श्रीनारदपुराण - पूर्वभाग

`नारदपुराण ’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द-शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


प्रथम पाद - दानका पात्र


 
दानका पात्र , निष्फल दान , उत्तम -मध्यम -अधम दान , धर्मराज -भगीरथ -संवाद ,
ब्राह्यणको जीविकादानका माहात्म्य तथा तडाग -निर्माणजनित पुण्यके
विषयमें राजा वीरभद्रकी कथा
नारदजी बोले -
भाईजी ! मुझे गंगा -माहात्म्य सुननेकी इच्छा थी , सो तो सुन ली। वह सब पापोंका नाश करनेवाला है। अब मुझे दान एवं दानके पात्रका लक्षण बताइये। 
श्रीसनकजीने कहा - 
देवर्षे ! ब्राह्यण सभी वर्णोंका श्रेष्ठ गुरु है। जो दिये हुए दानको अक्षय बनाना चाहता हो , उसे ब्राह्यणको ही दान देना चाहिये। सदाचारी ब्राह्यण निर्भय होकर सबसे दान ले सकता है , किंतु क्षत्रिय और वैश्य कभी किसीसे दान ग्रहण न करें। जो ब्राह्यण क्रोधी , पुत्रहीन , दम्भाचार -परायण तथा अपने कर्मका त्याग करनेवाला है , उसको दिया हुआ दान निष्फल हो जाता है। जो परायी स्त्रीमें आसक्त , पराये धनका लोभी तथा नक्षत्रसूचक ( ज्योतिषी ) है , उसे दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जिसके मनमें दूसरोंके दोष देखनेका दुर्गुण भरा है , जो कृतघ्र , कपटी और यज्ञके अनधिकारियोंसे यज्ञ करानेवाला है , उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो सदा माँगनेमें ही लगा रहता है , जो हिंसक , दुष्ट और रसका विक्रय करनेवाला है , उसे दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। ब्रह्यन् ‌‍ ! जो वेद , स्मृति तथा धर्मका विक्रय करनेवाला है , उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है।जो गीत गाकर जीविका चलाता है , जिसकी स्त्री व्यभिचारिणी है तथा जो दूसरोंको कष्ट देनेवाला है , उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो तलवारसे जीविका चलाता है , जो स्याहीसे जीवन -निर्वाह करता है , जो जीविकाके लिये देवताकी पूजा स्वीकार करता है , जो जीविकाके लिये देवताकी पूजा स्वीकार करता है , जो समूचे गाँवका पुरोहित है तथा जो धावनका काम करता है , ऐसे लोगोंको दिया हुआ दान निष्फल होता है।जो दूसरोंके लिये रसोई बनानेको काम करता है , जो कविताद्वारा लोगोंकी झूठी प्रशंसा किया करता है , जो वैद्य एवं अभक्ष्य वस्तुओंका भक्षण करनेवाला है , उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो शूद्रोंका अन्न खाता , शूद्रोंके मुर्दे जलाता और व्यभिचारिणी स्त्रीकी संतानका अन्न भोजन करता है , उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो भगवान् ‌ विष्णुके नाम -जपको बेचता है , संध्याकर्मको त्यागनेवाला है तथा दूषित दान -ग्रहणसे दग्ध हो चुका है , उसे दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो दिनमें सोता , दिनमें मैथुन करता और संध्याकालमें खाता है , उसे दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो महापातकोंसे युक्त है , जिसे जाति -भाइयोंने समाजसे बाहर कर दिया है तथा जो कुण्ड ( पतिके रह्ते हुए भी व्यभिचारसे उत्पन्न हुआ ) और गोलक (पतिके मर जानेपर व्यभिचारसे पैदा हुआ )है , उसे दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। जो परिवित्ति ( छोटे भाईके विवाहित हो जानेपर भी स्वयं अविवाहित ), शठ , परिवेत्ता ( बड़े भाईके अविवाहित रहते हुए स्वयं विवाह करनेवाला ), स्त्रीके वशामें रहनेवाला और अत्यन्त दुष्ट है , उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है।जो शराबी , मांसखोर , स्त्रीलम्पट , अत्यन्त लोभी , चोर और चुगली खानेवाला है , उसको दिया हुआ दान भी निष्फल होता है। द्विजश्रेष्ठ ! जो कोई भी पापपरायण और सज्जन पुरुषोंद्वारा सदा निन्दित हों , उनसे न तो दान लेना चाहिये और न दान देना ही चाहिये।
नारदजी ! जो ब्राह्यन सत्कर्ममें लगा हुआ हो , उसे यत्नपूर्वक दान देना चाहिये। जो दान श्रद्धपूर्वक तथा भगवान् ‌‍ विष्णुके समर्पणपूर्वक दिया गया हो एवं जो उत्तम पात्रके याचना करनेपर दिया गया हो , वहा दान अत्यन्त उत्तम है। नारदजी ! इहलोक या परलोकके लाभका उद्देश्य रखकर जो सुपात्रको दान दिया जाता है , वह सकाम दान मध्यम माना गया है। जो दम्भसे , दूसरोंकी हिंसाके लिये , अविधिपूर्वक , क्रोधसे , अश्रद्धासे और अपात्रको दिया जाता है , वह दान अधम माना गया है। राजा बलिको संतुष्ट करनेके लिये यानी अपवित्र भावसे तथा अपात्रको किया हुआ दान अधम , स्वार्थ -सिद्धिके लिये किया हुआ दान मध्यम तथा भगवान्‌‍की प्रसन्नताके लिये किया हुआ दान उत्तम है --यह वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ज्ञानी पुरुष कहते हैं। दान , भोग और नाश -ये धनकी तीन प्रकारकी गतियाँ हैं। जो न दान करता है और न उपभोगमें लाता है , उसका धन केवल उसके नाशका कारण होता है। ब्रह्यन् ‌‍ ! धनका फल है धर्म और धर्म वही है जो भगवान् ‌‍ विष्णुको प्रसन्न करनेवाला है। क्या वृक्ष जीवन धारण नहीं करते ? वे भी इस जगत्‌‍में दूसरोंके हितके लिये जीते हैं। विप्रवर नारद ! जहाँ वृक्ष भी अपनी जड़ों और फलोंके द्वारा दूसरोंका हित -साधन करते हैं , वहाँ यदि मनुष्य परोपकारी न हों तो वे मरे हुएके ही समान हैं। जो मरणशील मानव शरीरसे , धनसे अथवा मन और वाणीसे भी दुसरोंका उपकार नहीं करते , उन्हें महान् ‌‍ पाणी समझना चाहिये। नारदजी ! इस विषयमें मैं एक यथार्थ इतिहास सुनाता हूँ . सुनिये। उसमें दान आदिका लक्षण भी बताया जायगा , साथ ही उसमें गंगाजीका माहात्म्य भी आ जायगा , जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। इस इतिहासमें भगीरथ और धर्मका पुण्यकारक संवाद है।
सगरके कुलमें भगीरथ नामवाले राजा हुए , जो सातों द्वीपों और समुद्रोंसहित इस पृथ्वीका शासन करते थे।वे सदा सब धर्मोंमें तत्पर , सत्य -प्रतिज्ञ और प्रतापी थे। कामदेवके समान रूपवान् ‌‍,महान् ‌‍ यज्ञकर्ता और विद्वान् ‌‍ थे। वे राजा भगीरथ धैर्यमें हिमायल और धर्ममें धर्मराजकी समानता करते थे। उनमें सभी प्रकारके शूभ लक्षण भरे थे। मुने ! वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके पारगामी विद्वान् ‌‍, सब सम्पत्तियोंसे युक्त और सबको आनन्द देनेवाले थे। अतिथियोंके सत्कारमें यत्नपूर्वक लगे रहते और सदा भगवान् ‌‍ वासुदेवकी आराधनामें तत्पर रह्ते थे। वे बड़े पराक्रमी , सद्‌‍गुणोंके भण्डार , सबके प्रति मैत्रीभावसे युक्त , दयालु तथा उत्तम बुद्धिवाले थे। द्विजश्रेष्ठ ! राजा भगीरथको ऐसे सद्‌‍गुणोंसे युक्त जानकर एक दिन साक्षात् ‌‍ धर्म्रराज उनका दर्शन करनेके लिये आये। राजाने अपने घरपर पधारे हुए धर्मराजका शास्त्रीय विधिसे पूजन किया। तत्पश्चात् ‌‍ धर्मराज प्रसन्न होकर राजासे बोले। 
धर्मराजने कहा -
धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ राजा भगीरथ ! तुम तीनों लोकमें प्रसिद्ध हो। मैं धर्मराज होकर भी तुम्हारी कीर्ति सुनकर तुम्हारे दर्शनके लिये आया हूँ। तुम सन्मार्गमें तत्पर , सत्यवादी और सम्पूर्ण भूतोंके हितैषी हो। तुम्हारे उत्तम गुणोंके कारण देवता भी तुम्हारा दर्शन करना चाहते हैं। भूपाल ! जहाँ कीर्ति , नीति और सम्पत्ति है , वहाँ निश्चय ही उत्तम गुण , साधु पुरुष तथा देवता निवास करते हैं। राजन् ‌‍ ! महाभाग ! समस्त प्रणियोंके हितमें लगे रहना आदि तुम्हारा चरित्र बहुत सुन्दर है। वह मेरे -जैसे लोगोंके लिये भी दुर्लभ है। ऐसा कहनेवाले धर्मराजको प्रणाम करके राजा भगीरथ प्रसन्न एवं विनीत भावसे मधुर वाणीमें बोले।
भगीरथने कहा -
भगवन् ‌‍ ! आप सब धर्मोंके ज्ञाता हैं। परेश्वर ! आप समदर्शी भी हैं। मैं जो कुछ पूछता हूँ , उसे मुझपर बड़ी भारी कृपा करके बताइये। धर्म कितने प्रकारके कहे गये हैं ? धर्मात्मा पुरुषोंके कौन -से लोक हैं ? यमलोकमें कितनी यातनाएँ बतायी गयी हैं और वे किन्हें प्राप्त होती हैं ? महाभाग ! कैसे लोग आपके द्वारा सम्मानित होते हैं और कौन लोग किस प्रकार आपके द्वारा दण्डनीय हैं ? यह सब मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें।
धर्मराजने कहा -
महाबुद्धे ! बहुत अच्छा , बहुत अच्छा। तुम्हारी बुद्धि निर्मल तथा ओजस्विनी है। मैं धर्म और अधर्मका यथार्थ वर्णन करता हूँ , तुम भक्तिपूर्वक सुनो ! धर्म अनेक प्रकारके बताये गये हैं , जो पुण्यलोक प्रदान करनेवाले हैं। इसी प्रकार अधर्मजनित यातनाएँ भी असंख्य कही गयी हैं , जिनका दर्शन भी भयंकर है। अतः मैं संक्षेपसे ही धर्म और अधर्मका दिग्दर्शन कराऊँगा। ब्राह्यणोंको जीविका देना अत्यन्त पुण्यमय कहा गया है। इसी प्रकार अध्यात्मतत्त्वके ज्ञाता पुरुषको दिया हुआ दान अक्षय होता है। ब्राह्यण सम्पूर्ण देवताओंका स्वरूप बताया गया है , उसको जीविका देनेवाले मनुष्य्के पुण्यका वर्णन करनेमें कौन समर्थ है ? जो नित्य ( सदाचारी ) ब्राह्यणका हित करता है , उसने सम्पूर्ण यज्ञोंका अनुष्ठान कर लिया , वह सब तीर्थोंमें नहा चुका और उसने सब तपस्या पूरी कर ली। जो ब्राह्यणको जीविका देनेके लिये ’ दो ’ कहकर दूसरेको प्रेरित करता है , वह भी उसके दानका फल प्राप्त कर लेता है। जो स्वयं अथवा दूसरेके द्वारा तालाब बनवाता है , उसके पुण्यकी संख्या बताना असम्भव है। राजन् ‌‍ ! यदि एक राही भी पोखरेका जल पी ले तो उसके बनानेवाले पुरुषके सब पाप अवश्य नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य एक दिन भी भूमिपर जलका संग्रह एवं संरक्षण कर लेता है , वह सब पापोंसे छूटकर सौ वर्षोंतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। जो मानव अपनी शक्तिभर तालाब खुदानेमें सहायता करता है , जो उससे संतुष्ट होकर उसको प्रेरणा देता है , वह भी पोखरे बनानेको पुण्यफल पा लेता है। जो सरसों बराबर मिट्टी भी तालाबसे निकालकर बाहर फेंकता है ,वह अनेकों पापोंसे मुक्त हो सौ वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करता है। नृपश्रेष्ट ! जिसपर देवता अथवा गुरुजन संतुष्ट होते हैं , वह पोखरा खुदानेके पुण्यका भागी होता है --यह सनातन श्रुति है। नृपश्रेष्ठ ! इस विषयमें मैं तुम्हें एक इतिहास बतलाता हूँ , जिसे सुनकर मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है --इसमें संशय नहीं है। गौड़देशमें अत्यन्त विख्यात वीरभद्र नामके एक राजा हो गये हैं। व बड़े प्रतापी , विद्वान ‌‍ तथा सदैव ब्राह्यणोंकी पूजा करनेवाले थे। वेद और शास्त्रोंकी आज्ञाके अनुसार कुलोचित सदाचारका वे सदा पालन करते और मित्रोंके अभ्युदयमें योग देते थे। उनकी परम सौभाग्यवती रानीका नाम चम्पकमञ्जरी था। उनके मुख्य मन्त्रीगण कर्तव्य और अकर्तव्यके विचारमें कुशल थे। वे सदा धर्मशास्त्रोंद्वारा धर्मका निर्णय किया करते थे। ’ जो प्रायश्चित्त , चिकित्सा , ज्यौतिष तथा धर्मका निर्णय बिना शास्त्रके करता है , उसे ब्राह्यणघाती बताया गया है ’---मन --ही --मन ऐसा सोचकर राजा सदा अपने आचार्योंसे मनु आदिके बताये हुए धर्मोंका विधिपूर्वक श्रवण आदिके बताये हुए धर्मोंका विधिपूर्वक श्रवण किया करते थे। उनके राज्यमें कोई छोटे -से -छोटा मनुष्य भी अन्यायका आचरण नहीं करता था। उस राजाका धर्मपूर्वक पालित होनेवाला देश स्वर्गकी समता धारण करता था। वह शुभकारक उत्तम राज्यका आदर्श था।
एक दिन राजा वीरभद्र मन्त्री आदिके साथ शिकार खेलनेके लिये बहुत बड़े वनमें गये और दोपहरतक इधर -उधर घूमते रहे। व अत्यन्त थक गये थे। भगीरथ ! उस समय वहाँ राजाको एक छोटी -सी पोखरी दीखायी दी। वह भी सूखी हुई थी। उसे देखकर मन्त्रीने सोचा -पृथ्वीके ऊपर इस शिखरपर यह पोखरी किसने बनायी है ? यहाँ कैसे जल सुलभ होग , जिससे ये राजा वीरभद्र प्यास बुझाकर जीवन धारण करेंगे। नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर मन्त्रीके मनमें उस पोखरीको खोदनेका विचार हुआ। उसने एक हाथका गङ्ढा खोदकर उसमेंसे जल प्राप्त किया। राजन् ‌‍ ! उस जलको पीनेसे राजा और उनके बुद्धिसागर नामक मन्त्रीको भी तृप्ति हुई। तब धर्म -अर्थके ज्ञाता बुद्धिसागरने राजासे कहा -’ राजन् ‌‍ ! यह पोखरी पहले वर्षाके जलसे भरी थी। अब इसके चारों ओर बाँध बना दें -ऐसी मेरी सम्मति है। देव ! निष्पाप राजन् ‌‍ ! आप इसका अनुमोदन करें और इसके लिये मुझे आज्ञा दें। ’ नृपश्रेष्ठ वीरभद्र अपने मन्त्रीकी यह बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और इस कामको करनेके लिये तैयार हो गये। उन्होंने अपने मन्त्री बुद्धिसागरको ही इस शुभ कार्यमें नियुक्त किया। तब राजाकी आज्ञासे अतिशय पुण्यात्मा बुद्धिसागर उस पोखरीको सरोवर बनानेके कार्यमें लग गये। उसकी लंबाई और चौड़ाई चारों ओरसे पचास धनुषकी हो गयी। उसके चारों ओर पत्थरके घाट बन गये और उसमें अगाध जलराशि संचित हो गयी। ऐसी पोखरी बनाकर मन्त्रीने राजाको सब समाचार निवेदन किया। तबसे सब वनचर जीव और प्यासे पथिक उस पोखरीसे उत्तम जल पान करने लगे। फिर आयुकी समाप्ति होनेपर किसी समय मन्त्री बुद्धिसागरकी मृत्यु हो गयी। राजन् ‌‍ ! वे मुझ धर्मराजके लोकमें गये। उनके लिये मैंने चित्रगुप्तसे धर्म पूछा , तब चित्रगुप्तने उनके पोखरी बनानेका सब कार्य मुझे बताया। साथ ही यह भी कहा कि ये राजाको धर्म -कार्यका स्वयं उपदेश करते थे , इसलिये इस धर्मविमानपर चढ़नेके अधिकारी हैं। राजन् ‌‍ ! चित्रगुप्तके ऐसा कहनेपर मैंने बुद्धिसागरको धर्मविमानपर चढ़नेकी आज्ञा दे दी। भगीरथ ! फिर कालान्तरमें राजा वीरभद्र भी मृत्युके पश्चात् ‌‍ मेरे स्थानपर गये और प्रसन्नतापूर्वक मुझे नमस्कार किया। तब मैंने वहाँ उनके सम्पूर्ण धर्मोंके विषयमें भी प्रश्न किया राजन् ‌‍ !मेरे पूछनेपर चित्रगुप्तने राजाके लिये भी पोखरे खुदानेसे होनेवाले धर्मकी बात बतायी। तब मैंने राजाको जिस प्रकार भलीभाँति समझाया , वह सुनो। ( मैंने कहा - ) ’ भूपाल भगीरथ ! पूर्वकालमें सैकतगिरिके शिखरपर उस लावक ( एक प्रकारकी चिड़िया ) पक्षीने जलके लिये अपनी चोंचसे दो अङ्रल भूमि खोद ली थी। नृपश्रेष्ठ ! तत्पश्चत् ‌‍ कालान्तरमें उस वाराहने अपनी थूथुनसे एक हाथ गहरा गड्ढा खोदा। तबसे उसमें हाथभर जल रहता था। उसके बाद किसी समय उस काली ( एक पक्षी ) -ने उसे पानीमें खोदकर दो हाथ गहरा कर दिया। महाराज ! तबसे उसमें दो महीनेतक जल टिकने लगा। वनके छोटे -छोटे जीव प्याससे व्याकुल होनेपर उस जलको पीते थे। सुव्रत ! उसके तीन वर्षके बाद इस हाथीने उस गड्ढेको तीन हाथ गहरा कर दिया। अब उसमें अधिक जल संचित होकर तीन महीनेतक टिकने लगा। जंगली जीव -जन्तु उसको पीया करते थे। फिर जल सूक जानेके बाद आप उस स्थानपर आये। वहाँ एक हाथ मिट्टी खोदकर आपने जल प्राप्त किया। नरपते ! तदनन्तर मन्त्री बुद्धिसागरके उपदेशसे आपने पचास धनुषकी लंबाई -चौड़ाईमें उसे उतना ही गहरा खुदवाया। फिर तो उसमें बहुत जल संचित हो गया। इसके बाद पत्थरोंसे दृढ़तापूर्वक घाट बँध जानेपर वह महान् ‌‍ सरोवर बन गया। वहाँ किनारेपर सब लोगोंके लिये उपकारी वृक्ष लगा दिये गये। उस पोखरेके द्वारा अपने -अपने पुण्यसे ये पाँच जीव धर्मविमानपर आरूढ़ हुए हैं। अब छठे तुम भी उसपर चढ़ जाओ। ’ भगीरथ ! मेरा यह वचन सुनकर छठे राजा वीरभद्र भी उन पाँचके समान ही पुण्याभागी होकर उस धर्मविमानपर जा बैठे। राजन् ‌‍ ! इस प्रकार मैंने पोखरे बनवानेसे होनेवले सम्पूर्ण फकार वर्णन किया। इसे सुनकर मनुष्य जन्मसे लेकर मृत्युतकके पापसे मुक्त हो जाता है। जो मानव श्रद्धापूर्वक इस कथाको सुनता अथवा पढ़ता है , वह भी तालाब बनानेके सम्पूर्ण पुण्यको प्राप्त कर लेता है।