन्हें जख्मी होना या मरना होगा? उन्हें तो हरी घास की चाट होती है, उसका चसका होता है। बस, बाकी बातें भूल जाती हैं। ऐसी दशा में यदि कोचवान जरा भी लापरवाह हुआ या ऊँघा और लगाम जरा भी ढीली हुई तो सारा गुड़ गोबर हुआ। रथ या गाड़ी के मालिक को भी पूरा सतर्क रहना होता है।

उपनिषद में आत्मा को रथी या गाड़ी का मालिक और सवार करार दे के बुद्धि को कोचवान - सारथी, - मन को लगाम - प्रग्रह - और इंद्रियों को घोड़े की जगह माना है। शरीर ही रथ - गाड़ी - और संयतजीवन ही पक्की सड़क मानी है। इस संयम से हटना खंदक में जाना है जहाँ इंद्रियों के विषय लहलहाती घास है। लक्ष्य स्थान है निर्वाणमुक्ति या ब्रह्मनिष्ठा। जीवन की लंबी यात्रा तय करनी है। फलत: आत्मा यदि सतर्क न रहे, बुद्धि को ताकीद न करे कि लगाम को कस के पकड़ो तो घोड़े जरूर ही ग में जाए और सबको चौपट करें। कितना सरस, पर कितना काम का, यह वर्णन है! इसलिए वहाँ कह दिया है कि जिसकी बुद्धि चुस्त और मन कब्जे में है वही जीवनयात्रा सकुशल पूरी करके विष्णु के परम पद - मोक्ष - तक पहुँच जाता है -

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।

बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च॥ 3 ॥

इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।

आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुमनीषिण:॥ 4 ॥

यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन मनसा सदा।

तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथे:॥ 5 ॥

यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा।

तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथे:॥ 6 ॥

यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्क: सदाऽशुचि:।

न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति॥ 7 ॥

यस्तु विज्ञानवान भवति समनस्क: सदाशुचि:।

स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जा य ते॥ 8 ॥

विज्ञान-सारथिर्यस्तु मन:-प्रग्रहवान्नर:।

सोऽ ध्व न: पारमाप्नोति तद्विष्णो: परमं पदम्॥ 9 ॥

इसलिए इस विषय की विषमता को समझ के हमेशा सजग रहना ही होगा तभी काम चल सकता है। इसीलिए आत्मज्ञान की भी जरूरत है। यदि रथ का मालिक ही जगा न हो तो खुदा ही खैर करे। तब तो सारा मामला ही चौपट। इसलिए -

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ 61 ॥

उन सबों - इंद्रियों - को रोक - कब्जे में कर - के आत्मा में ही मन को रमाये हुए डटा रहे। क्योंकि (इस प्रकार) जिसके वश में इंद्रियाँ हों वही स्थितप्रज्ञ है। 61।

यहाँ 'मत्पर:' में 'मत्' का अर्थ साकार कृष्ण नहीं है। इसका तो प्रसंग हई नहीं। यहाँ तो आत्मज्ञान का ही प्रसंग है। इसीलिए ब्रह्म या परमात्मा रूपी आत्मा से ही यहाँ तात्पर्य है। कहते हैं कि, जिस प्रकार अत्यंत चंचल और क्रियाशील भूत को शांत करने की लिए कभी किसी चतुर व्यक्ति ने बहुत लंबे बाँस पर लगातार चढ़ने-उतरने का काम उसे दिया था - क्योंकि वह उससे काम माँगता ही रहता था और इस तरह बेचैन कर डालता था, यहाँ तक कि झपकी मारने भी न देता था, - ठीक उसी तरह आत्मा में ही जब मन रम जाए - जब अंत:करण से आत्मा तक ही आने-जाने की उसे इजाजत हो, न कि जरा भी इधर-उधर-तभी वह शांत होता है। तभी इंद्रियाँ भी कब्जे में रहती हैं। इस मामले में कितना सतर्क रहने की जरूरत है, किस तरह लोग धोखा खा जाते हैं। और नीचे जा गिरते हैं, पद-पद पर इसमें कितना खतरा है और अनजान में भी जरा-सी रिआयत करने से किस तरह सब किए-कराए पर पानी फिर जाता है, इसका बारीक से बारीक विवेचन और ब्योरा आगे के दो श्लोक यों करते हैं -

ध्याायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजा य ते।

संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते॥ 62 ॥

क्रो धा द्भवति सम्मोह: सम्मोहातस्मृतिविभ्रम:।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ 63 ॥

विषयों - इंद्रियों के विषयों या भौतिक पदार्थों - का खयाल करते ही मनुष्य के (दिल में उनके प्रति) राग या आसक्ति पैदा हो जाती है। राग से (उनकी प्राप्ति की) इच्छा होती है। इच्छा से क्रोध होता है। क्रोध से जबर्दस्त अंधकार जैसा मोह पैदा हो जाता है। उस सम्मोह का फल होता है। हर तरह की स्मृति - स्मरण या याद - का खात्मा। स्मृति के खत्म हो जाने से विवेक शक्ति जाती रहती है। विवेकशक्ति के चौपट हो जाने पर वह खुद चौपट हो जाता है। 62-63।

यहाँ जितनी बातें एक के बाद दीगरे कही गई हैं उनका क्रम क्या है और प्रक्रिया कैसी है, इसे अच्छी तरह समझ लेना आवश्यक है। यह ठीक है कि जब तक किसी चीज का खयाल न हो उससे मन चिपकता नहीं, उसमें सटता नहीं। देखते हैं कि फोटोग्राफ के प्लेट या पटरी पर उस हर पदार्थ का बहुत बारीक असर (impression) पड़ जाता है जो उसके सामने से गुजरता है। इसी को संस्कार कहते हैं। यदि किसी सुगंधित वस्तु को कहीं रख दें तो उसके हट जाने पर भी उसका कुछ न कुछ असर रही जाता है। इसी तरह दिमाग के सामने जो चीज आती है उसका भी असर उस पर पड़ता ही है। दिमाग तो भीतर है। इसलिए उसके सामने बाहरी चीजें इंद्रियों की खिड़कियों से ही होकर पहुँचती हैं। सो भी वे खुद नहीं; किंतु अंत:करण या मन हू-ब-हू उन्हीं के आकार का बन के भीतर लौटता है। इसी तरह वे दिमाग के सामने आती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि इंद्रियों की खिड़कियाँ बंद रहने पर भी चीजों के आकार को मन दिमाग के सामने खड़ा कर देता है। यह इसीलिए होता है कि पहले इंद्रियों के रास्ते कभी वे भीतर आई थीं और अपना असर छोड़ गई थीं। बस उसी असर के आधार पर मन उनका स्वरूप तैयार कर लेता है। इसी को खयाल, स्मरण, या ध्यापन कहते हैं, चिंतन कहते हैं। इन श्लोकों में पहली बात यही कही गई है।

उसका नतीजा यह होता है कि उन चीजों से मनीराम लिपट जाते हैं, उनमें आसक्त हो जाते हैं, फिदा हो जाते हैं। यह ठीक है कि यह आसक्ति यों ही नहीं हो जाती। कितनी ही चीजें रोज दिमाग के सामने गुजरा करती हैं। मगर सबों के साथ संग या आसक्ति कहाँ देखते हैं? हाँ, जो चीजें बार-बार सामने आ जाएँ, जिनका बार-बार खयाल हो उनमें आसक्ति होती है। या ऐसा भी होता है कि यदि चीज में कोई विलक्षणता हो तो पहली बार सामने आने पर ही मनीराम उस पर लट्टू हो जाते हैं। यह बात वस्तु की अपनी विशेषता और सामने आने की परिस्थिति पर ही अवलंबित है। यही है दुनिया का तरीका। यही दूसरी बात यहाँ कही गई है।

आसक्ति होने पर उसे प्राप्त करने की इच्छा, आकांक्षा या तमन्ना होती ही है। उसी के लिए रास्ता साफ करना आसक्ति का काम है। इच्छा को ही काम भी कहते हैं। इसका दर्जा तीसरा है। यह असंभव है कि इच्छा हो ही न और आसक्ति यों ही रह जाए।

काम के बाद क्रोध का दर्जा आता है - उसी का चौथा नंबर है। जिसे काम या इच्छा न हो उसे क्रोध से क्या ताल्लुक? उसमें तो क्रोध का दर्शन भी न होगा। इच्छा से क्रोध यों ही नहीं होता। किंतु उसके मौके आते रहते हैं। इच्छित वस्तु न प्राप्त हुई, उसकी प्राप्ति में देर हुई या बीच में कोई जरा भी अड़ंगा आ गया, तो चट क्रोध उमड़ पड़ता है। इच्छा जितनी ही तेज होगी, क्रोध भी उतना ही तेज होगा और शीघ्र होगा भी। क्योंकि तब तो जरा भी बाधा या विलंब बरदाश्त हो सकेगी नहीं। यह भी होता है कि मिली हुई चीज किसी वजह से दूर हो जाती है, हट जाती है और क्रोध भड़क उठता है। तात्पर्य यह है कि बलवती इच्छा के बाद इच्छित पदार्थ की जुदाई, उसका पार्थक्य या अलग होना ही इच्छा को क्रोध में परिणत कर देता है। जैसी इच्छा होगी वैसा ही क्रोध भी होगा।

यहाँ एक बात याद रखने की है। बहुत लोग गीता के 'कामात्क्रोधोऽभिजायते' का सीधा अर्थ 'काम से क्रोध होता हैं' करने के बजाए बीच में अपनी ओर से पुछल्ला लगा देते हैं कि काम - इच्छा - की पूर्ति में बाधा पड़ने से क्रोध होता है। वे यह भी समझते हैं कि उनने अर्थ का स्पष्टीकरण कर दिया। मगर ऐसा करने में वह भूल जाते हैं कि गीता का असली अभिप्राय ही चौपट हो जाता है। गीता के काम से क्रोध की उत्पत्ति सीधे ही कहने का मतलब यही है कि क्रोध की असल बुनियाद और अनर्थ का मूल कामना ही है। इसलिए उसी को दूर करना होगा। उन लोगों के अर्थ में यह बात - कामना को ही अनर्थ बताने की बात - नहीं रह जाती है। क्योंकि ज्यों ही उनने बाधा का नाम लिया कि सबने समझ लिया कि असली बला कामना नहीं है। क्योंकि कामना होने पर भी तो खामख्वाह क्रोध होता ही नहीं। वह होता तो है जब कामना की पूर्ति में बाधा आ जाए। और अगर बाधा न आए तो? तब क्रोध क्यों होगा? इस तरह जो महत्त्व कामना को मिलना चाहिए वही मिल जाता है बाधा को। फलत: कामना से ध्याबन हट जाता है - जैसा चाहिए वैसा खयाल कामना के मुतल्लिक रहता नहीं। पीछे चाहे हजार कहें कि बाधा तो होती ही है, ऐसा तो संभव नहीं कि सदा हर हालत में कामनाएँ पूरी हों, आदि-आदि। मगर वह बात रह जाती नहीं - वह मजा और स्वारस्य रह जाता नहीं। और जब बाधाएँ अवश्यमेव आती ही हैं, तब उनके जिक्र की जरूरत ही क्या है? गीता के तीसरे अध्यानय के अंत में 'काम एष क्रोध एष' में तो साफ ही काम और क्रोध को एक ही कहा भी है।

पाँचवीं श्रेणी में मोह या सम्मोह आता है जो क्रोध से पैदा होता है। मोह तो एक तरह का परदा है जो दिमाग पर, विवेकशक्ति पर पड़ जाता है। जब वही परदा खूब जबर्दस्त और गाढ़ा हो तो उसे सम्मोह कहते हैं। हमारी आँखों के सामने हजारों चीजें पड़ी हों और बीच में परदा न हो तो हम सबको ठीक-ठीक देखते, जिन्हें चाहते उन्हें चुन लेते, उनके बारे में कुछ दूसरा खयाल करते और सोचते-विचारते हैं। मगर अगर बीच में कोई परदा आ जाए तो यह सारी बात रुक जाती है। यही हालत दिमाग की भी है। युगयुगांतर की देखी, सुनी और जानी हुई बातें संस्कार के रूप में उसमें पड़ी रहती हैं। उनका एक तरह का सूक्ष्म चित्र पड़ा रहता है। समय-समय पर दिमाग उन्हें देखता, विचारता, चुनता और उनसे काम लेता रहता है। उन चीजों और उसके बीच कोई परदा नहीं होता। हाँ, नींद, नशा, बीमारी आदि के करते मोटा या महीन परदा कभी-कभी आ जाया करता है और ऐसा हो जाता है कि वे ओझल हो गईं। यही बात क्रोध के समय भी होती है। कहते हैं कि क्रोध में आदमी अंधा हो जाता है - उसे सूझता ही नहीं। इसका यही मतलब है। क्रोध का परदा बड़ा खतरनाक होता है। वह बुरी तरह भटकाता और गुमराह करता है। जिससे महान अनर्थ हो जाता है। यह बात नींद वगैरह में नहीं होती है। क्रोध में तो इनसान क्या से क्या कर बैठता है। इसलिए उसे सम्मोह कहा है। इसीलिए गीता के तीसरे अध्यागय के अंत के (36-43) आठ श्लोकों में इसी क्रोध को सभी पापों का मूल कारण, महापाप, आवरण, कुंभकर्ण जैसा पेटवाला, असली शत्रु, आग और कभी पूरा न होनेवाला बताया है। उससे सुंदर चित्रण हो सकता है नहीं। क्रोध होते ही दिमाग में भादों की घोर अँधेरी छा जाती है। 'त्रिविधं नरकस्येदं' (16। 21-22) आदि दो श्लोकों में काम, क्रोध और लोभ को नरक के द्वार तथा आत्मा के नाशक कह दिया है।

सम्मोह से स्मृति का खात्मा हो जाता है और यही छठी बात है। घोर अँधियारी में सूझने क्यों लगा? अँधियारी का तो काम ही है कि किसी चीज का पता लगने न दे। स्मृति या स्मरण के भ्रंश का अर्थ इतना ही है कि स्मृति हमेशा के लिए खत्म न हो के तत्काल जाती रहती है। यह तो कही चुके हैं कि दिमाग में सारी बातों के सूक्ष्म चित्र हैं। वह भौतिक या बाहरी कान, आँख आदि तो है नहीं। इसलिए प्रत्यक्ष अनुभव तो उन बातों का होता नहीं। किंतु वह स्मरण हो आती हैं। यही दिमाग का देखना है और क्रोध के चलते यही हो पाता नहीं; रुक जाता है। जितनी बातें पहले देखी-सुनी, पढ़ी-लिखी या जानी थीं एक की भी याद नहीं हो पाती। सब चौपट!

इसका परिणाम यह होता है कि भले-बुरे, कर्तव्य-अकर्तव्य, आत्मा-अनात्मा आदि का विवेक हो पाता नहीं - यह विवेक-शक्ति ही कुंठित हो जाती है और अपना काम कर पाती नहीं। यही सातवीं चीज होती है। विवेक या विचार है क्या चीज यदि जानी-सुनी बातों का जोड़-बटोर और मिलान नहीं है? समय-समय पर सभी तरह की बातें हम जानते रहते हैं और उनका संस्कार दिमाग में पड़ा रहता है। कभी कुछ जानते तो कभी कुछ। एक बार एक चीज जानते; तो दूसरी बार दूसरी और कभी-कभी पहले की विरोधी। एक लंबी बात का एक अंश आज, एक कल, दो परसों इस तरह भी जानते रहते हैं। एक दिन जिसे सही जानते हैं, दूसरे दिन उसी को अंशत: या पूरा-पूरा गलत जानते हैं। ये सारी जानकारियाँ - सारी बातें - फोटो की तख्ती पर के चित्र की तरह दिमाग में पड़ी रहती हैं। दिमाग का यही काम है कि समय-समय पर इन्हें जोड़ बटोर कर - इन्हें स्मरण करके - एकत्र करके - और काट-छाँट के एक नई बात, नई चीज, नया निश्चय तैयार करे। इसे ही विवेक कहते हैं। विवेक का अर्थ है काट-छाँट, जोड़-बटोर करना, चावल को भूसे से जुदा करके राशि बनाना। मगर जब जानी-सुनी बातें याद ही नहीं, उनकी स्मृति ही नहीं, तो विवेक कैसे होगा? तब अक्ल और बुद्धि कैसे होगी - समझ क्योंकर होगी? इस तरह भौतिक पदार्थों का ही विवेक जब नहीं हो पाता, तो फिर आत्मा का विवेक और उसका तत्त्वज्ञान कैसे होगा? वह तो गहन विषय है। इसलिए उसके संबंध की बातों का जाना-सुना जाना तो और भी लापता हो जाएगा, उड़ जाएगा, खत्म हो जाएगा।

और जब बुद्धि ही नहीं तो मनुष्य को चौपट ही समझिए। यही आठवीं और अंतिम बात है। अब बाकी रही क्या गया, जब चौपट ही हो गए? पत्थर, वृक्ष और पशु-पक्षियों से मनुष्य में यही तो फर्क है कि यह बुद्धि रखता है, समझदार है - rational being - है। और भले-बुरे का विचार करता है, कर सकता है। मगर जब इसमें यही बात न रह गई तो मनुष्य क्या खाक रहा? तब तो चौपट हो ही गया।

अब सवाल यह होता है कि तो आखिर किया क्या जाए? अगर किसी चीज का खयाल न करें तो क्या पत्थर बन जाएँ? यों तो खयाल करने पर पीछे देर से पत्थर बनने की नौबत आती है, जैसा अभी कहा है। बल्कि खामख्वाह पत्थर बन जाने की भी नौबत नहीं आती है। हाँ, मनुष्यता जरूर चली जाती है। मगर यदि खयाल करें ही न, तब तो सोलहों आना पत्थर बनी चुके। और अगर ऐसा नहीं करते तो शरीर-रक्षा एवं जीवन-यात्रा करते हुए मनुष्यता की भी रक्षा करने का कोई बीच का रास्ता नजर आता नहीं। आखिर विवेकी के लिए भी तो शरीर, इंद्रियादि की रक्षा जरूरी है। नहीं तो विवेक-विचार वह करेगा क्या खाक? मगर इसके लिए तो पदार्थों का खयाल जरूरी हो जाता है। आखिर भूख लगने पर ही तो खाएगा और प्यास लगने पर पानी पिएगा। मल-मूत्रादि का त्याग भी बिना खयाल के होगा नहीं। उधर खयाल में आसक्ति का खतरा ही ठहरा। तो फिर किया क्या जाए? इसी का उत्तर - इसी पहेली का समाधन - आगे के दो श्लोक इस तरह करते हैं -

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।

आत्मवश्यैर्वि धे यात्मा प्रसादमधिगच्छति॥ 64 ॥

प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि : पर्यवतिष्ठते॥ 65 ॥

राग और द्वेष से शून्य तथा अपने कब्जे में रहने वाली इंद्रियों के द्वारा (आवश्यक) विषयों को भोगने वाले पुरुष का तो मन अपने अधीन रहने के कारण (चित्त की) प्रसन्नता (ही) प्राप्त होती है। प्रसन्नता होने पर इस (मनुष्य) की सारी तकलीफें खत्म हो जाती हैं। क्योंकि प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही सर्वथा स्थिर हो जाती है। 64। 65।

यहाँ पर कई बातें जानने योग्य हैं। पदार्थों के खयाल या संसर्ग मात्र से ही कुछ होता जाता नहीं। विरागी पुरुष भी तो आखिर खाता-पीता और जीवनयात्रा करता ही है। उसके दिमाग के सामने भी पदार्थ आते ही रहते हैं। मगर वह तो चौपट होता नहीं? क्यों? इसीलिए न, कि पूर्व कथन के अनुसार उसके भीतर पदार्थों के लिए रस नहीं है, संग और आसक्ति नहीं है, राग-द्वेष नहीं है? वह तो पदार्थों से उदासीन रहता है। केवल अनिवार्य आवश्यकता से ही उनसे काम लेता है। मलमूत्र त्याग का ही दृष्टांत लें। हर आदमी के लिए यह प्रतिदिन जरूरी बात है। मगर क्या कभी ऐसा भी देखा-सुना गया कि कोई आदमी मल-मूत्र त्याग में आसक्ति रखता हो? ऐसी तो कभी होता नहीं। क्यों? इसीलिए न कि मजबूरन लोगों को यह काम करना ही पड़ता है। नहीं तो शरीर रहेगी न? अनिवार्य आवश्यकता के अतिरिक्त इस काम में और कोई वजह होती ही नहीं। इसीलिए उसमें फँसने का सवाल उठता ही नहीं। वैराग्ययुक्त विवेकी पुरुष ठीक इसी तरह खानपान वगैरह भी करता है। उनकी नजर में मल-मूत्र त्याग और खानपान आदि में जरा भी अंतर नहीं है - दोनों ही शरीर-रक्षा के लिए अनिवार्य हैं। उसे न तो मल-मूत्र में राग-द्वेष है, आसक्ति है, चसका है और न खानपान आदि में ही। फिर वह फँसेगा क्यों? बस, यही बात हमें करनी होगी यदि हम भी कल्याण चाहते हैं, चौपट होना नहीं चाहते और सभी अनर्थों से बचना चाहते हैं। 'रागद्वेषवियुक्तै:' में जो वियुक्त शब्द है वह यही बात बताता है कि हम इन बातों में जरा भी चसकें न, लिपटें न, जैसा कि मल-मूत्र त्याग में नहीं लिपटते।

पहले के 60वें श्लोक में 'इंद्रियाणि प्रमाथीनि' आदि उत्तरार्द्ध में यह कहा गया है कि इंद्रियाँ पुरुष को बेचैन कर देती हैं, मथ देती हैं जैसे मथानी से दही मथा जाए और मन को जबर्दस्ती खींच ले जाती हैं। मथने की बात हम 'व्यथयन्ति' की व्याख्या में बखूबी बता चुके हैं। उसका उलटा यहाँ कह दिया है कि 'आत्मवश्यै:' - अर्थात इंद्रियाँ अपने काबू में हो जाती हैं, अपने मन के अधीन रहती हैं। आत्मा का अर्थ स्वयं और मन दोनों ही हैं। जब चसका और राग-द्वेष नहीं हैं, तो इंद्रियों को यह शक्ति होती ही नहीं कि मन को खींच सकें। क्योंकि वही तो रस्सी हैं जिनके द्वारा उनके साथ मन जुटा है। इसीलिए जब चाहती हैं उसे अपनी ओर खींच लेती हैं। मगर वह रस्सी ही अब गई है टूट। फिर हो क्या? मगर मनीराम कौन से भले हैं? यह हजरत तो खुद इंद्रियों की पीठ ठोंकते और ललकारते फिरते हैं कि वाह-वाह, खूब किया। ऐशी दशा में यदि इंद्रियाँ इनके हाथ आ गईं तो इन्हें तो मजा ही हुआ। अब पीठ ठोंकने में और भी आसानी जो होगी। इसलिए कह दिया है कि 'विधेयात्मा'। असल में मनीराम यह काम जरूर करते। मगर वे तो खुद परेशान हैं। वे आत्मा के सोलह आने कब्जे में जो हैं। इसीलिए कुछ कर नहीं सकते! कहाँ तो 'आ फँसे' वाली हालत है। असल में राग-द्वेष के खत्म होते ही सारी परिस्थिति ही उलट जाती है। कहते हैं कि किसी ऊँटनी का बच्चा उसके साथ चलते-चलते जब थक गया तो माँ से गिड़गिड़ा के बोला कि माँ, जरा ठहर जा। बहुत थक गया हूँ। थोड़ी दम तो मार लूँ। इस पर ऊँटनी ने उत्तर दिया कि बेटे, मैं भी क्या कम थकी हूँ? मैं भी तो दम मारना चाहती हूँ। मगर मेरी नकेल दूसरे के हाथ जो है और वह दाढ़ीजार रुकना नहीं चाहता। इसलिए बेबसी है। बस, ठीक यही हालत मन और इंद्रियों की है। जब ये मन से पूछती हैं कि क्यों भई, हुक्म दो तो जरा मजा लें, तो मनीराम चट कह बैठते हैं कि बोलो मत बहनो, बड़ी बेबसी है, सारा मजा किरकिरा है। वह और भी बिगड़ जाएगा।

इस तरह पहले श्लोक के स्पष्टीकरण के बाद इसके तथा दूसरे के 'प्रसाद' और सब दु:खों की हानि की बात रह जाती है। दुनिया का नियम यही है कि कोई भी अच्छे से अच्छा और बड़े से बड़ा काम करने के बाद यदि मनस्तुष्टि या चित्त की प्रसन्नता न हो तो वह काम बेकार माना जाता है और सारा परिश्रम व्यर्थ ही समझा जाता है। विपरीत इसके अगर उसके बाद प्रसन्नता हो गई, तबीअत खुश हो गई तो सब किया दिया सफल माना जाता है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि असली चीज भला-बुरा काम नहीं है, किंतु उसके अंत में होने वाली मनस्तुष्टि ही, जिसे यहाँ प्रसाद कहा है और 'प्रसन्नचेतस:' में प्रसन्नता भी कहा है। दोनों का अर्थ एक ही है।

बात यों हैं कि वेदांत सिद्धांत के अनुसार हृदय में या अंत:करण में आत्मा का लहलहाता प्रतिबिंब मानते हैं। जैसे साफ-सुथरे दर्पण मुख का प्रतिबिंब पड़ता है और उसे देख के हम खुश या रंज होते हैं जैसा मुख प्रतीत हो। ठीक उसी तरह सत्त्वप्रधान अंत:करण का दर्पण भी चमकदार है। उसी में आत्मा का प्रतिबिंब मानते हैं। आत्मा को आनंद स्वरूप भी मानते हैं। वह आनंद का महान स्रोत है। इसीलिए आत्मा के प्रतिबिंब का अर्थ है उसके आनंदसागर का प्रतिबिंब। जो लोग उसका अनुभव करते हैं वह आनंद में मस्त रहते हैं - उसी में गोते लगाते रहते हैं। वेदांती यह भी मानते हैं कि आनंद या सुख तो केवल आत्मा में ही है। केवल वही आनंदरूप है। भौतिक पदार्थों में सुख का लेश भी है, 'यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति' (छांदोग्य. 7। 23। 1)।

लेकिन जिस तरह जल में पड़ा प्रतिबिंब तभी दीखता है जब जल निश्चल एवं निर्मल हो; जरा भी हिलता-डोलता न हो। वैसे ही आत्मानंद का प्रतिबिंब तभी अनुभव में आता है जब अंत:करण निर्मल और निश्चल हो। आईना मैला और बराबर नाचता हो तो प्रतिबिंब दिखेगा कैसे? इसीलिए योगी और आत्मदर्शी लोग बराबर ही चित्त की शांति और निर्मलता की कोशिश करते हैं। गीता ने भी इस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया है। राग-द्वेष आदि ही चित्त की मैल हैं। उसकी चंचलता तो सभी को विदित है। क्षण भर में दिल्ली से कलकत्ता और वहाँ से तीसरी जगह जा पहुँचता है। कहीं भी टिकना तो वह जानता ही नहीं। बंदर या पारे से भी ज्यादा चंचल उसे कहा गया है। बिजली से भी ज्यादा तेज वह दौड़ता है। अब रही विषय सुख या भौतिक पदार्थों से मिलने वाले सुख की बात। वेदांतियों का इसमें कहना यही है कि जब मनुष्य को किसी चीज की सबसे ज्यादा चाट होती है तो वह दिन-रात उसी का खयाल करता रहता है। इस प्रकार उसका मन एकाग्र हो जाता है। फलत: अंत:करण की चंचलता दूर हो जाने के कारण उसमें आत्मानंद का लहलहाता प्रतिबिंब नजर आता है। मगर मन निश्चल एवं एक ही जगह बँधा होने पर भी बाहर की उसी चीज में लगा है जिसकी चाट या प्रचंड अभिलाषा है। इसीलिए उस आत्मानंद को अनुभव कर नहीं सकता, उसे देख या जान नहीं सकता। वह बाहर जो टँगा है। भीतर आ जो नहीं सकता। मगर ज्यों ही वह चीज मिली कि चट भीतर लौटा और उस आत्मानंद का अनुभव करके मस्त हो जाता है। इस तरह उसे जिस आनंद का अनुभव होता है वह तो आत्मानंद ही है। फिर भी अभिलषित पदार्थ के मिलने पर ही उसका अनुभव होने के कारण ऐसा भ्रम हो जाता है, ऐसा माना जाने लगता है कि उस पदार्थ में ही आनंद है। उस पदार्थ के ही चलते मन - अंत:करण - की एकाग्रता हुई है जरूर। इसीलिए आत्मानंद का अनुभव भी हुआ है। इसीलिए उस विषय को आनंद के अनुभव का सहकारी कारण भले ही माना जाए। मगर उसमें आनंद तो हर्गिज नहीं है। ऐसा मानना तो सरासर भ्रम है। आनंद तो केवल भूमा में है - महान से भी महान पदार्थ रूपी आत्मा में ही है।

यही कारण है कि एक ही चीज से एक आदमी को आनंद मिलता है और दूसरे को नहीं। यदि आनंद उस वस्तु का स्वभाव होता, उस वस्तु में ही रहता तो अग्नि की गरमी की तरह सभी को समान रूप से ही उसका अनुभव होता। परंतु ऐसा होता नहीं। खूब भूखे आदमी को भरपेट सत्तूी या सूखी रोटी खिलाइए तो वह आनंद-विह्वल हो उठता है। लेकिन अमीर का तो वही चीजें देख के भी कष्ट होता है, खाने की तो बात ही जाने दीजिए। यदि भौतिक पदार्थ में ही आनंद होता तो ऐसा कदापि न होता। इसी तरह वही हलवा-पूड़ी भूखे को खिलाइए और पेटभरों को भी। भूखे तो खा के आनंद से लोटपोट हो जाएँगे। मगर पेटभरे लोग आनंद मनाने या खुश होने के बदले उसमें हजार ऐब ही निकालेंगे कि पूड़ी जरा नर्म सिंकी, खर न थी, घी अच्छा न था, सूजी खराब थी, कुछ अच्छी गंध आती न थी, मालूम होता है चीनी खाँटी न थी, घी शुद्ध न था, आदि-आदि। क्यों? इसीलिए न, कि भूखे का मन और अंत:करण उस अन्न की रट लगाए एकाग्र था, निश्चल था; फलत: उसे पाते ही उसने आत्मानंद का उक्त रीति से पूर्ण अनुभव किया? मगर पेटभरों का मन तो एकाग्र था नहीं। क्योंकि हलवा-पूड़ी की रट थी नहीं। उनका पेट जो भरा था। इसीलिए वह चीजें मिलने पर भी उनमें कोई फर्क न हुआ। इसीलिए उनका मन आत्मानंद का अनुभव कर न सका। वह तो बंदर की तरह पहले भी दौड़ता रहा और खाने के समय एवं उसके बाद भी। फिर आत्मानुभव हो तो कैसे? वह आनंद मिले तो कैसे?

देखा जाता है कि सूखी हड्डी को कुत्ता चबाता है। उसमें कुछ रस तो होता नहीं। केवल हड्डी की महक से कुत्ते को खयाल होता है कि जिस तरह ताजी और रसीली हड्डी में खून का रस मिलता है उसी तरह इसमें भी मिलेगा। इसीलिए खूब जोर से उसे चबाता है। जब कुछ नहीं मिलता तो और भी जोर लगाता है। नतीजा यह होता है कि हड्डी की नोकों से उसके जबड़े छिल जाते हैं और उनका खून हड्डी में टपक पड़ता है। कुत्ता उसी को चाट के खुश होता है। फिर तो पहले से भी ज्यादा जोर लगाता है। फलत: और भी जख्म होते हैं जो ज्यादा खून टपकाते हैं। यही बात देर तक चलती है जब तक वह थक के छोड़ नहीं देता। कुत्ता अपने ही खून को मिथ्या ही हड़डी का समझ के खुश होता है। क्योंकि अपने खून का स्वाद उसे उस हड़डी के ही बहाने मिल पाता है। इसी से उसे भ्रम होता है कि हड़डी में ही खून है। ठीक इसी तरह हरेक आदमी हमेशा मौका पड़ने पर अपने ही आत्मानंद का अनुभव करता है। मगर स्वतंत्र रूप से ध्याकन और समाधि के द्वारा वह आनंद लूटने का शऊर तो उसे होता नहीं। वह तो विषयों के बहाने ही उसे कभी-कभी लूटता है, उसका अनुभव करता है। इसीलिए उसे भ्रम हो जाता है कि विषयों - भौतिक पदार्थों - में ही सुख है। उसे अनुभव भी उस आत्मानंद के एक तुच्छ कण का ही हो पाता है क्योंकि जरा-सी देर के बाद ही उसका मन फिर चंचल जो हो जाता है। वह उसमें डूब तो सकता नहीं। इसीलिए बृहदारण्यक के चौथे अध्यामय में लिखा है कि इसी परमानंद के एक छींटे से सारे संसार का काम चलता है - 'एषोऽस्य परम आनंद एतस्यैवानंदस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति' (4। 5। 32)।

इस लंबे विवेचन से यह साफ हो गया कि चित्त की प्रसन्नता ही असल चीज है। उसके होते ही परमानंद का अनुभव होने लगता है। फिर तो संसार के सारे कष्ट भाग जाते हैं मन तो एक ही होता है न? और जब वही आत्मानंद में डूब चुका तो दु:खों का अनुभव कौन करे? 'इक मन रह्यो सो गयो स्याम संग कौन भजै जगदीस'? और जब अनुभव होता ही नहीं, तो दु:ख रही क्या चीज? वह अन्न-वस्त्रादि की तरह कोई स्थाई या ठोस चीज तो है नहीं? वह एक विलक्षण प्रकार की मानसिक वृत्ति ही तो है, जिसका अस्तित्व उसके अनुभव के साथ ही रहता है। अनुभव के बिना वह लापता रहता है, लापता हो जाता है। इस तरह जब मन आत्मानंद में डूबा है तो दु:ख रूपी उसकी वृत्ति भी हो इसका मौका ही कहाँ रहा? इसकी फुरसत ही कहाँ रही? जब आत्मज्ञानी या योगी राग-द्वेष में बँधाता नहीं तो उसके मन की एकाग्रता हमेशा ही बनी रहती है। उसमें बाधा तो कभी पड़ती नहीं। वह निरंतर अविच्छिन्न रहती है। इसीलिए आत्मानंद का अनुभव भी निरंतर अविच्छिन्न रहता है। मन वश में है यह तो 'विधेयात्मा' से स्पष्ट ही है। इसीलिए कह दिया है कि सभी तकलीफों का खात्मा हो जाता है। न तो मानसपटल की गंभीरता कभी भंग होती है और न यह बला आती है। इसी अविच्छिन्न गंभीरता का ही नाम प्रसाद है।

जिनने गौर से 'ध्या यतो विषयान्' आदि दो श्लोकों को पढ़ के उसी तरह बाद के 'रागद्वेषवियुक्तैस्तु' आदि दो श्लोकों को भी पढ़ा होगा उन्हें साफ पता लगा होगा कि पहले दो श्लोकों में जो बात शुरू की गई थी कि रागद्वेषादि के वशीभूत होने से कैसी दुर्गति होती है, उसी के बीच में ही बादवाले दो श्लोकों के जरिए सिर्फ एक शंका को दूर किया गया है जो उठ खड़ी हुई थी और जिसका स्वरूप हम अच्छी तरह बता चुके हैं। वह शंका एकाएक उठ गई और मौजूँ भी थी। इसीलिए अपनी बात पूरी न करके पहले उसी का उत्तर देना जरूरी हो गया। तभी तो श्रोता आगे की उस प्रधान विषय से संबंध रखने वाली बातें अच्छी तरह सुन सकेगा। इसीलिए बादवाले श्लोकों के शुरूवाले शब्द के साथ ही 'तु' जुटा हुआ है। इसका अर्थ 'तो' होता है। यह वहीं आता है जहाँ बीच में ही कोई दूसरी या उलटी बात प्रासंगिक रूप में खड़ी हो जाए और जिसका उत्तर देना जरूरी हो जाए। ऐसी बात आगे भी गीता में 'यस्त्वात्मरतिरेव' (3। 17) आदि श्लोकों में आई है। इसीलिए असली प्रसंग अभी पूरा नहीं हुआ है यह तो मानना ही पड़ेगा।

जो लोग ऐसा समझते हों कि वह प्रसंग तो पहले के उन दो ही श्लोकों में पूरा हो गया उन्हें जरा भी सोचने पर अपनी भूल मालूम हो जाएगी। देखिए न? उन दोनों के अंत में यही तो कहा जाता है - 'बुद्धिनाशात्प्रणश्यति'। मगर क्या अर्थ है? अगर पत्थर में बुद्धि नहीं है तो क्या वह चौपट हो गया? ऐसा कौन मानता है? विपरीत इसके बुद्धि न होने से ही तो उसे तकलीफ-आराम किसी बात का अनुभव नहीं होता। यह तो मानते ही हैं कि यह अनुभव ही तो संसार है, आफत है, बला है, बुरी चीज है। आनंद का अनुभव तो होता भी शायद ही है। होता तो है अधिकतर कष्ट का ही। इसलिए इस दृष्टि से तो पत्थर अच्छा ही ठहरा। और आत्मा तो सर्वत्र है, सबों की है यह कही चुके हैं। फिर पत्थर उससे जुदा कैसे माना जाएगा? इसलिए चौपट होने का मतलब क्या?

और क्या पागलों में मस्ती नहीं होती? उनकी समझ चली गई और वे सभी आफतों से अलग हो गए! मौज में विचरते फिरते हैं! नंगे हैं तो भी फिक्र नहीं है! गालियाँ पड़ रही हैं या आशीर्वाद मिल रहा है। मगर लापरवाह और बेगम हैं! फिर यह कैसे कहा जाए कि बुद्धि या समझ के चले जाने से ही मनुष्य नष्ट हो जाता है? यह भी नहीं कि पागल लोग फौरन मर जाएँ। वे तो बहुत दिनों तक पड़े रहते हैं, जैसे दूसरे लोग। हाँ, यह जरूर होता है कि सभी रोग-बीमारियाँ लापता हो जाती हैं। लेकिन यह तो मनमाँगा वरदान ही समझिए।

एक बात और भी है। माना कि राग-द्वेष छोड़ के और उनके फंदे में हर्गिज न पड़ के ही शरीरोपयोगी पदार्थों का सेवन करना चाहिए। मगर क्या इतने से ही सब आफतें खत्म हो जाएँगी? जन्म-जन्मांतर के संस्कार और राग-द्वेषों के बीज तो अंत:करण में पड़े ही रहते हैं। वह एकाएक तो चले जाते नहीं। इस शरीर में भी अभी-अभी हमने आसक्ति छोड़ के पदार्थों का सेवन शुरू किया है। मगर इससे पहले तो यह बात थी नहीं। तब तो आसक्ति थी ही। उसी के करते दिमाग में पहले के पदार्थ बैठे हैं जो खामख्वाह उमड़ पड़ेंगे और दिक करेंगे। आखिर सपने की तकलीफें ऐसी ही तो होती हैं। दिमाग में बीज रूप में पड़े पदार्थ ही तो सपने में उभड़ के जाने कौन-कौन-सी आफतें ढाते रहते हैं। राग-द्वेष रहित हो के खानपान करने वाले के भी ये सपने कायम ही रहते हैं। वे एकाएक तो मिट जाते नहीं। फिर क्या हो? यह गंदगी धुले कैसे? मिटे कैसे? किस साबुन से अच्छी तरह रगड़ के धोई जाए? यह तो हजारों जन्मों की पुरानी मैल है न? इसीलिए इसे हटाने में बहुत ज्यादा मिहनत, बार-बार की लगातार रगड़ दरकार होगी। सो क्या है यह तो मालूम है नहीं।

और जो यह कह दिया कि स्मृति के नाश से बुद्धि का नाश हो जाता है - 'स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाश:', इसके क्या मानी हैं? क्या सचमुच ज्ञान रही नहीं जाता और आदमी पत्थर हो जाता है? यह बात तो ठीक नहीं। क्रोध के बाद भी आदमी तो आदमी ही रहता है। रोज ही यह बात देखी जाती है। फिर पत्थर होने की कौन-सी बात? और अगर यह नहीं है तो बुद्धि के नाश के मानी भी क्या हैं? किस क्रोधी की बुद्धि खत्म हो जाती है? थोड़ी देर तक खास ढंग का कोई परदा-सा पड़ा रहता है। मगर पीछे तो पीछे, उस समय भी समझदारी के दूसरे काम तो वह करता ही रहता है। आखिर उस समय भी उसके सभी काम पागलों जैसे ही होते नहीं। यह ठीक है कि वह कुछ काम उस समय बेविचार के - विवेकशून्य - कर डालता है जिससे मुसीबतें बढ़ जाती हैं। इसी तरह बढ़ती रहती हैं भी। मगर इसे बुद्धिनाश तो कभी नहीं कह सकते। उसकी बेचैनी और परेशानी जरूर बढ़ जाती है, इसमें कोई शक नहीं है। इसके करते यह भी संभव है, उसे आराम न मिले। ऐसा ही प्राय: होता भी है। बेचैनी और परेशानी की आग बढ़ जाने पर चैन कहाँ? आराम कहाँ? मगर वह चौपट नहीं होता। उसे बुद्धि भी रहती ही है।

इस तरह की अनेक बातों के रहते ही, और सुनने वाले के मन में इस प्रकार की शंकाओं के बनी रहने पर भी यह कह देना कि मूल प्रसंग पहले दो श्लोकों में ही पूरा हो गया, कोई मानी नहीं रखता। इसीलिए आगे के श्लोक उसी बात को पकड़ के यही बातें खुद पेश करते और इनसे बचने के उपाय सुझाते हैं। हमें यहीं पर यह जान लेना होगा कि जो कुछ अभी कहा गया है अगले श्लोक उसे मानते हैं। बुद्धिनाश का वही मतलब है जो अभी कहा गया है। उस समय विवेक से काम लिया जा सकता नहीं। इस तरह बेचैनी और मुसीबतें बढ़ती जाती हैं। और जो आदमी मुसीबतों में घिरा है वह तो मरने से भी बदतर है। उससे तो मरा कहीं अच्छा। अशांत जीवन तो जहर ही समझिए, चौपट ही मानिए। आखिर शांति ही तो असल चीज है न?

आगे के श्लोकों ने जन्मजन्मांतर के पुराने संस्कारों और राग-द्वेष के बीजों को जलाने के लिए - इस गहरी से गहरी गंदगी को मिटाने के लिए - जिस नए साबुन का नाम लिया है, जिस लगातार चिरकालीन रगड़ का आविष्कार किया है उसे भावना कहते हैं। यही नाम उसे दिया भी है। जैसे रंग को गाढ़ा करके कपड़े पर चढ़ाने में कपड़े को रह-रह के रंग में डुबोते और सुखाते हैं। सोने को भी रह-रह के गर्म करके पानी में डुबाते और इस तरह उसे टंक बनाते हैं। मामूली लोहे को भी बार-बार आँच दे के पीटते और पानी में डुबाते हैं ताकि इस्पात हो जाए। ठीक यही बात रागद्वेषादि मैलों को धो बहाने के लिए भी की जाती है, करनी पड़ती है। बार-बार सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करके मन को रोकते और आत्मतत्त्व-में ही लगाते हैं। हर मौके पार सजग रह के यही करते हैं। इसे ही पातंजल योग में ध्यामन, धारणा और समाधि कहा है। इन तीनों को मिला के संयम नाम दिया है - 'त्रयमेकत्र संयम:' (3। 4) गीता ने भी आगे 'संयमी' (2। 69) में यही कहा है। इनमें ध्यारन नीचे दर्जे की चीज है। उसके बाद धारणा आती है। ध्याहन करते-करते मजबूती आने पर धारणा और उसकी मजबूती होने पर समाधि का समय आता है। इन तीनों के पूरा होने पर - संयम की पूर्णता हो जाने पर - अंत:करण की, बुद्धि की सारी की सारी युग-युगांतर की मैल जल-धुल जाती है। फिर तो वह निर्मल हीरे की ही तरह धप-धप हो जाती है। इसके बाद अखंड विज्ञान का व्यापक एवं सनातन - अचल - प्रकाश होता है। इसीलिए पतंजलि ने भी कहा है - 'तज्जयात् प्रज्ञालोक:' (3। 5)। उस प्रचंड प्रकाश - उस द्वादश आदित्य - के सामने अज्ञान और अंधकार का पता कहाँ?

इसी संयम, इसी भावना के करते मन आत्मा के ही रंग में रंग जाता है - कभी भी इधर-उधर टस से मस नहीं होता। उसमें अब ऐसा करने की योग्यता एवं शक्ति ही नहीं रह जाती है। इसीलिए निर्वात समुद्र के जल की तरह एकरस, गंभीर और शांत रहता है। उसकी यह निश्चलता, निष्क्रियता, शांति अखंड हो जाती है। फलत: योगी उसमें लहलहाते आत्मानंद का अनुभव दिन-रात सोते-जागते करता ही रहता है। एक क्षण के लिए भी उसके सामने से वह आनंद - वह मजा - ओझल हो पाता नहीं, हो सकता नहीं। मगर जो यह नहीं कर सकता है; जिसे भावना का अवसर नहीं मिला वह हमेशा बेचैन और परेशान रहता है, त्यंत अशांत रहता है। फिर उसे सुख कहाँ? उसे सुख मयस्सर क्यों हो?

हमें यह भी जान लेना होगा कि इस भावना के लिए विवेक की तो जरूरत हई। वही तो इसके मूल में है। जब तक हमें बखूबी आत्मतत्त्व का और रागद्वेषादि का पता न चल जाए और यह न मालूम हो जाए कि इनमें कैसे फँसते हैं तब तक हम मन को रँगेंगे कैसे? तब तक उसे सब आफतों से खींच के आत्मा या कर्म में ही लगाएँगे कैसे? सभी बातें जान लेने पर ही तो आगे कदम बढ़ायेंगे। इसीलिए भावना के पहले बुद्धि या विवेक जरूरी है। रँगने की सारी प्रक्रिया अच्छी तरह जब तक न जाने सुंदर रंग चढ़ाएगा कैसे?

मगर यही बुद्धि चौपट होती है जिस रीति से उसी का वर्णन पहले 'ध्याहयतो विषयान्' में किया गया है। इसलिए वहाँ कहे गए विषयों के खयाल से लेकर स्मृति-विभ्रम तक की सारी बातें, जिनका परिणाम बुद्धि नाश है, एक ही जगह मिला के योगभ्रष्टता कहते हैं। छठे अध्या य में जिस योगभ्रष्ट और योगभ्रष्टता की बात कही गई है वह भी कुछ इसी तरह की चीज है। उसमें पातंजल योग भी भले ही आ जाए। मगर यह तो हई, यह बात पक्की है। यदि हम गौर से उन सभी बातों को देखें जो इन दो श्लोकों में लिखी हैं तो हमें मानना ही होगा कि जो लोग गीतोक्त योगी नहीं होते हैं, मुक्त नहीं होते हैं, किंतु उस स्थान से गिर पड़ते और पतित हो जाते हैं - च्युत और अयुक्त हो जाते हैं, उन्हीं में ये बातें अक्षरश: पाई जाती हैं। फलत: उन्हें बुद्धि होती ही नहीं। फिर भावना कैसी? भावना के अभाव में शांति भी कहाँ? और जब शांति ही नहीं, तो सुख कैसा? आनंद कहाँ? यही बात आगे के 66वें श्लोक में कहने के उपरांत बादवाले दो श्लोकों में इसी का विवरण दे के उपसंहार किया है।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।

न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्॥ 66 ॥

अयुक्त को बुद्धि ही नहीं होती। जिसे बुद्धि ही न हो उसे भावना भी नहीं होती। जिसे भावना न हो उसे शांति नहीं मिलती। जिसे शांति ही नहीं उसे सुख कहाँ? 66।

यहाँ एक जरा-सी बात सोचने की है। श्लोक के देखने से पता चलता है कि यहाँ कोई शृंखला है जिसकी लड़ें एक के बाद दीगरे आई हैं। यदि नीचे से ही शुरू करें तो सुख के पहले शांति तथा उसके पहले भावना की तीन लड़ें मिल जाती हैं। शुरू में भी योग के बाद बुद्धि के आने से योग और बुद्धि की भी लड़ें जुटती हैं। मगर बीच में 'न चाबुद्धस्य भावना' कहने के बजाए 'न चायुक्तस्य भावना' कह दिया है, जिससे बुद्धि के साथ भावना की लड़ी जुट जाने से आगे भावना से शांति की जुटान आदि को ले के पूरी शृंखला तैयार हो जाने के बजाए टूट-सी जाती है, प्रसंग विशृंखल हो जाता है। यह कुछ ठीक जँचता भी नहीं कि योग का बुद्धि से और बुद्धि का ही भावना से सीधा संबंध जोड़ने के बजाए योग का ही सीधा संबंध दोनों से जुटे। यह असंभव-सा भी लगता है। क्योंकि यदि योग जुट चुका है बुद्धि के साथ, तो फिर भावना से कैसे जुटेगा? और अगर ऐसा मानें भी तो फिर शांति और सुख के साथ भी उसी को सीधे क्यों न जोड़ा जाए? इसीलिए हमने दूसरे अयुक्त शब्द का अबुद्ध ही अर्थ किया है और कहा है कि बिना बुद्धि के भावना होती ही नहीं। असल में, जैसा कि पहले ही कह चुके हैं, योग में भी बुद्धि ही वास्तविक चीज है। इसीलिए 'बुद्धियोगाद्धनंजय' (2। 49) में बुद्धि को ही योग कहा भी है। इसीलिए जान पड़ता है, यहाँ भी 'अबुद्धस्य' की जगह 'अयुक्तस्य' कह दिया है। ताकि बुद्धि पर ही जोर दिया जा सके।

इंद्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥ 67 ॥

क्योंकि (विषयों में) रमने वाली इंद्रियों के पीछे जब मन लग जाता - चल जाता - है तो (अपने साथ ही) बुद्धि को भी (विवश करके) वैसे ही खींच लेता है जैसे मझधार में पड़ी नाव को वायु (विवश करके इधर-उधर खींचता और अंत में डुबो देता है)। 67।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।

इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ 68 ।

इसीलिए हे महाबाहो, जिसकी सभी इंद्रियाँ (अपने-अपने सभी) विषयों से पूरी तरह खींच ली गई हैं उसी की बुद्धि स्थिर होती है। 68।

इन दो श्लोकों में दो बातें हैं, जिन पर दो शब्द कह देना है। जिस तरह हवा के झकोरे में पड़ी नाव विवश हो के इधर-उधर भटकती और अंत में डूबती या छिन्न-भिन्न होती है; फिर भी नाववाले कुछ कर नहीं सकते। ठीक उसी तरह इंद्रियों का साथी मन हो जाने पर हालत होती है। बुद्धिरूपी नाव के लिए इंद्रियों का वेग हवा के झकोरे का काम करता है। उसकी सफलता के लिए जिस मझधार की जरूरत है उसका काम वही मन पूरा कर देता है। मझधार न होने पर हवा के तेज से भी तेज झोंके नाव का खाक नहीं बिगाड़ सकते। इंद्रियाँ भी मनुष्य का कुछ कर नहीं सकती हैं यदि उनका साथी मन न मिल जाए। मन के मिलने का अर्थ ही है रागद्वेष-पूर्वक पदार्थों का भोगा जाना। फिर तो सब ज्ञान-ध्या न खत्म। बुद्धि का भी होश फाख्ता ही समझिए। असल चीज यह मनीराम ही है। यही जिधर चलते हैं उधर ही सब कुछ होता है। जब ये इंद्रियों की ओर चले तो बुद्धि पर भी वारंट जारी हुआ और जबर्दस्ती बाँध-छान के उधर ही घसीटी गई! और अगर ये हजरत बुद्धि की तरफ आ गए तो इंद्रियाँ बेकार-सी हो गईं। वे हाथ जोड़ें बुद्धि की ही मातहती करती और हुक्म बजाती हैं। इन्हें तो खींचने की भी जरूरत नहीं होती। खुद हाथ जोड़े हाजिर रहती हैं और बुद्धि के काम में मदद करती हैं। वह तो अपना काम निर्बाध करती ही रहती हैं।

इसलिए विषयों से इंद्रियों को बखूबी रोक रखने का यह मतलब हर्गिज नहीं है कि खाना-पीना, देखना-सुनना, पढ़ना-लिखना सब कुछ बंद हो जाए। तब तो आफत ही आ जाएगी और कोई भी काम हो ही न सकेगा। आखिर भावना के लिए भी तो शरीरोपयोगी काम करना जरूरी होता ही है। मर जाने से तो कुछ होगा नहीं। जबर्दस्ती करने में तो मरने में भी फजीती होगी। श्लोक में 'निगृहीत' शब्द है। निग्रह कहते हैं दंड को। जिस तरह दंडित आदमी, बंदी या कैदी काम-धाम तो सब कुछ करता है; मगर उसकी आजादी जाती रहती है; वह तकुवे की तरह सीधा बन के शैतानियत छोड़ देता है। ठीक यही हालत इंद्रियों की होती है। ये भी कैदी की तरह हुक्म बजाती हैं, सब कुछ करती हैं, और तकुआ बन जाती हैं।

परंतु यह बात असंभव जैसी मालूम होती है और साधारण आदमी के दिमाग में घुसती ही नहीं। विषयों को जरूरत भर काम में इन्हीं इंद्रियों के द्वारा लाएँगे भी और हमें कुछ पता भी न चलेगा कि इनमें क्या मजा है, यह कुछ अजीब बात है। जिन्हीं इंद्रियों से विषयों को भोगेंगे, उनका अनुभव करेंगे वही तो उसी के साथ उनका मजा भी बताई देंगी। इसके लिए उन्हें दूसरा काम, दूसरा यत्न तो करना होगा नहीं। यह काम एक ही साथ होगा। असल में भोग का अर्थ ही है मजा लेना, सुख-दु:ख का अनुभव करना। भोग इसी को कहते ही हैं - 'सुखदु:खान्यतरसाक्षात्कारो भोग:'। फिर यह क्या बात कि मजा न आए; हम चसकें नहीं, या मन में ये बातें न आएँ?

इसका उत्तर भी सुंदर है। जिसे फाँसी की सजा हो, फाँसी दी जाने वाली ही हो उसे आप चाहे सुंदर से भी सुंदर पदार्थ खिलाइए और कोमल से भी कोमल शैया पर सुलाइए। मगर जरा पूछिए तो सही कि उसे कुछ भी मजा आता है? उसे तो पता ही नहीं चलता कि वह क्या खा-पी रहा है और कहाँ सो रहा है। उसका मन मौत में जा के अटक जो गया है। उसके सामने तो मौत बराबर खड़ी है। जरा भी हटती नहीं। फिर मजा आए तो कैसे? यहाँ तो मौत आई हुई है और हटती ही नहीं, दूसरों को जगह देती ही नहीं। इसी तरह नृत्यकला में कुशल नटी को खड़ा कीजिए और उसकी कला की जाँच कीजिए तो देखिए क्या होता है। उसके सिर पर पानी से भरा एक पात्र रख के बिना उसे हाथ से पकड़े नाचने को कहिए। वह बराबर बाजे-गाजे के ताल-सुर में ही ठीक-ठीक नाचेगी, जरा भी फर्क न पड़ेगा। मगर उसका मन निरंतर उस जलपूर्ण पात्र में ही लगा होगा। नहीं तो जरा भी चूकते ही वह नीचे जा गिरेगा और नटी नृत्यकला की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाएगी।

ठीक यही हालत योगी, समदर्शी और आत्मतत्त्वज्ञ मस्तराम की भी समझिए। इनके मनीराम तो उधर ही टँगे रहते हैं, फँसे और लटके रहते हैं। दूसरे काम की इन्हें फुरसत हई नहीं। फिर चसका लगे तो कैसे? मजा आए तो कैसे? नटी के ताल-सुरवाले नृत्य की तरह मस्तराम भी खाना-पीना सब कुछ करते ही हैं। मगर मजा नहीं रहता, रस नहीं मिलता! उनके लिए सारी दुनिया जैसे अँधरे की चीज हो, भादों की घोर अँधियाली की बात हो। इसलिए जिन चीजों में दूसरों को मजा आता है उनका उन्हें पता ही नहीं चलता। अँधियाली की चीजों का पता किसे चले, सिवाय उल्लू के? मगर जिस तरह मस्तराम लगे हैं, जिधर वे जगते हैं, जिधर उन्हें प्रखर प्रकाश और उजियाली है, जहाँ उनके लिए बिना लैंप, चाँद, सूरज और आग के ही खुद-ब-खुद अखंड प्रकाश है - 'आत्मैवास्य ज्योतिर्भवति', 'अत्रायं पुरुष: स्वयंज्योतिर्भवति' (वृहदा. 4। 3। 6-8), वहाँ बाकी लोगों के लिए काली अँधियाली है, भादों की रात है। फलत: वे लोग कुछ भी जान पाते नहीं। आखिर दोनों मजा मारेंगे कैसे? एक को तो छोड़ना ही होगा। यही बात आगे का श्लोक कहता है। 'पश्यतो मुनै:' का अर्थ ही यह है कि उसकी भीतरी आँखें बराबर खुली हैं -

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥ 69 ।

सब लोगों के लिए जो रात है उसमें संयमी - योगी - जागता है। (और) जिसमें लोग जागते हैं निरंतर भीतरी आँखें खुली रखने वाले उस मुनि - मननशील - के लिए वही रात है। 69।

इस तरह पदार्थों के भोग की बात जो कही गई है उसका निचोड़ कह देना जरूरी है। क्योंकि सभी तो इतने गहरे पानी में उतर सकते नहीं कि इन लंबी-चौड़ी बातों को समझ सकें। साथ ही, ऐसे आदमी की क्या हालत रहती है जो औरों को भी साफ-साफ मालूम हो जाती है, यह बता देना भी जरूरी है। ताकि योगी भी अपने आपको लोकमत की तराजू पर बराबर तौलता रहे। दूसरे लोग भी उसकी पहचान करके उससे फायदा उठा सकें, कुछ सीख सकें। इसीलिए नर्त्तकी या फाँसीवाले की अपेक्षा एक तीसरा दृष्टांत, जो सब दृष्टियों से अनुकूल हो, पेश करके 'कैसे बैठता है' प्रश्न के उत्तर का और इस प्रसंग की सारी बातों का एक तरह का उपसंहार अगले श्लोक में करते हैं। बचे-बचाए आखिरी प्रश्न 'कैसे चलता है' का उत्तर तो उसके बादवाले श्लोक में दिया गया है।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शांतिमाप्नोति न कामकामी॥ 70 ।

सभी तरफ से निरंतर पानी के आते रहने पर भी जिसका पानी जरा भी बढ़ता नजर नहीं आता और ज्यों का त्यों बना रहता है - जिसमें जरा भी उफान नहीं आता, ऐसे समुद्र में घुस के उसी का रूप बन जाने वाले पानी की ही तरह सभी भौतिक पदार्थ जिस (पुरुष) के पास आते हैं (और उसकी गंभीरता में जरा भी फर्क डाल नहीं सकते), वही शांति प्राप्त करता है, न कि पदार्थों के लिए हाय-हाय मचाने वाला। 70।

इस श्लोक में जो खूबी है वह यही कि इससे योगी और आत्मज्ञानी के बाहरी लक्षण का पता लगने के साथ ही इसमें कही गई बात बहुत मार्के की है। यहाँ 'समुद्रमाप:' और 'यं प्रविशन्ति' में द्वितीयांत शब्द आए हैं 'समुद्रं' तथा 'यं'। हालाँकि - समुद्र में पानी जाता है, इस मानी में 'समुद्रे' जैसी सप्तमी विभक्ति चाहिए और 'यं' की जगह भी 'यस्मिन्' चाहिए। किंतु वैसा कहने पर कुछ ऐसा मालूम होने लगता है कि चाहे जो हो, फिर भी पानी समुद्र में निराली ही चीज है। क्योंकि वह पानी के पात्र की तरह आधार बन जाता है। पात्र में रहने वाले पानी की ही तरह वहाँ जाने वाला भी उससे जुदा आधेय बनता है। मगर द्वितीय विभक्ति में यह बात नहीं रह जाती है। उससे तो साफ ही मालूम होता है कि पानी समुद्र का ही रूप बन गया - उसी में विलीन हो के तद्रूप बन गया। या यों कहिए कि पानी अपने आप में ही जा मिला। इसी तरह पदार्थ भी जब योगी के पास जाएँ तो ऐसा हो जाए कि अपने आपके ही पास आए हैं। क्योंकि आत्मा तो सभी की है और योगी सभी की आत्मा बन चुका है, वह 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' (5। 7) बन चुका है। फिर अपने आपसे ही अपनी लड़ाई या अपने ही करते अपने में उफान और बेचैनी कैसी? वहाँ तो भेद रही न गया। फिर बेचैनी का क्या सवाल? वहाँ तो मालूम पड़ता है, न कोई आया न गया! जैसी दशा पदार्थों के मिलने के पूर्व थी वैसी ही मिलने पर और बाद में भी रह गई! जरा भी फर्क नहीं आया!

विहाय कामान्य: सर्वान् पुमांश्चरति नि:स्पृह:।

निर्ममो निरहंकार: स शांतिमधिगच्छति॥ 71 ॥

(इसलिए) सभी पदार्थों को छोड़ के - उनकी जरा भी परवाह न करके - जो पुरुष नि:स्पृह विचरता है और जिसमें माया-ममता - अहंता ममता - जरा भी नहीं होती, वही शांति प्राप्त करता है - उसी को शांति मिलती है। 71।

अहंता और ममता ही तो सारी खुराफातों की जड़ हैं। मैं और मेरा यही तो है अहंता और ममता। अहम् और मैं, मेरा और मम एक ही अर्थ में आते हैं और यही है जहर जिससे सभी मरते हैं। यह खयाल ही है कालानाग जिसके डसते ही सभी मर जाते हैं। योगी में यही नहीं होता। फिर पदार्थों की उसे क्या परवाह? किसी दंडी महात्मा से जब एक ने, जो बड़ा मगरूर मालदार था, पूछा कि महाराज, संन्यासी किसे कहते हैं? तो उनने चट उत्तर दिया कि तुमसे ले के ब्रह्मा तक को जो तृण के बराबर भी न समझे वही संन्यासी है। यही लापरवाही और बेफिक्री मस्ती की असली निशानी है। इसीलिए ऐसा आदमी मस्त हो के सर्वत्र विचरता है और शांति उसके चरण चूमती रहती है। उसका तो मन जहीं जाता है वहीं समाधि है - 'यत्रयत्रमनोयाति तत्रतत्रसमाधय:'। निर्मम के बारे में पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है।

एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।

स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥ 72 ॥

हे पार्थ, यही ब्राह्मी स्थिति (कही जाती ) है। इसे हासिल कर लेने पर फिर मोह नजदीक फटक सकता नहीं। अंत समय में भी इस दशा में आ जाने वाला (मनुष्य) निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। 72।

यह श्लोक आत्मविवेक और योग के समूचे निरूपण का और इसीलिए दूसरे अध्याुय का भी उपसंहार है। जिस मस्तीवाली हालत का वर्णन अभी-अभी किया है उसी का नाम यहाँ ब्राह्मी स्थिति कहा गया है। चाहे उसे योगी की दशा कहिए, स्थितप्रज्ञ और स्थिरबुद्धि की हालत कहिए, युक्त और मस्त की मौज कहिए, साम्यावस्था या समदर्शन कहिए। सब एक ही बात है - एक ही चीज के अनेक नाम हैं। इस मस्ती में आने पर प्रियतम, सर्वप्रिय आत्मा या माशूक से सपने में भी जुदाई होती ही नहीं। फिर मोह या भूलभुलैया कैसी? इसीलिए मस्तराम सदा मुक्त ही है। उसे कहीं आना-जाना है नहीं - न बैकुंठ, न ब्रह्मलोक। उसका तो शरीर ही उससे अलग होता है, न कि वह किसी से भी अलग हो सकता है। यह मस्ती यदि पहले से ही हो तो सोने में सुगंध ही समझिए। नहीं तो शरीरांत से पहले भी आ जाने पर निर्वाण मुक्ति धरीधराई है। निर्वाण का अर्थ है जाने-आने से रहित। उसकी तो आत्मा ब्रह्म रूप हई। फिर आना-जाना कहाँ और कैसा?

इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगोनामद्वितीयोऽध्यातय:॥ 2 ॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में (जो) उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र (है उस) में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है। उसका सांख्य-योग नामक दूसरा अध्याञय यही है।