श्रीनारदपुराण - पूर्वभाग

`नारदपुराण ’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द-शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


द्वितीय पाद - मुक्तिप्रद योगका वर्णन


 
सनन्दनजी कहते हैं --- नारदजी ! केशिध्वजके इस अध्यात्मज्ञानसे युक्त अमृतमय वचनको सुनकर खाण्डिक्यने पुन : उन्हें प्रेरित करते हुए कहा ।
खाण्डिक्य बोले --- योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महाभाग केशिध्वज ! आप उस योगका वर्णन कीजिये ।
केशिध्वजने कहा --- खाण्डिक्यजी ! मैं योगका स्वरूप बतलाता हूँ . सुनिये । उस योगमें स्थित होनेपर मुनि ब्रह्ममें लीन होकर फिर अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होता । मन ही मनुष्योंके बन्धन और मोक्षका कारण है । विषयोंमें आसक्त होनेपर वह बन्धनका कारण होता है और विषयोंसे दूर हटकर वही मोक्षका साधक बन जाता है१ । अत : विवेकज्ञानसम्पन्न विद्वान्‌ पुरुष मनको विषयोंसे हटाकर परमेश्वरका चिन्तन करे । जैसे चुम्बक अपनी शक्तिसे लोहेको खींचकर अपनेमें संयुक्त कर लेता है , उसी प्रकार ब्रह्मचिन्तन करनेवाले मुनिके चित्तको परमात्मा अपने स्वरूपमें लीन कर लेता है । आत्मज्ञानके उपायभूत जो यम - नियम आदि साधन हैं , उनकी अपेक्षा रखनेवाली जो मनकी विशिष्ट गति है , उसका ब्रह्मके साथ संयोग होना ही ‘ योग ’ कहलाता है । जिसका योग इस प्रकारकी विशेषतावाले धर्मसे युक्त होता है , वह योगी ‘ मुमुक्षु ’ कहलाता है । पहले - पहल योगका अभ्यास करनेवाला योगी ‘ युञ्जान ’ कहलाता है । और जब उसे परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है , तब वह ‘ विनिष्पन्नसमाधि ’ ( युक्त ) कहलाता है । यदि किसी विघ्नदोषसे उस पूर्वोक्त योगी ( युञ्जान )- का चित्त दूषित हो जाता है तो दूसरे जन्मोंमें उस योगभ्रष्टकी अभ्यास करते रहनेसे मुक्ति हो जाती है । ‘ विनिष्पन्नसमाधि ’ योगी योगकी अग्निसे अपनी सम्पूर्ण कर्मराशिको भस्म कर डालता है । इसलिये उसी जन्ममे शीघ मुक्ति प्राप्त कर लेता है । योगीको चाहिये कि वह अपने चित्तको योगसाधनके योग्य बनाते हुए ब्रह्मचर्य , अहिंसा , सत्य , अस्तेय तथा अपरिग्रहका निष्कामभावसे सेवन करे । ये पाँच यम हैं । इनके साथ शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय तथा परब्रह्म परमात्मामें मनको लगाना - इन पाँच नियमोंका पालन करे । इस प्रकार ये पाँच यम और पाँच नियम बताये गये हैं । सकामभावसे इनका सेवन किया जाय तो ये विशिष्ट फल देनेवाले होते हैं और निष्कामभावसे किया जाय तो मोक्ष प्रदान करते हैं ।
यत्नशील साधकको उचित है कि स्वस्तिक , सिद्ध , पद्म आदि आसनोंमेंसे किसी एकका आश्रय ले यम और नियम नामक गुणोंसे सम्पन्न हो नियमपूर्वक योगाभ्यास करे । अभ्याससे साधक के जो प्राणवायुको वशमें करता है , उस क्रियाको प्राणायाम समझना चाहिये । उसके दो भेद हैं - सबीज और निर्बीज ( जिसमें भगवान्‌के नाम और रूपका आलम्बन हो , वह सबीज प्राणायाम है और जिसमें ऐसा कोई आलम्बन नहीं है , वह निर्बीज प्राणायाम कहलाता है ) साधु पुरुषोंके उपदेशसे प्राणायामका साधन करते समय जब योगीके प्राण और अपान एक दूसरेका पराभव करते ( दबाते ) हैं , तब क्रमश : रेचक और पूरक नामक दो प्राणायामहोते हैं और इन दोनोंका एक ही समय संयम ( निरोध ) करनेसे कुम्भक नामक तीसरा प्राणायाम होता है । राजन्‌ ! जब योगी सबीज प्राणायामका अभ्यास करता है , तब उसका आलम्बन सर्वव्यापी अनन्तस्वरूप भगवान्‌ विष्णूका साकाररूप होता है । योगवेत्ता पुरुष प्रत्याहारका अभ्यास ( इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे समेटकर अपने भीतर लानेका प्रयत्न ) करते हुए शब्दादि विषयोंमें अनुरक्त हुई इन्द्रियोंको रोककर उन्हें अपने चित्तकी अनुगामिनी बनावे । ऐसा करनेसे अत्यन्त चञ्चल इन्द्रियाँ भलीभाँति वशमें हो जाती हैं । यदि इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं तो कोई योगी उसके द्वारा योगका साधन नहीं कर सकता । प्राणायामसे प्राण - अपानरूप वायु और प्रत्याहारसे इन्द्रियोंको अपने वशमें करके चित्तको उसके शुभ आश्रयमें स्थिर करे ।
खाणिडक्यने पूछा --- महाभाग ! बताइये , चित्तका वह शुभा आश्रय क्या है , जिसका अवलम्बन करके वह सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्तिको नष्ट कर देता है ।
केशिध्वजने कहा --- राजन्‌ ! चित्तका आश्रय ब्रह्म है । उसके दो स्वरूप हैं - मूर्त और अमूर्त अथवा अपर और पर । भूपाल ! संसारमें तीन प्रकारकी भावनाएँ हैं और उन भावनाओंके कारण यह जगत्‌ तीन प्रकारका कहा जाता है । पहली भावनाका नाम ‘ कर्मभावना ’ है , दूसरीका ‘ ब्रह्मभावना " है और तीसरीका ‘ उभयात्मिका भावना ’ है । इनमेंसे पहलीमें कर्मकी भावना होनेके कारण वह ‘ कर्मभावात्मिका ’ है , दूसरीमें ब्रह्मकी भावना होनेसे वह ‘ ब्रह्मभावात्मिका ’ कहलाती है और तीसरीमें दोनों प्रकारकी भावना होनेसे उसको ‘ उभयात्मिका ’ कहते हैं । इस तरह तीन प्रकारकी भावात्मक भावनाएँ हैं । ज्ञानी नरेश ! सनक आदि सिद्ध पुरुष सदा ब्रह्मभावनासे युक्त होते हैं । उनसे भिन्न जो देवताओंसे लेकर स्थावर - जङ्गमपर्यन्त सम्पूर्ण प्राणी हैं , वे कर्मभावनासे युक्त होते हैं । हिरण्यग्रर्भ , प्रजापति आदि सच्चिदानन्द ब्रह्मका बोध और सृष्टिरचनादि कर्मोंका अधिकार - दोनोंसे युक्त हैं ; अत : उनमें ब्रह्मभावना एवं कर्मभावना दोनोंकी ही उपलब्धि होती है ।
राजन्‌ ! जबतक विशेष भेदज्ञानके भेदज्ञानके हेतुभूत सम्पूर्ण कर्म क्षीण नहीं हो जाते , तभीतक भेददर्शी मनुष्योंकी दृष्टिमें यह विश्व तथा परब्रह्म भिन्न - भिन्न प्रतीत होते हैं । जहाँ सम्पूर्ण भेदोंका अभाव हो जाता है , जो केवल सत्‌ है और वाणीका अविषय है तथा जो स्वयं ही अनुभवस्वरूप है , वही ब्रह्मज्ञान कहा गया है । वही अजन्मा एवं निराकार विष्णुका परम स्वरूप है , जो उनके विश्वरूपसे सर्वथा विलक्षण है । राजन्‌ ! योगका साधक पहले उस निर्विशेष स्वरूपका चिन्तन नहीं कर सकता , इसलिये उसे श्रीहरिके विश्वमय स्थूलरूपका ही चिन्तन करना चाहिये । भगवान्‌ हिरण्यगर्भ , इन्द्र , प्रजापति , मरुद्रण , वसु , रुद्र , सूर्य , तारे , ग्रह , गन्धर्व , यक्ष और दैत्य आदि समस्त देव - योनियाँ ; मनुष्य , पशु , पर्वत , समुद्र , नदी , वृक्ष , सम्पूर्ण भूत तथा प्रधानसे लेकर विशेषपर्यन्त उन भूतोंके कारण तथा प्रधानसे लेकर विशेषपर्यन्त उन भूतोंके कारण तथा चेतन - अचेतन , एक पैर , दो पैर और अनेक पैरवाले जीव तथा बिना पैरवाले प्राणी - ये सब भगवान्‌ विष्णुके त्रिविध भावनात्मक मूर्तरूप हैं । यह सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ परब्रह्मस्वरूप भगवान्‌ विष्णुका उनकी शक्तिसे सम्पन्न ‘ विश्व ’ नामक रूप है ।
शक्ति तीन प्रकारकी बतलायी गयी है - परा , अपरा और कर्मशक्ति। भगवान्‌ विष्णुको ‘ पराशक्ति ’ कहा गया है । ‘ क्षेत्रज्ञ ’ अपराशक्ति है तथा अविद्याको कर्मनामक तीसरी शक्ति माना गया है । राजन्‌ ! क्षेत्रज्ञ शक्ति सब शरीरोंमें ब्याप्त है ; परंतु वह इस असार संसारमें अविद्या नामक शक्तिसे आवृत हो अत्यन्त विस्तारसे प्राप्त होनेवाले सम्पूर्ण सांसारिक क्लेश भोगा करती है । परम बुद्धिमान्‌ नरेश ! उस अविद्या - शक्तिसे तिरोहित होनेके कारण वह श्रेत्रज्ञ - शक्ति सम्पूर्ण प्राणियोंमे तारतम्यसे दिखायी देती है । वह प्राणहीन जड पदार्थोंमें बहुत कम है । उनसे अधिक वृक्ष - पर्वत आदि स्थावरोंमें स्थित है । स्थावरोंसे अधिक सर्प आदि जीवोंमें और उनसे भी अधिक पक्षियोंमें अभिव्यक्त हुई है । पक्षियोंकी अपेक्षा उस शक्तिमें मृग बढे - चढे हैं और मृगोंसे अधिक पशु हैं । पशुओंकी अपेक्षा मनुष्य परम पुरुष भगवान्‌की उस क्षेत्रज्ञ - शक्तिसे अधिक प्रभावित हैं । मनुष्योंसे भी बढे हुए नाग , गन्धर्व , यक्ष आदि देवता हैं । देवताओंसे भी इद्र और इन्द्रसे भी प्रजापति उस शक्तिमें बढे हैं । प्रजापतिकी अपेक्षा भी हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीमें भगवान्‌की उस शक्तिका विशेष प्रकाश हुआ है । राजन्‌ ! ये सम्पूर्ण रूप उस परमेश्वरके ही शरीर हैं । क्योंकि ये सब आकाशकी भाँति उनकी शक्तिसे व्याप्त हैं। महामते ! विष्णु नामक ब्रह्मका दूसरा अमूर्त्त ( निराकार ) रूप है , जिसका योगीलोग ध्यान करते हैं और विद्वान्‌ पुरुष जिसे ‘ सतू ’ कहते हैं । जनेश्वर ! भगवान्‌का वही रूप अपनी लीलासे देव , तिर्यक्‌ और मनुष्य आदि चेष्टाओंसे युक्त सर्वशाक्तिमय रूप धारण करता है । इन रूपोंमें अप्रमेय भगवान्‌की जो व्यापक एवं अव्याहत चेष्टा होती है , वह सम्पूर्ण जगत्‌के उपकारके लिये ही होती है , कर्मजन्य नहीं होती । राजन्‌ ! योगके साधकको आत्मशुद्धिके लिये विश्वरूपभगवान्‌के उस सर्वपापनाशक स्वरूपका ही चिन्तन करना चाहिये । जैसे वायुका सहयोग पाकर प्रज्वलित हुई अग्नि ऊँची लपटें उठाकर तृणसमूहको भस्म कर डालती है , उसी प्रकार योगियोंके चित्तमें विराजमान भगवान्‌ विष्णु उनके समस्त पापोंको जला डालतो हैं । इसलिये सम्पूर्ण शक्तियोंके आधारभूत भगवान्‌ विष्णुमें चित्तको स्थिर करे - यही शुद्ध धारणा है ।
राजन्‌ ! तीनों भावनाओंसे अतीत भगवान्‌ विष्णु ही योगियोंकी मुक्तिके लिये इनके सब ओर जानेवाले चञ्चल चित्तके शुभ आश्रय हैं । पुरुषसिंह ! भगवान्‌के अतिरिक्तजो मनके दूसरे आश्रय सम्पूर्ण देवता आदि हैं , वे सब अशुद्ध हैं । भगवान्‌का मूर्तरूप चित्तको दूसरे सम्पूर्ण आश्रयोंसे नि : स्पृह कर देता है - चित्तको जो भगवान्‌में धारण करना - स्थिरतापूर्वक लगाना है , इसे ही ‘ धारणा ’ समझना चाहिये । नर्सेश ! बिना किसी आधारके धारणा नहीं हो सकती ; अत : भगवानके सगुण - साकार स्वरूपका जिस प्रकार चिन्तन करना करना चहिये , वह बतलाता हूँ , सुनो । भगवान्‌का मुख प्रसन्न एवं मनोहर है । उनके नेत्र विकसित कमलदलके समान विशाल एवं सुन्दर हैं । दोनों कपोल बडे ही सुहावने और चिकने हैं । ललाट चौडा और प्रकाशसे उद्भासित है । उनके दोनों कान बराबर हैं और उनमें धारण किये हुए मनोहर कुण्डल कंधेके समीपतक लटक रहे हैं । ग्रीवा शङ्खकी - सी शोभा धारण करती है । विशाल वक्ष :- स्थलमें श्रीवत्सका चिह्न सुशोभित है । उनके उदरमें तिरङ्गाकार त्रिवली तथा गहरी नाभि है । भगवान्‌ विष्णु बडी - बडी चार अथवा आठ भुजाएँ धारण करते हैं । उनके दोनों ऊरु तथा जंघे समानभावसे स्थित हैं और मनोहर चरणारविन्द हमारे अम्मुख स्थिरभावसे खडे हैं । इस प्रकार उन ब्रह्मस्वरूप भगवान्‌ विष्णुका चिन्तन करना चाहिये । उनके मस्तकपर किरीट , गलेमें हार , भुजाओंमें केयूर और हाथोंमें कडे आदि आभूषण उनकी शोभा बढा रहे हैं । शार्ङ्गधनुष , पाञ्चजन्य शङ्ख , कौमोदकी गदा , नन्दक खङग , सुदर्शन चक्र , अक्षमाला तथा वरद और अभयकी मुद्रा - ये सब भगवान्‌के करकमलोंकी शोभा बढाते हैं । उनकी अंगुलियोंमें रत्नमयी मुद्रिकाएँ शोभा दे रही हैं । राजन्‌ ! इस प्रकार योगी भगवान्‌के मनोहर स्वरूपमें अपना चित्त लगाकर तबतक उसका चिन्तन करता रहे , जबतक उसी स्वरूपमें उसकी धारणा दृढ न हो जाय ।
चलते - फिरते , उठते - बैठते अथवा अपनी इच्छाके अनुसार दूसरा कोई कार्य करते समय भी जब वह धारणा चित्तसे अलग न हो , तब उसे सिद्ध हुई मानना चाहिये ।
इसके दृढ होनेपर बुद्धिमान्‌ पुरुष भगवान्‌के ऐसे स्वरूपका चिन्तन करे , जिसमें शङ्ख , चक्र , गदा तथा शार्ङ्ग धनुष आदि आयुध न हों । वह स्वरूप परम शान्त तथा अक्षमाला एवं यज्ञोपवीतसे विभूषित हो । जब यह धारणा भी पूर्ववत्‌ स्थिर हो जाय तो भगवान्‌के किरीट , केयूर आदि आभूषणोंसे रहित स्वरूपका चिन्तन करे । तत्पश्चात्‌ विद्वान्‌ साधक अपने चित्तसे भगवान्‌के किसी एक अवयव ( चरण या मुखारविन्द )- का ध्यान करे । तदनन्तर अवयवोंका चिन्तन छोडकर केवल अवयवी भगवान्‌के ध्यानमें तत्पर हो जाय। राजन्‌ ! जिसमें भगवान्‌के स्वरूपकी ही प्रतीति होती है , ऐसी जो अन्य वस्तुओंकी इच्छासे रहित ध्येयाकार चित्तकी एक अनवरत धारा है , उसीको ‘ ध्यान ’ कहते हैं । वह अपने पूर्व यम - नियम आदि छ : अङ्गोंसे निष्पन्न होता है । उस ध्येय पदार्थका ही जो मनके द्वारा सिद्ध होनेयोग्य कल्पनाहीन ( ध्याता , ध्येय और ध्यानकी विपुटीसे रहित ) स्वरूप ग्रहप किया जाता है , उसे ही ‘ समाधि ’ कहते हैं१ । राजन्‌ ! प्राप्त करनेयोग्य वस्तु है परब्रह्म परमात्मा और उसके समीप पहुँचानेवाला सहायक हैं पूर्वोक्त समाधिजनित विज्ञान तथा उस उस परमात्मातक पहुँचनेका पात्र है सम्मूर्ण कामनाओंसे रहित आत्मा । क्षेत्रज्ञ कर्ता है और ज्ञान करण है : अत : उस ज्ञानरूपी करणके द्वारा वह प्रापक विज्ञान उस क्षेत्रज्ञका मुक्तिरूप कार्य सिद्ध करके कृतकृत्य होकर निवृत्त हो जाता है । उस समय वह भगवद्भवमयी भावनासे पूर्ण हो परमात्मासे अभिन्न हो जाता है । वास्तवमें क्षेत्रज्ञ और परमात्माका भेद तो अज्ञानजनित ही है । भेद उत्पन्न करनेवाले अज्ञानके सर्वथा नष्ट हो जानेपर आत्मा और ब्रह्ममें भेद नहीं रह जाता । उस दशामें भेदबुद्धि कौन करेगा । खाण्डिक्यजी ! इस प्रकार आपके प्रश्रके अनुसार मैंने संक्षेप और विस्तारसे योगका वर्णन किया । अब मैं आपका दूसरा कौन कार्य करूँ ?
खाण्डिक्य बोले --- राजन्‌ ! आपने योगद्वारा परमात्मभावको प्राप्त करनेके उपायका वर्णन किया । इससे मेरा सभी कार्य सम्पन्न हो गया । आज आपके उपदेशसे मेरे मनकी सारी मलिनता नष्ट हो गयी । मैंने जो ‘ मेरे ’ शब्दका प्रयोग किया , यह भी असत्य ही है , अन्यथा ज्ञेय तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानी पुरुष तो यह भी नहीं कह सकते । ‘ में ’ और ‘ मेरा ’ यह बुद्धि तथा अहंता - ममताका व्यवहार बी अविद्या ही है । परमार्थ वस्तु तो अनिर्वचनीय है , क्योंकि वह वाणीका विषय नहीं हैं । केशिध्वजजी ! आपने जो इस अविनाशी मोक्षदायक योगका वर्णन किया है , इसके द्वारा मेरे कल्याणके लिये आपने सब कुछ कर दिया ।
सनन्दनजी कहते हैं --- ब्रह्मन्‌ ! तदनन्तर राजा खाण्डिक्यने यथोचितरूपसे महाराज केशिध्वजका पूजन किया और वे उनसे समानित होकर पुन : अपनी राजधानीमें लौट आये । खाण्डिक्य भगवान्‌ विष्णुमें चित्त लगाये हुए योगसिद्धिके लिये विशालापुरी ( बदरिकाश्रम ) - को चले गये । वहाँ यम - नियम आदि गुणोंसे युक्त हो उन्होंने भगवान्‌की अनन्यभावसे उपासना की और अन्तमें वे अत्यन्त निर्मल परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ विष्णुमें लीन हो गये । नारदजी ! तुमने आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंकी चिकित्साके लिये जो उपाय पूछा था , वह सब मैंने बताया ।