असूया - दोषके कारण राजा बाहुकी अवनति और पराजय तथा उनकी मृत्युके
बाद रानीका और्व मुनिके आश्रममें रहना
नारदजीने पूछा -
मुनिश्रेष्ठ ! राजा सगर कौन थे ? वह सब मुझे बतानेकी कृपा करें।
सनकजीने कहा -
मुनिवर ! गंगाजीका उत्तम माहात्म्य सुनिये , जिनके जलका स्पर्श होनेमात्रसे राजा सगरका कुला पवित्र हो गया और सम्पूर्ण लोकोंमें सबसे उत्तम वैकुण्ठ धामको चला गया। सूर्यवंशमें बाहु नामवाले एक राजा हो गये हैं। उनके पिताका नाम वृक था। बाहु बड़े धर्मपरायण राजा थे और सारी पृथीका धर्मपूर्वक पालन करते थे। उन्होंने ब्राह्यण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र तथा अन्य जीवोंको अपने धर्मकी मर्यादामें स्थापित किया था। महाराज बाहुने सातों द्वीपोंमें सात अश्वमेध यज्ञ किये और ब्राह्यणोंको गाय , भूमि , सुवर्ण तथा वस्त्र आदि देकर भलीभाँति तृप्त किया। नीतिशास्त्रके अनुसार उन्होंने चोर - डाकुओंको यथेष्ट दण्ड देकर शासनमें रखा और दूसरोंका संताप दूर करके अपनेको कृतार्थ माना। पृथ्वीपर बिना जोते - बोये अन्न पैदा होता और वह फल - फूलसे भरी रहती भरी रहती थी। मुनीश्वर ! देवराज इन्द्र उनके राज्यकी राज्यकी भूमिपर समयानुसार वर्षा करते थे और पापाचारियोंका अन्त हो जानेके कारण वहाँकी प्रजा धर्मसे सुरक्षित रहती थी।
एक समय राजा बाहुके मनमें असूया ( गुणोंमें दोष - दृष्टि )- के साथ बड़ा भारी अहंकार उत्पन्न हुआ , जो सब सम्पत्तियोंका नाश करनेवाला तथा अपने विनाशका भी हेतु है। वे सोचने लगे - मैं समस्त लोकोंका पालन करनेवाला बलवान् राजा हूँ। मैंने बड़े - बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान किया है। मुझसे पूजनीय दूसरा कौन है ? मैं विद्वान् हूँ , श्रीमान् हूँ। मैने सब शत्रूओंको जीत लिया है। मुझे वेद और वेदाङ्रोंके तत्त्वका ज्ञान है और नीतिशास्त्रका तो मैं बहुत बड़ा पण्डित हूँ। मुझे कोई जीत नहीं सकता। मेरे ऐश्वर्यको हानि नहीं पहुँचा सकता। इस पृथ्वीपर मुझसे बढ़कर दूसरा कौन है ? इस प्रकार अहंकारके वशीभूत होनेपर उनके मनमें दूसरोंके प्रति दोषदृष्टि हो गयी। मुनीश्वर ! दोषदृष्टि होनेसे उस राजाके हृदयमें काम प्रबल हो उठा। इन सब दोषोंके स्थित होनेपर मनुष्यका विनाश होना निश्चित है। यौवन , धनसम्पत्ति , प्रभुता और अविवेक - इनमेंसे एक - एक भी अनर्थका कारण होता है , फिर जहाँ ये चारों मौजूद हों वहाँके लिये क्या कहना ? विप्रवर ! उनके भीतर बड़ी भारी असूया पैदा हो गयी , जो लोकका विरोध , अपने देहका नाश तथा सब सम्पत्तियोंका अन्त करनेवाली होती है। सुव्रत ! असूयासे भरे हुए चित्तवाले पुरुषोंके पास यदि धन - सम्पत्ति मौजूद हो तो उसे भूसेकी आगमें वायुके संयोगके समान समझो। जिनका चित्त दूसरोंके दोष देखनेमें लगा होता है , जो पाखण्डपूर्ण आचारका पालन करते हैं तथा सदा कटुवचन बोला करते हैं , उन्हों इस लोकमें और परलोकमें भी सुख नहीं मिलता। जिनका मन असूया - दोषसे दूषित है तथा जो सदा निष्ठुर भाषण किया करते हैं , उनके प्रियजन , पुत्र तथा भाई - बन्धु भी शत्रु बन जाते हैं। जो परायी स्त्रीको देखकर मन - ही - मन उसे प्राप्त करनेकी अभिलाषा करता है , वह अपनी सम्पत्तिका नाश करनेके लिये स्वयं ही कुठार बन गया है - इसमें संशय नहीं है। मुने ! जो मनुष्य अपने कल्याणका नाश करनेके लिये प्रयत्न करता है , वही दूसरोंका कल्याण देखकर अपनी कुत्सित बुद्धिके कारण उनसे डाह करने लगता है। ब्रह्यन् ! जो मित्र , संतान , गृह क्षेत्र , धन - धान्य और पशु - सबकी हानि देखना चाहता हो , वही सदा दूसरोंसे असूया करे।
तदनन्तर जब राजा बाहुका हृदय असूया - दोषसे दूषित हो जानेके कारण वे अत्यन्त उद्दण्ड हो गये , तब हैहय और तालजङ्र - कुलके क्षत्रिय उनके प्रबल शत्रु बन गये। असूया होनेपर दूरसे जीवोंके साथ द्वेष बहुत बढ़ जाता है - इसमें संदेह नहीं है। असूयासे दूषित चित्तवाले उस राजाका अपने शत्रुओंके साथ लगातार एक मासतक भयंकर युद्ध होता रहा। अन्तमें वे अपने वैरी हैहय और तालजङ्घ नामवाले क्षत्रियोंसे परास्त हो गये। अतः दुःखी होकर राजा बाहु अपनी गर्भवती पत्नीके साथ वनमें चले गये। वहाँ एक बहुत बड़ा तालाब देखकर उन्हें बड़ा संतोष हुआ ; परतु उनके मनमें तो असूया भरी हुई थी , इसलिये उनका भाव देखकर उस जलाशयके पक्षी भी इधर - उधर छिप गये। यह बड़े आश्चर्यकी बात हुई। उस समय बड़ी उतावलीके साथ अपने घोंसलोंमें समाते हुए वे पक्षी इस प्रकार कह रहे थे --’ अहो ! बड़े कष्टकी बात है। यहाँ तो कोई भयानक पुरुष आ गया। ’ राजाने अपनी दोनों पत्नियोंके साथ उस सरोवरमें प्रवेश करके जल पीया और वृक्षके नीचे उसकी सुखद छायामें जा बैठे। नारदजी ! गुणवान् मनुष्य कोई भी क्यों न हो , वह सबके लिये श्लाघ्य होता है और सब प्रकारकी सम्पत्तियोंसे युक्त होनेपर भी गुणहीन मनुष्य सदा लोगोंसे निन्दित ही होता है। द्विजश्रेष्ठ नारद ! उस समय बाहुकी बहुत निन्दा हुई थी। वे संसारमें अपने पुरुषार्थ और यशका नाश करके मरे हुएकी भाँति वनमें रहते थे। अकीर्तिके समान कोई मृत्यु नहीम है। क्रोधके समान कोई शत्रु नहीं है। निन्दाके समान कोई पाप नहीं है और मोहके समान कोई भय नहीं है। असूयाके समान कोई अपकीर्ति नहीं है , कामके समान कोई आग नहीं है , रागके समान कोई बन्धन नहीं है और सङ्र अथवा आसक्तिके समान कोई विष नहीं है इस प्रकार बहुत विलाप करके राजा बाहु अत्यन्त दुःखित हो गये। मानसिक संताप और बुढ़ापेके कारण उनका शरीर जर्जरीभूत हो गया। मुनिश्रेष्ठ ! इस तरह बहुत समय बीतनेके पश्चात् और्व मुनिके आश्रमके निकट रोगसे ग्रस्त होकर राजा बाहु संसारसे चल बसे। उनकी छोटी पत्नी यद्यपिगर्भवती थी तो भी दुःखसे आतुर हो दीर्घकालतक विलाप करके उसने पतिके साथ चितापर जल मरनेका विचार किया। इसी बीचमें परम बुद्धिमान् और्व मुनि , जो महान् तेजकी निधि थे , वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने उत्तम समाधिके द्वारा यह सब वृत्तान्त जान लिया था। मुनीश्वरगण तीनों कालोंके ज्ञाता होते हैं। वे असूयारहित महात्मा अपनी ज्ञानदृष्टिसे भूत , भविष्य और वर्तमान महात्मा अपनी ज्ञानदृष्टिसे भूत , भविष्य और वर्तमान सब कुछ देख लेते हैं। परम पुण्यात्मा और्व मुनि अपनी तपस्याके कारण तेजकी राशि जान पड़्ते थे। वे उसी स्थानपर आये , जहाँ राजा बाहुकी प्यारी एवं पतिव्रता पत्नी खड़ी थी। मुनिश्रेष्ठ नारद ! रानीको चितापर चढ़्नेके लिये उद्यत देख मुनिवर और्व धर्ममूलक वचन बोले।
और्वने कहा -
महाराज बाहुकी प्यारी पत्नी ! तू पतिव्रता है ; किंतु चितापर चढ़्नेका अत्यन्त साहसपूर्ण कार्य न कर। तेरे गर्भमें शत्रुओंका नाश करनेवाला चक्रवर्ती बालक है। कल्याणमयी राजपुत्री ! जिनकी संतान बहुत छोटी हो , जो गर्भवती हों , जिन्होंने अभी ऋतुकाल न देखा हो तथा जो रजस्वला हों , ऐसी स्त्रियाँ पतिके साथ चितापर नहीं चढ़्तीं - उनके लिये चितारोहणका निषेध है। श्रेष्ठ पुरुषोंने ब्रह्यहत्या आदि पापोंका प्रायश्चि बताया है , पाखण्डी और परनिन्दकका भी उद्धार होता है ; किंतु जो गर्भके बालककी ह्त्या करता है , उसके उद्धारका कोई उपाय नहीं है। सुव्रते ! नास्तिक , कृतघ्र , धर्मत्यागी और विश्वासघातीके उद्धारका भी कोई उपाय नहीं है। अतः शोभने ! तुझे यह महान् पाप नहीं करना चाहिये।
मुनिके इस प्रकार कहनेपर पतिव्रता रानीको उनके वचनोंपर विश्वास हो गया और वह अत्यन्त दुःखसे पीड़ित हो अपने मरे हुए पतिके चरणकमलोंको पकड़्कर विलाप करने लगी। महात्मा और्व सब शास्त्रोंके ज्ञाता थे। वे रानीसे पुनः बोले --’ राजकुमारी ! तू रो मत , तुझे श्रेष्ठ राजलक्ष्मी प्राप्त होगी। महाभागे ! इस समय सज्जन पुरुषोंके सहयोगसे इस मृतक शरीरका दाह - संस्कार करना उचित है , अतः शोक त्यागकर तू समयोचित कार्य कर। पण्डित हो या मूर्ख , दरिद्र हो या धनवान् तथा दुराचारी हो या सदाचारी - सबपर मृत्युकी समान दृष्टि है। नगरमें हो या वनमें , समुद्रमें हो या पर्वतपर , जिस जीवने जो कर्म किया है , उसे उसका भोग अवश्य करना होगा। जैसे दुःख बिना बुलाये ही प्राणियोंके पास चले आते हैं , उसी प्रकार सुख भी आ सकते हैं - ऐसी मेरी मान्यता है। इस विषयमें दैव ही प्रबल है। पूर्वजन्मके जो - जो कर्म हैं , उन्हीं - उन्हींको यहाँ भोगना पड़ता है। कमलानने ! जीव गर्भमें हों या बाल्यावस्थामें , जवानीमें हों या बुढ़ापेमें , उन्हें मृत्युके अधीन अवश्य होना पड़ता है। अतः सुव्रते ! इस दुःखको त्यागकर तू सुखी हो जा। पतिके अन्त्योष्टि - संस्कार कर और विवेकके द्वारा स्थिर हो जा। यह शरीर कर्मपाशमें बँधा हुआ तथा हजारों दुःख और व्याधियोंसे घिरा हुआ है। इसमें सुखका तो आभास ही मात्र है। क्लेश ही अधिक होता है। ’
परम बुद्धिमान् और्व मुनिने रानीको इस प्रकार समझा - बुझाकर उससे दाह - सम्बन्धी सब कार्य करवाये ; फिर उसने शोक त्याग दिया और मुनीश्वरको प्रणाम करके कहा --’ भगवन् ! आप - जैसे संत दूसरोंकी भलाईकी ही अभिलाषा रखते हैं - इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं। पृथ्वीपर जितने भी वृक्ष हैं , वे अपने उपभोगके लिये नहीं फलते - उनका फल दूसरोंके ही काम आता है। इसलिये जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दूसरोंकी प्रसन्नतासे प्रसन्न होता है , वही नर - रूपधारी जगदीश्वर नारायण है। संत पुरुष दूसरोंका दुःख दूर करनेके लिये शास्त्र सुनते हैं और अवसर आनेपर सबका दुःख दूर करनेके लिये शास्त्रोंके वचन कहते हैं। जहाँ संत रहते हैं , वहाँ दुःख नहीं सताता ; क्योंकि जहाँ सूर्य है , वहाँ अन्धकार कैसे रह सकता है ?’
इस प्रकार कहकर रानीने उस तालाबके किनारे मुनिकी बतायी हुई विधिके अनुसार अपने पतिकी अन्य पारलौकिक क्रियाएँ सम्पन्न कीं। वहाँ और्व मुनिके स्थित होनेसे राजा बाहु तेजसे प्रकाशित होते हुए चितासे निकले और श्रेष्ठ विमानपर बैठकर मुनीश्वर और्वको प्रणाम करके परम धामको चले गये। जिनपर महापुरुषोंकी दृष्टि पड़्ती है , वे महापातक या उपपातकसे युक्त होनेपर भी अवश्य परम पदको प्राप्त हो जाते हैं। पुण्यात्मा पुरुष यदि किसीके शरीरको , शरीरके भस्मको अथवा उसके धुएँको भी देख ले तो वह परम पदको प्राप्त होता है। नारदजी ! पतिका श्राद्धकर्म करके रानी और्व मुनिके आश्रमपर गयी और अपनी सौतके साथ महर्षिकी सेवा करने लगी।
श्रीनारदपुराण - पूर्वभाग
`नारदपुराण ’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द-शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।