श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - 1

भारतीय जीवन-धारा में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है, पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।


श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १३


 
श्रीपराशरजी बोले - 
हे मैत्रेय ! ध्रुवसे ( उसकी पत्नीने ) शिष्टि और भव्यको उत्पन्न किया और भव्यसे शम्भुका जन्म हुआ तथा शिष्टिके द्वारा उसकी पत्नी सुच्छायाने रिपु, रिपुत्र्जय, विप्र, वृकत और वृकतेजा नामक पाँच निष्पाप पुत्र उप्तन्न किये । उनमेंसे रिपुके द्वारा बृहतीके गर्भसे महातेजस्वी चाक्षुषका जन्म हुआ ॥१-२॥
चाक्षुषने अपनी भार्या पुष्करणीसे, जो वरूण - कुलमें उप्तन्न और महात्मा वीरण प्रजापतिकी पुत्री थी, मनुको उप्तन्न किया ( जो छठे मन्वन्तरके अधिपति हुए ) ॥३॥
तपस्वियोंमें श्रेष्ठ मनुसे वैराज प्रजापतिकी पुत्री नंवलाके गर्भमें दस महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुए ॥४॥
नंवलासे कुरु, पुरु, शतद्युम्र, तपस्वी, सत्यवान्, शुचि, अग्निष्टोम, अतिरात्र तथा नवाँ सुद्युम्र और दसवाँ अभिमन्यु इन महातेजस्वी पुत्रोंका जन्म हुआ ॥५॥
कुरुके द्वारा उसकी पत्नी आग्नेयीने अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और शिबि इन छः परम तेजस्वी पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥६॥
अंगसे सुनीथाके वेन नामक पुत्र उप्तन्न हुआ । ऋषियोंने उस ( वेन ) के दाहिने हाथका सन्तानके लिये मन्थन किया था ॥७॥
हे महामुने ! वेनके हाथका मन्थन करनेपर उससे वैन्य नामक महीपाल उप्तन्न हुए जो पृथु नामसे विख्यात है और जिन्होंने प्रजाके हितके लिये पूर्वकालमें पृथिवीको दुहा था ॥८-९॥
श्रीमैत्रेयजी बोले - 
हे मुनिश्रेष्ठ ! परमर्षियोंने वेनके हाथको क्यों मथा जिससे महापराक्रमी पृथुका जन्म हुआ ? ॥१०॥
श्रीपराशरजी बोले - 
हे मुने ! मृत्युकी सुनीथा नामवाली जो प्रथम पुत्री थी वह अंगको पत्नीरूपसे दी ( व्याही ) गयी थी । उसीसे वेनका जन्म हुआ ॥११॥
हे मैत्रेय ! वह मृत्युकी कन्याका पुत्र अपने मातामह ( नाना ) के दोषसे स्वभावसे ही दुष्टप्रकृति हुआ ॥१२॥
उस वेनका जिस समय महर्षियोंद्वारा राजपदपर अभिषेक हुआ उसी समय उस पृथिवीपतिने संसारभरमें यह घोषणा कर दी कि 'भगवान्, यज्ञपुरुष मैं ही हूँ मुझसे अतिरिक्त यज्ञका भोक्ता और स्वामी हो ही कौन सकता है ? इसलिये कभी कोई यज्ञ, दान और हवन आदि न करें' ॥१३-१४॥
हे मैत्रेय ! तब ऋषियोंने उस पृथिवीपतिके पास उपस्थित हो पहले उसकी खुब प्रशंसा कर सान्त्वनायुक्त मधुर वाणीसे कहा ॥१५॥
ऋषिगण बोले - हे राजन् ! हे पृथिवीपते ! तुम्हारे राज्य और देहके उपकार तथा प्रजाके हितके लिये हम जो बात कहते हैं, सुनो ॥१६॥
तुम्हारा कल्याण हो; देखो, हम बडे़-बडे़ यज्ञोंद्वारा जो सर्व - यज्ञेश्वर देवाधिपति भगवान् हरिका पूजन करेंगे उसके फलमेंसे तुमको भी ( छठ ) भाग मिलेगा ॥१७॥
हे नृप ! इस प्रकार यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर हमलोगोंके साथ तुम्हारी भी सकल कामनाएँ पूर्ण करेंगे ॥१८॥
हे राजन् जिन राजाओंके राज्यमें यज्ञेश्वर भगवान् हरिका यज्ञोंद्वारा पूजन किया जाता है, वे उनकी सभी कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं ॥१९॥
वेन बोला - मुझसे भी बढ़कर ऐसा और कौन है जो मेरा भी पूजनीय है ? जिसे तुम यज्ञेश्वर मानते हो वह 'हरि' कहलानेवाली कौन है ? ॥२०॥
ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, इन्द्र, वायु , यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, धाता, पूषा, पृथिवी और चन्द्रमा तथा इनके अतिरिक्त और भी जितने देवता शाप और कृपा करनेमें समर्थ हैं वे सभी राजाके शरीरमें निवास करते हैं, इस प्रकार राजा सर्वदेवमय है ॥२१-२२॥
हे ब्राह्मणो ! ऐसा जानकर मैंने जैसी जो कुछ आज्ञा की है वैसा ही करो । देखो, कोई भी दान, यज्ञ और हवन आदि न करे ॥२३॥
हे द्विजगण ! स्त्रीका परमधर्म जैसे अपने पतिकी सेवा करना ही माना गया है वैसे ही आपलोगोंका धर्म भी मेरी आज्ञाका पालन करना ही है ॥२४॥
ऋषिगण बोले - महाराज ! आप ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे धर्मका क्षय न हो ! देखिये, यह सारा जगत् हवि ( यज्ञमें हवन की हुई सामग्री ) का ही परिणाम है ॥२५॥
श्रीपराशरजी बोले - महर्षियोंके इस प्रकार बारम्बार समझाने और कहने सुननेपर भी जब वेनने ऐसी आज्ञा नहीं दी तो वे अत्यन्त क्रुद्ध और अमर्षयुक्त होकर आपसमें कहने लगे - 'इस पापीको मारो, मारो ! ॥२६-२७॥
जो अनादि और अनन्त यज्ञपुरुष प्रभु विष्णुकी निन्दा करता है वह अनाचारी किसी प्रकार पृथिवीपति होनेके योग्य नहीं है' ॥२८॥
ऐसा कह मुनिगणोंने भगवान्‌की निन्दा आदि करनेके कारण पहले ही मरे हुए उस रजाअको मन्त्रसे पवित्र पवित्र किये हुए कुशाओंसे मार डाला ॥२९॥
हे द्विज ! तदनन्तर उन मुनीश्वरोंने सब और बड़ी धूलि उठती देखी, उसे देखकर उन्होंने अपने निकटवर्ती लोगोंसे पूछा - " यह क्या है ? " ॥३०॥
उन पुरुषोंने कहा - "राष्ट्रके राजाहीन हो जानेसे दीन-दुःखिया लोगोंने चोर बनकर दूसरोंका धन लूटना आरम्भ कर दिया है ॥३१॥
हे मुनिवरो ! उन तीव्र वेगवाले परधनहारी चारोंके उत्पातसे ही यह बड़ी भारी धूलि उड़ती दीख रही हैं" ॥३२॥
तब उन सब मुनीश्वरोंने आपसमें सलाह कर उस पुत्रहीन राजाकी जंघाका पुत्रके लिये यत्नपूर्वक मन्थन किया ॥३३॥
उसकी जंघाके मथनेपर उससे एक पुरुष उत्पन्न हुआ जो जले ठूँठके समान काला, अत्यन्त नाटा और छोटे मुखवाला था ॥३४॥
उसने अति आतुर होकर उन सब ब्राह्मणोंसे कहा - ' मैं क्या करूँ ? ' उन्होंने कहा - "निषीद ( बैठ )" अतः वह 'निषाद कहलाया ॥३५॥
इसलिये हे मुनिशार्दुल ! उससे उप्तन्न हुए लोग विन्ध्याचलनिवासी पाप-परायण निषादगण हुए ॥३६॥
उस निषादरूप द्वारसे राजा वेनका सम्पूर्ण पाप निकल गया । अतः निषादगण वेनके पापोंका नाश करनेवाले हुए ॥३७॥
फिर उन ब्राह्मणोंने उसके दायें हाथका मन्थन किया । उसका मन्थन करनेसे परमप्रतापी वेनसुवन पृथु प्रकट हुए, जो अपने शरीरसे प्रज्वलित अग्निके समान देदीप्मान थे ॥३८-३९॥
इसी समय आजगव नामक आद्य ( सर्वप्रथम ) शिव - धनुष और दिव्य वाण तथा कवच आकाशसे गिरे ॥४०॥
उसके उप्तन्न होनेसे सभी जीवोंको अति आनन्द हुआ और केवल सत्पुत्रके ही जन्म लेनेसे वेन भी स्वर्गलोककों चला गया । इस प्रकार महात्मा पुत्रके कारण ही उसकी पुम् आर्थात नरकसे रक्षा हुई ॥४१-४२॥
महाराज पृथुके अभिषेकके लिये सभी समुद्र और नदियाँ सब प्रकारके रत्न और जल लेकर उपस्थित हुए ॥४३॥
उस समय आंगिरस देवगणोंके सहित पितामह ब्रह्माजीने और समस्त स्थावर जंगम प्राणोयोने वहाँ आकर महाराज वैन्य ( वेनपुत्र ) का राज्याभिषेक किया ॥४४॥ 
उनके दाहिने हाथमें चक्रका चिह्न देखकर उन्हें विष्णुका अंश जान पितामह ब्रह्माजीको परम आनन्द हुआ ॥४५॥
यह श्रीविष्णुभगवान्‌के चक्रका चिह्न सभी चक्रवर्ती राजाओंके हाथमें हुआ करता है । उसका प्रभाव कभी देवताओंसे भी कुण्ठित नहीं होता ॥४६॥
इस प्रकार महतेजस्वी और परम प्रतापी वेनपुत्र धर्मकुशल महानुभावोंद्वारा विधिपूर्वक अति महान् राजाराजेश्वरपदपर अभिषिक्त हुए ॥४७॥
जिस प्रजाको पिताने अपरक्त ( अप्रसन्न ) किया था उसीको उन्होंने अनुरत्र्जित ( प्रसन्न ) किया, इसलिये अनुरज्त्रन करनेसे उनका नाम 'राजा' हुआ ॥४८॥
जब वे समुद्रमें चलते थे, तो जल बहनेसे रुक जाता था, पर्वत उन्हें मार्ग देते थे और उनकी ध्वजा कभी भंग नहीं हुई ॥४९॥
पृथिवी बिना जोते - बोये धान्य पकानेवाली थी; केवल चिन्तनमात्रसे ही अन्न सिद्ध हो जाता था, गौएँ कामधेनुरूपा थीं और पत्ते - पत्तेमें मधु भरा रहता था ॥५०॥
राजा पृथुने उप्तन्न होते ही पैतामह यज्ञ किया; उससे सोमाभिषवके दिन सूति ( सोमाभिषवभूमि ) से महामति सुतकी उप्तत्ति हुई ॥५१॥
उसी महायज्ञमें बुद्धिमान् मागधका भी जन्म हुआ । तब मुनिवरोंने उन दोनों सूत और मागधोंसे कहा - ॥५२॥
'तुम इन प्रतापवान् वेनपुत्र महाराज पृथुकी स्तुति करो । तुम्हारे योग्य यही कार्य है और राजा भी स्ततिके ही योग्य हैं' ॥५३॥
तब उन्होंने हाथ जोड़कर सब ब्राह्मणोंसे कहा - 'ये महाराज तो आज ही उप्तन्न हुए हैं, हम इनके न तो कोई कर्म तो जानते ही नहीं हैं ॥५४॥
अभी इनके न तो कोई गुण प्रकट हुए हैं और न यश ही विख्यात हुआ है; फिर कहिये, हम किस आधारपर इनकी स्तुति करें " ॥५५॥
ऋषिगण बोले - ये महाबाली चक्रवर्ती महाराज भविष्यमें जो-जो कर्म करेंगे और इनके जो-जो भावी गुण होंगे उन्हींसे तुम इनका स्तवन करो ॥५६॥
श्रीपराशरजी बोले - यह सुनकर राजाको भी परम सन्तोष हुआः उन्होंने सोचा 'मनुष्य सद्‌गुणोंके कारण ही प्रशंसाका पात्र होता हैं; अतः मुझको भी गुण उपार्जन करने चाहिये ॥५७॥
इसलिये अब स्तुतिके द्वारा ये जिन गुणोंका वर्णन करेंगे मैं भी सावधानतापूर्वक वैसा ही करूँगा ॥५८॥
यदि यहाँपर ये कुछ त्याज्य अवगुणोंको भी कहेंगे तो मैं उन्हें त्यागूँगा । 'इस प्रकार राजाने अपने चित्तमें निश्चय किया ॥५९॥
तदनन्तर उन ( सूत और मागध ) दोनोंने परम बुद्धिमान् वेननन्दन उन ( सूत और मागध ) दोनोंने परम बुद्धिमान वेननन्दन महाराज पृथुका, उनके भावी कार्मोकें आश्रयसे स्वरसहित भली प्रकार स्तवन किया ॥६०॥
( उन्होंने कहा - ) ' ये महाराज सत्यवादी, दानशील, सत्यमर्यादावाले, लज्जाशील, सुहृद्, क्षमाशील, पराक्रमी और दुष्टोंका दमन करनेवाले हैं ॥६१॥
ये धर्मज्ञ, कृतज्ञ, दयावान्, प्रियभाषी, माननीयोंको मान देनेवाले, यज्ञपरायण, ब्रह्माण्य, साधुसमाजमें सम्मानित और शत्रु तथा मित्रके साथ समान व्यवहार करनेवाले हैं' ॥६२-६३॥
इस प्रकार सूत और मागधके कहे हुए गुणोंको उन्होंने अपने चित्तमें धारण किया और उसी प्रकारके कार्य किये ॥६४॥
तब उन पृथिवीपतिने पृथिवीका पालन करते हुए बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले अनेकों महान् यज्ञ किये ॥६५॥
अराजकताके समय ओषाधियोंके नष्ट हो जानेसे भूखसे व्याकुल हुई प्रजा पृथिवीनाथ पृथुके पास आयी और उनके पूछनेपर प्रमाण करके उनसे अपने आनेका कारण निवेदन किया ॥६६॥
प्रजाने कहा - हे प्रजापति नृपश्रेष्ठ ! अराजकताके समय पृथिवीने समस्त ओषधियाँ अपनेमें लीन कर ली हैं अतः आपकी सम्पूर्ण प्रजा क्षीण हो रही है ॥६७॥
विधाताने आपको हमारा जीवनदायक प्रजापति बनाया है; अतः क्षुधारूप महारोगसे पीड़ित हम प्रजाजनोंको आप जीवनरूप ओषधि दीजिये ॥६८॥
श्रीपराशरजी बोले - 
यह सुनकर महाराज पृथु अपना आजगव नामक दिव्य धनुष और दिव्य बाण लेकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक पृथिवीके पीछे दौड़े ॥६९॥
तब भयसे अत्यन्त व्याकुल हुई पृथिवी गौका रूप धारणकर भागी और ब्रह्मालोक आदि सभी लोकोंमें गयी ॥७०॥
समस्त भूतोंको धारण करनेवाली पृथिवी जहाँ-जहाँ भी गयी वहीं- वहीं उसने वेनपुत्र पृथुको शस्त्र सन्धान किये अपने पीछे आते देखा ॥७१॥
तब उन प्रबल पराक्रमी महाराज पृथुसे, उनके वाणप्रहारसे बचनेकी कामनासे काँपती हुई पृथिवी इस प्रकार बोली ॥७२॥
पृथिवीन कहा - हे राजेन्द्र ! क्या आपको स्त्रीवधका महापाप नहीं दीख पड़ता, जो मुझे मारनेपर आप ऐसे उतारू हो रहे है ? ॥७३॥
पृथु बोले - 
जहाँ एक अनर्थकारीको मार देनेसे बहुतोंको सुख प्राप्त हो उसे मार देना ही पूण्यप्रद है ॥७४॥
हे नृपश्रेष्ठ ! यदि आप प्रजाके हितके लिये ही मुझे मारना चाहते है तो ( मेरे मर जानेपर ) आपकी प्रजाका आधार क्या होगा ? ॥७५॥
पृथुने कहा - 
अरी वसुधे ! अपनी अज्ञाका उल्लंघन करनेवाली तुझे मारकर मैं अपने योगबलसे ही इस प्रजाको धारण करुँगा ॥७६॥
श्रीपराशरजी बोले - 
तब अत्यन्त भयभीत एवं काँपती हूई पृथिवीने उन पृथिवीपतिको पुनः प्रणाम करके कहा ॥७७॥
पृथिवी बोली - 
हे रजान् ! यत्नपूर्वक आरम्भ किये हुए सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । अतः मैं भी आपको एक उपाय बताती हूँ; यदि आपकी इच्छा हो तो वैसा हो करें ॥७८॥
हे नरनाथ ! मैंने जिन समस्त ओषधियोंको पचा लिया है उन्हें यदि आपकी इच्छा हो तो दुग्धरूपसे मैं दे सकती हूँ ॥७९॥
अतः हे धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महाराज ! आप प्रजाके हितके लिये कोई ऐसा वत्स ( बछड़ा ) बनाइये जिससे वात्सल्यवश मैं उन्हें दुग्धरूपसे निकाल सकूँ ॥८०॥
और मुझको आप सर्वत्र समतल कर दीजिये जिससें मैं उत्तमोत्तम ओषधियोंके बीजरूप दुग्धको सर्वत्र उप्तन्न कर सकूँ ॥८१॥
श्रीपराशरजी बोले - तब महाराज पृथुने अपने धनुषकी कोटिसे सैकड़ों - हजारों पर्वतोंको उखाड़ा और उन्हें एक स्थानपर इकट्ठा कर दिया ॥८२॥
इससे पुर्व पृथिवीके समतल न होनेसे पुर और ग्राम आदिका कोई नियमित विभाग नहीं था ॥८३॥
हे मैत्रेय ! उस समय अन्न, गोरक्ष, कृषि और व्यापारका भी कोई क्रम न था । यह सब तो वेनपुत्र पृथुके समयसे ही आरम्भ हुआ है ॥८४॥
हे द्विजोत्तम ! जहाँ-जहाँ भूमि समतल थी वहीं वहींपर प्रजाने निवास करना पसन्द किया ॥८५॥
उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल मुलादि ही था;वह भी ओषधियोंके नष्ट हो जानेसे बड़ा दुर्लभ हो गया था ॥८६॥
तब पृथिवेपति पृथुने स्वायम्भुवमनुको बछड़ा बनाकर अपने हाथमें ही पृथवीसे प्रजाके हितसे लियें समस्त धान्योंको दुहा । हे तात ! उसी अन्नके आधारसे अब भी सदा प्रजा जीवित रहती है ॥८७-८८॥
महाराज पृथु प्राणदान करनेके कारण भूमिके पिता हुए* इसलिये उस सर्वभूतधारिणोको 'पृथिवी' नाम मिला ॥८९॥
हे मुने ! फिर देवता, मुनि, दैत्य, राक्षस, पर्वत, गन्धर, सर्प , यक्ष और पितृगण आदिने अपने अपने पात्रोंमें अपना अभिमत दुध दुहा तथा दुहनेवालोंके अनुसार उनके सजातीय ही दोग्धा और वत्स आदि हुए ॥९०-९१॥
इसीलिये विष्णुभगवान्‌के चरणोंसे प्रकट हुई यह पृथिवी ही सबको जन्म देनेवाली, बनानेवाली तथा धारण और पोषण करनेवाली है ॥९२॥
इस प्रकार पूर्वकालमें वेनके पुत्र महाराज पृथु ऐसे प्रभावशाली और वीर्यवान् हुए । प्रजाका रत्र्जन करनेके कारण वे 'राजा' कहलाये ॥९३॥
जो मनुष्य महाराज पृथुके इस चरित्रका कीर्तन करता है उसका कोई भी दुष्कर्म फलदायी नहीं होता ॥९४॥
पृथुका यह अत्युत्तम जन्म वृत्तान्त और उनदा प्रभाव अपने सुननेवाले पुरुषोंके दुःखप्रोंको सर्वदा शान्त कर देता है ॥९५॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥
* जन्म देनेवाला, यज्ञोपवीत करानेवाला, अन्नदाता, भयसे रक्षा करनेवाला तथा जो विद्यादान करे - ये पाँचों पिता मागे गये हैं; जैसे कहा है - जनकाश्चोपनेता च यश्च विद्याः प्रयच्छति । अन्नदाता भयत्राता पत्र्चैते पितरः स्मृताः ॥