श्रीमैत्रेयजी बोले -
हे गुरुदेव ! आपने पृथिवी और समुद्र आदिकी स्थिति तथा सूर्य आदि ग्रहगणके संस्थानका मुझसे भली प्रकार अति विस्तारपूर्वक वर्णन किया ॥१॥
आपने देवता आदि और ऋषिगणोकी सृष्टि तथा चातुर्वण्यं एवं तिर्यक् - योनिगत जीवोंका उप्तत्तिका भी वर्णन किया ॥२॥
ध्रुव और प्रल्हादके चरित्रोंके भी आपने विस्तारपूर्वक सुना दिया । अतः हे गुरो ! अब मैं आपके मुखारविन्दसे सम्पूर्ण मन्वन्तर तथा इन्द्र और देवताओंके सहित मन्वन्तरोंके अधिपति समस्त मनुओंका वर्णन सुनना चाहता हूँ ( आप वर्णन कीजिये ) ॥३-४॥
श्रीपराशरजी बोले - भूतकालमें जितने मन्वन्तर हुए हैं, तथा आगे भी जो-जो होंगे, उन सबका मैं तुमसे क्रमशः वर्णन करता हूँ ॥५॥
प्रथम मनु स्वायम्भुव थे । उनके अनन्तर क्रमशः स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष हुए ॥६॥
ये छः मनु पूर्वकालमें हो चुके हैं । इस समय सूर्यपुत्र वैवस्वत मनु हैं, जिनका यह सातवाँ मन्वन्तर वर्तमान है ॥७॥
कल्पके आदिमें जिस स्वायम्भुव - मन्वन्तरके विषयके मैंने कहा है उसके देवता और सप्तर्षियोंका तो मैं पहले ही यथावत् वर्णन कर चुका हूँ ॥८॥
अब आगे मैं स्वारोचिष मनुके मन्वन्तराधिकारी देवता, ऋषि और मनुपुत्रोंका स्पष्टतया वर्णन करूँगा ॥९॥
हे मैत्रेय ! स्वारोचिषमन्वन्तरमें पारावत और तुषितगण देवता थे, महाबली विपश्चित देवराज इन्द्र थे ॥१०॥
ऊर्ज्ज, स्तम्भ, प्राण, वात, पृषभ, निरय, और परीवान् ये उस समय सप्तार्षि थे ॥११॥
तथा चैत्र और किम्पुरुष आदि स्वारोचिषमनुके पुत्र थे । इस प्रकार तुमसे द्वितीय मन्वन्तरका वर्णन कर दिया । अब उत्तम - मन्वन्तरका विवरण सुनो ॥१२॥
हे ब्रह्मन ! तीसरे मन्वन्तरमें उत्तम नामक मनु और सुशान्ति नामक देवाधिपति इन्द्र थे ॥१३॥
उस समय सुधाम, सत्य, जप, प्रतर्दन और वशवर्ती - ये पाँच बारह- बारह देवताओंके गण थे ॥१४॥
तथा वसिष्ठजीके सात पुत्र सप्तार्षिगण और अज, परशु, एवं दीप्त आदि उत्तममनुके पुत्र थे ॥१५॥
तामस - मन्वन्तरमें सुपार, हरि , सत्य और सुधि - ये चार देवताओंके वर्ग थे और इनमेंसे प्रत्येक वर्गमें सत्ताईस - सताईस देवगण थे ॥१६॥
सौ अश्वमेध यज्ञवाला राजा शिबि इन्द्र था तथा उस समय जो सप्तर्षिगण थे उनके नाम मुझसे सुनो - ॥१७॥
ज्योतिर्धमा, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक और पीवर - ये उस मन्वन्तरके सप्तर्षि थे ॥१८॥
तथा नर, ख्याति, केतुरूप और जानुजंघ, आदि तामसमुनुके महाबली पुत्र ही उस समय राज्यधिकारी थे ॥१९॥
हे मैत्रेय ! पाँचवें मन्वन्तरमें रैवत नामक मनु और विभु नामक इन्द्र हुए तथा उस समय जो देवगण हुए उनके नाम सुनो - ॥२०॥
इस मन्मन्तरमें चौदह - चौदह देवताओंके अमिताभ, भूतरय, वैकुण्ठ और सुमेधा नामक गण थे ॥२१॥
हे विप्र ! इस रैवत - मन्वन्तरमें हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य और महामुनि - ये सात सप्तर्षिगण थे ॥२२॥
हे मुनिसत्तम ! उस समय रैवतमनुके महावीर्यशाली पुत्र बलबन्धु, सम्भाव्य और सत्यक आदि राजा थे ॥२३॥
हे मैत्रेय ! स्वारोचिष , उत्तम, तामस और रैवत - ये चार मनु, राजा प्रियव्रतके वंशधर कहे जाते हैं ॥२४॥
राजर्षि प्रियव्रतने तपस्याद्वारा भगवान् विष्णुकी आराधना करके अपने वंशमें उप्तन्न हुए इन चार मन्वन्तराधिपोंको प्राप्त किया था ॥२५॥
छठे मन्वन्तरमें चाक्षुष नामक मनु और मनोजन नामक इन्द्र थे । उस समय जो देवगण थे उनके नाम सुनो - ॥२६॥
उस समय आप्य, प्रसूत, भव्य, पृथुक और लेख - ये पाँच प्रकारके महानुभाव देवगण वर्तमान थे और इनमेंसे प्रत्येक गणमें आठ - आठ देवता थे ॥२७॥
उस मन्वन्तरमें सुमेधा, विरजा, हविष्मान, उत्तम, मधु, अतिनामा और सहिष्णु - ये सात सप्तर्षि थे ॥२८॥
तथा चाक्षुषके अति बलवान् पुत्र ऊरु, पुरु और शतद्युम्र आदि राज्याधिकारी थे ॥२९॥
हे विप्र ! इस समय इस सातवें मन्वन्तरमें सूर्यके पुत्र महातेजस्वी और बुद्धिमान श्राद्धदेवजी मनु हैं ॥३०॥
हे महामुने ! इस मन्वन्तरमें आदित्य, वस्तु और रुद्र आदि देवगण हैं तथा पुरन्दर नामक इन्द्र हैं ॥३१॥
इस समय वसिष्ठ, काश्यप , अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भरद्वाज - ये सात सप्तर्षि हैं ॥३२॥
तथा वैवस्वत मनुकै इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्यति, नरिष्यन्त, नाभाग, अरिष्ट, करुष और पूषध्र - ये अत्यन्त लोकप्रसिद्ध और धर्मात्मा नो पुत्र हैं ॥३३-३४॥
समस्त मन्वन्तरोंमें देवरूपसे स्थित भगवान् विष्णुकी अनुपम और सत्त्वप्रधाना शक्ति ही संसारकी स्थितकी उसकी अधिष्ठात्री होती हैं ॥३५॥
सबसे पहले स्वायाम्भुव - मन्वन्तरमें मानसदेव यज्ञपुरुष उस विष्णुशक्तिके अंशसे ही आकूतिके गर्भसे उप्तन्न हुए थे ॥३६॥
फिर स्वारोचिष - मन्वन्तरके उपस्थित होनेपर वे मानसदेव श्रीअजित ही तुषित नामक देवगणोंके साथ तुषितासे उप्तन्न हुए ॥३७॥
फिर उत्तम - मन्वन्तरमें वे तुषितदेव ही देवश्रेष्ठ सत्यगणके सहित सत्यरूपसे सत्याके उदरसे प्रकट हुए ॥३८॥
तामस - मन्वन्तरमें प्राप्त होनेपर वे हरि-नाम देवगणके सहित हरिरूपसे हर्याके गर्भसे उप्तन्न हुए ॥३९॥
तत्पश्चात् वे देवश्रेष्ठ हरि, रैवत-मन्वन्तरमें तत्कालीन देवगणके सहित सम्भूतिके उदरसे प्रकट होकर मानस नामसे विख्यात हुए ॥४०॥
तथा चाक्षुष - मन्वन्तरमें वे पुरुषोत्तम भगवान् वैकुण्ठ नामक देवगणोंके सहित विकुण्ठासे उप्तन्न होकर वैकुण्ठ कहलाये ॥४१॥
और हे द्विज ! इस वैवस्वतमन्वन्तरके प्राप्त होनेपर भगवान् ! विष्णु कश्यपजीद्वारा अदितिके गर्भसे वामनरूप होकर प्रकट हुए ॥४२॥
उन महात्मा वामनजीने अपनी तीन डगोंसे सम्पूर्ण लोकोंको जीतकर यह निष्कण्टक त्रिलोकी इन्द्रको दे दी थी ॥४३॥
हे विप्र ! इस प्रकार सातों मन्वन्तरोंमे भगवान्ली ये सात मूतियाँ प्रकट हुई, जिनसे ( भविष्यमें ) सम्पूर्ण प्रजाकी वृद्धि हुई ॥४४॥
यह सम्पूर्ण विश्व उन परमात्माकी ही शक्तिसे व्याप्त है; अतः वे 'विष्णु' कहलाते हैं, क्योंकी 'विशु' धातुका अर्थ प्रवेश करना है ॥४५॥
समस्त देवता, मनु, सप्तर्षि तथा मनुपुत्र और देवताओंके अधिपति इन्द्रगण - ये सब भगवान् विष्णुकी ही विभूतियाँ हैं ॥४६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
विष्णुपुराण - तृतीय अंश Vishnu Puran
विष्णूपुराण भगवान विष्णु की स्तुति बताते है ! इसके पठान से सरे दोष दूर हो जाते है।