श्रीनारदपुराण - पूर्वभाग

`नारदपुराण ’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द-शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


द्वितीय पाद - त्रिविध तापोंसे छूटनेका उपाय


 
त्रिविध तापोंसे छूटनेका उपाय , भगवान् ‌‍ तथा वासुदेव आदि शब्दोंकी व्याख्या ,
परा और अपरा विद्याका निरूपण , खाण्डिक्य और केशिध्वजकी कथा , 
केशिध्वजद्वारा अविद्याके बीजका प्रतिपादन
सूतजी कहते हैं -
महर्षियो ! उत्तम अध्यात्मज्ञान सुनकर उदारबुद्धि नारदजी बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने पुन : प्रश्र किया ।
नारदजी बोले - 
दयानिधे ! मैं आपाकी शरणमें हूँ । मुने ! मनुष्यको आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंका अनुभव न हो , वह उपाय मुझे बतलाइये । 
सनन्दनजीने कहा -
विद्वन् ‌ ! गर्भमें , जन्मकालमें और बुढ़ापा आदि अवस्थाओंमें प्रकट होनेवाले जो तीन प्रकारके दु : ख - समुदाय हैं , उनकी एकमात्र अमोघ एवं अनिवार्य ओषधि भगवान्‌की प्राप्ति ही मानी गयी है । जब भगवत्प्राप्ति होती है , उस समय ऐसे लोकोत्तर आनन्दकी अभिव्यक्ति होती है , जिससे बढ़्कर सुख और आह्लाद कहीं है ही नहीं । यही उस भगवत्प्राप्तिकी पहचान है । अत : विद्वान् ‌‍ मनुष्योंको भगवान्‌‍की प्राप्तिके लिये अवश्य प्रयत्न करना चाहिये । महामुने ! भगवत्प्राप्तिके दो ही उपाय बताये गये हैं - ज्ञान और ( निष्काम ) कर्म । ज्ञान भी दो प्रकारका कहा जाता है । एक तो शास्त्रके अध्ययन और अनुशीलनसे प्राप्त होता है और दूसरा विवेकसे प्रकट होता है । शब्दब्रह्म अर्थात् ‌‍ वेदका ज्ञान शास्त्रज्ञान है और परब्रह्म परमात्माका बोध विवेकजन्य ज्ञान है । मुनिश्रेष्ठ ! मनुजीने भी वेदार्थका स्मरण करके इस विषयमें जो कुछ कहा है , उसे मैं स्पष्ट बताता हूँ - सुनो । जानने योग्य़ ब्रह्म दो प्रकारका है - एक शब्दव्रह्म 
( शास्त्रज्ञान )- में पारङ्रत हो जाता है , वह विवेकजन्य ज्ञानद्वारा परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है । अथर्ववेदकी श्रुति कह्ती है कि दो प्रकारकी विद्याएँ जानने योग्य हैं - परा और अपरा । परासे निर्गुण - सगुणरूपा परमात्माकी प्राप्ति होती है । जो अव्यक्त , अजर , चेष्टारहित , अजन्मा , अविनाशी , अनिर्देश्य ( नाम आदिसे रहित ), रूपहीन , हाथ - पैर आदि अङ्रोंसे शून्य , व्यापक , सर्वगत , नित्य , भूतोंका आदिकारण तथा स्वयं कारणहीन है , जिससे सम्पूर्ण व्याप्य वस्तुएँ व्याप्त हैं , समस्त जगत् ‌‍ जिससे प्रकट हुआ है एवं ज्ञानीजन ज्ञानदृष्टिसे जिसका साक्षात्कार करते हैं , वही परमधामस्वरूप ब्रह्म है । मोक्षकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको उसीका ध्यान करना चाहिये । वही वेदवाक्योंद्वारा प्रतिपादित , अतिसूक्ष्म भगवान् ‌‍ विष्णुका परम पद है । परमात्माका वह स्वरूप ही ’ भगवत् ‌ ’ शब्दका वाच्यार्थ है और ’ भगवत् ‌‍ ’ शब्द उस अविनाशी परमत्माका वाचक कहा गया है । इस प्रकार जिसका स्वरूप बतलाया गया है , वही परमात्माका यथार्थ तत्त्व है । जिससे उसका ठीक - ठीक बोध होता है , वही परा विद्या अथवा परम ज्ञान है । इससे भिन्न जो तीनों वेद हैं उन्हें अपर ज्ञान या अपरा विद्या कहा गया है । ब्रह्मन ‌‍ ! यद्यपि वह ब्रह्म किसी शब्द या वाणीका विषय नहीं है , तथापि उपासनाके लिये ’ भगवान् ‌‍ ’ इस नामसे उसका कथन किया जाता है । देवर्षे ! जो समस्त उसका कथन किया जाता है । देवर्षे ! जो समस्त कारणोंका भी कारण है , उस परम शुद्ध महाभूति नामवाले परब्रह्मके लिये ही भगवत् ‌‍ शब्दका प्रयोग हुआ है । ’ भगवत ‌‍ शब्दके ’ भ ’ कारके दो अर्थ हैं - सम्भर्ता ( भरण - पोषण करनेवाला ) तथा भर्ता ( धारण करनेवाला ) । मुने ! ’ ग ’ कारके तीन अर्थ हैं - गमयिता ( प्रेरक ), नेता ( सञ्चालक ) तथा स्त्रष्टा ( जगत्‌की सृष्टि करनेवाला ) । ’ भ ’ और ’ ग ’ के योगसे ’ भग ’ शब्द बनता है , जिसका अर्थ इस प्रकार है - सम्पूर्ण ऐश्वर्य , सम्पूर्ण धर्म , सम्पूर्ण यश , सम्पूर्ण श्री , सम्पूर्न ज्ञान तथा सम्पूर्ण वैराग्य - इन छ : का नाम ’ भग ’ है । उस सर्वात्मा परमेश्वरमें सम्पूर्ण भूत - प्राणी निवास करते हैं तथा वह स्वयं भी सब भूतोंमें वास करता है , इसलिये वह अव्यय परमात्मा ही ’ व ’ कारका अर्थ है । साधुशिरोमणे ! इस प्रकार ’ भगवान् ‌‍ ’ यह महान् ‌ शब्द परब्रह्मस्वरूप भगवान् ‌‍ वासुदेवका ही बोध करानेवाला है । पुज्यपदका जो अर्थ है , उसको सूचित करनेकी परिभाषासे युक्त यह भगवत् ‌‍- शब्द परमात्माके लियेतो प्रधानरूपसे प्रयुक्त होता है और दूसरोंके लिये गौणरूपसे । जो सब प्रणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयको , आवागमनको तथा विद्या और अविद्याको जानता है , वही भगवान् ‌ कहलाने योग्य है । त्याग करने योग्य अवगुण आदिको छोड़कर जो अलौकिक ज्ञान , शाक्ति , बल , ऐश्वर्य , वीर्य और तेज आदि सदुण हैं , वे सभी भगवत ‌ शब्दके वाच्यार्थ हैं । उन परमात्मामें सम्पूर्ण भूत वास करते हैं और वह भी समस्त भूतोंमे निवास करता है , इसीलिये उसे ’ वासुदेव ’ कहा गया है । पूर्वकालमेंअ खाण्डिक्य जनकसे उनके पूछनेपर केशिध्वजने भगवान् ‌‍ अनन्तके वासुदेव नामकी यथार्थ व्याख्या इस प्रकार की थी । परमात्मा सम्पूर्ण भूतोंमें वास करते है और वे भूतप्राणी भी उनके भीतर रहते हैं तथा वे परमात्मा ही जगत्‌के धारण - पोषण करनेवाले और स्त्रष्टा हैं ; अत : उन सर्वशक्तिमान् ‌‍ प्रभुको ’ वासुदेव ’ कहा गया है । मुने ! जो सम्पूर्ण जगत्‌‍के आत्मा तथा समस्त आवरणोंसे परे हैं , वे परमात्मा सम्पूर्ण भूतोंकी प्रकृति , प्राकृत विकार तथा गुण और दोषोंसे ऊपर उठे हुए हैं । पृथ्वी और आकाशके बीचमें जो कुछ स्थित है , वह सब उन्हींसे व्याप्त है । सम्पूर्ण कल्याणमय गुण उनके स्वरूप हैं । उन्होंने अपनी शक्तिके लेशमात्रसे सम्पूर्ण भूतसमुदायको व्याप्त कर रखा है । वे अपनी इच्छामात्रसे मनके अनुकूल अनेक शरीर धारण करते हैं और सारे जगत्‌‍का हित - साधन करते रह्ते वीर्य और शाक्ति आदि गुणोंकी एकमात्र राशि हैं । प्रकृति आदिसे भी परे हैं और उन समस्त कार्य - कारणोंके स्वामी परमेश्वरमें समस्त क्लेशोंका सर्वथा अभाव है । वे सबका शासन करनेवाले ईश्वर हैं । व्यष्टि और समष्टि जगत् ‌‍ उन्हींका स्वरूप है । वे ही व्यक्त हैं और वे ही अव्यक्त । वे सबके स्वामी , सम्पूर्ण सृष्टिके ज्ञाता , सर्वशक्तिमान् ‌‍ तथा परमेश्वर नामसे प्रसिद्ध हैं । जिसके द्वारा निर्दोष , विशुद्ध निर्मल तथा एकरूप परमात्माके स्वरूपका साक्षात्कार अथवा बोध होता है , उसीका नाम ज्ञान है और इसके विपरीत जो कुछ है , वह अज्ञान कहा गया है । भगवान् ‌‍ पुरुषोत्तमका दर्शन स्वाध्याय और संयमसे होता है । ब्रह्मकी प्राप्तिक कारण होनेसे वेदका भी नाम ब्रह्म ही है । इसीलिये वेदोंका स्वाध्याय किया जाता है । स्वाध्यायसे योगका अनुष्ठान करे और योगसे स्वाध्यायका अभ्यास करे । इस प्रकार स्वाध्याय और योग - दोनों साधनोंका सम्पादन होनेसे परमात्मा प्रकाशित होते हैं । उनका दर्शन करनेके लिये स्वाध्याय और योग दोनों नेत्र हैं । 
नारदजीने पूछा -
भगवन् ‌‍ ! जिसके जान लेनेपर मैं सर्वाधार परमेश्वरका दर्शन कर सकूँ , उस योगको मैं जानना चाहता हूँ । कृपा करके उसका वर्णन कीजिये । 
सनन्दनजीने कहा -
पूर्वाकालमें केशिध्वजने महात्मा खाण्डिक्य जनकको जिस प्रकार योगका उपदेश दिया था , वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ । 
नारदजीने पूछा -
ब्रह्मन् ‌‍ ! खाण्डिक्य और केशिध्वज कौन थे ? तथा उनमें योगसम्बन्धी बातचीत किस प्रकार हुई थी ?
सनन्दनजीने कहा -
नारदजी ! पूर्वकालमें धर्मध्वज जनक नामक एक राजा हो गये हैं । उनके बड़े पुत्रका नाम अमितध्वज था । उसके छोटे भाई कृतध्वजके नामसे विख्यात थे । राजा कृतध्वज सदा अध्यात्मचिन्तनमें ही अनुरक्त रह्ते थे । कृतध्वजके पुत्र केशिध्वज हुए । ब्रह्मन् ‌‍ ! वे अपने सद्‌‍ज्ञानके कारण धन्य हो गये थे । अमितध्वजके पुत्रका नाम खाण्डिक्य जनक था । खाण्डिक्य कर्मकाण्डमें निपुण थे । एक समय केशिध्वजने खाण्डिक्यको परास्त करके उन्हें राज्यसिंहासनसे उतार दिया । राज्य्से भ्रष्ट होनेपर खाण्डिक्य थोड़ी - सी साधन - सामग्री लेकर पुरोहित और मन्त्रियोंके साथ एक दुर्गम वनमें चले गये । इधर केशिध्वजने ज्ञाननिष्ठ होते हुए भी निष्कामभावसे अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान किया । योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ नारदजी ! एक समय केशिध्वज जब जज्ञमें लगे हुए थे , उनकी दूध देनेवाली गायको निर्जन वनमें किसी भयङ्कर व्याघ्रने मार डाला । व्याघ्रद्वारा गौको मारी गयी जानकर राजाने ऋत्विजोंसे इसका प्रायश्चित्त पूछा -’ इस विषयमें क्या करना चाहिये ?’ ऋत्विज् ‌‍ बोले -’ महाराज ! हम नहीं जानते । आप कशेरुसे पूछिये । ’ नार्दजी ! जब राजाने कशेरुसे  यह बात पूछी तो उन्होंने भी वैसा ही उत्तर देते हुए कहा -’ राजेन्द्र ! मैं इस विषयमें कुछ नहीं जानता । आप शुनकसे पूछिये , वे जानते होंगे । ’ तब राजाने शुनकके पास जाकर यही प्रश्न किया । मुने ! प्रश्न सुनकर शुनकने भी वैसा ही उत्तर दिया -’ राजन् ‌‍ ! इस विषयमें न तो कशेरु कुछ जानते हैं और न मैं । इस समय पृथ्वीपर दूसर कोई भी इसका ज्ञाता नहीं है । एक ही व्यक्ति इस बातको जानता है , वह है तुम्हारा शत्रु ’ खाण्डिक्य ’, जिसे तुमने परास्त किया है । ’ मुने ! शुनककी यह बात सुनकर राजाने कहा - अच्छा तो अब मैं अपने शत्रुसे ही यह बात पूछनेके लिये जाता हूँ । यादिअ वह मुझे प्रायश्चित्त बतला देगा तब तो यह यज्ञ साङ्रोपाङ्र पूर्ण होगा ही । ’ ऐसा कहकर राजा केशिध्वज काला मृगचर्म धारण किये रथपर बैठे और जहाँ महाराज खाण्डिक्य रहते थे , उस वनमें गये । खाण्डिक्यने अपने उस शत्रुको आते देख धनुष चढ़ा लिया और क्रोधसे आँखे लाल करके कहा । 
खाण्डिक्य बोले -
अरे ! क्या तू काले मृगचर्मको कवचके रूपमें धारण करके हमें मारेगा ? 
केशिध्वजने कहा - 
खाण्डिक्यजी ! मैं आपसे एक संदेह पूछनेके लिये आया हूँ । आपको मारनेके लिये नहीं आया हूँ । 
तदनन्तर परम बुद्धिमान् ‌‍ खाण्डिक्यने अपने समस्त मन्त्रियों और पुरोहितके साथ एकान्तमें सलाह की । मन्त्रियोंने कहा -’ यह शत्रु इस समय हमारे वशमें है , अत : इसे मार डालना चाहिये । इसके मारे जानेपर यह सारी पृथ्वी आपके अधीन हो जायगी । ’ यह सुनकर खाण्डिक्य उन सबसे बोले -’ नि : संदेह ऐसी ही बात है । इसके मारे जानेपर यह सारी पृथ्वी अवश्य मेरे अधीन हो जायगी । परंतु इसे पारलौकिक विजय प्राप्त होगी और मुझे सम्पूर्ण पृथ्वी । यदि इसे न मारूँ तो पारलौकिक विजय मेरी होगी और इसे सारी पृथ्वी मिलेगी । पारलौकिक विजय अनन्तकालके लिये होती है तथा पृथ्वीकी जीत थोड़े ही दिन रह्ती है । इसलिये मैं तो इसे मारूँगा नहीं । यहा जो कुछ पूछेगा उसे बतलाऊँगा । ’ ऐसा निश्चय करके खाण्डिक्य जनक अपने शत्रुके समीप गये और इस प्रकार बोले -’ तुम्हें जो कुछ पूछना हो वह सब पूछ लो , मैं बताऊँगा । ’ नारदजी ! खाण्डिक्यके ऐसा कहनेपर केशिध्वजने होमसम्बन्धी गायके मारे जानेका सब वृत्तान्त ठीक - ठीक बता दिया और उसके लिये कोई व्रतरूप प्रायश्चित्त पूछा ! खाण्डिक्यने भी वह सम्पूर्ण प्रायश्चित्त जिसका कि उसके लिये विधान था , केशिध्वजको विधिपूर्वक बता दिया । सब बातें जान लेनेपर महात्मा खाण्डिक्यकी आज्ञा ले केशिध्वजने यज्ञभूमिको प्रस्थान किया और वहाँ पहुँचकर क्रमश : प्रायश्चित्तका सारा कार्य पूर्ण किया । फिर धीरे - धीरे यज्ञ समाप्त होनेपर राजाने अवभृथस्त्रान किया । तत्पश्चात् ‌‍ कृतकार्य होकर राजा केशिध्वजने मन - ही - मन सोचा -’ मैंने सम्पूर्ण ऋत्विजोंका पूजन तथा सब सद्स्योंका सम्मान किया । साथ ही याचकोंको भी उनकी मनोवाञ्छित वस्तुएँ दीं । इस लोकके अनुसार जो कुछ कर्तव्य था वह सब मैंने पूरा किया । तथापि न जाने क्यों मेरे मनमें ऐसा अनुभव होता है कि मेरा कोई कर्तव्य अधूरा रह गया है । ’ इस प्रकार सोचते - सोचते राजाके ध्यानमें यह बात आयी कि मैंने अभीतक खाण्डिक्यजीको गुरुदक्षिणा नहीं दी है । नारदजी ! तब वे रथपर बैठकर फिर उसी दुर्गम वनमें गये , जहाँ खाण्डिक्य रह्ते थे । खाण्डिक्यने पुन : उन्हें आते देख हथियार उठा लिया । यह देख राजा केशिध्वजने कहा -’ खाण्डिक्यजी ! क्रोधन कीजिये । मैं आपकाअ अहित करनेके लिये नहीं , गुरुदक्षिणा देनेके लिये आया हूँ । आपके उपदेशके अनुसार मैंने अपना यज्ञ भलीभाँति पूरा कर लिया है । अतः अब मैं आपको गुरुदक्षिणा देना चाहता हूँ । आपकी जो इच्छा हो , माँग लीजिये । ’
उनके ऐसा कहनेपर खाण्डिक्यने पुन : अपने मन्त्रियोंसे सलाह ली और कहा -’ यह मुझे गुरुदक्षिणा देना चाहता है , मैं इससे क्या माँगूँ ?’ मन्त्रियोंने कहा -’ आप इससे सम्पूर्ण राज्य माँग लीजिये । ’ तब राजा खाण्डिक्यने उन मन्त्रियोंसे हँसकर कहा -’ पृथ्वीका राय तो थोड़े ही समयतक रहनेवाला है , उसे मेरे - जैसे लोग कैसे माँग सकते हैं ? आपका कथन भी ठीक ही है , क्योंकि आपलोग स्वार्थ - साधनके मन्त्री हैं । परमार्थ क्या और कैसा है ? इस विषयमें आपलोगोंको विशेष ज्ञान नहीं है । ’ ऐसा कहकर वे राजा केशिध्वजके पास आये और इस प्रकार बोले -‘ क्या तुम निश्चय ही गुरुदक्षिणा दोगे ?’ उन्होंने कहा -’ जी हाँ । ’ उनके ऐसा कहनेपर खाण्डिक्यने कहा -‘ आप अध्यात्मज्ञानरूप परमार्थविद्याके ज्ञाता हैं । यदि मुझे अवश्य ही गुरुदक्षिणा देना चाहते हैं तो जो कर्म सम्पूर्ण क्लेशोंका नाश करनेमें समर्थ हो , उसका उपदेश कीजिये । ’ 
केशिध्वजने पूछा --- राजन् ‌ ! आपने मेरा निष्कण्टक राज्य क्यों नहीं माँगा ? क्योंकि क्षत्रियोंके लिये राज्य मिलनेसे बढकर प्रिय वस्तु और कोई नहीं है ।
खाण्डिक्य बोले --- केशिध्वजजी ! मैंने आपका सम्पूर्ण राज्य क्यों नहीं माँगा , इसका कारण सुनिये । विद्वान् ‌ पुरुष राज्यकी इच्छा नहीं करते । क्षत्रियोंका यह धर्म है कि वे प्रजाकी रक्षा करें और अपने राज्यके विरोधियोंका धर्मयुद्धके द्वारा वध करें । मैं इस कर्तव्यके पालनमें असमर्थ हो गया था , इसलिये यदि आपने मेरे राज्यका अपहरण कर लिया है तो इसमें कोई दोषकी बात नहीं है । यह राजकार्य अविद्या ही है । यदि समझपूर्वक इसका त्याग न किया जाय तो यह बन्धनका ही कारण होती है । यह राज्यकी चाह जन्मान्तरके कर्मोंद्वारा प्राप्त सुख - भोगके लिये होती है । अत : मुझे राज्य लेनेका अधिकार नहीं है । इसके सिवा क्षत्रियोंका किसीसे याचना करना धर्म नहीं है । यह साधु पुरुषोंका मत है । इसलिये अविद्याके अन्तर्गत जो आपका यह राज्य है उसकी याचना मैंने नहीं की है । जिनका चित्त ममतासे आकृष्ट है और जो अहंकाररूपी मदिराका पान करके उन्मत्त हो रहे हैं , वे अज्ञानी पुरुष ही राज्यकी अभिलाषा करते हैं ।
केशिध्वजने कहा --- मैं भी विद्यासे मृत्युके पार जानेकी इच्छा रखकर कर्तव्यबुद्धिसे राज्यकी रक्षा और निष्कामभावसे अनेक प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करता हूँ । कुलनन्दन ! बडे सौभाग्यकी बात है कि आपका मन विवेकरूपी धनसे सम्पन्न हुआ है , अत : आप अविद्याका स्वरूप सुनें - अविद्यारूपी वृक्षकी उत्पत्तिका जो बीज है , यह दो प्रकारका है - अनात्मामें आत्मबुद्धि और जो अपना नहीं है उसे अपना मानना अर्थात् ‌ अहंता  और ममता ।
जिसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है तथा जो मोहरूपी अन्धकारसे आवृत हो रहा है , वह देहाभिमानी जीव इस पाञ्चभौतिक शरीरमें ‘ मैं ’ और ‘ मेरे ’ पनकी दृढ भावना कर लेता है , परंतु जब आत्मा आकाश , वायु , अग्नि , जल और पृथ्वी आदिसे सर्वथा पृथक् ‌ है तो कौन बुद्धिमान् ‌ पुरुष शरीरमें आत्मबुद्धि करेगा ?  जब आत्मा देहसे परे है तो देहके उपभोगमें आनेवाले गृह और क्षेत्र आदिको कौन बुद्धिमान् ‌ पुरुष ‘ यह मेरा है ’ ऐसा कहकर अपना मान सकता है ? इस प्रकार इस शरीरके अनात्मा होनेसे इसके द्वारा उत्पन्न किये हुए पुत्र . पौत्र आदिमें भी कौन विद्वान् ‌ अपनापन करेगा ? मनुष्य सारे कर्म शरीरके उपभोगके लिये ही करता है ; किंतु जब यह देह पुरुषसे भिन्न है तो वे कर्म केवल बन्धनके ही कारण होते हैं । जैसे मिट्टोके घरको मनुष्य मिट्टी और जलसे ही लीपते - पोतते हैं . उसी प्रकार यह पार्थिव शरीर भी अन्न और जलकी सहायतासे ही स्थिर रहता है । यदि पञ्चभूतोंका बना हुआ यह शरीर पाञ्चभौतिक पदार्थोंसे ही पुष्ट होता है तो इसमें पुरुषके लिये कौन - सी गर्व करनेकी बात है । यह जीव अनेक सहस्र जन्मोंसे संसारूपी मार्गपर चल रहा है और वासनारूपी धूलसे आच्छादित होकर केवल मोहरूपी श्रमको प्राप्त होता है । सौम्य ! जिस समय ज्ञानरूपी गरम जलसे इसकी वह वासनारूपी धूल धो दी जाती है , उसी समय इस संसारमार्गके पथिकका मोहरूपी श्रम शान्त हो जाता है । उस मोहरूपी श्रमके शान्त होनेपर पुरुषका अन्त : करण निर्मल होता है और वह निरतिशय परम निर्वाणपदको प्राप्त कर लेता है । यह ज्ञानमय विशुद्ध आत्मा निर्वाणस्वरूप ही है । इस प्रकार मैंने आपको अविद्याका बीज बतलाया है । अविद्याजनित क्लेशोंको नष्ट करनेके लिये योगके सिवा दूसरा कोई उपाय नही है ।