हठयोगप्रदीपिका

हठयोगप्रदीपिका हठयोग से सम्बन्धित प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह संस्कृत में है और इसके रचयिता गुरु गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम थे। हठयोग के प्राप्त ग्रन्थों में यह सर्वाधिक प्रभावशाली ग्रन्थ है। हठयोग के दो अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं - घेरण्ड संहिता तथा शिव संहिता। इस ग्रन्थ की रचना १५वीं शताब्दी में हुई। इस ग्रन्थ की कई पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हैं जिनमें इस ग्रन्थ के कई अलग-अलग नाम मिलते हैं। वियना विश्वविद्यालय के ए सी वुलनर पाण्डुलिपि परियोजना के डेटाबेस के अनुसार इस ग्रंथ के निम्नलिखित नाम प्राप्त होते हैं |


हठयोगप्रदीपिका - भाग २


  प्राणायाम

१. आसन के में स्थिरता आ जाने पर, योगी को नियमित कम खाते हुये, प्राणायम का अभ्यास करना चाहिये।

२. साँस के विचलित हो जाने पर मन भी आशान्त हो जाता है। साँस को नियमित कर, योगी मन की स्थिरता प्राप्त करता है।

३. जब तक साँस शरीर में रहती है, उसे जीवित कहा जाता है। साँस का इस शरीर से निकल जाना ही मृत्यु होता है। इसलिये साँस को संयम करना जरूरी है।

४. साँस अर्थात प्राण बीच वाली नाडी में नहीं जा पाते, क्योंकि वह नाडी खुली नहीं है। तो सफलता कैसे प्राप्त होगी और समाधि का आवस्था कैसे मिल पायेगी।

५. जब सभी नाडियां जो अशुद्धता से भरी पडी हैं, शुद्ध हो जाती हैं, तो योगी प्राण वायु को वश में कर लेता है।

६. इस लिये सात्विक बुद्धि से हर रोज प्राणायम करना चाहिये ताकि नाडियां शुद्ध हो पायें।

प्राणायामके तरिके

१. पद्मासन में बैठ कर योगी को अपनी दायीं नासिका से हवा भरनी चाहिये, और उसे अपने क्षमता के अनुसार अन्दर रोक कर, फिर धीरे से अपनी बायीं नासिका से छोडना चाहिये।

२. फिर उलटा, बायें से अन्दर और दायें से बाहर – उसी प्रकार कुम्बक करना चाहिये।

३. इस प्रकार एक से अन्दर लेकर, और अन्दर क्षमता अनुसार रोक कर, दूसरी नासिका से बाहर निकालना धीरे धीरे, जबर दस्ति नहीं।

४. इस प्रकार, एक दूसरी नासिका द्वारा अभ्यास करते हुये, सभी की सभी ७२००० नाडियां ३ महिनों में शुद्ध हो जाती हैं।

५. इन कुम्भक को धीरे धीरे बढाते हुये दिन रात में चार बार करना चाहिये, जब तक एक बार की संख्या ८० न हो जाये और सारे दिन की संख्या ३२० न हो जाये।

६. शुरु में पसीना आता है, फिर बीच की stage में कम्पकपी होती है, और अन्त की स्थिति में स्थिरता प्राप्त हो जाती है। तब साँस को स्थिर, और हलचल रहित कर देना चाहिये।

७. इस अभ्यास के परिश्रम से जो पसीना आये उसे अपने शरीर में ही मल लेना चाहिये क्योंकि एसा करने से शरीर मजबूत होता है।

८. पहले के अभ्यास में दूध और घी युक्त आहार भरपूर होता है। जब साधना अच्छे से स्थिर हो जाये तो ऐसी कोई पाबंधी नहीं है।

९. जैसे शेर, हाथी, चिते धिरे धिरे ही अपने वश में किये जाते हैं, उसी प्रकार साँस भी धीरे धीरे करते अपने वश में किया जाता है – इस में जल्दबाजी करना खतरनाख है। 

 १०. जब प्राणायम को अच्छे से किया जाता है तो वह सभी बिमारियों को मिटा देता है, लेकिन गलत अभ्यास बिमारिया उत्पन्न करता है।  

११. हिचकी आना, दम घुटना, खाँसी आना, सर या कानों या आँखों में दर्द आदि बिमारियाँ प्राण वायु के हिलने विचलित होने से ही उत्पन्न होती हैं।  

१२. वायु को सही ढंग से ही निकालना चाहिये, और कोशलता से सही ढंग से भरना चाहिये, और जब उसे सही प्रकार से अन्दर रोका जाता है तो सफलता प्राप्त होती है।  

१३. जब नाडियाँ शुद्ध हो जाती हैं, और बाहर भी उसके चिन्ह दिखने लगें, जैसे की पतला शरीर, चमकता रंग आदि तो सफलता प्राप्त हो रही है इस पर विश्वास करना चाहिये। 

 १४. अशुद्धता के मिट जाने पर, वायु को अपनी मरजी के अनुसार अन्दर रोका जा सकता है, भूख बढती है, दैविक ध्वनि जागति है और शरीर निरोग हो जाता है। 

 १५. अगर शरीर में ज्यादा मोटापा यां बलगम आदि हैं, तो छे प्रकार की क्रियायें करनी चाहिये पहले। लेकिन जिन्हें यह सब नहीं हैं, उन्हें यह नहीं करनी चाहिये।  

१६. यह छ क्रियायें हैं धौती, बस्ती, तराटक, नौती, कपाल भाती।  

१७. यह छे क्रियायें जिस से शरीर साफ होता है, गुप्त रखनी चाहिये। इन से बहुत अच्छे फायदे होते हैं और इन्हें उत्तम योगी गण बहुत ही इमानदारी से करते हैं।

धौति

१. कपडे की पट्टी, ३ इन्च चौडी और १५ मीटर लम्बी, कोसे पानी से नमाई हुई, उसे धीरे धीरे निगला जाता है (एक सिरा बाहर रहता है) और फिर बाहर निकाला जाता है। इसे धौती कर्म कहते हैं।

२. इस में कोई शक नहीं कि खाँसी, दम घुटना, आदि २० प्रकार की बिमारियाँ धौती से ठीक हो जाती हैं।

बस्ति

१. पेट तक पानी में बैठ कर, एक ६ इन्च लम्बी, आधा इन्च चौडी खोखली पाईप को, anus में डाला जाता है और फिर (anus को) सकोडा और बाहर का ओर निकाला जाता है। इस धोने की क्रिया को बस्ति कर्म कहते हैं।

२. इसे करने से कई बिमारियां जो वायु, पित और कफ आदि के विकारों से उत्पन्न होती हैं, ठीक हो जाती हैं।

३. पानी में बस्ति करने से, शरीर के धातु, इन्द्रियां, मन शान्त रहते हैं। इस से शरीर में चमक आने लगती है और भूख बढती हैं, और सभी विकार आदि मिट जाते हैं।

नेति

१. धागें से बनी एक रस्सि, ६ इन्च लम्बी, नाक द्वारा डाल कर, मूँह से निकाली जाती है। इसे योग ज्ञाता नेती क्रिया कहते हैं।

२. इससे दिमाग शुद्ध होता है और दैविक दृष्टि मिलती है। इस से मूँह औऱ खोपडी के हिस्से के रोग दूर होते हैं।त्राटिका१. शान्त हो कर, एक ही निशान पर एकटक देखते रहना, जब तक आँखों में पानी न आ जाये। इसे आचार्य गण तराटक कहते हैं।२. इससे आँखों के रोग दूर होते हैं, और आलस मिटता है। इसे बहुत गुप्त रखना चाहिये जैसे गहनों की डब्बा।

नौली

१. अपने पैरों के बल, ऐडीयों को उठा कर बैठ कर, हाथों के तलों को धरती पर रखे हुये। इस प्रकार झुके हुये, अपने पेट को जबरदस्ती दायें से बायें तक लेजाना, जैसे उल्टी कर रहे हों। इसे नौली कर्म कहा जाता है।२. इस से dyspepsia ठीक होता है, भूख लगती है, हाजमा ठीक होता है। यह लक्ष्मी की ही तरह सभी प्रसन्नता देता है और सभी विकारों को सुखा देता है। हठ योग में यह बहुत ही उत्तम क्रिया है।कप्पल भाति१. जब साँस लेना और निकालना बहुत जल्दि जल्दि किये जायें, तो वह बलगम के सभी विकारों को मिटा देता है। इसे कपाल भाती कहा जाता है।

२. इस प्रकार जब इन छे क्रियाओं द्वारा शरीर को बलगम आदि से उत्पन्न मोटापे आदि से मुक्त करने के बाद प्राणायम किया जाता है तो आसानी से सफलता प्राप्त होती है।

३. कुछ आचार्य प्राणायम के अतिरिक्त और किसी क्रिया नहीं बताते क्योंकि वे मानते हैं कि सभी अशुद्धियां प्राणायम द्वारा ही सूख जाती हैं।

गिजा करनी

१. अपान वायु को गले तक लाकर, उल्टि की जा सकती है। धीरे धीरे इस से नाडियों का ज्ञान होता है। इसे गज करनी कहा जाता है।

२. ब्रह्मा आदि देव सदा प्राणायाम में लगे हैं, और इसके द्वारा मृत्यु के भय से मुक्त होते हैं। इसलिये, सदा प्राणायम का अभ्यास करना चाहिये।

३ जब तक शरीर में साँस को रोका हुआ है, मन हलचल रहित है, और दृष्टि आँखों के बाच में स्थित है – तब तक मृत्यु का कोई भय नहीं है।

४. जब सभी नाडियां प्राण को भली भाँति काबू में कर लेने से शुद्ध हो जाती हैं, तो प्राण वायु सुसुम्ना नाडी के द्वार को आसानी से भेद कर उस में प्रवेश कर जाता है।

मनोमानि

१. जब वायु बाच वाली नाडी में आसानी से चलती है, तो मन स्थिर हो जाता है। इस स्थिति को मनोमनि कहते हैं जो तब प्राप्त होती है जब मन शान्त हो जाता है।

२. इसे प्राप्त करने के लिये विभिन्न कुम्भक किये जाते हैं उनको द्वारा जो योग में प्रवीण हैं, क्योंकि कुम्भक के अभ्यास से ही विशिष्ट सफलता प्राप्त होती है।

विभिन्न प्रकार के कुम्भक

१. कुम्भक आठ प्रकार के होते हैं - सूर्य भेदन, उजई, सीतकरी, सितली, भस्त्रिका, भ्रमरि, मूर्च्छा और प्लविनि।

२. पूरक के अन्त में जल्नधर बन्ध करना चाहिये, और कुम्भक के अन्त में और रेचक के शुरु में उदियान बन्ध नहीं करना चाहिये। (पूरक कहते हैं बाहर से भीतर हवा भरने को - अन्दर साँस लेने को)।

३. कुम्भक कहते हैं साँस को अन्दर रोक कर रखने को (हवा को अन्दर बंद कर के रखना)। रेचक साँस को बाहर छोडने को कहते हैं। पूरक, कुम्भक और रेचक की जानकारी सही जगह दी जायेगी और इसे ध्यान से समझना और लागू करना चाहिये। अपने नीचे के भाग को ऊपर की ओर खींच कर (मूल बन्ध) और अपनी गर्दन को अन्दर की ओर खींच कर (ठोडी को छाती से लगा कर - जल्नधर बन्ध) और अपने पेट को अन्दर की ओर खींच कर - यह करने पर प्राण ब्रह्म नाडी (सुशुम्न) की तरफ बढता है (उसमें प्रवेश करने की चेष्टा करता है)। (बीच वाली नाडी को योगी जन सुशुम्न कहते हैं। उस के साथ में दो अन्य जो नाडियां होती हैं जो रीड की हडडी के साथ चलती हैं उन्हें ईद और पिंग नाडीयाँ कहा जाता है।)

४. अपान वायु को ऊपर को खींच कर और प्राण वायु को गर्दन में से होती नीचे की ओर धकेल कर योगी जरा से मुक्त हो ऐसे यौवन अवस्था को प्राप्त कर लेता है मानो सोलंह साल का हो। (प्राण का स्थान हृदय है औऱ अपान का स्थान anus है। समान का स्थान पेट है, उदान का गला स्थान है और व्यान का स्थान सारा शरीर है - यह पाँच पॅकार की वायु हैं जो मनुष्य को जीवित रखती हैं।)

सूर्य भेदन

१. किसी भी आरामदायक आसन को ग्रहण कर के बैठें। फिर वायु को धीरे धीरे right नासिका से अन्दर लें।

२. फिर उस वायु को अन्दर रोक कर रखें, ताकी वह नाखूनों से ले कर बालें तक सारे शरीर को भर दे और फिर धीरे धीरे उसे दूसरी (left) नासिका से बाहर निकालें। (इसे एक के बाद एक करना है। जिस नासिका से अन्दर लें, दूसरी से निकालें और फिर उस दूसरी से अन्दर लें औऱ पहली वाली से निकालें।)

३. इस उत्तम सूर्य भेदन से माथा साफ होता है, वत के रोग दूर होते हैं, कीडे खत्म होते हैं इसे बार बार करना चाहिये।

४. मैं इस योग अभ्यास का वर्णन करता हूँ ताकी योगी जन सफल हों। बुद्धिमान मनुष्य को सुबह जल्दि उठना चाहिये (चार बजे सुबह)

५. फिर अपने गुरु को अपने सिर से नमस्कार कर, और अपने देव को अपने मन में याद कर, साफ सफाई आदि क्रम से मुक्त हो, अपना मूँह साफ कर, फिर अपने शरीर पर भस्म लगानी चाहिये।

६. एक साफ स्थान पर, साफ कमरा या फिर मनोहर जमीन पर उसे नरम आसन बिछा कर उस पर बैठना चाहिये और अपने मन में अपने गुरु और अपने देव अथवा देवी को याद करना चाहिये।

७. अपने आसन स्थान की प्रशसा कर, यह प्रण लेना चाहिये की भगवान की कृपा से आज मैं समाधि प्राप्त करने के लिये प्राणायम करूँगा। उसे भगवान शिवजी को प्रणाम करना चाहिये ताकी उसे अपने आसन और योग में सफलता प्राप्त हो।

८. नागों के भगवान, हजारों सिरों वाले भगवान शिवजी को प्रणाम है, जो अद्भुत मणियों से सुशोभित हैं और जिन्होंने इस संपूर्ण संसार को संभाला हुआ है, उसका पालन करते हैं, अनन्त हैं। इस प्रकार भगवान शिव जी की पूजा कर उसे आसन का अभ्यास करना आरम्भ करना चाहिये, और जब थकावट हो जाये तो शव आसन का अभ्यास करना चाहिये। अगर थकावट न हो तो शव आसन न करे।

९. कुम्भक शुरु करने से पहले विपरीत करनी मुद्रा करनी चाहिये, ताकी वह जल्नधर बन्ध को आसानी से कर पाये।  

१०. थोडा से जल पी कर उसे प्राणायम का अभ्यास आरम्भ करना चाहिये, योगिन्दों को नमस्कार कर के, जैसा की भगवान शिव जी नें कुर्म पुराण में बताया है।  

११. जैसे भगवान शिव नें कहा है की योगिन्द्रों के नमस्कार कर के, और उन के शिष्यों को, औऱ गुरु विनायक को नमस्कार कर के, फिर योगी को शान्त मन से मुझ में एक हो जाना चाहिये।  

१२. अभ्यास करते समय असे सिद्धासन में बैठना चाहिये, और फिर बन्ध और कुम्भक करना आरम्भ करना चाहिये। पहले दिन उसे १० कुम्भकों से शुरु करना चाहिये और हर रोज ६ बढा देने चाहिये। 

१३. शान्त मन से ८० कुम्भक एक बार में करने चाहिये - पहले चन्द्र नासिका (left nostril) से शुरु करते हुये और उसके बाद सूर्य (right) नासिका से।  

१४. बुद्धिमान लोगों ने इसे अनुलोम विलोम कहा है। इस सूर्य भेदन का अभ्यास करते हुये, साथ में बन्धों के, बुद्धिमान मनुष्य को उज्जई और फिर सीतकरी सीतली और भस्त्रिका करने चाहिये, दूसरे प्रकार के कुम्भक चाहे वह न करे।  

१५. उसे मुद्राओं का ठीक से अभ्यास करना चाहिये जैसे उसके गुरु ने बताया हो। फिर पद्मासन में बैठ कर उसे अनहत नाद को ध्यान से सुनना चाहिये।  

१६. जो भी वह कर रहा है, उस के फल को उसे भक्तिपूर्वक भगवान पर छोड देना चाहिये। इस अभ्यास के समाप्त होने पर उसे गरम पानी से स्नान करना चाहिये।  

१७. इस स्नान के बाद दिन के कार्य कुछ देर के लिये रुक जाने चाहिये। दोपहर को भी अभ्यास के बार थोडा आराम करना चाहिये और फिर खाना खाना चाहिये।  

१८. योगीजन को सदा स्वस्थ भोजन करना चाहिये, कभी अस्वस्थ करने वाला नहीं। रात के खाने के बार उसे Ilachi or lavanga लेना चाहिये।  

१९. कईयों को कपूर और पान का पत्ता पसंद है। योगीयों को प्राणायम करने के पश्चात पान का पत्ता बिना किसी औऱ चीजों के (जैसे कथा आदि) अच्छा है।  

२०. खाना खाने के बार उसे अध्यात्मिक पुसतकें पढनी चाहिये, या पुराण सुनना चाहिये या भगवान का नाम लेना चाहिये।  

२१. शाम में उसे पहले की ही भाँती अभ्यास करना चाहिये। सूर्य के अस्त होने के एक घंटा पहले अभ्यास शुरु करना चाहिये।  

२२. फिर शाम की संध्या उसे अभ्यास करने के पश्चात करनी चाहिये। अर्ध रात्रि में सदा हठ योग का अभ्यास करना चाहिये।  

२३. विपरीत करनी शाम में और रात में करनी अच्छी है लेकिन खाने के बिल्कुल बाद नहीं क्योंकि वरना उस से लाभ नहीं होता।

उज्जयी

१. गले की नाडी का मूँह बंद कर के (ठोडी को पीछे की ओर लगा कर), वायु को इस प्रकार से अन्दर लेना चाहिये जिस से वह गले को छूती हुई, आवाज करती छाती तक पहुँचे।

२. उसे पहले की तरह अन्दर रोक कर रखना चाहिये, और फिर left nostril से बाहर निकालना चाहिये। इस से गले की बलगम कम होती है और भूख बढती है।

३. इस से नाडीयों के रोग खत्म होते हैं, और dropsy औऱ धातु के रोग मिटते हैं। उज्जयी जीवन की हर अवस्था में करना चाहिये, चलते हुये भी और बैठे हुये भी।

सीतकरी

१. सीतकरी मूँह द्वारा साँस अन्दर लेने से की जाती है, जीहवा (tounge) को होठों (lips) के बीच में रख कर। इस प्रकार अन्दर ली गई वायु को फिर मूँह से बाहर नहीं निकालना चाहिये। इस अभ्यास से, मनुष्य कामदेक के समान हो जाता है।

२. वह योगीयों द्वारा सम्मानित होता है और सृष्टि के चक्र से मुक्त होता है। उस योगी को न भूख, न प्यास और न ही निद्रा और आलस सताते हैं।

३. उसके शरीर का सत्त्व सभी प्रकार की हलचल से मुक्त हो जाता है। सत्य में वह इस संसार में जितने भी योगी हैं उन में अग्रणीय हो जाता है।

सीतली

१. जैसे सीतकरी में जीहवा मूँह से जरा बाहर की ओर निकाली जाती है, उसी प्रकार इस में भी किया जाता है। वायु को फिर मूँह से अन्दर ले कर, अन्दर रोक कर और फिर नासिकाओं से निकाला जाता है।

२. इस सीतली कुम्भक से colic, (enlarged) spleen, fever, disorders of bile, hunger, thirst आदि का अन्त होता है और यह जहर को काटता है।

भस्त्रिका

१. पद्म आसन कहते हैं अपने पैरों को cross कर के अपने thighs पर रखना। इस से सभी पापों का अन्त होता है।

२. पद्मासन में बैठ कर और अपने शरीर को सीधा रख कर, मूँह को ध्यान से बंद कर, वायु को नाक से निकालें।

३. वायु को फिर अपन हृदय कमल (छाती) में भरे, वायु को शक्ति से अन्दर खींचते हुये, आवाज करते और गले, छाती और सिर को छूते।

४. फिर उसे बाहर निकाल कर, दोबारा दोबारा उसी प्रकार भरें, जैसे लौहार हवा मारता है।

५. इस तरह शरीर की वायु को बुद्धि से ध्यान से चलाना चाहिये, उसे सूर्य से भरकर जब भी थकावट लगे।

६. वायु को right nostril से भरना चाहिये अपने अंगूठे को दूसरी नासिका के साथ दबा कर ताकि left नासिका बंद हो। फिर पूर भर कर उसे चौथी उंगली (नन्ही उंगली के साथ वाली) से अपनी right नासिका बंद कर कर अन्दर रखना चाहिये।

७. इस प्रकार अच्छे से अन्दर रोक कर, फिर उसे left नासिका से निकालना चाहिये। इस से Vata, पित्त (bile) और बलगम खत्म होते हैं और पाचन शक्ति बढती है।

८. इस से कुण्डली जल्दि ही जाग उठती है, शरीर और नाडियाँ पवित्र होती हैं, आनन्द प्राप्त होता है और भला होता है। इस से बलगम दूर होती है और ब्रह्म नाडी के मुख पर एकत्रित अशुद्धता दूर होती है।

९. इस बस्त्रिका को खूब करना चाहिये क्योंकि इस से तीनो गाँठें खुलती हैं - ब्रह्म गन्ठी (छाती में), विष्णु गन्ठी (गले में) और रुद्र गन्ठी (eyebrows के बीच में)।

भ्रमरी

१. वायु को शक्ति भ्रिंगी (wasp) की आवाज करते हुये भर कर, और फिर उसे वही आवाज करते हुये धीरे धीरे निकालें। यह अभ्यास योगिन्द्रों को अद्भुत आनन्द देता है।मूर्छा१. पूरक (अन्दर साँस लेने) के अन्त में, साँस लेने वाली नाडी को जल्न्धर बन्ध द्वारा अच्छे से बंद करना, और फिर वायु को धीरे धीरे निकालना, इसे मूर्छा कहा जाता है, क्योंकि इस से मन का वेग शान्त होता है और सुख मिलता है।प्लविनी (किशती के समान)

१. चब पेट में हवा भरी जाती है और शरीर में भरपूर पूरी तरह से हवा भर ली जाये, तो गहरे से गहरे पानी में भी शरीर कमल के पत्ते की तरह तैरने लगता है।

२. पूरक (अन्दर लेना), रेचक (बाहर छोडना) और कुम्भक (अन्दर रोकना) - इस तरह से देखा जाये तो प्राणायम तीन भागों में विभक्त है। लेकिन अगर इसे पूरक और रेचन के साथ, और इन के बिना - इस प्रकार देखा जाये तो यह दो ही प्रकार का है - सहित (पूरक और रेचन के साथ) और केवल (केवल कुम्भक)।

३. सहित का अभ्यास तब तक करते रहना चाहिये जब तक केवल प्राप्त न हो जाये। केवल का अर्थ है वायु को अन्दर रखना बिना किसी मुश्किल के, बिना साँस लिये या निकाले।

४. केवल प्राणायम के अभ्यास में, जब उसे ठीक प्रकार से रेचक और पूरक के बिना किया जा सके तो उसे केवल कुम्भक कहते हैं।

५. उस के लिये इस संसार में कुछ भी प्राप्त करना कठिन नहीं है, जो अपनी इच्छा अनुसार वायु को अन्दर रोक कर रख सकता है केवल कुम्भक के माध्यम से।

६. उसे असंशय रूप से राज योग प्राप्त हो जाती है। उस कुम्भक द्वारा कुण्डली जागरित होती है और उसके जागरित होने से सुशुम्न नाडी (बीच की नाडी) अशुद्धता मुक्त हो जाती है।

७. राज योग में हठ योग के बिना कोई सफलता नहीं मिल सकती, और हठ योग में राज योग के बिना कोई सफलता नहीं है। इसलिये, मनुष्य को इन दोनो का ही जम कर अभ्यास करना चाहिये जब तक पूर्ण सिद्धि न प्राप्त हो जाये।

८. कुम्भक के अन्त में मन को आराम देना चाहिये। इस प्रकार अभ्यास करने से मनुष्य राज योग की पद को प्राप्त कर लेता है।

हठ योग के पथ में सिद्धि के लक्षण

१. जब शरीर पतला हो जाये, मुख आनन्द से उज्वल हो जाये, अनहत नाद उत्पन्न हो, आँखें साफ हो जायें, शरीर निरोग हो जाये, बिंदु पर काबु हो जाये, भूख बढ जाये - तब योगी को जानना चाहिये की नाडीयाँ स्वच्छ हो गईं हैं और हठ योग में सिद्धि निकट आ रही है।