तीसरे अध्या़य का श्रीगेणश अर्जुन के प्रश्न से ही होता है। वह प्रश्न भी कर्म के ही बारे में किया गया है। इससे साफ हो जाता है कि दूसरे अध्यापय के 39वें श्लोक में जिस योग या कर्मयोग के निरूपण का सूत्रपात किया गया था, वही उस अध्याोय के अंत तक होता रहा है। क्योंकि बीच में यदि कोई दूसरी बात खासतौर से आने को होती तो अर्जुन का यह प्रश्न यहाँ न हो के वहीं हो जाता। जब कर्म के ही संबंध में यह सवाल है तब तो उसका पूरा निरूपण हो जाने और उसके मुतल्लिक सारी बातें सुन लेने के बाद ही फौरन इसे आना चाहिए। नहीं तो यों ही हवाई बात होने के कारण प्रधान विषय से इसका ताल्लुक रही न जाएगा। इसीलिए और बातों के निरूपण का प्रसंग आते ही अर्जुन फौरन खामख्वाह यही प्रश्न पहले ही पूछ बैठता और इस प्रकार कृष्ण को मौका ही न देता कि दूसरा विषय छेड़ दें। क्योंकि तब तो कर्म की बात नीचे पड़ जाती और वह नया विषय ही ऊपर आ जाता। इसीलिए यह तो निर्विवाद है कि कर्मयोग वाली बात ही इसके पहले या यों कहिए कि दूसरे अध्याौय के अंत तक आई है।
यह भी तो विदित हो ही चुका है कि इस कर्मयोग के निरूपण के सूत्रपात से लेकर अंत तक जो बातें कही गई हैं उन पर अध्याुत्मज्ञान, तत्त्वविवेक, मनोनिरोध और मस्ती की मुहर कदम-कदम पर लगी हुई है। मालूम होता है कि ये सभी बातें कर्मयोग के प्राण की तरह, जीवन बिंदु की तरह हैं। फलत: इनके अलग करते ही कर्मयोग कुछ रही नहीं जाएगा - वह निरा कर्म रह जाएगा। क्योंकि इन बातों को कर्मयोग से अलग करने का सीधा अर्थ हो जाएगा कर्मयोग से योग को ही निकाल के कर्म को उसी रूप में छोड़ देना और अकेले रहने देना जिस रूप में आमतौर से हमेशा से पाया जाता है। कर्म के उस रूप को ही ले के गीता ने अपने निराले करिश्मे और अलौकिक मंतर-यंतर के रूप में उसे परिमार्जित एवं शुद्ध करने का उपाय निकाला है। गीता के इस उपाय के पहले का कर्म खाँटी, लोहे या पारे के ढंग का है। जिसका जरा भी प्रयोग मारक बन जाता है, अनेक व्याधियों को पैदा करता है - जन्म-मरण के चक्र एवं उससे उत्पन्न संकटों का अनवरत प्रवाह जारी रखता है। गीता का उपाय उस लोहे या पारे को भस्म करके - मार के - अमृत बना देता है, रस बना देता है, जिसके सेवन से न सिर्फ व्याधियाँ दूर होती हैं, किंतु अपार शक्ति मिल जाती है। इसीलिए कृष्ण ने इस उपाय की, इस तरकीब की, इस हिकमत और बुद्धि की - अक्ल और युक्ति की - खूब ही प्रशंसा की है कि इस बुद्धिरूप योग की अपेक्षा कर्म अत्यंत तुच्छ है - 'दूरेणह्यवरंकर्म' (2। 49)। उसी श्लोक में इस योग, उपाय या हिकमत को बुद्धि ही कहा भी है। उसके पहले के 'यावानर्थ उदपाने' (2। 46) में भी इस ज्ञान या बुद्धि की प्रशंसा की है और कहा है कि इसी से सब काम चल जाता है।
इसी के साथ 'एषातेऽभिहिता' (2। 39) में यह साफ ही कह दिया है कि दो मार्ग स्वतंत्र रूप से पाए जाते हैं - एक है सांख्य या सांख्ययोग का मार्ग और दूसरा है योग या कर्मयोग का मार्ग। संक्षेप में इन्हें सांख्य और योग या ज्ञान और कर्म के मार्ग भी कहते हैं तथा ज्ञानयोग एवं कर्मयोग भी । यह भी साफ ही है कि कर्मयोग के मार्ग में भी यह ज्ञान लगा ही है। अर्जुन बहुत ज्यादा बारीकी समझ सका भी नहीं। उसने सीधे और साफ देख लिया कि ज्ञान या बुद्धिवाला सांख्य मार्ग हर तरह से उत्तम बताया गया है। उसके मुकाबिले में दूसरे या कर्म के मार्ग की कोई गिनती नहीं है। यदि कर्म कर्मयोग बन जाता भी है तो इस अध्या त्मज्ञान के करते ही। फिर तो निस्संदेह यही सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ है, उसने यही निष्कर्ष निकाला। मगर इसी के साथ उसने यह भी देखा कि 'तस्माद्युध्यस्व' (2। 18), 'उत्तिष्ठ कौंतेय युद्धाय कृतनिश्चय:' (2। 37) तथा 'युद्धाय युज्यस्व' (2। 38) में साफ ही मुझे युद्ध करने की आज्ञा दे के इस युद्धात्मक घोर कर्म में ही लगाया जा रहा है और बार-बार कहा जा रहा है कि सोच-फिक्र न कर, चिंता मत कर, आदि-आदि। वह कृष्ण को अपना सबसे बड़ा हितेच्छु मानता था। इसीलिए वह आगा-पीछा में पड़ गया कि यह क्या बात है? एक ओर तो ज्ञान मार्ग सर्वोत्तम बताया जा रहा है। दूसरी ओर मेरे लिए हिंसामय युद्ध ही कर्तव्य कहा जा रहा है! वह घबरा गया और इसी पसोपेश में पड़ के कुछ भी निश्चय न कर सकने के कारण कृष्ण से -
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्कि कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥1॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥2॥
अर्जुन ने पूछा - हे जनार्दन, हे केशव, यदि कर्म की अपेक्षा बुद्धि - ज्ञान - को ही श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर (हिंसात्मक युद्ध जैसे) घोर कर्म में मुझे क्यों लगाते हैं? (असल में) आपके बीच-बीच में मिले-जुले वचनों से ऐसा मालूम पड़ता है कि जैसे मुझे घपले में डाल रहे हों। इसलिए पक्कापक्की निश्चय करके दोनों में एक को ही मुझे बताइए, जिससे मैं कल्याण प्राप्त कर सकूँ। 1। 2।
यहाँ कृष्ण पर दो इलजाम लगे मालूम होते हैं। पहला यह कि साफ-साफ नहीं बोल के कभी ज्ञान की बात और बड़ाई करते हैं तो कभी कर्म की, और कभी फिर उलट के कर्म की, तब ज्ञान की। इससे सफाई तो हो पाती नहीं। किंतु उलटे सुननेवाला घपले में पड़ जाता है। इसीलिए दूसरा इलजाम यही है कि बुद्धि को पसोपेश और घपले में डालते हैं। मगर असल में तो ये इलजाम हैं नहीं। भला, अर्जुन जैसे शरणागत के साथ कृष्ण ऐसा क्यों करने लगे? वह तो किसी के भी साथ ऐसा नहीं कर सकते थे। फिर अर्जुन की तो बात ही जाने दीजिए। इसीलिए - और अर्जुन उन पर यह इलजाम लगाता भी कैसे? यह तो बड़ी भारी गुस्ताखी और छोटे मुँह बड़ी बात हो जाती - इसलिए भी दूसरे श्लोक में दो बार 'इव' आया है, जिसका अर्थ यही है कि मुझे मालूम होता है कि आप ऐसा कर रहे हैं। हो सकता है, इसमें मेरी समझ का ही दोष हो। अर्जुन वह दोष अपने माथे पर ही लेने को तैयार भी था। क्योंकि वह तो शरणागत शिष्य बन चुका था। फिर दूसरी हिम्मत करता तो कैसे? इसीलिए वह अब ऐसी सफाई चाहता है जिससे बखूबी समझ जाए और संदेह की गुंजाइश रही न जाए।
श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥3॥
श्री भगवान ने उत्तर दिया - हे पापरहित (अर्जुन), इस संसार में दो प्रकार के मार्ग हमने पहले ही - पूर्व समय में - ही बताए हैं (एक तो) ज्ञानियों का ज्ञानयोग और दूसरा योगियों का कर्मयोग। 3।
यहाँ 'पुरा' शब्द का कुछ लोग 'पहले' अर्थ करके दूसरे अध्यादय में कही गई दो निष्ठाओं या बताए गए दो मार्गों को ही पुरा शब्द से लेते हैं; क्योंकि तीसरे अध्याथय के पहले वह बात आ चुकी है। मगर यह बात ठीक नहीं है। पुरा का अर्थ है असल में पूर्व समय में। यही अर्थ गीता में इसी पुरा शब्द का आगे दो बार माना भी गया है। वहाँ किसी ने भी इसका दूसरा अर्थ स्वीकार नहीं किया है। एक तो तीसरे ही अध्यााय में 'सहयज्ञा: प्रजास्सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:' (3। 10) में और दूसरा 'यज्ञाश्च विहिता: पुरा' (17। 23) में। गीता में तीन ही बार यह शब्द आया है। इसमें दो बार तो सभी ने 'पूर्व समय में' यही अर्थ करके 'सृष्टि के आदि या युगों के आरंभ में' यही मानी लगाया है। यही ठीक भी है। फिर दूसरा अर्थ हो गया कैसे? दूसरे अर्थ में तो यह भी दिक्कत है कि पुरा का अर्थ होगा पूर्व स्थान में। तभी तो 'दूसरे अध्या य में' यह अर्थ हो सकेगा। मगर 'पूर्व स्थान में' यह इस शब्द का अर्थ आज तक कहीं किसी ने माना ही नहीं है। यह भी दिक्कत है कि ऐसी दशा में 'लोकेऽस्मिन्' शब्द का कोई मेल खा सकेगा नहीं। क्योंकि दूसरे अध्याीय ने तो साफ ही 'एषातेऽभिहिता' में 'तुझे कहा' ऐसा लिखा गया है। नहीं तो फिर वहाँ भी 'ते' की क्या जरूरत थी? वहाँ भी 'लोके' कह देते, ताकि यहाँ बेखटके वही मान लिया जाता। 'लोक एषोदिता साख्ये बुद्धिर्योगे त्विमांशृणु' ऐसा सुंदर श्लोक भी अनायास बन सकता था। और अगर आगे लिखी कर्मयोग की परंपरा पुराने समय वाली ही मानी गई है, तो कर्मयोग का उपदेश भी पुराने समय का ही क्यों न माना जाए? क्योंकि बिना ऐसा हुए उसकी परंपरा पुराने समय वाली कैसे होगी? फिर उसी का स्मरण यहाँ भी पुरा शब्द से क्यों न माना जाए? गीता में जहाँ पहले कही बात को ही याद कर लेना हो वहाँ तो 'पुरा' जैसा कोई शब्द न कह के केवल इतना ही कह देते हैं कि यह बात कह चुके हैं। जैसे 'दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु' (16। 6)। यदि ऐसी ही बात होती तो यहाँ भी वैसा ही कहते। उसी (16। 6) श्लोक में पुराने जमाने की बात है उसे 'द्वौ भूतस्वर्गौ लोकेऽस्मिन्' (16। 6) कहा है और वही 'लोकेऽस्मिन्' यहाँ भी है। फिर वैसा ही अर्थ यहाँ भी क्यों न हो?
यहाँ निष्ठा का अर्थ है मार्ग या रास्ता, जिसे अंग्रेजी में कोर्स (Course) या प्रोसेस (Process) कहते हैं। स्कूल्स ऑफ थाट्स (School of thoughts) भी उसी को कहा जाता है। निष्ठा का शब्दार्थ है किसी बात में अपने को लगा देना, अर्पित कर देना, उसी में जीवन गुजार देना। ये दोनों मार्ग और दोनों विचारधाराएँ ऐसी हैं जिनमें एक-एक में जाने कितने सहस्र, कितने लक्ष महापुरुषों ने अपने जीवन लगा दिए हैं, अपने को मिटा दिया है। इसका जिक्र आगे चौथे अध्यानय में है। महाभारत तथा अन्यान्य ग्रंथों एवं उपनिषदों में भी इसका वर्णन बहुत ज्यादा आया है। कृष्ण अपनी आत्मा को सभी ऋषि-मुनियों की आत्मा के रूप में ही अनुभव करते हुए बोलते हैं कि मैंने ऐसा कहा है। फलत: कृष्ण का उपदेश उन सभी का ही उपदेश है। कृष्ण की इस मनोवृत्ति पर हम काफी प्रकाश पहले ही डाल चुके हैं। सांख्य और योग का भी अर्थ बता चुके हैं।
न कर्मणामना रंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥4॥
(लेकिन कोई भी) आदमी कर्मों को शुरू न करके कर्मत्याग या संन्यास प्राप्त कर सकता नहीं। (और खामखा) कर्मों के त्याग से ही सिद्धि नहीं मिलती - इष्ट या कल्याण की - मोक्ष की - प्राप्ति नहीं हो जाती। 4।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥5॥
(यह भी तो है कि) कोई भी क्षणभर भी बिना कर्म किए रही नहीं सकता। क्योंकि प्रकृति के गुणों से मजबूर हो के सभी को कर्म करना ही होता है। 5।
कर्मेंद्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इंद्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥6॥
(इसलिए) जो (हाथ, पाँव आदि) कर्म करने वाली इंद्रियों को (जबर्दस्ती) रोक के मन से इंद्रियों के विषयों को याद करता रहता है वह ढोंगी कहा जाता है। 6।
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेंद्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥7॥
(विपरीत इसके) हे अर्जुन, जो तो इंद्रियों को मन के अधीन करके कर्मेंद्रियों से काम करना शुरू कर देता है। (और फलादि के लिए) हाय-हाय करता नहीं रहता वही अच्छा है। 7।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:॥8॥
(इसलिए) तुम अपने लिए निश्चित कर्म (जरूर) करो। क्योंकि न करने से करना कहीं अच्छा है। (आखिर) कर्म सर्वथा छोड़ देने पर तुम्हारी शरीर-यात्रा भी तो न चल सकेगी। 8।
यहाँ पर 4 से 8 तक के श्लोकों के बारे में कुछ जरूरी बातें जान लेने की हैं। चौथे का आशय यही है कि बिना कर्म किए कर्म का त्याग या संन्यास असंभव है और खामख्वाह कर्म छोड़ देने से ही कुछ होता जाता नहीं। इसमें दो बातें हैं। एक यह कि जब कर्म करते ही नहीं तो उसे छोड़ने के मानी क्या होंगे? जो चीज हमारे पास हई नहीं उसे त्यागना क्या? यह तो प्रवंचना मात्र है, महज झूठी बात है। इसी को 'अशक्त: परम: साधु:' या 'वृद्धवेश्या तपस्विनी' कहते हैं। असल में जब तक वर्णमाला पढ़ न लें उससे पिंड छूटता ही नहीं। जब कभी ग्रंथों के पढ़ने का प्रश्न उठता है तो वह वर्णमाला पहाड़ की तरह सामने खड़ी हो जाती है कि हमें पूरा करो - पार करो। बड़े ग्रंथों के पढ़ने का अर्थ है वर्णमाला के पढ़ने का त्याग। मगर वह त्याग हो पाता नहीं जब तक वर्णमाला पढ़ ली न जाए। ठीक यही बात संन्यास या कर्म-त्याग की है। निदिध्यासन और समाधि, जो आत्मविज्ञान के लिए ही नहीं, बल्कि सभी विज्ञानों के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं, बिना कर्मों के त्याग के होई नहीं सकते। कर्मों का तो पँवारा ऐसा है कि चौबीस घंटे उनसे फुरसत होती ही नहीं। अगर यही रहे तो निदिध्या सन और समाधि कैसी? उनका मौका ही कहाँ होगा? इसलिए उनके करने का अर्थ ही है कर्मों का त्याग। मगर जब तक कर्म न करें निदिध्याकसन आदि की योग्यता होगी ही नहीं। फिर कर्मों के त्याग का प्रश्न ही कहाँ उठता है? इसकी जरूरत होती है कहाँ? और अगर इतने पर भी खामख्वाह त्याग किया जाए तो साफ ही कह देते हैं कि इससे कुछ भी होता जाता नहीं। यह तो ठगी और प्रवंचना है। यह तो अपने आपको और संसार को भी ठगना है। इसीलिए जभी कभी वास्तविक कर्मत्याग या संन्यास की बात उठे तो उसी समय स्पष्ट हो जाता है कि पहले कर्म करें। पीछे त्याग की जरूरत होगी और अवश्य होगी। मगर अभी नहीं।
दूसरी बात यह है कि खामख्वाह यों ही कर्म छोड़ देने से काम बनने के बजाए बिगड़ता ही है। श्लोक में जो सिद्ध शब्द है उसका यही अभिप्राय है कि कोई काम नहीं बनेगा, वह लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा जिसके लिए कर्मत्याग करते हैं। बल्कि उलटे बिगड़ेगा। जब खेत जोत-गोड़ के तैयार किया ही नहीं गया है और पानी-वानी दे के बीज उगने योग्य बनाया गया ही नहीं है तो दूसरा होगा ही क्या, सिवाय इसके कि बीज और परिश्रम दोनों की बेकार जाएँ? यह तो निरी बच्चों वाली बात हो जाएगी, या पागलों की-सी ही। इसीलिए इस बात पर जोर दिया गया है कि पहले तो हरेक आदमी को कर्म करना ही होगा। कर्म से ही दरअसल प्रगति का श्रीगणेश होता है, और संन्यास तो प्रगति के इसी सिलसिले की एक आवश्यक (unavoidable) सीढ़ी (step) है। इसीलिए इस श्लोक के पूर्वार्द्ध की उत्तरार्द्ध से मिलान करने पर 'नैष्कर्म्य' का अर्थ संन्यास ही है, न कि और कुछ। अर्जुन के दिमाग की सफाई करनी थी। इसीलिए शुरू से ही क्या कर्तव्य है, यही बात उठा के अंत तक जाना जरूरी हो गया है। नहीं तो वह फिर भी घपले में पड़ जाता, यदि चुनी-चुनाई बातें ही कही जातीं।
इसके बाद पाँचवें श्लोक में तो यह बात भी खत्म कर दी गई है कि खामख्वाह यों ही कर्मों का त्याग संभव है। चौथे उत्तरार्द्ध में यह बात मानकर ही, कि कर्मों का त्याग संभव है, उत्तर दिया है कि उससे सारा गुड़ गोबर होने के अलावे कोई मतलब पूरा नहीं होता। मगर अब तो जड़ को ही उड़ा देते हैं यह कह के कि कर्मों का त्याग ही असंभव है। प्रकृति के तीन गुण माने जाते हैं। इस बात का विस्तृत विवेचन पहले कर चुके हैं। ये परस्पर-मिथुन कहे जाते हैं जिसका मतलब यही है कि तीनों ही सर्वत्र मिले-जुले रहते हैं। इन तीनों में रज का तो काम ही है क्रिया या कर्म। उसका तो स्वरूप ही है कर्म या हलचल (action and motion)। फिर यह कैसे संभव है कि कोई भी पदार्थ एक क्षण भी निष्क्रिय रहे। तीनों गुणों के अलावे तो कोई भी भौतिक पदार्थ है नहीं। ऐसी दशा में शरीर या इंद्रियादि यदि क्षण भर भी निष्क्रिय रहें तो इसके साफ मानी हैं कि उनमें गुण हई नहीं। मगर यह तो बात है नहीं। संसार ही त्रैगुण्य माना गया है। तब अपना स्वभाव कोई कैसे छोड़ेगा? शरीरादि का तो स्वभाव ही है हिलना-डोलना या हलचल। जब हमारी आँखें इसका पता नहीं भी पाती हैं तब भी प्रयोगशाला में जाने या यंत्रों के प्रयोग से पता लगता है कि क्रिया बराबर चालू है। उसे विराम नहीं। इसीलिए कह दिया है कि कर्म या क्रिया की तो मजबूरी है। इससे पिंड छूट सकता ही नहीं। संसार का अर्थ ही है क्रियाशील या चलने वाला।
इसीलिए जो लोग जबर्दस्ती कर्म करने वाली इंद्रियों को रोकते हैं, रोकना चाहते हैं, उनका काम अप्राकृतिक है, प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है। क्योंकि जबर्दस्ती तो कर्म करने के लिए खुद प्रकृति कर रही है, पदार्थों का स्वभाव ही कर रहा है, और हम चले हैं उसे ही रोकने। फलत: हमारा यह हठ, हमारी यह जबर्दस्ती अप्राकृतिक - अस्वाभाविक - नहीं है, तो और है क्या? और अस्वाभाविक चीज तो चलने वाली नहीं, वह तो कभी होने की नहीं। इसीलिए दंभ और पाखंड चलता है, ठगी होती है। ऊपर से तो देखने के लिए कर्मेंद्रियाँ रुकी हैं। मगर भीतर ही भीतर उनका काम जारी है। क्योंकि ऐसे लोग मन को तो रोक सकते हैं नहीं। वह तो ऐसे पामरों के कब्जे के बाहर रहता ही है। उलटे यही लोग मन के कब्जे में रहते हैं। उधर मनीराम ने सभी इंद्रियों को पीठ ठोंक दी है। इसलिए भीतर ही भीतर - छिपे रुस्तम - उनका काम जारी है। इसे ही कहते हैं 'डूब के पानी पीना', या 'खुदामियाँ से चोरी'। ज्ञानेंद्रियों को तो यों भी ऐसे लोग नहीं रोकते। वे रोक सकते भी नहीं। उन्हीं के साथ आँख दबा के कर्मेंद्रियाँ भी मौज करती हैं। हमने काशी में ग्रहण के समय एक बार घाट के ऊपर छोटे से मंदिर के पास एक संन्यासी बाबा को देखा कि आसन मारे मूँड़ी नीचे किए आँखें मूँदे बैठे हैं। बगल में एक कपड़ा फैला पड़ा है कि लोग उस पर पैसे चढ़ाएँगे! हमने गौर किया तो पता लगा कि वह नीचे-नीचे रह-रह के कपड़े और पैसों को देखा करते हैं। इसे ही कहते हैं, 'ऊपर-ऊपर राम-राम, नीचे-नीचे सिद्ध काम!' इसका पता तो सपने में लगता है जब यह चोरी खुल जाती और जाने क्या क्या अनर्थ होते हैं, कौन-कौन-सा प्रपंच फैलता है। सपने में तो यह चोरी छिप सकती है नहीं। इसीलिए ऐसों को पाखंडी और मिथ्याचार कहकर छठे श्लोक में दुतकारा है।
यही कारण है कि सातवें श्लोक में सबका निचोड़ निकाल के कह दिया है कि जो लोग मिथ्याचारी और पाखंडी नहीं बनना चाहते वह उनके विपरीत काम करें। वह यह कि सबसे पहले सभी इंद्रियों पर और खासकर ज्ञानेंद्रियों पर तो जरूर ही, मन का नियंत्रण एवं अंकुश रखें। असल में मन का इंद्रियों पर नियंत्रण न रहने से जहाँ ज्ञानेंद्रियाँ विषयों में फँसाने के साथ ही कर्तव्य कर्मों से विमुख करके वाहियात कामों में लगा देती हैं, तहाँ कर्मेंद्रियाँ भी ज्यादती कर बैठती हैं। फलत: किसी भी काम की सीमा लाँघ के उसे भी खराब कर देती हैं। इस तरह सब किए-कराए पर पानी फिर जाता है। इसीलिए सभी पर मन का नियंत्रण जरूरी कहा गया है।
उसके बाद कर्मेंद्रियों से सभी कर्मों को शुरू कर दें। जरा भी आगा-पीछा न करें। यहाँ जो 'कर्मयोगमारभते' कहा है उसका सीधा अर्थ यही है कि काम करना शुरू कर दे। यहाँ दूसरे अध्यारय वाले कर्मयोग से मतलब नहीं है। उसका तो प्रसंग हई नहीं। यहाँ तो ऐसे लोगों की बात है जो सबसे नीचे पड़े हुए हैं। इस श्लोक में 'यस्तु' में जो 'तु' है वह भी यही सूचित करता है कि इससे पहले जो कुछ कहा है उसके ही मुकाबिले में दूसरी बात यहाँ कही जा रही है। और पहले तो पतित या मिथ्याचारी की ही बात आई है जो दरअसल कर्म नहीं करता है। हठी नालायक जो ठहरा और विषय लंपट भी। उसी के मुकाबिले में इस श्लोक में यह कहना जरूरी हो गया कि उन नहीं करने वाले पाखंडियों की अपेक्षा वे कहीं अच्छे हैं जो कुछ कर्म करते हैं और इंद्रियों पर मन का अंकुश भी रखते हैं। इसीलिए ऐसे आदमी को 'स विशिष्यते' - 'वह कहीं अच्छा है' कहा है। इस 'विशिष्यते' क्रिया का दूसरा अर्थ हो भी नहीं सकता है। नहीं करने से करना अच्छा है - 'अकरणात्करणं श्रेय:' (something is better than nothing) यही बात यहाँ कही गई है। न कि पहले कहे गए पतित-पाखंडी के साथ इस कर्मी की तुलना है। ऐसा करना तो इसका भी अपमान करना हो जाएगा। इसीलिए उस तुलना का सूचक कोई 'तत:' या 'तस्मात्' आदि पंचमी विभक्ति वाला पद यहाँ है भी नहीं। आगे यह बात और भी साफ हो जाती है जब खुल के कह देते हैं कि नहीं करने से करना अच्छा है, 'कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:' (3। 8)।
ऐसी दशा में ऐसा आदमी गीता का वह महान कर्मयोग कैसे जानने गया कि उसे करेगा? यह तो गधे को शासन की गद्दी पर बिठाने जैसी ही बात हो जाएगी। यह भी तो जानना चाहिए कि यहाँ जो 'आरभते' क्रिया है और जिसका अर्थ है 'शुरू करता है', वह कर्मयोग में लागू होती भी नहीं। वह तो केवल कर्म में लागू होती है। कर्म ही या कर्म का करना ही शुरू होता है, न कि कर्मयोग। योग तो बुद्धि है यह सभी मानते हैं। तब उसको शुरू कैसे किया जाएगा? सो भी कर्मेंद्रियों से? वह तो मार्ग है, निष्ठा है, विचारधारा है। उसका आरंभ हर आदमी कर सकता नहीं। उसका आरंभ बहुत पहले उसके प्रर्वतक आचार्य ने किया था। अब आरंभ कैसा? यदि मान भी लें, तो हाथ-पाँव आदि कर्मेंद्रियों से उसका आरंभ कैसे होगा? यदि आरंभ का अर्थ है उस मार्ग में प्रवेश, तो भी वह कर्मेंद्रियों से होता नहीं। वह तो मन और बुद्धि से या अधिक से अधिक ज्ञानेंद्रियों से ही हो सकता है। इसीलिए कर्मयोग का यहाँ अर्थ है कर्मों का योग, जोड़ना या करना; और इसका श्रीगणेश कर्मेंद्रियाँ ही करती हैं। इसीलिए आत्मा या मन की शुद्धि के लिए जो कर्म किया जाता है वह भी गीता के कर्मयोग में आता नहीं। क्योंकि उसमें तो शुद्धि रूप फल की इच्छा हई। फिर भी उसे कर्म कहके उसके करने वाले को भी योगी कह दिया है - 'योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये' (5। 25)। 'दैवमेवापरे यज्ञं योगिन:' (4। 25) में भी योगी का अर्थ आत्मज्ञानी से भिन्न ही है। इसका विचार वहीं किया है।
इसीलिए यहाँ जो 'असक्त:' शब्द आया है उसका अर्थ उस कर्मयोगी की ही तरह कर्मासक्ति एवं फलासक्ति का त्याग, ऐसा जो लोग करते हैं वह भूलते हैं। 'भूखे बंगाली की भात भात' की तरह सर्वत्र एक ही बात देखना उचित नहीं। पूर्वापर और प्रसंग भी देखना होगा, और है वह मामूली कर्म करने वालों का ही। फिर एकाएक वह परले दर्जे की अनासक्ति यहाँ आ धमकी कैसे? उसकी तो यहाँ गुंजाइश हई नहीं। यहाँ तो असक्त कहने का केवल इतना ही प्रयोजन है कि, जैसे इससे पूर्ववाला आदमी कर्म का सोलह आना विरोधी होता है और उसे देखना नहीं चाहता ठीक उसके विपरीत होने से कहीं यह ऐसा न हो जाए कि दिन-रात कर्मों या फलों के लिए हाय-हाय ही करता रहे। क्योंकि तब तो यह कुछ करी न सकेगा। यह तो उसी हाय-हाय में इतना व्यस्त रहेगा कि इसके हाथ-पाँव ठीक-ठीक काम करी न सकेंगे। इसीलिए कह दिया कि ऐसा न हो - ऐसी हाय तोबा न रहे। साधारणत: फल वगैरह की इच्छा तो रहेगी ही। क्योंकि यह तो साधारणत: कर्मी ही ठहरा। मगर गीता के कर्मी की गिनती में उसे आने के लिए इस इच्छा-आकांक्षा को बेलगाम नहीं छोड़ देना होगा, बेहद परेशान होना न होगा। यही अभिप्राय है और यही युक्तिसंगत भी है। गीता की गिनती में आने का प्रयोजन भी है। क्योंकि आगे ऐसे ही आदमी के लिए 19वें श्लोक में परमात्मा की प्राप्ति लिखी है। वहाँ भी यही 'असक्त:' शब्द कर्म के साथ ही आया है। तात्पर्य यह है कि हाय-हाय छोड़ देने से अंत:करण की स्थिरता और शांति के रूप में शुद्धि हो के परमात्मा की प्राप्ति का रास्तामात्र खुल जाता है। कुछ यह नहीं होता कि कर्मों से ही ठेठ परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
आगे बढ़ने के पहले यहीं पर उनने 8वें श्लोक में स्पष्ट ही कह दिया है कि कुछ न करने और निठल्ले बैठ रहने से तो कुछ करना कहीं अच्छा है। इसीलिए तुम अपने लिए पक्का-पक्की ठहराए गए कर्मों को जरूर ही करो। ऐसे ही कर्मों को नियत (assigned) नाम गीता में बार-बार दिया गया है। 'नियतस्य तु संन्यास' (18। 7), 'नियतं क्रियतेऽर्जुन (18। 9), 'नियतं संगरहितं' (18। 23) आदि में यह बात पाई जाती है। नियत या निश्चित कहने का यह मतलब है कि यों तो खान पान आदि कर्म सभी लोग करते ही हैं। इनमें तो सभी की मजबूरी है। मगर इनके सिवाय कुछ ऐसे कर्म हैं। जिनमें ऐसी मजबूरी न होने पर भी उनका करना समाजहित की दृष्टि से और अपने अंतिम कल्याण या उदात्त स्वार्थ (enlightened self interest) के खयाल से भी जरूरी हो जाता है। ऐसे कर्म या तो समाज के द्वारा ही हरेक के लिए तय कर दिए गए हैं, या ऋषि-मुनियों, औलिया-पैगंबरों तथा बड़े-बूढ़ों ने उन्हें बताया है और समाज ने या खुद व्यक्तियों ने भी उन्हें अपनाया है। इसीलिए वे नियत और नित्य (assigned and fixed) माने जाते हैं। आश्रितों की रक्षा, देश या घर-बार के लिए लड़ना, पीड़ितों की सेवा, संध्या, पूजा, नमाज, प्रार्थना (Prayer) आदि ऐसे कर्मों में आते हैं। जब कर्मों के करने न करने की बात कहीं भी आती है तो इन्हीं से मतलब होता है न कि सामान्य कर्मों से। मल-मूत्र त्याग, खानपान आदि तो बिना कहे ही मजबूरन करने ही होते हैं। उनके बारे में करने का विधानया उसकी ताकीद बेकार है। मगर नियत कर्मों में आलस्य आदि के चलते लापरवाही हो सकती है, हो जाती है। इसीलिए इन पर जोर देना और इनके लिए ही नियम-कायदे बनाना जरूरी हो जाता है। जब संन्यास और कर्मत्याग का सवाल आता है तो इन्हीं कर्मों के त्याग से मतलब होता है।
एक बात और भी जान लें तो अच्छा हो। जहाँ तक कर्मों के त्याग या संन्यास से ताल्लुक है, गीता ने चार सूरतें मानी हैं।
1. मन की शुद्धि हो जाने पर तत्त्वज्ञान के साधन-स्वरूप निदिध्या्सन और समाधि के सिद्धि के लिए कर्मों का स्वरूपत: त्याग।
2. तत्त्वज्ञान के बाद मस्ती आ जाने पर खुद-ब-खुद कर्मों की ओर मानसिक प्रवृत्ति न होने से अलंबुद्धया स्वरूपत: कर्मों का वैसे ही छूट जाना जैसे पके फल का डाल से।
3. मोह और भ्रम में पड़ के प्रवंचना बुद्धि से या शरीर, इंद्रियादि के कष्ट के खयाल से ही कर्मों को स्वरूपत: छोड़ देना।
4. फलेच्छा, अभिनिवेश, कर्म करने की आसक्ति और हठ आदि का ही त्याग न कि स्वरूपत: कर्मों का त्याग। इनमें चौथे को तो कर्म का त्याग वस्तुत: कही नहीं सकते। इस दशा में तो कर्म बने ही रहते हैं। गीता ने भी 'नियतं संगरहितं' (18। 23) में इसे सात्त्विक कर्म ही गिनाया है। इसलिए इसे तो छोड़ ही देना चाहिए। इस पर विचार करने का प्रश्न आता ही नहीं।
रह गए तीन। बेशक इन तीनों को कर्मत्याग या संन्यास शब्द से समझ सकते हैं जरूर। इनमें जो तीसरा है उसकी बात इसी अध्या य के शुरू में ही और आगे भी आई है। इसलिए शेष दो या पहले तथा दूसरे को ही पहले देखना चाहिए। 'योगसंन्यस्तकर्माणं' (4। 41), 'संन्यासस्तु महाबाहो' (5। 6) और 'योगारूढ़स्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते' (6। 3) श्लोकों में पहले को यानी समाधि आदि के लिए कर्मों के त्याग को आवश्यक और उचित बताया है। 'सर्वधर्मान्परित्यज्य' (18। 66) में इसी का उपसंहार भी किया है। इसी तरह 'यस्त्वात्मरतिरेवस्यात्' (3। 17) से स्पष्ट है कि दूसरा संन्यास या स्वयमेव कर्मों का छूट जाना भी गीता को मान्य है। इसकी आवश्यकता एवं महत्त्व भी वह समझती है। द्विविध निष्ठाओं का जो वर्णन दूसरे, पाँचवें और छठे अध्यायों में खासतौर से आया है और दोनों को जो वहाँ परम कल्याण या मोक्ष के देने वाले माना है, उससे भी इसकी कर्तव्यता निर्विवाद सिद्ध हो जाती है। इस बात का अधिक विवेचन पहले ही किया गया है।
अब रहा तीसरा या मोह और कष्ट के डर से कर्मों का त्याग। इसी की बहुत ज्यादा निंदा तीसरे अध्यााय के इन्हीं श्लोकों में बार-बार की गई है। इसका विवेचन हमने अभी किया है। 'नियतस्य तु' (18। 7) और 'दु:खमित्येव' (18। 8) में भी तामस और राजस कह के इस संन्यास को निंदित बताया है। 'न बुद्धिभेदं जनयेत्' (3। 26) में भी इसी बात पर पूरा जोर दिया गया है कि सर्वसाधारण लोग हर्गिज कर्म न छोड़ें। इस प्रकार इस विवेचन ने संन्यास का मार्ग अर्जुन के दिमाग में साफ कर दिया है और कर्म करने का भी।
अब आगे जो कुछ विवेचन इस कर्म का किया जा रहा है वह इसी दृष्टि से कि समाज का काम चलाने, उसे कायम रखने और उसकी प्रगति के लिए कर्म अनिवार्य रूपेण आवश्यक है। इनके बिना एक क्षण भी समाज का काम चल नहीं सकता है। यज्ञचक्र के रूप में इन कर्मों का जो वर्णन किया गया है उसका रहस्य तो पहले ही बताया जा चुका है। यज्ञों का संकुचित अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं है, यह बात 10 से 13 तक के श्लोकों से ही, जो यज्ञचक्र के निरूपण के ठीक पहले आए हैं, सिद्ध हो जाती है। दसवें श्लोक में जो 'प्रसविष्यध्वम्' तथा 'कामधुक्' शब्द आए हैं उनका अर्थ है फलना, फूलना और विस्तार प्राप्त करना। इनके भीतर तो संसार के सारे काम आ जाते हैं। कोई भी बचने नहीं पाता। यह बात सर्वसाधारण के द्वारा आमतौर से माने गए घृत आदि की आहुति रूपी यज्ञों से तो होने की नहीं। यह दावा तो इन यज्ञों के समर्थक भी नहीं करते कि इन्हीं से सब काम हो जाएगा। फलत: खेती, गिरस्ती आदि की जरूरत हई नहीं। कामधेनु कहने से भी यही बात सिद्ध होती है कि यह सब कुछ देने वाली चीज है। 'इष्टान् भोगान्' (3। 12) में यही कह भी दिया है। इसीलिए देव शब्द का अर्थ भी रूढ़ नहीं है। यहाँ खास ढंग के देवताओं से मतलब न हो के दिव्य या अलौकिक शक्ति, प्रतिभा आदि संपन्न सभी पदार्थों को देव कहते हैं। इसीलिए गीता ने यज्ञों का अनेक विस्तृत रूप स्वयं बताया है। हमने भी इस पर पूरा प्रकाश डाला है। यज्ञ के रूप में ही कर्मों पर जोर देने के लिए ही आगे के श्लोक लिखे गए हैं।
कुछ अर्द्धदग्ध एवं अक्षरकट्टू लोग अपनी असली मनोवृत्ति को छिपा के केवल इस दलील के आधार पर ही कर्मों से पिंड छुड़ाना चाहते हैं कि ये तो जन्म-मरणादि बंधन के कारण हैं। फिर इन्हें क्यों करें? उनका उत्तर यह है कि -
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधन : ।
तदर्थ कर्म कौंतेय मुक्तसंग समाचर॥9॥
हे कौंतेय, (जब कि) यज्ञ के लिए किए गए कर्मों के अलावे बाकी कर्मों से ही लोग बंधन में फँसते हैं, तो तुम आसक्ति या हाय-हाय छोड़ के यज्ञार्थ कर्मों को ही ठीक-ठीक करो। 9।
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्य ध्व मेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥10॥
पूर्व समय - सृष्टि के आरंभ काल - में ब्रह्मा ने लोगों - प्रजा - को यज्ञ के साथ ही पैदा करके कह दिया कि इस (यज्ञ) के जरिए खूब फलो-फूलो और तरक्की करो (और) यह तुम्हारे लिए कामधेनु का काम दे। 10।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥11॥
इस यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को संतुष्ट करो, पुष्ट और समुन्नत करो और वे देवता तुम्हें भी वैसा ही करें। (इस तरह) परस्पर एक दूसरे को सुखी-संपन्न बनाते हुए परम कल्याण - मोक्ष - प्राप्त करो। 11।
इष्टान् भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्द त्ता नप्रदायैभ्यो यै भुंक्ते स्तेन एव स:॥12॥
क्योंकि यज्ञों के द्वारा तृप्त और प्रसन्न किए गए देवता तुम्हें सभी अभिलषित पदार्थ देंगे। इसीलिए उन्हीं के दिए इन पदार्थों को उन्हें भेंट न करके जो (स्वयमेव) हड़प लेता है वह अवश्यमेव चोर है। 12।
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सकिल्बिषे:।
भुं जते ते त्चघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥13॥
यज्ञ के बाद बचे-बचाए पदार्थों को भोगने वाले सत्पुरुष सभी पापों और बुराइयों से छुटकारा पा जाते हैं। (लेकिन) वे पापी लोग तो पाप को ही भोगते हैं जो केवल अपने ही लिए (पदार्थ) पकाते हैं - तैयार करते हैं। 13।
इस श्लोक के 'यज्ञशिष्टाशिन:' में अश् धातु भोजनार्थक है। मगर जिस भुज् धातु से भोजन शब्द बनता है उसी से भोग भी बनता है। इसीलिए भोजन या अशन का अर्थ केवल पेट में डालना ही नहीं है। मार खाने, धोखा खाने में भी तो खाना आता है। मगर ये तो पेट में रखने की चीजें हैं नहीं। उसी प्रकार यहाँ भी समझना होगा। यज्ञ के बाद जो शेष रहे उसी पदार्थ को खाना-पहनना या अपने निजी काम में लाना यही 'यज्ञशिष्टाशन' का अर्थ है। उसी तरह 'पचंति' में पच् धातु का अर्थ पकाना है और भात-रोटी आदि के पकाने को ही आमतौर से पकाना कहते हैं। मगर फसल पक गई, घड़ा पक गया, आम पक गया, फोड़ा पक गया में तो तैयार होना ही अर्थ है। महाराष्ट्र में फसल को ही पाक कहते है। यहाँ भी तैयार करना ही अर्थ उचित है। सभी प्रकार के पदार्थों को तैयार करके पहले उन्हें यज्ञार्थ अर्पण करना चाहिए। इसका अभिप्राय यही है कि उनके कुछ अंश यथाशक्ति समाजहित या परोपकार के कामों में लगा के शेष को ही निजी काम में लाना उचित है। अन्न पका के भगवान या देव-पितरों को अर्पण करना भी इसी में आ जाता है।
ऐसा करने के बाद जो पदार्थों को भोगता है वही महापुरुष यज्ञशिष्टाशी है। विपरीत इसके जो सब कुछ निजी कामों में ही खर्च करता है वही पापी है। उसके पदार्थ को दरअसल पाप ही कहा है, यद्यपि देखने में वह स्थूल पदार्थ प्रतीत होता है। असल में ऐसे स्वार्थी बनने पर समाज एक मिनट भी टिक सकता नहीं। जब हरेक को अपनी-अपनी ही सूझी तो समाज रहेगा कैसे? वह तो उसी क्षण खत्म हो गया। ऐसे स्वार्थी होने पर कोई भी कायम नहीं रह सकता। जब तक एक दूसरे की फिक्र और परवाह कम-बेश न करें सभी मर-मिटेंगे। किसी का भी काम चल सकेगा ही नहीं। इसीलिए ऐसे काम को पाप और बुराई कहा है। मनु ने यज्ञशिष्ट पदार्थ को अमृत कहा है। उनका यज्ञ उतना व्यापक नहीं था। केवल देवपितरों के लिए जो कर्म होते थे उन्हीं को उनने यज्ञ माना था। इसीलिए यज्ञ के सिवाय दूसरे परोपकारी कामों में जो चीज लगे उसके शेष को उनने विघस नाम दिया था। 'यज्ञशिष्टामृतभुज:' (4। 31) में गीता ने भी यज्ञशिष्ट को अमृत ही कहा है। जो बात गीता के 13वें श्लोक में लिखी है वही मनुस्मृति में भी यों लिखी है कि 'अघं स केवलं भुंक्ते य: पचत्यात्मकारणात्। यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतामन्नं विधीयते' (3। 118)। इस श्लोक में गीता के ही अधिकांश को अक्षरश: दे दिया है। पूर्वार्द्ध तो प्राय: जैसे का तैसा ही गीता के श्लोक का उत्तरार्द्ध है। पूर्वार्द्ध में भी गीता के उत्तरार्द्ध का आधा प्राय: ज्यों का त्यों और उसके 'संत:' की जगह पर ही 'सतां' दे दिया है। पुराने समय में इस यज्ञ का इतना ज्यादा महत्त्व था कि ऋग्वेद में भी गीता के 'भुंजतेतेत्वघं पापा:' की ही तरह लिख दिया है कि 'नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी' (10। 117। 6) । मंत्र के देखने से यह भी पता चलता है कि ऋग्वेद के समय यज्ञ का व्यापक अर्थ गीता की ही तरह माना जाता है। इसीलिए अर्यमा और सखा की पुष्टि की बात इसमें आई है। अर्यमा मेघ सरीखे देवता को और सखा बंधुबांधव को कहते है।
आगे जिस यज्ञचक्र का वर्णन है उसका संक्षिप्त रूप प्राय: इसी तरह का मनुस्मृति में यों पाया जाता है, 'अग्नौप्रास्ताहुति: सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं तत: प्रजा' (3। 76)। महाभारत के शांतिपर्व (340। 38। 62) में भी इस यज्ञ की बात विस्तृत रूप से आई है। मगर गीता के यज्ञ चक्र की खूबी कहीं है नहीं। हमने इसका पूर्ण विवरण पहले ही लिखा है।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥14॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥15॥
अन्न से प्राणी और सत्ताधारी पदार्थ बनते हैं - उत्पन्न होते हैं। वृष्टि से अन्न पैदा होता है। यज्ञ से वृष्टि होती है। कर्मों से यज्ञ बनता है - यज्ञ का स्वरूप तैयार होता है। कर्म वेद (जैसे ज्ञानभंडार) से ही मालूम होते हैं - जाने जाते हैं और वेद जैसा ज्ञानभंडार अविनाशी (समष्टि महाभूत परमात्मा) से पैदा होता है। इसीलिए सभी बातों को अवगत कराने - जनाने - वाले वेदरूपी ज्ञान भंडार का तात्पर्य यज्ञ करने में ही है। यज्ञ ही उसका आधार भी है। 14। 15।
एवं प्रवर्तितं चक्रं ना नु व र्त्त यतीह य:।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥16॥
(इसलिए) हे पार्थ, इस प्रकार जारी किए गए (यज्ञ) चक्र को इस दुनिया में जो (आदमी) कायम नहीं रखता (उसका) जीवन पापमय है, वह केवल इंद्रियों को ही तृप्त करने वाला है। (इसीलिए) उसका जीना बेकार है। 16।
यहाँ यज्ञचक्र के सिलसिले में इतनी सख्ती के साथ इसके चालू रखने की बात कही गई है कि संदेह होने लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि गीता के मत से कर्मों का त्याग कभी हो ही नहीं सकता। जब कर्म ही संसार की स्थिति, वृद्धि और प्रगति के लिए कामधेनु है, जब इन्हीं के द्वारा सब कुछ हो सकता है, जब यज्ञचक्र के रूप में कर्मों का सिलसिला जारी नहीं रखने वाले की जिंदगी व्यर्थ है, वह पापमय जीवन ही गुजारता है एवं पामर विषयलोलुपों की तरह एकमात्र इंद्रियों का ही पोषक है, ऐसा स्वयं गीता का आदेश है, तब तो यह खयाल होना स्वाभाविक ही है कि किसी भी दशा में कर्मों से जिसका ताल्लुक टूटा वह पापी और बदमाश ही माना जाएगा। कम से कम गीता का तो यही सिद्धांत होगा - वह तो इसी पर मुहर लगाएगी। ऐसी दशा में शुकदेव, वामदेव, जड़भरत आदि की तरह जिनके कर्म खुद-ब-खुद पके फल की तरह छूट गए हैं, गिर गए हैं और जो मस्ती की लापरवाह - बेफिक्र - जिंदगी गुजारते हैं, उनका क्या होगा? वे भी वही 'अघायुरिन्द्रियारामा मोघं पार्थ स जीवति' वाले घोर अभिशाप के शिकार होंगे? होना तो चाहिए। मगर यह तो असंभव; अप्राकृतिक, अस्वाभाविक तथा केवल हास्यजनक बात मालूम पड़ती है। वह तो इतने ऊँचे हैं कि उन तक यह अभिशाप कभी पहुँच ही नहीं सकता। यह अजीब पहेली है! यह निराली समस्या है! जो अपनी आत्मा में ही - आत्मानंद में ही - रम गए हैं, उसी में तृप्त हैं और उसी में संतुष्ट हैं; जिनकी अपनी तृप्ति से ऐसा हो गया है कि फिर कभी दूसरी ओर जाई नहीं सकते - जो सदा के लिए संतुष्ट हो चुके हैं, उनके संबंध में सचमुच यह पेचीदा पहेली ही है जिसका सुलझाना असंभव लगता है। मगर गीता इसको - बीच में ही एकाएक पेश इस समस्या को - आगे के दो श्लोकों में आसानी से सुलझा के पुनरपि इस कर्म के यज्ञचक्र की बात को ही पकड़ती और आगे बढ़ती है।
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥17॥
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥18।
(लेकिन) जो मनुष्य तो आत्मा में ही रम गया है, आत्मा ही में तृप्त है। और आत्मा में ही संतुष्ट है उसका कुछ भी कर्तव्य रही नहीं जाता है। न तो उसके करने से कुछ बनता ही है और न नहीं करने से बिगड़ता ही। सभी भौतिक पदार्थों में कोई भी ऐसा हई नहीं जिसका आश्रय वह किसी भी काम के लिए ले। 17। 18।
यहाँ अर्थ शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ में आया है जैसा कि बातचीत में ऐसे मौके पर आया करता है। आमतौर से काम, चीज या बात शब्द जिस मानी में बोले जाते हैं, ठीक उसी मानी में यह अर्थ शब्द आया है। यहाँ के सभी अर्थ शब्दों का यही मतलब है। इसीलिए सीधा अर्थ यही हो जाता है कि उसके करने-न करने से न तो कुछ बनता-बिगड़ता है और न दुनिया की कोई भी ऐसी चीज रही जाती है जिसकी प्राप्ति की कोशिश करने की उसे जरूरत हो। फिर उसके लिए कर्म करना जरूरी होगा क्यों? आखिर कर्मों की जरूरत होती है अपने या दूसरों के किसी मतलब के ही लिए न? मगर जिसके कर्मों से किसी का कोई भी मतलब सिद्ध होने वाला हो ही न, वह क्योंकर उन्हें करें? हाँ, यदि न करने से कुछ भी बिगड़ने वाला हो, किसी का भी बिगड़ने वाला हो, तो भी एक बात है। मगर यहाँ तो वह बात भी नहीं है। सबसे बड़ी बात, सब बातों की एक बात यह है कि राई से लेकर पर्वत तक या चींटी से लेकर भगवान तक से कोई न कोई काम निकालने के ही लिए क्रिया या कर्म की जरूरत पड़ती है। मगर मस्तराम के लिए तो यह भी बात नहीं है। उनके कर्मों के फलस्वरूप किसी से भी कोई काम सधने-बनने का हई नहीं!
श्लोक में 'कश्चिदर्थ-व्यपाश्रय:' आया है। उसका खास महत्त्व और मतलब है किसी भी काम के लिए हमें तो किसी न किसी छोटे-बड़े पदार्थ का आश्रय - सहारा - लेना ही होता है। मगर मस्तराम के लिए ऐसा कोई पदार्थ रही नहीं जाता। उसके लिए तो सभी अपनी आत्मा ही हैं - आत्मा से जुदा कोई हई नहीं। कही चुके हैं कि वह 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' हो जाता है। तब किसका सहारा ले? किसकी ओर नजर दौड़ाए? किधर बढ़े, चले? कोई दूसरा हो तब न? यहाँ तो सब कुछ वही है - 'आत्मन्येवात्मानं पश्यति सर्वमात्मानं पश्यति' (वृहदा. 4। 4। 23), 'यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं पश्येत्केन कं जिघ्रेत्...केनकं विजानीयात्' (वृह. 4। 5। 15)। वह तो अपने आपको ही सर्वत्र देखता है, सुनता है, पढ़ता है, समझता है। क्योंकि उसकी नजरों में दूसरा कोई हई नहीं, द्वैत मिट गया, 'दुई' जाती रही, 'दुई रा चूं बगर करदम यकी दीदम दो आलम रा। यकी जूयम यकी बीनम यकी खानम यकी दानम।' फिर तो बिना कुछ किए ही सब कुछ हाजिर है! शाहंशाह जो ठहरा! प्रकृति को हिम्मत कि उसकी दरबारदारी न करे? इसीलिए हर चीजें उसी का आश्रय लेती हैं, अनायास अधीन हो जाती हैं। महाभारत के 'यदा च नाहमिच्छामि गन्धान्घ्राणगतानपि। तदा मे सर्वदा भूमिर्वशे तिष्ठति नित्यदा' आदि कई श्लोकों में यही दिखाया है कि सभी चीजें उसके चाहे बिना ही हाजिर रहती हैं! जो लोग उसे खिलाते-पिलाते या शरीर-सेवा करते हैं उनका मनोरथ और उनकी सभी जरूरतें अकस्मात पूरी होती रहती हैं! तब और चाहिए ही क्या?
कुछ लोगों ने यह कोशिश की है कि 'तस्य कार्यं' आदि में षष्ठी विभक्ति का संबंध अर्थ लगा के यहाँ यह अभिप्राय बताएँ कि उसे अपने लिए कोई कर्तव्य नहीं रह जाता है। इसीलिए जो कुछ करता है वह परोपकार और लोकसंग्रह के ही लिए। मगर वह भूल जाते हैं कि 'कृत्यानां कर्त्तरि वा' (2। 3। 71) और 'कर्त्तृकर्मणो कृति' (2। 3। 65) इन पाणिनीय सूत्रों के रहते उनका यह मतलब पूरा होने का नहीं। यह तो कर्त्ता के ही अर्थ में षष्ठी बताते हैं, न कि संबंध में। एक बात और भी तो देखें कि पहले तो साधारण कर्मियों की ही बात कही गई है, जैसा कि बता चुके हैं। इसके बाद भी वही बात है। तो फिर बीच में यह कर्मयोगी की बात कैसे आ गई? और उसका प्रसंग भी कौन-सा आ गया? लोकसंग्रह की बात तो 'कर्मणैव हि' (3। 20) श्लोक में फौरन ही आगे कही गई है। फिर एक श्लोक पहले भी उसे कहने का क्या मौका? यही नहीं 20 से 26 तक के श्लोकों में इस लोकसंग्रह और परोपकार की बात बहुत विस्तार से लिखी गई है। फिर यहाँ कैसे बेमौके आ गई? सो भी अधूरी? किसी-किसी को बारह महीने हरियाली ही सूझने की बात ठीक नहीं। सर्वत्र एक ही चीज को देखने और बताने की कोशिश उचित नहीं है।
तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पुरुष:॥19॥
इसलिए आसक्ति छोड़ के - पूर्व बताए ढंग की हायहाय छोड़ के - अपना कर्तव्य कर्म ठीक-ठीक करते रहो। क्योंकि आसक्ति छोड़ के कर्मों को करने से मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। 19।
लेकिन यदि परमात्मा को प्राप्त करना न हो तो? जो लोग आत्मज्ञानी और जीवन्मुक्त हैं। उन्हें न तो कोई सांसारिक-पदार्थ ही प्राप्त करने योग्य रहते हैं और न परमात्मा ही। वह तो खुद ही परमात्मा - निर्वाणब्रह्म - हो जाते हैं। फिर वह क्यों कर्म करेंगे? वह तो नहीं ही करेंगे न? नहीं-नहीं, वह भी करेंगे, यदि पूरे मस्तराम परमहंस न हो गए हों। यदि पूछें कि क्यों? तो सुनिए -
कर्मणैव हि संसद्धिमास्थिता जनकादया:।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्क र्त्तु मर्हसि॥20॥
आखिर संसिद्धि - ब्रह्मनिर्वाण - को प्राप्त हुए जनक आदि भी (तो) कर्म करते ही रहे - उनने कर्म को ही अपना साथी बराबर बनाए रखा। इसलिए लोकसंग्रह - संसार का पथप्रदर्शन - करने का ही खयाल करके भी (तो) तुम्हें कर्म करना ही होगा - करना ही चाहिए। 20।
यहाँ जो लोग यह मानते हैं कि जनकादि को कर्म से ही मोक्ष मिला, वह एक तो यह भूल जाते हैं कि मोक्ष ज्ञान से ही मिलता है। यह बात हम बहुत ही खूबी के साथ बता चुके हैं। उनने दूसरी जगह यही माना है। यदि मान भी लें कि कर्म से भी मुक्ति होती है, तो भी यह तो वे भी नहीं मानते कि निरे कर्म से मुक्ति होती है। वे तो ज्यादे से ज्यादा यही मानते हैं कि ज्ञान और कर्म दोनों के समुच्चय से - दोनों की सम्मिलित शक्ति से - ही मोक्ष मिलता है। मगर यहाँ तो 'कर्मणा एव' लिखा है, जिसका अर्थ है सिर्फ कर्म से। यह कैसे होगा? इसीलिए यहाँ कर्मणा इस तृतीया को 'कर्त्तृकरणयोस्तृतीया' (प. 2। 3। 18) के अनुसार साधन वाचक न मान के 'विनाऽपि तद्योगं तृतीया' के अनुसार 'सह' शब्द के न रहने पर भी उसका अर्थ प्रतीत होने पर ही तृतीया हो जाती है, यही मानना उचित है। हम इसीलिए, कर्म के साथ ही रहे, बराबर कर्म करते ही रहे, उसे कभी न छोड़ा यही अर्थ किया भी है।
सबसे मार्के की बात यहाँ, यह है कि इससे पहले के श्लोक में 'तस्मात्' कह के एक बात का उपसंहार कर लिया है, ऐसा स्पष्ट है। इसलिए इस श्लोक में कोई दूसरी नई बात शुरू हो के आगे चल रही है, ऐसा प्रतीत होता है। इसीलिए इस श्लोक के पूर्वार्द्ध की मिलान उत्तरार्द्ध के साथ करने से और उसी के अनुसार आगे बढ़ने से सब बात ठीक हो जाएगी। नहीं तो यह पूर्वार्द्ध यों ही बीच में ही लटका रह जाएगा। क्योंकि उत्तरार्द्ध का तो साफ ही आगे से संबंध मानना होगा। जिस लोकसंग्रह का इसमें उल्लेख सूत्र रूप से है उसी का भाष्य आगे के पूरे छह श्लोक करते हैं। जनक को लोकसंग्रह करने वाला और पथदर्शक कर्मयोगी मानते भी हैं। इसलिए उत्तरार्द्ध के साथ मिला के हमने जो अर्थ किया है वही यहाँ पर उचित और ठीक है।
यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तद नुवर्त्त ते॥21॥
बड़े लोग जो-जो करते हैं वही-वही काम जनसाधारण भी करते हैं। बड़े जितना करते और जिसे सही मानते लोग भी उतना ही करते और उसी को सही मानते हैं। 21।
यहाँ 'प्रमाणं' का अर्थ प्रमाण या सही भी है और नापजोख भी। 'यत्प्रमाणं' शब्द जब समस्त माना जाए तब तो इसका अर्थ है 'जितना'। और अगर यत् तथा प्रमाणं अलग-अलग दो शब्द स्वतंत्र माने जाएँ तब 'जिसे सही' यह मानी हैं।
न मे पार्थास्ति क र्त्त व्यं त्रिषु लोकेषु किं चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं व र्त्त एव च कर्मणि॥22॥
हे पार्थ, तीनों लोक - सारे संसार में - मेरा कुछ भी कर्तव्य रह नहीं गया है। ऐसा भी नहीं कि कोई वस्तु मुझे हासिल न हो (और) उसे प्राप्त करना हो। फिर भी (देखो न) कर्म में लगा ही रहता हूँ। 22।
यदि ह्यहं न व र्त्ते यं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मा नु वर्त्तंते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥23॥
क्योंकि हे पार्थ, अगर मैं (खुद) कभी भी आलस्यरहित हो के कर्म करने से हिचकूँ तो सभी लोग मेरा ही रास्ता (चट) अख्तियार कर लेंगे। 23।
इस संबंध में यह याद रखना होगा कि श्रीकृष्ण की रासलीला का इस कथन से स्पष्ट विरोध होने के कारण वह प्रक्षिप्त तथा पीछे जोड़ी गई चीज है। शिशुपाल से बढ़कर कृष्ण का शत्रु कोई न था जो खुले आम गाली-गलौज करता और उनके सच्चे-झूठे ऐबों के बारे में लेक्चर देता फिरता था। युधिष्ठिर के यज्ञ में जब कृष्ण की पूजा की गई तो उसे बरदाश्त न हो सकी। फलत: उसने बहुत कुछ अंटसंट बक डाला। उन्हें नीचा दिखाने के लिए यहाँ तक किया कि उनके मुरारि, मधुसूदन आदि नामों के अर्थ तक उसने बदल दिए, उन्हें खानदानी भगेड़ा बताया, वगैरह-वगैरह। मगर यह हिम्मत तो उसे भी न हुई कि कह डाले कि कृष्ण व्यभिचारी था, उसने गोपियों के साथ शरारत की, बदमाशी की। यदि उसे जरा भी गंध इस बात की मालूम होती तो ऐसा करने से वह हर्गिज न चूकता। फिर तो तिल का ताल बना छोड़ता। इससे स्पष्ट है कि कृष्ण का चरित इतना ऊँचा था कि उनके कट्टर से भी कट्टर दुश्मन तक को यह हिम्मत न थी कि इस बारे में जबान भी खोले। यदि गोपियों की रासलीला की गंध भी उस समय होती तो शिशुपाल क्या-क्या न कर डालता, कह डालता? इसलिए मानना होगा कि उस समय इसका नाम भी न था, चर्चा भी न थी। यह बात पीछे जुटी है, जोड़ी गई है।
श्री कुमारिल की लिखी तंत्रवार्तिक नाम की मीमांसा की पोथी की एक महत्त्वपूर्ण चर्चा भी इस मामले में प्रकाश डालती है। मीमांसादर्शन के सूत्रों पर जो शबर भाष्य है उसी की टीका का नाम तंत्रवार्तिक है। दरअसल भट्टपाद कुमारिल की समूची टीका तीन भागों में बँटी है। पहले अध्यााय के प्रथम पाद की टीका का नाम है श्लोकवार्त्तिक। उस अध्याभय के शेष को लेकर तीसरे अध्यायय के अंत तक की टीका को ही तंत्रवार्तिक कहते हैं। शेषांश की टीका कही जाती है टुप्टीका। उसी तंत्रवार्त्तिक में प्रथमाध्याहय के तीसरे पाद के सातवें सूत्र 'अपिवा कारणाग्रहणे प्रयुक्तानि प्रतीयेरन्निति' के व्याख्यान में एक स्थान पर नास्तिक की शंका के रूप में लिखा है कि हिंदू लोग जिस कृष्ण को महान पुरुष मानते हैं उनकी हालत यह थी कि शराब पीते थे। उनने मामा की लड़की से शादी भी की थी। दरअसल रुक्मिणी उनके मामू की ही तो पुत्री थी। इस प्रकार धर्माचार्यों और अवतारों पर एक के बाद दीगरे दोषारोपण करके सनातन धर्म की निंदा की गई है। किंतु जहाँ ब्रह्मा, व्यास आदि के बारे में उसने व्यभिचार आदि की बातें लिखी हैं तहाँ कृष्ण के बारे में उसे सिर्फ पूर्वोक्त दोष ही नजर आए हैं। लेकिन यदि भट्टपाद के समय में रासलीला की बात प्रसिद्ध होती तो वह नास्तिक के मुँह से जरूर ही वही बात कहलवाते। वह साधारण लोगों के समझ में आने की बात भी थी। मगर शराब पीने या मामू की कन्या से शादी करने की बात तो कुछ ऐसी ही है। फलत: मानना होगा कि नौवीं शताब्दी तक, जब कि भट्टपाद हुए, रासलीला का पता कहीं न था। यह तो उसके बाद ही पोथियों में घुसेड़ी गई मालूम पड़ती है। खूबी तो यह है कि कुमारिल ने समाधान करते हुए जहाँ लिखा है कि रुक्मिणी सचमुच मामू की लड़की न थी, वहीं यह भी लिखा है कि जो कृष्ण संसार के लिए आदर्श-स्थापक थे वही खुद विरुद्ध काम भला कैसे कर सकते थे? फिर उनने गीता के उन्हीं श्लोकों को उद्धृत भी कर दिया है कि 'मम वर्त्त्मानुवर्त्तेरन्मनुष्या: पार्थ सर्वश:। यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त्तते' (3। 23। 21)। उनका यह उद्धरण बड़े काम का है और वस्तुस्थिति को बताता है।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्त्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥24॥
(नतीजा यह होगा कि) यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सभी लोग - सारी दुनिया - ही चौपट हो जाए। (इस तरह) मैं ही वर्णसंकर करने का जिम्मेदार बन जाऊँ (और) इस सारी प्रजा का नाशक हो जाऊँ। 24।
खयाल हो सकता है कि जब सभी को एक ही लाठी से हाँका जाता है, जब कर्मों का करना विद्वान-अविद्वान या ज्ञानी-अज्ञानी के लिए समान रूप से ही जरूरी है, तो फिर दोनों में फर्क रही क्या जाता है? ज्ञानी को विद्वत्ता ने उसे क्या किया? यह तो कुछ उलटी-सी बात हो गई। अविद्वान को आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्त्यात्मिक ये तीन ही कष्ट होते हैं। मगर विद्वान होने पर बड़े-बड़े पोथों के अभ्यास करने का कष्ट, यदि कुछ भूले तो उसका, अगर कहीं विवाद में हारे तो उसका और न हारने पर जबर्दस्त साँड़ की तरह गर्व का, इस तरह कुल सात कष्ट हो जाते हैं। कहाँ चले थे तीनों से पिंड छुड़ाने और कहाँ चार और जुट गए! 'चौबे गए दूबे बनने तो छब्बे होके लौटे' वाली बात हो गई! इसीलिए नारद ने सनत्कुमार से कहा था कि महाराज, कोई रास्ता बताइए, नहीं तो यह तो बला हो गई और लेने के देने पड़ गए! जितना ही पढ़ा और पोथी-पुराण उलटा उतनी ही आफत बढ़ती गई, जैसा कि (छांदोग्य 7। 1। 1-3) तथा 'वेदाभ्यासात्पुरातापत्रयमात्रेण दु:खिता। पश्चात्त्वभ्यासविस्मारभंगगर्वैश्च शोकिता' (पंचदशी 11। 19) में लिखा है। जब दोनों ही गधे की तरह दिन-रात कर्मों में खटते-मरते ही रहेंगे, तो सचमुच ही दोनों में फर्क होगा क्या? इसका उत्तर यह है -
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥25॥
हे भारत, कर्मों में लिपटे-चिपटे अनजान लोग जिस तरह उन्हें (पूरा दिल लगा के) करते हैं विद्वान भी वैसा ही दिल लगा के करे। (मगर फर्क यही रहे कि एक तो वह) उनकी तरह लिपटा-चिपटा न रहे या हाय तोबा न करे। दूसरे उसका लक्ष्य लोकसंग्रह ही रहे। 25।
जो लोग खयाल करते हैं कि निजी स्वार्थ न रहने और आसक्ति खत्म हो जाने पर कर्म उतनी खूबी और लगन के साथ नहीं किए जा सकते, उनका उत्तर भी इसी में आ गया है। विद्वान का अपना तो समस्त संसार ही हो जाता है - उसका परिवार तो बहुत विस्तृत एवं व्यापक हो गया। इसीलिए उसकी लग्न कर्मों में और भी तेज हो जाती है। यह हाय-तोबा न रहने के कारण उसकी सारी दृष्टि इधर-उधर न बँट के कर्म पर ही रहने से कर्म और भी खूबी तथा सुंदरता के साथ पूरा होता है। यही तो है कर्म के ऊपर समस्त शक्ति का केंद्रीभूत (Concentration) होना। हाय-तोबा खत्म हो जाने से बेचैनी - परेशानी - भी नहीं रहती। वह बराबर मस्त भी रहता है।
जिनका विचार हो कि विद्वान स्वयं तो कर्म लगन के साथ जरूर करे। मगर अज्ञानियों को कुछ समझाता-बुझाता भी रहे कि वे कर्म में आसक्ति छोड़ें और अपनी प्रगति का रास्ता साफ करें, उन्हीं के लिए आगे के चार (26-29) श्लोकों की बातें हैं। दरअसल अविद्वान और अज्ञानी जनों को दो दलों में बाँट सकते हैं। एक तो ऐसे लोगों का, जो कुछ न कुछ समझते हैं सही। फिर भी विद्वानों के समान या उनके समाज के लायक नहीं होते। उन्हें अक्षरकट्टू कहिए, टटुपुँजिये समझदार कहिए, या अर्द्ध-दग्ध कहिए। मगर उनमें इतनी ही विशेषता होती है कि वे बातें समझते हैं, समझाने से कम-बेश समझ सकते हैं। इसीलिए वे गीता की गिनती में और गीताधर्म की ओर अग्रसर होनेवालों में भी आ सकते हैं, यद्यपि उनका दर्जा सबसे नीचे होता है। ऐसे ही लोगों के बारे में 'असक्त: स विशिष्यते' (3। 7) कहा गया है। उन्हें समझाना-बुझाना ठीक ही होता है - उसका कुछ न कुछ परिणाम होता ही है, फिर चाहे जल्द हो या देर से हो।
मगर दूसरा दल ऐसों का होता है जो चींटे की तरह कर्मों से लिपटते हैं, ऊँट की पकड़ पकड़ते हैं। वे जिस चीज को पकड़ते हैं उसे छोड़ना जानते ही नहीं। वे इतने सीधे और भोले होते हैं कि विवेक और अक्ल से उन्हें ताल्लुक होता ही नहीं। वे तो सिर्फ देखा-देखी करते हैं। उन्हें समझाइएगा तो शायद ही समझें इसीलिए सीधे कह दीजिए कि यह काम करो और वे उसमें तन-मन से लिपट पड़ेंगे। सच पूछिए तो उन्हीं के लिए कह सुनाने की अपेक्षा कर दिखाने की जरूरत कहीं ज्यादा होती है। पहले जो कृष्ण ने अपना दृष्टांत देकर लोकसंग्रह का विवरण बताया है वह ऐसों ही के लिए हैं। लोकसंग्रह के लोक या लोग ऐसे ही सीधे जन हैं। उन्हीं का संग्रह या सन्मार्ग पर जाना, यही लोकसंग्रह है। उन्हें इधर-उधर भटकने न दे के एक रास्ते में बाँध रखा जाता है।
ऐसे ही लोगों के बारे में एक पंडितजी के श्राद्ध करवाने की बात कही जाती है। पंडितजी का यजमान इतना सीधा था कि ठीक ही आँख मूँद के चलता था। पिंडदान के समय पहले ही पंडितजी ने उससे कह दिया कि मैं जो बोलूँ वही तुम भी बोलना। उनका आशय तो था मंत्रों से, कि मैं जो मंत्र जैसे पढूँ तुम भी वैसे ही पढ़ते जाना। मगर वह था इतना सीधा कि उसने ऊँट की पकड़ पकड़ ली। जब पंडित ने श्रीगणेश करते हुए उससे कहा कि तैयार हो जाओ, तो वह भी चट बोल बैठा कि तैयार हो जाओ। इस पर पंडितजी ने रंज हो के कहा कि मैं तुमको पिंडदान के लिए तैयार हो जाने को कहता हूँ। फिर तो वह भी बोल उठा कि मैं तुमको पिंडदान के लिए तैयार हो जाने को कहता हूँ! अजीब बात थी! पंडित जी जो बोलते थे वह भी वही दुहराता जाता था। उनने लाख कोशिश की कि उसे समझा के ठीक करें। मगर घंटों इस हुज्जत में लगने पर भी कुछ नतीजा न हुआ। उसने तो उनकी शुरूवाली बात पकड़ ली थी। बस, ऐसे ही लोगों से यहाँ मतलब है। उन्हें समझाने की कोशिश करना बला मोल लेना है, जैसी कि पंडितजी की हालत हुई, रेशानी हुई, और अंत में क्रोध में पटका-पटकी तक हो गई, जिसमें उसने पंडितजी को धर दबोचा। मजबूत तो था ही। खूबी तो यह कि इतने पर भी वह समझता था कि मैं श्राद्ध ही कर रहा हूँ और यही श्राद्ध है! ऐसे लोगों को समझाने की कोशिश करने पर वह कहीं के नहीं रह जाते। वह तो ऊँट की पकड़वाली एक ही अक्ल जानते हैं, जैसा कि हितोपदेश का मेढक केवल भागने की एक अक्ल - एक बुद्धि जानता था। उपदेश देने में वह बुद्धि भिन्न हो जाती है, टुकड़े-टुकड़े हो जाती है, बँट जाती है और वह आदमी कहीं का रह जाता नहीं।
न बुद्धिभेदं जन ये दज्ञानां कर्मसंगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्॥26॥
कर्मों में लिपटे-चिपटे भोले अज्ञानी जनों की (उस ऊँट की पकड़वाली एक) अक्ल को छिन्न-भिन्न (हर्गिज) न करे। किंतु योगी विद्वान स्वयं सभी कर्मों को करता हुआ (देखा-देखी) उनसे भी करवाए। 26।
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकारविमूढात्मा कर्त्ताऽहमिति मन्यते॥27॥
(क्योंकि यद्यपि) प्रकृति के गुणों के द्वारा ही सभी कर्म किए जाते हैं (न कि आत्मा करती है। तो भी) जिनकी आत्मा अहंता-ममता - मैं और मेरे के खयाल - के करते बिलकुल ही मोह में - घोर अँधरे में - फँसी है; फलत: जिन्हें (कुछ भी नहीं सूझता) वह अपने आपको ही करने वाले माने बैठे होते हैं। 27।
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।
गुणा गुणेषु व र्त्तंत इति म त्त्वा न सज्जते॥28।
हे महाबाहो, (इसके विपरीत) जो लोग गुणों और कर्मों के हिसाब-किताब और ब्योरे को पूर्ण रूप से जानते हैं - उसकी असलियत को देखते हैं - (कि किस गुण के साथ किस कर्म का कैसा ताल्लुक है) वह तो, यही जानकर कि गुणों से बनी कर्मेंद्रियाँ ही उन्हीं से बने कर्मों में लगी हैं, उन कर्मों में लिपटते नहीं। 28।
प्रकृतेर्गुणसंमूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु। तानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥ 29॥
(लेकिन) जो प्रकृति के गुणों की इन सभी बातों को कतई जानते ही नहीं, वे गुणों के कर्मों में खुद फँस जाते हैं। (इसीलिए) सारी बातों को पूर्ण रूप से न जान सकने वाले उन नादानों को सभी बातों का जानकर आदमी (हर्गिज) घपले में न डाले। 29।
हमने पहले गुणवाद के प्रकरण में इन तीनों गुणों के सभी पहलुओं पर पूर्ण प्रकाश डाला है। वहीं बताया है कि किस तरह गुण आपस में मिल के चलते और सभी कर्म करते-कराते हैं। इंद्रियों का भी विवरण अच्छी तरह दिखाया गया है कि कौन-सी इंद्रियाँ किस गुण से बनी हैं। इंद्रियों को और समूचे संसार को भी - इसीलिए कर्मों को भी - गुण क्यों कहते हैं यह भी बताया गया है। ऊपर के तीन (27-29) श्लोकों में यही बातें कही गई हैं। इसीलिए कर्मों और इंद्रियों को भी गुण कहा है और गुणों तथा कर्मों के बँटवारे या विभाग की भी बात इसीलिए कही गई है।
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्या त्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा यु ध्य स्व विगतज्वर:॥30॥
(इसलिए तुम) आत्मज्ञान के बल से सभी कर्मों को मुझमें - भगवान में - अर्पण करके (और) सभी तरह की आसक्तियों एवं ममताओं से रहित हो के मस्ती के साथ लड़ो। 30।
यहाँ जो 'अध्यामत्मचेतसा' दिया है, ठीक इसी तरह की बात 'चेतसा सर्व-कर्माणि' (18। 57) में आई है। गौर से देखने से मालूम होता है कि दोनों जगह एक ही बात कही गई है। मगर अठारहवें अध्यााय वाले श्लोक के उत्तरार्द्ध में 'बुद्धियोगमुपाश्रित्य' शब्द भी आया है। उससे पूर्व के (50-56) श्लोकों में ज्ञाननिष्ठा की ही बात आई है। सो भी सबसे ऊँचे दर्जे की - परा - ज्ञाननिष्ठा की बात। उसी के सिलसिले में छठे अध्या य के ध्या नयोग की ही तरह वहाँ भी ध्याबनयोग का और उसके साधन-स्वरूप नियमित भोजन आदि का वर्णन आया है। इससे स्पष्ट हो जाता है समाधि वगैरह के द्वारा पूर्ण आत्म-साक्षात्कार और आत्मानुभव की बात वहाँ कही गई है। यही वजह है कि उसी समाधि की सिद्धि के लिए कर्मों का स्वरूपत: त्याग भी जरूरी हो जाता है। यह बात वहाँ भी आई है। मगर आत्मज्ञान होने के बाद भी शायद कर्मों के त्याग पर हठ होने लगे, इसीलिए यह कहने की जरूरत हुई है कि पीछे तो कर्मों के स्वरूपत: संन्यास की जरूरत नहीं होती। यों स्वयमेव छूट जाए यह बात दूसरी है। तो फिर होता है क्या? होता है यही कि तत्त्वज्ञान के फलस्वरूप कर्मों को अपने में, आत्मा में तो सटने देते नहीं - कर्म आत्मा में तो रहने पाते नहीं। वहाँ से तो निकाल बाहर कर दिए गए! फिर वे रहें कहाँ यह सवाल होने पर उत्तर मिलता है कि जहाँ सारी दुनिया रहती है। यह दुनिया तो भगवान में ही रहती है यह बात 'मयिसर्वमिदं प्रोतं' (7। 7), 'यो मां पश्यति सर्वत्र' (6। 30), 'वासुदेव: सर्वमिति' (7। 19), 'यस्यान्त: स्थानि भूतानि' (8। 22), 'मत्स्थानि सर्वभूतानि' (9। 4) आदि में साफ ही कही गई है। इसीलिए 'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि' (5। 10) में भी कर्मों को ब्रह्म में ही स्थापित कर देने की बात कही गई है। वही बात यहाँ भी है। ज्ञानी यही समझता है कि मैं तो कुछ कर्त्ता-वर्त्ता नहीं। सृष्टि का काम चलता है तो चले। इसमें अड़ंगा डालने वाला मैं कौन? मैं ऐसा करूँ भी क्यों? जिसकी यह सृष्टि है वह जाने और उसका काम जाने। मुझे इसकी फिक्र कि ये मेरे कर्म कहाँ रहेंगे और क्या करेंगे? इन सभी वाहियात खुराफातों का भार मेरे ऊपर तो है नहीं। यही है तत्त्वज्ञानपूर्वक कर्मों का भगवान में अर्पण, निक्षेप, स्थापना या संन्यास।
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यंते तेऽपि कर्मभि:॥31॥
जो मनुष्य हमारे इस सिद्धांत के अनुसार काम करने की बराबर कोशिश करेंगे और मेरी बातों में श्रद्धा रखने के साथ ही निंदा की जरा भी भावना न रखेंगे उनका भी कर्मों से छुटकारा होगा। 31।
इस श्लोक में यद्यपि 'अनुतिष्ठन्ति' शब्द है, जिसका अर्थ होता है कि मेरे मत के अनुसार अनुष्ठान या काम करते हैं। फिर भी यह ठीक नहीं है। क्योंकि उत्तरार्द्ध में जो 'वे भी - तेऽपि' लिखा है उससे पता चलता है कि तत्त्वज्ञानियों के अलावे ये कोई दूसरे ही हैं। तत्त्वज्ञानियों के कर्मों से छुटकारे की बात तो पहले कही चुके। अब उसका कोई मौका हई नहीं। अब तो नई बात कहनी है। तत्त्वज्ञानियों के लिए श्रद्धा और निंदा न करने की बात भी नहीं आती। वे तो इन सभी बातों से बहुत दूर और ऊपर होते हैं। उनके नजदीक भी कर्म नहीं फटक पाता। फिर उससे छुटकारे का क्या सवाल? इसीलिए अनुष्ठान या काम करने की कोशिश करते हैं, यही अर्थ हमने किया है। यही उचित भी है। इसलिए नित्य या बराबर कहना भी ठीक होता है। क्योंकि बराबर कोशिश किए बिना सफलता नहीं मिलती है। ज्ञानी के लिए तो बराबर की बात हई नहीं। उसके लिए यह कहना बेकार है। उस कोशिश में ही श्रद्धा का होना और निंदा-बुद्धि का न होना भी सहायक होता है। इसीलिए जरूरी है। श्रद्धा एवं अनसूया का इतना ही अर्थ है कि ईमानदारी के साथ दिलोजान से यत्न किया जाए।
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान् विद्धि नष्टानचेतस:॥32॥
विपरीत इसके जो लोग मेरे इस सिद्धांत की निंदा करते हुए इसके अनुष्ठान का यत्न नहीं करते, समझ लो कि उन्हें किसी बात की जरा भी जानकारी नहीं है। हैं वे निर्बुद्धि और चौपटानंद ही। 32।
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृते र्ज्ञा नवानपि।
प्रकृतिं यांति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥33।
ज्ञानी भी (तो) अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलता है। (क्योंकि) सभी को प्रकृति के अनुकूल ही चलना होता है। इसमें रोकथाम क्या करेगी? 33।
इस श्लोक और इसके बाद के दो श्लोकों को समझने के लिए एक तो इसके स्थान और प्रसंग को ठीक-ठीक जानना होगा। दूसरे पूर्व के पाँच (26-30) श्लोकों के अर्थ पर दृष्टि देना पड़ेगा। यह जानने में कुछ दिक्कत नहीं है कि इस श्लोक का असली स्थान 'मयि सर्वाणि' (3। 30) के बाद ही है। क्योंकि बीच के दो श्लोक यों ही प्रासंगिक हैं। कहीं लोग ऐसा न समझ लें कि कृष्ण किसी प्रकार अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए सारा प्रपंच रच रहे और आडंबर फैला रहे हैं, इसीलिए 'ये मे मतमिदं' आदि दो (31, 32) श्लोकों में यह कह दिया गया है कि यह सर्वोपयोगी ध्रुवसिद्धांत है जो सबों के लिए समान रूप से लागू है। अत: जोई इसके अनुसार चलें या चलने की कोशिश ईमानदारी से करें उन्हीं का कल्याण हो जाएगा। विपरीत इसके जो ऐसा न करेंगे वे चौपट भी जरूर हो जाएँगे। फलत: इन दो श्लोकों का कोई सैद्धांतिक महत्त्व नहीं है। ये यों ही उठी शंका या खामख्याफली को दूर कर देते हैं। इसीलिए बीच में इनके आ जाने पर भी इनके बाद के 33वें श्लोक का संबंध इनके पहले के 30वें के साथ ही रहता है।
अब जरा पीछे वाले उन पाँचों के अर्थों पर गौर करें। उनमें यही कहा गया है कि नासमझ एवं सीधे-सादे लोगों के सामने ज्ञान कथन न सिर्फ बेकार है, बल्कि खतरनाक भी है। क्योंकि वे दुविधे में पड़ जाते हैं। उनकी बुद्धि ऐसे घपले में आ जाती है कि वे न तो घर के रहते और न घाट के। इतना ही नहीं। यदि समझदार और बड़े-बूढ़े लोग कर्म न करें तो वह देखा-देखी वैसा ही करते हैं। फलत: चौपट हो जाते हैं। ज्ञानियों और बड़े-बूढ़ों की भीतरी बातें वे क्या जानने गए? वे तो ऊपर से कर्मों का त्याग देख के खुद भी वैसा ही कर बैठे - कर बैठते हैं। इसीलिए ज्ञानियों के कर्मत्याग में यह बड़ा खतरा है। इसी से कृष्ण ने इसे रोका है और कहा है कि परमात्मा में ही कर्मों को छोड़ के ज्ञानी लोग उन्हंं करते चलें। वे तो यह समझते ही हैं कि कर्म तो गुणों में हैं, प्रकृति के भीतर हैं, हममें तो हैं नहीं, हम तो उनसे बेलाग हैं।
ज्ञानी जनों के इसी खयाल के साथ कि हममें तो कर्म हैं नहीं, किंतु गुणों में ही हैं, यदि यह खयाल भी आ मिले, जो पीछे के सत्रहवें श्लोक में आ गया है कि मस्तराम को कुछ भी करना-धरना रह नहीं जाता; फलस्वरूप वे लोग - आमतौर से यदि यही मान बैठें कि जब कर्मों का ताल्लुक हमसे हई नहीं तो फिर हम करें ही क्यों? जब 'गुणागुणेषु वर्तन्ते' ही है तो फिर हम नाहक माथापच्ची क्यों करें? परेशानी क्यों उठाएँ? तो क्या होगा? नासमझ लोग तो प्रकृति के गुणों के बारे में निरे कोरे हैं, कुछ भी नहीं जानते। इसलिए वे भले ही कर्मों में चिपटें उनके लिए कर्म ठीक भी हैं। मगर हम ज्ञानीजन उनमें क्यों मरे-पिचें? हमें तो अपनी बात पहले देखनी है, पीछे दूसरों की, यदि यह खयाल पक्का हो जाए तो कर्म छूटी जाएँगे। कम से कम कर्मों के लिए एक भारी खतरा तो खड़ा हो ही जाएगा और सारा उपदेश बेकार जाएगा। बस, इसी का उत्तर आगे के श्लोक देते हैं।
ये श्लोक तीन बातें कहते हैं। श्लोक भी तीन ही हैं। इसीलिए क्रमश: तीनों की एक-एक बातें हैं। पहला - 33वाँ - तो इतना ही कहता है कि मस्तराम को देख के दूसरे ज्ञानी कैसे हाथ-पाँव रोक देंगे, यदि वे चाहें भी? प्रकृति के गुणों की जो बात उनके बारे में कही जाती है उसकी आधी ही बात क्यों ली जाए और पूरी क्यों नहीं? एक तो मस्तराम की प्रकृति निराली और शेष ज्ञानी जनों की दूसरी ठहरी। प्रकृति के मानी तो यहाँ शरीर, इंद्रिय, अंत:करणादि होंगे न? प्रकृति का कोई दूसरा रूप तो होगा नहीं, जब हर आदमी के प्रति उसका विचार किया जाएगा। ऐसी दशा में मस्तराम के मन आदि दूसरे और शेष जनों के निराले ही ठहरे। और अगर मस्तराम के मन आदि कर्मों से हट भी जाए या कर्म ही पके फल की तरह उनसे हट जाए, तो इसका दूसरे के मन, इंद्रियादि से क्या संबंध? दूसरे के मन, इंद्रिय आदि क्यों हटेंगे? वे तो दूसरे हैं और अपनी-अपनी प्रकृति के ही अनुसार सभी चलते हैं। दूसरी बात यह भी है कि प्रकृति के गुणों की जैसी यह बात है कि कर्मों का ताल्लुक उन्हीं से है, न कि आत्मा से; ठीक वैसी यह बात भी तो है कि गुण कर्मों को कभी छोड़ नहीं सकते; मजबूरन कर्म करना ही पड़ता है - 'कार्यतेह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:' (3। 5)? फिर यदि कोई भी ज्ञानी जन जबर्दस्ती हाथ-पाँव रोक के कर्म से हटना चाहेंगे तो यह कैसे होगा? उनकी यह रोकथाम क्या कुछ भी कर सकेगी? वह तो महज बेकार साबित होगी।
तब फौरन यह प्रश्न उठता है कि यदि हाथ-पाँव आदि इंद्रियों की रोकथाम हो ही नहीं सकती, जब रोकथाम बेकार है, क्योंकि वह कुछ भी कर सकती ही नहीं, तो ज्ञानेंद्रियों की रोकथाम भी कैसे संभव है? आखिर सभी इंद्रियाँ तो गुणों से ही बनी हैं न? और जब प्रकृति या उसके गुणों पर ही कब्जा नहीं है, तो फिर इंद्रियों पर कैसे होगा, चाहे ज्ञानेंद्रियाँ हों या कर्मेंद्रियाँ, ऐसी हालत में इंद्रियों के निग्रह, रोकथाम या नियमन का सवाल ही बेकार हो जाता है। और अगर यही बात मान लें, तो 'इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य:' (2। 58), 'तानि सर्वाणि संयम्य' (2। 61) तथा 'तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि' (2। 68) में इंद्रियों के निग्रह पर जो सबसे ज्यादा जोर दिया गया है और जो स्थितप्रज्ञ और योगी के लिए बुनियादी एवं मौलिक वस्तु माना गया है वह कैसे ठीक होगा? यही नहीं। इंद्रियनिग्रह तो अध्याुत्मशास्त्र और योग की सबसे मुख्य बात मानी जाती है और वही अब झूठी साबित होती है।
इसका उत्तर बादवाला श्लोक यों देता है। आखिर शरीरयात्रा के लिए इंद्रियों की क्रिया जरूरी है और ज्ञान या विवेक के भी लिए। हाँ, इनके विषयों के साथ जो रागद्वेष हैं उन पर जरूर ही नियंत्रण चाहिए - राग और द्वेष को ही खत्म करना चाहिए। यह बात बराबर संभव भी है। प्रकृति के ही गुणों में सत्त्व ऐसा है कि यदि उसकी प्रगति हो, पूर्ण विकास हो तो रागद्वेष को मिटा दे और हमें उनके चंगुल में कभी फँसने न दे। वह खतरे से पहले ही आगाह जो कर देता है।
इसीलिए अर्जुन ने शुरू में ही जो कहा था कि मुझे यदि कर्म में भी लगाते हो, तो लगाओ, मगर हिंसात्मक युद्ध में क्यों खामख्वाह धकेलते हैं, उसका भी उत्तर हो जाता है। बाद का 35वाँ श्लोक यही उत्तर देता है कि यद्यपि युद्ध हिंसात्मक है, तो भी क्षत्रिय के लिए और खासकर अर्जुन के लिए तो वह स्वधर्म है, उसका निजी कर्तव्य है। अठारहवें अध्या्य में तो साफ ही कहा है कि युद्ध क्षत्रिय का स्वाभाविक धर्म है, 'क्षात्रं कर्म स्वभावजम्' (18। 43) इसलिए 'स्वे-स्वे कर्मण्यभिरत:' (18। 45) तथा 'स्वभावनियतं कर्म' (18। 47) में स्पष्ट कह दिया है कि ऐसे स्वधर्मों एवं स्वाभाविक कर्मों के करने में पाप और बुराई का तो सवाल ही नहीं। प्रत्युत इन्हीं से कल्याण होता है। 'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं' (4। 13) का भी यही आशय है। प्रकृति कहिए, या स्वभाव कहिए। बात तो एक ही है। अर्जुन को यही कहा गया है कि स्वधर्म को छोड़ परधर्म में जाना खतरनाक है। वह तो 'देशी मुर्गी बिलायती बोल' वाली बात हो जाएगी। फिर तो ऐसा करने वाले कहीं के न रह जाएँगे।
इंद्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौय ह्यस्य परिपन्थिनौ॥34॥
प्रत्येक इंद्रिय के विषय के साथ राग और द्वेष नियमित रूप से लगे हैं। इसलिए उनके वश में कभी न जाए। क्योंकि इस आत्मा के बटमार और लुटेरे वही दोनों हैं। 34।
श्रे यान्स्वधर्मो त्रिगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥35॥
दूसरे के बहुत अच्छी तरह पूरे किए गए धर्म की अपेक्षा अपना धर्म (देखने में) खराब या अधूरा रहने पर भी कहीं अच्छा है। (इसलिए) अपने धर्म के पीछे मर-मिटना ही अच्छा है। दूसरे का धर्म तो खतरनाक है। 35।
लेकिन यह तो आमतौर से देखा जाता है कि लोग गलत रास्ते पर जाते हैं और अपना कर्तव्य पालन नहीं करते। युद्ध की निंदा करना और इसे बुरा ठहराना यह आम बात है। लोग इससे हिचकते और भागते भी हैं - वही लोग जिनका यह स्वधर्म है। सभी बातों में यही देखा जाता है कि आमतौर से लोग पाप या कुकर्म की ही ओर झुकते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि नाहक की मारकाट, निर्दयता, दुराचार-व्यभिचार मिथ्या भाषण आदि ही स्वाभाविक तथा प्राकृतिक चीजें हैं। जैसे चटाई के किनारे को पकड़ के मोड़ने में ऐसा होता है कि जब तक दबाव रहता है तभी तक मुड़ी रहती है और ज्योंही दबाव हटा कि ज्यों की त्यों हुई। ठीक वैसे ही मन और इंद्रियों पर जब तक दबाव है, कुकर्म से बचती हैं। मगर ज्योंही दबाव हटा कि फिर वही पाप और कुकर्म। कुत्ते की पूँछ की-सी हालत है। जब तक दबाओ तभी तक सीधी रहती है, नहीं तो फिर टेढ़ी की टेढ़ी । जैसा उसका टेढ़ापन या चटाई का सीधापन स्वाभाविक है, वैसे ही, मालूम पड़ता है, बुराई ही इंद्रियों का स्वभाव है। इसी से देखते हैं कि युग-युगांतर से ऋषि-मुनि, अवतार, पीर-पैगंबर और औलिया हजारों और लाखों हुए। उनने उपदेश भी दिया। मगर संसार में उसी असत्य, उसी व्यभिचार, उसी निर्दयता आदि का ही बोलबाला है! मानो कुछ हुआ ही नहीं! गोया यही असली एवं अकृत्रिम बातें हैं और सत्य आदि ही कृत्रिम हैं! यहीं नहीं; बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी कभी न कभी इनमें फँसी गए हैं! जब समाज के लिए सत्य आदि ही आवश्यक हैं और ठीक भी हैं और जब प्राकृतिक धर्मों का ही करना जरूरी है, उन्हीं को करना ही चाहिए, तो यह उलटी बात क्यों होती है, यही बड़ी-सी पहेली अर्जुन के सामने खड़ी है। इसीलिए -
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥36॥
अर्जुन ने पूछा - हे वार्ष्णेय, भला (बताइए तो सही कि) हजार न चाहने पर भी यह मनुष्य बुरा कर्म किसके दबाव से - क्यों - कर डालता है? मालूम पड़ता है, जैसे किसी ने जबर्दस्ती करवाया हो! 36।
इसीलिए दुर्योधन के बारे में कहा जाता है कि उसने कहा था कि, यह जानते हुए भी कि पांडवों का हक देना उचित है, मैं दे नहीं सकता। साथ ही, द्रौपदी आदि के साथ वाले दुर्व्यवहार को बुरा समझते हुए भी मैं उससे बाज नहीं आ सकता। मालूम पड़ता है, कोई बड़ी भारी शक्ति भीतर बैठी जबर्दस्ती करवा रही है - 'जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्ति:। केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि'। क्या चोर नहीं समझता कि चोरी बुरी है? क्या व्यभिचारी नहीं समझता कि यह काम खराब है? फिर भी सभी वही करते ही हैं! प्रश्न होता है कि नहीं चाहते हुए भी करने का रहस्य क्या है?
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्॥37॥
श्रीभगवान ने उत्तर दिया - यह काम - राग - है और यही क्रोध - द्वेष - भी है। इसकी उत्पत्ति रजोगुण से होती है। इसका पेट कभी भरता ही नहीं। यह पुराना पापी है। इस दुनिया में इसी को बैरी समझो। 37।
धूमेनाव्रियते व ह्नि र्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्वेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥38॥
जैसे धुएँ से आग छिपी रहती है, जिस तरह मैल से आईना छिपा होता है, (या) जिस प्रकार गर्भ की झिल्ली में बच्चा छिपा रहता है, उसी तरह उस काम ने इस (ज्ञान) को छिपा दिया है। 38।
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौंतेय दुष्पूरेणानलेन च॥39॥
ज्ञानियों के सदा के इस शत्रु ने, जिसे काम कहते हैं, जो कभी पूरा होता ही नहीं और जिसका अंत भी नहीं होता या जो आग की तरह भीतर ही भीतर जलाता रहता है, ज्ञान को छिपा रखा है। 39।
इंद्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥40॥
इंद्रियाँ, मन और बुद्धि (यही तीन) इसके अड्डे हैं। इन्हीं के द्वारा ज्ञान या भले-बुरे के विवेक पर परदा डाल के यह काम आत्मा को भटका देता है - किंकर्तव्यविमूढ़ कर देता है। 40।
तस्मा त्त्व मिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥41॥
इसलिए हे भरतश्रेष्ठ, पहले तुम इंद्रियों को ही नियंत्रण में ला के ज्ञान और विज्ञान को चौपट करने वाले इस बदमाश को जड़ से जरूर खत्म करो। 41।
इंद्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परस्ततु स:॥42॥
(और पदार्थों की अपेक्षा) इंद्रियाँ ऊँची या बड़ी हैं, इंद्रियों से भी बड़ा मन है, मन से ऊपर बुद्धि है और जो बुद्धि के भी ऊपर है वही वह (आत्मा है)। 42।
एवं बुद्धे: परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥43॥
हे महाबाहो, बुद्धि के भी ऊपर रहने वाली आत्मा को इस प्रकार जानकर और स्वयमेव मन को रोक के, वश में करके बड़ी दिक्कत से पकड़े जाने वाले कामरूपी इस शत्रु को खत्म करो। 43।
यहाँ दो-एक जरूरी बातें जाने बिना अंत के चार-पाँच श्लोकों के अर्थ समझने में दिक्कत होगी। इसीलिए वे बातें कह देना जरूरी हैं। यह तो दूसरे अध्यााय में ही कह चुके हैं कि काम और क्रोध एक ही चीजें हैं। उसी की सफाई यहाँ की गई है। सोलहवें अध्यााय के अंत में इन्हीं दो के साथ लोभ भी जुट गया है 'काम:क्रोधस्तथा लोभ:' (16। 21)। जिस तरह काम और क्रोध एक हैं, उसी तरह लोभ भी काम से भिन्न नहीं है। असल में इस काम, कामना, वासना या इच्छा के ही ये क्रोध और लोभ दो रूप हैं, जो परिस्थितिवश बन जाते हैं - काम को ही क्रोध के रूप में और लोभ के रूप में परिणत हो जाना पड़ता है। जिसे कामना नहीं उसे क्रोध और लोभ से भी कोई ताल्लुक नहीं है। क्रोध से कैसे भीतर अंधकार हो जाता है यह 'क्रोधाद्भवति सम्मोह:' के अर्थ में स्पष्ट दिखा चुके हैं। उसी को आवरण या पर्दे के रूप में यहाँ कहा है।
यह काम ही विवेकी जनों का असल शत्रु है। इसका नाश इसीलिए जरूरी है। मगर इसके अड्डे का पता चले तब न इस पर धावा बोलें? इसलिए इंद्रिय, मन और बुद्धि इन तीनों को ही इसका अड्डा बता दिया है। यह रहता तो है दरअसल अंत:करण में और उसी के रूप हैं मन और बुद्धि। मगर इंद्रियों के बिना बाहर तो मन या बुद्धि जा नहीं सकती और बाहरी पदार्थों में ही रागद्वेष होते हैं। बाहरी से तात्पर्य है भौतिक पदार्थों से। इसीलिए इंद्रियों को भी अड्डा करार दिया है। बुद्धि यदि ठीक हो, विवेकयुक्त हो तो भी काम रहेई न। इसीलिए उसे भी इसका डेरा कहा है। यों तो असली डेरा मन ही है। इस प्रकार तीन अड्डे हो गए। लिखा है भी कि इन तीनों की मदद से ही देह के मालिक - देही - आत्मा को यह काम भटका देता है।
अब रहा इसे खत्म करने का उपाय। असली बला तो इंद्रियाँ ही हैं। न वे बाहर मनीराम को जाने देंगी और न कामना होगी। इसलिए यह तो आसानी से जाना जा सकता है कि इस तरफ पहला कदम जो बढ़ेगा वह इंद्रियों पर नियंत्रण, अंकुश या कब्जा रखने से ही शुरू होगा। इसीलिए कह दिया है कि इंद्रियों को सबसे पहले बिना सोचे-विचारे ही आँख मूँद के कब्जे में करो। उसके बाद आगे का उपाय सोचो। ऐसा कहने का यह अर्थ कभी नहीं है कि सिर्फ इंद्रियों को रोक कर ही इसे खत्म करेंगे। तब तो आगे के श्लोकों में कही बातें बेकार हो जाएँगी। केवल इंद्रियों के रोकने से यह मर भी नहीं सकता। इसके दूसरे भी तो अड्डे हैं और वही असली हैं - बुनियादी हैं। बिना मन और बुद्धि को वश में किए इंद्रियाँ सोलह आने वश में हो भी नहीं सकती हैं। इसीलिए हमने कहा है कि उनका रोकना नींव या श्रीगणेशायनम: ही समझिए।
असली उपाय यह बताया है कि इंद्रियाँ शरीर और अन्य पदार्थों से बड़ी या उनके ऊपर हैं। वही शरीर को दौड़ाती रहती हैं। सिनेमा, गान, भोज में खींच ले जाती हैं। यद्यपि विषय इंद्रियों को भी खींचते हैं। तथापि उन्हें यहाँ छोड़ दिया है। क्योंकि अड्डों को ही पकड़ना था। इंद्रियों के ऊपर है मन और मन के ऊपर बुद्धि। आत्मा तो सभी का मालिक है। देह में ही ये सब हैं और देही वही है। यह बात पहले अच्छी तरह समझाई जा चुकी है। अब काम यों होता है कि पहले आत्मा का तत्त्वज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर बुद्धि से उसके आनंद का अनुभव करते हैं। इस तरह बुद्धि को उसमें फँसा देने पर - क्योंकि वह आनंद हई ऐसा कि एक बार मजा आने पर बुद्धि वहाँ से हट सकती ही नहीं - मन भी उधर ही खिंचेगा। कोचवान के ही हाथ में लगाम होती है न? और मन है लगाम और बुद्धि कोचवान। फिर तो इंद्रियाँ भी खिंच गईं और बाहरी पदार्थों में न जा के आत्मा में ही लग गईं। तब काम महाराज रहेंगे कहाँ? कुछ समय इंतजार करके हमेशा के लिए उन्हें आत्महत्या करनी पड़ती है जब पूर्ण निराश हो जाते हैं। फलत: ज्ञान और विज्ञान का ही बोलबाला रहता है। इन दोनों का अर्थ बताया जा चुका है।
इंद्रिय और मन आदि को जो एक दूसरे के ऊपर कहा है यही...विषय, महान और अव्यक्त को जोड़ के कठोपनिषद् में भी दो बार यों आई है, 'इंद्रियेभ्य: परा ह्यर्था ह्यर्थेभ्यश्च परं मन:। मनसस्तु परबुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्पर:'।10। 'महत: परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुष: पर: । पुरुषान्नपरं किंचित्सा काष्ठा सा परागति:' 11। (1।3), तथा 'इंद्रियेभ्य: परं मनो मनस: सत्त्वमुत्तम्। सत्त्वादधिमहानात्मामह तोऽव्यक्तमुत्तमम्। 7। अव्यक्तात्तु पर: पुरुषो व्यापकोऽलिंगएव! यज्ज्ञात्वामुच्यते जंतुरमृतत्त्वं च गच्छति'। 8। (2। 6)। यहाँ सत्त्व का अर्थ है बुद्धि और महान आत्मा का अर्थ है महत या महतत्त्व। अव्यक्त नाम है प्रकृति का। क्रम तो यही है। मगर गीता को इस विस्तार से कोई काम नहीं है। वह तो बुद्धि को ही आत्मा में लगा के मन और इंद्रियों को अपनी ही ओर खींच लेना और इस तरह काम, राग या अभिलाषा को मार डालना चाहती है। उसने यही बताया भी है।
आखिरी श्लोक जो में दुरासद शब्द है उसका अर्थ है बड़ी कठिनाई से पकड़ा जाने वाला। असल में इस राग या काम के इतने स्थूल, सूक्ष्म और विभिन्न रूप हैं कि जल्द उनका पता लगना असंभव है। काम की हालत भी यह है कि धोखा दे के फँसा लेता है और पता ही नहीं चलता है कि फँस गए हैं। भक्ति और उपासना के नाम पर जानें कितने ही प्रपंच रचे जाते हैं जो पतन के ही मार्ग हैं। मगर पता ही नहीं लगता और लोग उनमें फँस जाते हैं; इसीलिए इसे दुरासद कहा है ताकि लोग सजग रहें।
इस अध्याहय में साधारण से साधारण कर्मों से ही शुरू किया है और अंत तक उसी की बात कहते आए हैं। मामूली से मामूली कर्मों से लेकर ऊँचे से ऊँचे या कर्मयोग तक का वर्णन इसमें आ गया है। 'मयि सर्वाणि' (3। 30) में आखिर है क्या यदि कर्मयोग नहीं है? इसलिए समूचे अध्यातय पर कर्म की ही छाप लगी है। यही कारण है कि ज्ञान की जो बात आई है वह गौण या अप्रधान है। वह या तो उसी का साधन है या मस्ती का ही; जैसा कि 'यस्त्वात्मरति:' (3। 17) में कहा है। फलत: कर्म की प्रधानता के कारण इस अध्या्य का विषय कर्म ही है। जैसे दूसरे अध्यािय का विषय सांख्य या ज्ञान है। ज्ञान से ही शुरू करके बीच में और अंत में भी उसी का वर्णन है। कर्म तो बीच में ही आया है, सो भी अप्रधान रूप से ही।
इति श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्याभय:॥3॥
श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका कर्मयोग नामक तीसरा अध्या्य यही है।