विष्णुपुराण प्रथम सर्ग Vishnu Puran

विष्णुपुराण भगवान विष्णु की कथा तथा महिमा सुनती है। इसके पठान से सरे दोष निवारण होते है।


श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ६


 
श्रीमैत्रेयजी बोले- 
हे भगवान् ! आपने जो अर्वाक् स्त्रोता मनुष्योंके विषयमें कहा उनकी सृष्टि ब्रह्माजीने किस प्रकार की यह विस्तारपूर्वक कहिये ॥१॥
श्रीप्रजापतिने ब्राह्मणादि वर्णको जिन जिन गुणोंसे युक्त और जिस प्रकार रचा तथा उनके जो- जो कर्वत्य कर्म निर्धारित किये वह सब वर्णन किजिये ॥२॥
श्रीपराशरजी बोले - 
द्विजश्रेष्ठ ! जगत्-रचनाकी इच्छासे युक्त सत्यसंकल्प श्रीब्रह्माजीके मुखसे पहले सत्त्वप्रधान प्रजा उप्तन्न हुई ॥३॥
तदनन्तर उनके वक्षःस्थलसे रजः प्रधान तथा जंघाओंसे रज और तमविशिष्ट सृष्टि हुई ॥४॥
हे द्विजोत्तम ! चरणोंसे ब्रह्माजीने एक और प्रकारकी प्रजा उप्तन्न की, वह तमः प्रधान थी । ये ही सब चारों वर्ण हुए ॥५॥
इस प्रकार हे द्विजसत्तम ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारी क्रमशः ब्रह्माजीके मुख्य, वृक्षः स्थल, जानु और चरणोमें उप्तन्न हुए ॥६॥
हे महाभाग ! ब्रह्माजीने यज्ञानुष्ठानके लिये ही यज्ञके उत्तम साधनरूप इस सम्पूर्ण चातुर्वर्ण्यकी रचना की थी ॥७॥
हे धर्मज्ञ ! यज्ञसे तृप्त होकर देवगण जल बरसाकर प्रजाको तृप्त करते हैं; अतः यज्ञ सर्वथा कल्याणका हेतु है ॥८॥
जो मनुष्य सदा स्वधर्मपरायण, सदाचारी, सज्जन और सुमार्गगामी होते हैं उन्हीसें यज्ञका यथावत् अनुष्ठान हो सकता है ॥९॥
हे मुने ! ( यज्ञके द्वारा ) मनुष्य इस मनुष्य शरीरसे ही स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त कर सकते हैं; तथा और भी जिस स्थानकी उन्हें इच्छा हो उसीको जा सकते हैं ॥१०॥
हे मुनिसत्तम ! ब्रह्माजीद्वारा रची हुई वह चातुर्वर्ण्य विभागमें स्थित प्रजा अति श्रद्धायुक्त आचरणवाली, स्वेच्छानुसार रहनेवाली, सम्पूर्ण बाधाओंसे रहित, शुद्ध अन्तःकरणवाली, सत्कुलोप्तन्न और पुण्य कर्मोके अनुष्ठानसे परम पवित्र थी ॥११-१२॥
उसका चित्त शुद्ध होनेके कारण उसमें निरन्तर शुद्धस्वरूप श्रीहरिके विराजमान रहनेसे उन्हें शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था जिससे वे भगवानके उस 'विष्णु' नामक परम पदको देख पाते थे भगवान्‌के उस 'विष्णु' नामक परम पदको देख पाते थे ॥१३॥
फिर ( त्रेतायुगके आरम्भमें ) हमने तुमसे भगवान्‌के जिस काल नामक अंशका पहले वर्णन किया है, वह अति अल्प सारवाले ( सुखवाले ) तुच्छ और घोर ( दुःखमय ) पापोंको प्रजामें प्रवृत्त कर देता है ॥१४॥
हे मैत्रेय ! उससे प्रजामें पुरुषार्थका विघातक तथा अज्ञान और लोभको उप्तन्न करनेवाला रागादिरूप अधर्मका बीज उत्पन्न हो जाता है ॥१५॥
तभीसे उसे वह विष्णु पद प्राप्ति रूप स्वाभाविक सिद्धि और रसोल्लास आदि अन्य अष्ट सिद्धियाँ * नहीं मिलतीं ॥१६॥
उन समस्त सिद्धियोंके क्षीण हो जाने और पापके बढ़ जानेसे फिर सम्पूर्ण प्रजा द्वन्दु, ह्यास और दुःखसे आतुर हो गयी ॥१७॥
तब उसने मरुभूमि, पर्वत और जल आदिके स्वाभाविक तथ कृत्रिम दुर्ग और पुर तथा खर्वट** आदि स्थापित किये ॥१८॥
हे महामते ! उन पुर आदिकोंमें शीत और घाम आदि बाधाओंसे बचनेके लिये उसने यथायोग्य घर बनाये ॥१९॥
इस प्रकर शीतोष्णादिसे बचनेका उपाय करके उस प्रजाने जीविकाके साधनरूप कृषि तथा कला-कौशल आदिकी रचना की ॥२०॥
हे मुने ! धान, जौ, गेहूँ, छोटे धान्य,तिल काँगनी , ज्वार , कोदो, छोटी मटर, उड़्द, मूँग, मसूर, बड़ी मटर, कुलथी, राई , चना और सन- ये सत्रह ग्राम्य ओषधियोंकी जतियाँ हैं । ग्राम्य और वन्य दोनों प्रकारकी मिलाकर कुल चौदह ओषधियाँ याज्ञिक हैं । उनके नाम ये हैं-धान, जौ, उड़्द, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, काँगनी और कुलथी ये आठ तथा श्यामाक ( समाँ ), नीबार, वनतिल, गवेधु, वेणुयव और मर्कट ( मक्का ) ॥२१-२५॥
ये चौदह ग्राम्य और वन्य ओषधियाँ यज्ञानुष्ठानकी सामग्री हैं और यज्ञ इनकी उप्तत्तिका प्रधान हेतु है ॥२६॥
यज्ञौके सहित ये औषधियाँ प्रजाकी वृद्धिका परम कारण हैं, इसलियें इहलोक परलोकके ज्ञाता पुरुष यज्ञोंका अनुष्ठान किया करते हैं ॥२७॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! नित्यप्रति किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान मनुष्योंका परम उपकारक और उनके किये हुए पापोंको शान्त करनेवाला है ॥२८॥
हे महामुने ! जिनके चित्तमें कालकी गतिसे पापका बीज बढता हैं उन्हीं लोगोंका चित्त यज्ञमें प्रवृत्त नहीं होता ॥२९॥
उन यज्ञके विरोधियोंने वैदिक मत, वेद और यज्ञादि कर्म- सभीकी निन्दा की है ॥३०॥
वे लोग दुरात्मा, दुराचारी, कुटिलमति, वेद विनिन्दक और प्रवृत्तिमार्गका उच्छेद करनेवाले ही थे ॥३१॥
हे धर्मवानोंमें श्रेष्ठ मैत्रेय ! इस प्रकार कृषि आदि जीविकाके साधनोंके निश्चित हो जानेपर प्रजापति ब्रह्माजीने प्रजाकी रचना कर उनके स्थान और गुणोंके अनुसार मर्यादा, वर्ण और आश्रमोंके धर्म तथा अपने धर्मका भली प्रकार पालन करनेवाले समस्त वर्णोके लोक आदिकी स्थापना की ॥३२-३३॥
कर्मनिष्ठा ब्राह्मणोंका स्थान पितॄलोक है, युद्ध क्षेत्रसे कभी न हटनेवाले क्षत्रियोंका इन्द्रलोक है ॥३४॥
तथा अपने धर्मका पालन करनेवाले वैश्योंका वायुलोक और सेवाधर्मपरायण शूद्रोंका गन्धर्वलोक है ॥३५॥
अट्ठासी हजार ऊर्ध्वरेता मुनि है; उनका जो स्थान बताया गया है वही गुरुकुलवासी ब्रह्मचारियोंका स्थान है ॥३६॥
इसी प्रकार वनवासी वानप्रस्थोंका स्थान सप्तर्षिलोक, गृहस्थोंका पितृलोक और संन्यासियोंका ब्रह्मलोक है तथा आत्मानुभवसे तृप्त योगियोंका स्थान अमरपद ( मोक्ष ) है ॥३७-३८॥
जो निरन्तर एकान्तसेवी और ब्रह्माचिन्तनमें मग्न रहनेवाले योगिजन हैं उनका जो परमस्थान है उसे पण्डितजन ही देख पाते है ॥३९॥
चन्द्र और सूर्य आदि ग्रह भी अपने अपने लोकोंमे जाकर फिर लौट आते हैं, किन्तु द्वादशाक्षर मन्त्न ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) का चिन्तन करनेवाले अभीतक मोक्षपदसे नहीं लौटे ॥४०॥
तामिस्त्र, अन्धतामिस्त्र, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, घोर, कालसुत्र और अवीचिक आदि जो नरक हैं, वे वेदोंकी निन्दा और यज्ञोंका उच्छेद करनेवाले तथा स्वधर्म विमुख पुरुषोंके स्थान कहे गये हैं ॥४१-४२॥
* रसोल्लासादि अष्ट सिद्धियोंका वर्णन स्कन्दपुराणमें इस प्रकार किया है - 
रसस्य स्वत एवान्तरूल्लासः स्याकृते युगे । रसोल्लासाख्यिक सिद्धिस्तया हन्ति क्षुधं नरः ॥
स्त्र्यादीनां नैरपेक्ष्येण सदा तृप्ता प्रजास्तथा । द्वितीया सिद्धिरुद्दिष्टा सा तृत्पिर्मुनिसत्तमैः ॥
धर्मौत्तमश्च योऽस्त्यासां सा तृतीयाऽमिधीयते । चतुर्थी तुल्यता तासामायुषः सुखरूपयोः ॥
ऐकान्त्यबलबाहुल्यं विशोका नाम पत्र्चमी । परमात्मपरत्वेन तपोध्यानादिनिष्ठिता ॥
षष्ठी च कामचारित्वं सप्तमी सिद्धिरुच्यते । अष्टमी च तथा प्रोक्ता यत्रक्क्चनशायिता ॥
अर्थ- सत्ययुगमें रसका स्वयं ही उल्लास होता था । यहीं रसोल्लास नामकी सिद्धि है, उसके प्रभावसे मनुष्य भूखको नष्ट कर देता है । उस समय प्रजा स्त्री आदि भोगोंकी अपेक्षाके बिना ही सदा तृप्त रहती थी; इसीको मुनिश्रेष्ठोंने 'तृप्ति' नामक दूसरी सिद्धि कहा है । उनका जो उत्तम धर्म था वही उनकी तीसरी सिद्धि कही जाती है । उस समय सम्पूर्ण प्रजाके रूप और आयु एक-से थे, यही उनकी चौथी सिद्धि था । बलकी ऐकान्तिकी अधिकता- यह विशोका नामकी पाँचवीं सिद्धि है । परमात्मपरायण रहते हुए तप ध्यानादिमें तप्तर रहना छठी सिद्धि है । स्वेच्छानुसार विचरना सातवीं सिद्धि कही जाती है तथा जहाँ तहाँ मनकी मौज पडे़ रहना आठवीं सिद्धि कही गयी है ।
** पहाड़ या नदीके तटपर बसे हुए छोटे-छोटे टोलोंको 'खर्वट' कहते हैं ।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे षष्ठोऽध्यायः ॥६॥