श्रीनारदपुराण - पूर्वभाग

`नारदपुराण ’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द-शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


प्रथम पाद - हरिपञ्चक-व्रतकी विधि


 
हरिपञ्चक -व्रतकी विधि और माहात्म्य 
श्रीसनकजी कहते हैं -
नारदजी ! अब मैं दूसरे व्रतका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ , सुनिये। यह व्रत हरिपञ्चक नामसे प्रसिद्ध है और सम्पूर्ण लोकोंमें दुर्लभ है। मुनिश्रेष्ठ ! स्त्रियों तथा पुरुषोंके सम्पूर्ण दुःखोंका इससे निवारण हो जाता है तथा यह धर्म , अर्थ , काम और मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला एवं सम्पूर्ण मनोरथों और समस्त व्रतोंके फलको देनेवाला है। मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षकी दशमी तिथिको मनुष्य अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए शौच , दन्तधावन और स्नानन करके शास्त्रविहित नित्यकर्म करे। फिर भलीभाँति देवपूजन तथा पञ्च महायज्ञोंका अनुष्ठान करके उस दिन नियमपूर्वक रहकर केवल एक समय भोजन करे। मुनीश्वर ! दूसरे दिन एकादशीको प्रातः - काल उठकर स्नानन और नित्यकर्मसे निवृत्त होकर अपने घरपर भगवान् ‌‍ विष्णुकी पूजा करे। पञ्चामृतकी विधिसे देवदेवेश्वर श्रीहरिको स्नान करावे। तत्पश्चात् ‌‍ गन्ध , पुष्प आदिसे तथा धूप , दीप , नैवेद्य , ताम्बूल और परिक्रमाद्वारा उत्तम भक्तिभावके साथ क्रमशः भगवान्‌की अर्चना करे। देवदेवेश्वर भगवान्‌‍की भलीभाँति पूजा करके इस मन्त्रका उच्चारन करे --
नमस्ते ज्ञानरूपाय ज्ञानदाय नमोऽस्तु ते ॥
नमस्ते सर्वरूपाय सर्वसिद्धिप्रदायिने।
( ना० पूर्व० २१।८ - ९ )
’ प्रभो ! आप ज्ञानस्वरूप हैं , आपको नमस्कार है। आप ज्ञानदाता हैं , आपको नमस्कार है। आप सर्वरूप तथा सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाले हैं , आपको नमस्कार है। ’
इस प्रकार सर्वव्यापी देवेश्वर भगवान् ‌‍ जनार्दनको प्रणास करके आगे बताये जानेवाले मन्त्रके द्वारा अपना उपवास -व्रत भगवान्‌को समर्पित करे -
पञ्चरात्रं निराहारो ह्यद्यप्रभृति केशव ॥
त्वदाज्ञया जगत्स्वामिन् ‌‍ ममाभीष्टप्रदो भव।
( ना० पूर्व० २१।१०।११ )
’ सम्पूर्ण जगत्‌‍के स्वामी केशव ! आपकी आज्ञासे मैं आजसे पाँच राततक निराहार रहूँगा। आप मुझे मेरी अभीष्ट वस्तु प्रदान करें। ’ इस प्रकार भगवान्‌‍को उपवास समर्पित करके जितेन्द्रि पुरुष रातमें जागरण करे। मुने ! एकादशी , द्वादशी , त्रयोदशी , चतुर्दशी तथा पूर्णिमाको इन्द्रियसंयम एवं उपवासपूर्वक इसी प्रकार भगवान्‌‍ विष्णुका पूजन करना चाहिये। विप्रवर ! एकादशी तथा पूर्णिमाकी रात्रिमें ही जागरण करना चाहिये। पञ्चामृत आदि सामग्रियोंसे की जानेवाली पूजा तो पाँचों दिन समानरूपसे आवश्यक है ; परंतु पूर्णिमाके दिन यथाशक्ति दूधके द्वारा भगवान् ‌‍ विष्णुको स्नानन कराना चाहिये। साथ ही तिलका होम और दान भी करना चाहिये। तत्पश्चात् ‌‍ छठा दिन आनेपर अपन आश्रमोचित कर्म करके पञ्चगव्य पीकर विधिपूर्वक श्रीहरिकी पूजा करे। यदि अपने पास धन हो तो ब्राह्यणोंको बेरोक - टोक भोजन करावे। तदनन्तर भाई - बन्धुओंके साथ स्वयं भी मौन होकर भोजन करे। नारदजी ! इस प्रकार पौषसे लेकर कार्तिकतकके महीनोंमें भी शुक्लपक्षमें मनुष्य पूर्वोक्त विधिसे इस व्रतको करे। इस प्रकार इस पापनाशक व्रतको एक वर्षतक करे। फिर मार्गशीर्ष मास आनेपर व्रती पुरुष उसका उद्यापन करे। ब्रह्यन् ‌‍ ! एकादशीको पहलेकी ही भाँति निराहार रहना चाहिये और द्वादशीको एकाग्रचित्त हो पञ्चगव्य पीना चाहिये। फिर गन्ध , पुष्प आदि सामग्रियोंसे देवदेव जनार्दनकी भलीभाँति पूजा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्यणको भेंट दे। मुनीश्वर ! मधु और घृतयुक्त खीर , फल , सुगन्धित जलसे भरा और वस्त्रसे ढका हुआ पञ्चरत्न और दक्षिणासहित कलश अध्यात्मतत्त्वके ज्ञाता ब्राह्यणको दान करे। ( उस समय निम्राङ्रित१रूपसे प्रार्थना करे -- )
सर्वात्मन् ‌‍ सर्वभूतेश सर्वव्यापिन् ‌‍ सनातन।
परमान्नप्रदानेन सुप्रीतो भव माधव ॥
( ना० पूर्व० २१।२३ )
’ सबके आत्मा , सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी , सर्वव्यापी , सनातन माधव ! आप इस उत्तम अन्नके दानसे अत्यन्त प्रसन्न हों। ’
इस मन्त्रसे खीर दान करके यथाशक्ति ब्राह्यण -भोजन करावे और स्वयं भी मौन होकर भाई -बन्धुओंके साथ भोजन करे। जो इस हरिपञ्चक नामक व्रतका पालन करता है , उसका ब्रह्यलोक अर्थात् ‌‍ परमात्माके परम धामसे कभी पुनरागमन नहीं होता। उत्तम मोक्षकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको यह व्रत अवश्य करना चाहिये। ब्रह्यन् ‌‍ ! यह व्रत सम्पूर्ण पापरूपी दुर्गम वनको जलानेके लिये दावानलके समान है। जो मानव भगवान् ‌‍ नारायणके चिन्तनमें तत्पर हो भक्तिपूर्वक इस प्रसंगको सुनता है , वह महाघोर पातकोंसे मुक्त हो जाता है।