विविध प्रायश्चित्तका वर्णन , इष्टापूर्त्तका फल और सूतक ,
श्राद्ध तथा तर्पणका विवेचन
धर्मराज कहते हैं -
नृपश्रेष्ठ ! अब मैं चारों वर्णोंके लिये वेदों और स्मृतियोंमें बताये हुए धर्मका क्रमशः वर्णन करता हूँ , एकाग्रचित्त होकर सुनो। जो भोजन करते समय क्रोधमें या अज्ञानवश किसी अपवित्र वस्तुको या चाण्डाल एवं पतितको छू लेता है , उसके लिये प्रायश्चित बतलाता हूँ। वह क्रमानुसार अर्थात् अपवित्र वस्तुके स्पर्श करनेपर तीन रात और चाण्डाल या पतितका स्पर्श कर लेनेपर छः राततक पञ्चगव्यसे तीनों समय स्नान करे तो शुद्ध होता है। यदि कदाचित भोजन करते समय ब्राह्यणके गुदासे मलस्नाव हो जाय अथवा जूठे मुँह या अपवित्र रहनेपर ऐसी बात हो जाय तो उसकी शुद्धिका उपाय बतलाता हूँ। पहले वह ब्राह्यण शौच जाकर जलसे पवित्र होवे ( अर्थात् शौच जाकर जलसे हाथ -पैरकी शुद्धि करके कुल्ला और स्नान करे ) तदनन्तर दिन -रात उपवास करके पञ्चगव्य पीनेसे शुद्ध होता है। यदि भोजन करते समय पेशाब हो जाय अथवा पेशाब करनेपर बिना शुद्ध हुए ही भोजन कर ले तो दिन -रात उपवास करे और अग्रिमें घीकी आहुति दे। यदि भोजनके समय ब्राह्यण किसी भी निमित्तसे अपवित्र हो जाय तो उस समय ग्रासको जमीनपर रखकर स्नान करनेके पश्चात् शुद्ध होता है। यदि उस ग्रासको खा ले तो उपवास करनेपर शुद्ध होता है और यदि अपवित्र अवस्थामें वह सारा अन्न भोजन करके उठे तो तीन राततक वह अशुद्ध रहता है ( अर्थात् तीन रात्रितक उपवास करनेसे शुद्ध होता है )। यदि भोजन करते -करते वमन हो जाय तो अस्वस्थ मनुष्य तीन सौ गायत्री -मन्त्रका जप करे और स्वस्थ मनुष्य तीन हजार गायत्री जपे , यही उसके लिये उत्तम प्रायश्चित्त है। यदि द्विज मल -मूत्र करनेपर चाण्डाल या डोमसे छू जाय तो वह त्रिरात्र व्रत करे और यदि भोजन करके जूठे मुँह छू जाय तो छः राततक व्रत करे। यदि रजस्वला और सूतिका स्त्रीको चाण्डाल छू ले तो तीन राततक व्रत करनेपर उसकी शुद्धि होती है -यह शातातप मुनिका वचन है। यदि रजस्वला स्त्री कुत्तों , चाण्डालों अथवा कौओंसे छू जाय तो वह अशुद्ध अवस्थातक निराहार रहे ; फिर समयपर ( चौथे दिन ) स्नान करनेसे वह शुद्ध होती है। यदि दो रजस्वलाएँ आपसमें एक दूसरीका स्पर्श कर लेती हैं तो ब्रह्यकूर्च पीनेसे उनकी शुद्धि होती है और ऊपरसे भी ब्रह्यकूर्चद्वारा उन्हें स्नान कराना चाहिये। जो जूठेसे छू जानेपर तुरंत स्नान नहीं कर लेता , उसके लिये भी यही प्रायश्चित्त है। ऋतुकालमें मैथुन करनेवाले पुरुषको गर्भाधान होनेकी आशंकासे स्नान करनेका विधान है। बिना ऋतुके स्त्रीसङ्रम करनेपर मल -मूत्रकी ही भाँति शुद्धि मानी गयी है। अर्थात् हाथ , मुँह आदि धोकर कुल्ला चाहिये। मैथुनकर्ममें लगे हुए पति -पत्नी दोनों ही अशुद्ध होते हैं , परंतु शय्यासे उठनेपर स्त्री तो शुद्ध हो जाती है , किंतु पुरुष स्नानके पूर्वतक अशुद्ध ही बना रहता है। जो लोग पतित न होनेपर भी अपने बन्धुजनोंका त्याग करते हैं , ( राजाको उचित है कि ) उन्हें उत्तम साहस का दण्ड दे। यदि पिता पतित हो जाय तो उसके साथ इच्छानुसार बर्ताव करे। अर्थात् अपनी रुचिके अनुसार उसका त्याग और ग्रहण दोनों कर सकते हैं ; किंतु माताका त्याग कभी न करे। जो रस्सी आदि साधनोंद्वारा फाँसी लगाकर आत्मघात करता है , वह यदि मर जाय तो उसके शरीरमें पवित्र वस्तुका लेप करा दे और यदि जीवित बच जाय तो राजा उससे दो सौ मुद्रा दण्ड ले। उसके पुत्र और मित्रोंपर एक -एक मुद्रा दण्ड लगावे और व लोग शास्त्रीय विधिके अनुसार प्रायश्चित्त करें। जो मनुष्य मरनेके लिये जलमें प्रवेश करके अथवा फाँसी लगाकर मरनेसे बच जाते हैं , जो संन्यास ग्रहण करके और उपवास व्रत प्रारम्भ करके उसे त्याग देते हैं , जो विष पीकर अथवा ऊँचे स्थानसे गिरकर मरनेकी चेष्टा करनेपर भी जीवित बच जाते हैं तथा जो शस्त्रका अपने ऊपर आघात करके भी मृत्युसे वञ्चित रह जाते हैं , वे सब सम्पूर्ण लोकसे बहिष्कृत हैं। इनके साथ भोजन या निवास नहीं करना चाहिये। ये सब -के -सब एक चान्द्रायण अथावा दो तप्तकृच्छव्रत करनेसे शुद्ध होते हैं। कुत्ते , सियार और वानर आदि जन्तुओंके काटनेपर तथा मनुष्यद्वारा दाँतसे काटे जानेपर भी मनुष्य दिन . रात अथवा संध्या कोई भी समय क्यों न हो , तुरंत स्नान कर लेनेपर शुद्ध हो जाता है। जो ब्राह्यण अज्ञानसे -अनजानमें किसी प्रकार चाण्डालाक अन्न खा लेता है , वह गोमूत्र और यावकका आहार करके पंद्रह दिनमें शुद्धु होता है। गौ अथवा ब्राह्यणका घर जलाकर , फाँसी आदि लगाकर मरे हुए मनुष्यका स्पर्श करके तथा उसके बन्धनोंको काटकर ब्राह्यण अपणी शुद्धिके लिये एक कृच्छव्रतका आचरण करे। माता , गुरुपत्नी , पुत्री , बहिन और पुत्रवधूसे समागम करनेवाला तो प्रज्वलित अग्रिमें प्रवेश कर जाय। उसके लिये दूसरा कोई शुद्धिका उपाय नहीं है। रानी , संन्यासिनी , धाय , अपनेसे श्रेष्ठ वर्णकी स्त्री तथा समान गोत्रवाली स्त्रीके साथ समागम करनेपर मनुष्य दो कृच्छव्रतका अनुष्ठान करे। पिताके गोत्र अथवा माताके गोत्रमें उत्पन्न होनेवाली अन्यान्य स्त्रियों तथा सभी परस्त्रियोंसे अनुचित सम्बन्ध रखनेवाला पुरुष उस पापसे हटकर अपनी शुद्धिके लिये कृच्छशान्तपनव्रत करे। द्विजगण खूब तपाये हुए कुशोदकको केवल एक बार पाँच राततक पीकर वेश्यागमनके पापका निवारण करते हैं। गुरुतल्पगामीके लिये जो व्रत है , वही कुछ लोग गोघातकके लिये भी बताते हैं और कुछ विद्वान् अवकीर्णी ( धर्मभ्रष्ट )-के लिये भी उसी व्रतका विधान करते हैं। जो डंडेसे गौके ऊपर प्रहार करके उसे मार गिराता है , उसके लिये गोवधका जो सामान्य प्रायश्चित्त है , उससे दूना व्रत करनेका विधान है। तभी वह व्रत उसके पापको शुद्ध कर सकता है। गौको हाँकनेके लिये अँगूठेके बराबर मोटी , बाँहके बराबर बड़ी पल्लवयुक्त और गीली पतली डालका डंडा उचित बताया गया है। यदि गौओंके मारनेपर उनका गर्भ भी हो और वह मर जाय तो उनके लिये पृथक् -पृथक् एक -एक कृच्छव्रत करे। यदि कोई काठ , ढेला , पत्थर अथवा किसी प्रकारके शस्त्रद्वारा गौओंको मार डाले तो भिन्न -भिन्न शस्त्रके लिये शास्त्रमें इस प्रकार प्रायश्चित्त बताया गया है। काष्ठसे मारनेपर शान्तपनव्रतका विधान है। ढेलेसे मारनेपर प्राजापत्यव्रत करना चाहिये। पत्थरसे आघात करनेपर तप्तकृच्छव्रत और किसी शस्त्रसे मारनेपर अतिकृच्छव्रत करना चाहिये। यदि कोई गौओं और ब्राह्यणोंके लिये ( अच्छी नीयतसे ) ओषधि , तेल एवं भोजन दे और उसके देनेके बाद उसकी मृत्यु हो जाय तो उस द्शामें कोई प्रायाश्चित्त नहीं है। तेल और दवा पीनेपर अथवा दवा खानेपर या है। तेल और दवा पीनेपर अथवा दवा खानेपर या शरीरमें धँसे हुर लोहे या काँटे आदिको निकालनेका प्रयत्न करनेपर मृत्यु हो जाय तो भी कोई प्रायश्चित्त नहीं है। चिकित्सा या दवा करनेके लिये बछड़ोंका कण्ठ बाँधनेसे अथवा शामको उनकी रक्षाके लिये उन्हें घरमें रोकने या बाँधनसे भी कोई दोष नहीं होता।
( उपर्युक्त पापोंका प्रायश्चित्त करते समय मनुष्यको इस विधिसे मुण्डन कराना चाहिये ) - एक पाद ( चौथाई ) प्रायश्चित्त करनेपर कुछ रोममात्र कटा देने चाहिये। दो पादके प्रायश्चित्तमें केवल दाढ़ी - मूँछ मुड़ा ले , तीन पादका प्रायश्चित्तमें करते समय शिखाके सिवा और सब बाल बनवा दे और पूरा प्रायश्चित्त करनेपर सब कुछ मुड़ा देना चाहिये। यदि स्त्रियोंको प्रायश्चित्त करना पड़े तो उनके सब केश समेटकर दो अंगुल कटा देना चाहिये। इसी प्रकार स्त्रियोंके सिर मुड़ानेका विधान है। स्त्रीके लिये सारे बाल कटाने और वीरासनसे बैठनेका नियम नहीं है। उनके लिये गोशालामें निवास करनेकी विधि नहीं है। यदि गौ कहीं जाती हो तो उसके पीछे नहीं जाना चाहिये। राजा , राजकुमार अथवा बहुत - से शास्त्रोंका ज्ञाता ब्राह्यण हो तो उन सबके लिये केश मुड़ाये बिना ही प्रायश्चित्त बाताना चाहिये। उन्हें केशोंकी रक्षाके लिये दूने व्रतका पालन करनेकी आज्ञा दे। दूना व्रत करनेपर उसके लिये दक्षिणा भी दूनी ही होनी चाहिये। यदि ऐसा न करे तो हत्या करनेवालेका पाप नष्ट नहीं होता और दाता नरकमें पड़ता है। जो लोग वेद और स्मृतिके विरुद्ध व्रत - प्रायश्चित्त बताते हैं , वे धर्मपालनमें विघ्न डालनेवाले हैं। राजा उन्हें दण्डद्वारा पीड़ित करे , परंतु किसी कामना या स्वार्थसे मोहित होकर राजा उन्हें कदापि दण्ड न दे ; नहीं तो उनका पाप सौगुना होकर उस राजापर ही पड़्ता है। तदनन्तर प्रायश्चित्त पूरा कर लेनेपर ब्राह्यणोंको भोजन करावे। बीस गाय और एक बैल उन्हें दक्षिणामें दे। यदि गौओंके अंकोंमें घाव होकर उसमें कीड़े पड़ जायँ अथवा मक्खी आदि लगने लगें और इन कारणोंसे उन गौओंकी मृत्यु हो जाय तो उन गायोंको रखनेवाला पुरुष आधे कृच्छव्रतका अनुष्ठान करे और अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणा दे। इस प्रकार प्रायश्चित्त करके श्रेष्ठ ब्राह्यणोंको भोजन कराकर कम - से - कम एक माशा सुवर्ण दान करे तो शुद्धि होती है। जलके भीतरकी , बाँवीकी , चूहोंके बिलकी , ऊसर भूमिकी , रास्तेकी , श्मशान - भूमिकी तथा शौचसे बची हुई - ये सात प्रकारकी मृत्तिका काममें नहीं लानी चाहिये। ब्राह्यणको प्रयत्नपूर्वक इष्टापूर्त कर्म करने चाहिये। इष्ट ( यज्ञ - याग आदि ) से वह स्वर्ग पाता है और पूर्त कर्मसे वह मोक्षसुखका भागी होता है। धनकी अपेक्षा रखनेवाले यज्ञ , दान आदि कर्म इष्ट कहलाते हैं और जलाशय बनवाना आदि कार्य पूर्त कहा जाता है। विशेषतः बगीचा , किसी देवताके लिये बने हुए तालाब , बावड़ी , कुआँ , पोखरा और देवमन्दिर - ये यदि गिरते या नष्ट होते हों तो जो इनका उद्धार करता है , वह पूर्त कर्मका फल भोगता है ; क्योंकि ये सब पूर्त कर्म हैं। सफेद गायका मूत्र , काली गौका गोबर , ताँबेके रंगवाली गायका दूध , सफेद गायदा दही और कपिला गायका घी - इन सब वस्तुओंको लेकर एकत्र करे तो वह पञ्चगव्य बड़े - बड़े पातकोंका नाश करनेवाला होता है। कुशोंद्वारा लाये हुए तीर्थ - जल और नदी - जलके साथ उक्त सभी द्र्व्योंको पृथक् - पृथक् प्रणवमन्त्रसे लाकर प्रणवद्वारा ही उन्हेम उठावे , प्रणव - जप करते हुए ही उनका आलोडन करे और प्रणवके उच्चारणपूर्वक ही पीये। पलाश वृक्षके बिचले पत्तेमें अथवा ताँबेके शुभ पात्रमें अथवा कमलके पत्तेमें या मिट्टीके बर्तनमें कुशोदकसहित उस पञ्चगव्यको पीना चाहिये। एक सूतकमें दूसरा सूतक उपस्थित हो जाय तो दूसरेमें दोष नहीं लगता। पहले सूतकके साथ ही उसकी शुद्धि हो जाती है। एक जननाशौचके साथ दूसरा जननाशौच और एक मरणाशौचके साथ दूसरा मरणाशौच भी शुद्ध हो जाता है। एक मासके भीतर गर्भस्नाव हो तो तीन दिनका अशौच बताये। दो माससे ऊपर होनेपर जितने महीनेमें गर्भस्नाव हो , उतनी ही रात्रियोंमें उसके अशौचकी निवृत्ति होती है। साध्वी रजस्वला स्त्री रज बंद हो जानेपर स्नानमात्रसे शुद्ध होती है। विवाहसे सातवें पदपर अर्थात् सप्तपदीकी क्रिया पूरी होनेपर अपने पितृ - सम्बन्धी गोत्रसे च्युत हो जाती है यानी उसके पतिका गोत्र हो जाता है ; अतः उसके लिये श्राद्ध और तर्पण पतिके गोत्रसे ही करने चाहिये। पिण्डदानमें पति और पत्नी दोनोंका उद्देश्य होता है ; अतः प्रत्येक पिण्डमें दो नामसे संकल्प होना चाहिये। तात्पर्य यह है कि पिता या पितामह आदिको सपत्नीक विशेषण लगाकर पिण्डदान करना चाहिये। इस प्रकार छः व्यक्तियोंके लिये तीन पिण्ड देने योग्य हैं। ऐसा दाता मोहमें नहीं पड़ता। माता अपने पतिके साथ विश्वेदेवपूर्वक श्राद्धका उपभोग करती है। इसी प्रकार पितामही और प्रपितामही भी अपने - अपने पतिके ही साथ श्राद्ध - भोग करती हैं। प्रत्येक वर्षमें माता - पिताका एकोद्दिष्टश्राद्धद्धारा सत्कार करे। उस वार्षिक श्राद्धमें विश्वेदेवका पूजन नहीं किया जाता। अतः उनके बिना ही वह श्राद्धभोजन करावे। उसमें एक ही पिण्ड दे। नित्य , नैमित्तिक , काम्य , वृद्धिश्राद्ध तथा पार्वण - विद्वान् पुरुषोंको ये पाँच प्रकारके श्राद्ध जानने चाहिये। ग्रहण , संक्रान्ति , पूर्णिमा या अमावास्या पर्व , उत्सवकाल तथा महालयके अवसरपर मनुष्य तीन पिण्ड दे और मृत्युतिथिको एक ही पिण्ड दे। जिस कन्याका विवाह नहीं हुआ है , वह पिण्ड , गोत्र और सूतकके विषयमें पिताके गोत्रसे पृथक् नहीं है। पाणिग्रहण और मन्त्रोंद्वारा वह अपने पिताके गोत्रसे पृथक् होती है। जिस कन्याका विवाह जिस वर्णके साथ होता है , उसके समान उसे सूतक भी लगता है। उसके लिये पिण्ड और तर्पण भी उसी वर्णके अनुसार होने चाहिये। विवाह हो जानेपर चौथी रातमें वह पिण्ड , गोत्र और सूतकके विषयमें अपने पतिके साथ एक हो जाती है। मृत व्यक्तिके प्रति हितबुद्धि रखनेवाले बन्धुजनोंको शवदाहके प्रथम , द्वितीय , तृतीय अथवा चतुर्थ दिन अस्थि - संचय करना चाहिये अथवा ब्राह्यण आदि चारों वर्णोंका अस्थि - संचय क्रमशः चौथे , पाँचवें , सातवें और नवें दिन भी कर्तव्य बताया गया है। जिस मृत व्यक्तिके लिये ग्यारहवें दिन वृषोत्सर्ग किया जाता है , वह प्रेतलोकसे मुक्त और स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। नाभिके बराबर जलमें खड़ा होकर मन - ही - मन यह चिन्तन करे कि मेरे पितर आवें और यह जलाञ्जलि ग्रहण करें। दोनों हाथोंको संयुक्त करके जलसे पूर्ण करे और गोश्रृङ्रमात्र जल उठाकर उसे पुनः जलमें डाल दे। जलमें दक्षिणकी ओर मुँह करके खड़ा हो आकाशमें जल गिराना चाहिये ; क्योंकि पितरोंका स्थान आकाश और दिशा दक्षिण है। देवता आप ( जल ) कहे गये हैं और पितरोंका नाम भी आप है ; अतः पितरोंके हितकी इच्छा रखनेवाला पुरुष उनके लिये जलमें ही जल दे। जो दिनमें सूर्यकी किरणोंसे तपता है , रातमें नक्षत्रोंके तेज तथा वायुका स्पर्श पाता है और दोनों संध्याओंके समय ई उक्त दोनों वस्तुओंका सम्पर्क लाभ करता है , वह जल सदा पवित्र माना गया है। जो अपने स्वाभाविक रूपमें हो , जिसमें किसी अपवित्र वस्तुका मेल न हुआ हो , वह जल सदा पवित्र है। ऐसा जल किसी पात्रमें हो या पृथ्वीपर , सदा शुद्ध माना गया है। देवताओं और पितरोंके लिये जलमें ही जलाञ्जलि दे और जो बिना संस्कारके ही मरे हैं , उनके लिये विद्वान् पुरुष भूमिपर जलाञ्जलि दे। श्राद्ध और होमके समय एक हाथसे पिण्ड एवं आहुति दे ; किंतु तर्पणमें दोनों हाथोंसे जल देना चाहिये। यह शास्त्रोंद्वारा निश्चित धर्म है।
श्रीनारदपुराण - पूर्वभाग
`नारदपुराण ’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द-शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।