श्रीमैत्रेयजी बोले-
हे भगवन् ! जो ब्रह्म, निर्गुण, अप्रमेय, शुद्ध और निर्मलात्मा है उसका सर्गादिका कर्त्ता होना कैसे सिद्ध हो सकता है ? ॥१॥
श्रीपराशरजी बोले-हे तपस्वियोंमें श्रेष्ठ मैत्रेय ! समस्त भाव - पदार्थोकीं शक्तियाँ अचिन्त्य - ज्ञानकी विषय होती हैं; ( उनमें कोई युक्ति काम नहीं देती ) अतः अग्निकी शक्ति उष्णताके समान ब्रह्मकी भी सर्गादिरचनारूप शक्तियाँ स्वाभाविक हैं ॥२॥
अब जिस प्रकार नारायण नामक लोक-पितामय भगवान ब्रह्माजी सृष्टिकी रचनामें प्रवृत्त होते हैं सो सुनो । हे विद्वन् ! वे सदा उपचारसे ही 'उप्तन्न हुए' कहलाते हैं ॥३-४॥
उनके अपने परिमाणसे उनकी आयु सौ वर्षकी कहीं जाती है । उस ( सौ वर्ष ) का नाम पर है, उसका आधा परार्द्ध कहलाता है ॥५॥
हे अनघ ! मैनें जो तुमसे विष्णुभगवानका कालस्वरूप कहा था उसीके द्वारा उस ब्रह्माकी तथा और भी जो पृथिवी, पर्वत, समुद्र आदि चराचर जीव हैं उनकी आयुका परिमाण किया जाता है ॥६-७॥
हे मुनिश्रेष्ठा ! पन्द्रह निमेषको काष्ठा कहते हैं, तीस काष्ठाकी एक कला तथा तीस कलाका एक मुहूर्त होता है ॥८॥
तीस मुहूर्तका मनुष्यका एक दिन-रात कहा जाता है और उतने ही दीन-रातका दो पक्षयुक्त एक मास होता है ॥९॥
छः महीनोंका एक अयन और दक्षिणायन तथा उत्तरायण दो अयन मिलकर एक वर्ष होता है । दक्षणायन देवताओंकी रात्रि है और उत्तरायण दिन ॥१०॥
देवताओंके बारह हजार वर्षोकें सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग नामक चार युग होते हैं । उनका अलग अलग परिमाण मैं तुम्हें सुनाता हूँ ॥११॥
पुरातत्वके जाननेवाले सतयुग आदिका परिमाण क्रमशः चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष बतलाते हैं ॥१२॥
प्रत्येक युगके पूर्व उतने ही सौ वर्षकी सन्ध्या बतायी जाती है और युगके पीछे उतने ही परिमाणवाले सन्ध्यांश होते हैं ( अर्थात् सतयुग आदिके पूर्व क्रमशः चार, तीन दो और एक सौ दिव्य वर्षकी सन्ध्याएँ और इतने ही वर्षके सन्ध्यांश होते हैं ) ॥१३॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इन सन्ध्या और सन्ध्यांशोंके बीचका जितना काल होता है, उसे ही सतयुग आदि नामवाले युग जानना चाहिये ॥१४॥
हे मुने ! सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि ये मिलकर चतुर्युग कहलाते हैं; ऐसे हजार चतुर्युगका ब्रह्मका एक दिन होता है ॥१५॥
हे ब्रह्मन् ! ब्रह्माके एक दिनमें चौदह मनु होते हैं । उनका कालकृत परिमाण सुनो ॥१६॥
सप्तार्षि, देवगण, इन्द्र, मनु और मनुके पुत्र राजालोक ( पूर्व-कल्पानुसार ) एक ही कालमें रचे जाते हैं और एक ही कालमें उनका संहार किया जाता है ॥१७॥
हे सत्तम ! इकहत्तर चतुर्यगसे कुछ अधिक * कालका एक मन्वन्तर होता है । यही मनु और देवता आदिका काल है ॥१८॥
इस प्रकार दिव्य वर्ष- गणनासे एक मन्वन्तरमें आठ लाख बावन हजार वर्ष बताये जाते हैं ॥१९॥
तथा हे महामुने ! मानवी वर्ष-गणनाके अनुसार मन्वन्तरका परिमाण पूरे तीस करोड़ सरसठ लाख बीस हजार वर्ष है, इससे अधिक नहीं ॥२०-२१॥
इस कालका चौदह गुना ब्रह्माका दिन होता हैं, इसके अनन्तर नैमित्तिक नामवाला ब्राह्मा-प्रलय होता है ॥२२॥
उस समय भूर्लोकं भुवर्लोक और स्वर्लोक तीनों जलनें लगते हैं और महर्लोकमें रहनेवाले सिद्भगण अति सन्तप्त होकर जनलोकको चले जाते हैं ॥२३॥
इस प्रकार त्रिलोकीके जलमय हो जानेपर जनलोकवासी योगियोंद्वारा ध्यान किये जाते हुए नारायणरूप कमलयोनि ब्रह्माजी त्रिलोकीके ग्राससे तृप्त होकर दिनके बराबर ही परिमाणवाली उस रात्रिमें शेषशय्यापर शयन करते हैं और उसके बीत जानेपर पुनः संसारकी सृष्टी करते हैं ॥२४-२५॥
इसी प्रकार ( पक्ष, मास आदि ) गणनासे ब्रह्माका एक वर्ष और फिर सौ वर्ष होते हैं । ब्रह्माके सौ वर्ष ही उस महात्मा ( ब्रह्मा ) की परमायु हैं ॥२६॥
हे अनघ ! उन ब्रह्माजीका एक परार्द्ध बीत चुका है । उसके अन्तमें पाद्य नामसे विख्यात महाकल्प हुआ था ॥२७॥
हे द्विज ! इस समय वर्तमान उनके दुसरे परार्द्धका यह वाराह नामक पहला कल्प कहा गया है ॥२८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
* इकहत्तर चतुर्युगके हिसाबसे चौदह मन्वन्तरोंमें ९९४ चतुर्युग होते हैं और ब्रह्माके एक दिनमें एक हजार चतुर्युग होते हैं, अतः छः चतुर्युग और बचे । छः चतुर्युगका चौदहवाँ भाग कुछ कम पाँच हजार एक सौ तीन दिव्य वर्ष होता है, इस प्रकार एक मन्वन्तरमें इकहत्तर चतुर्युगके अतिरिक्त इतने दिव्य वर्ष और अधिक होते है ।
श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - 1
भारतीय जीवन-धारा में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है, पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।