श्रीनारदपुराण - पूर्वभाग

`नारदपुराण ’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द-शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


द्वितीय पाद - अद्वैतज्ञानका उपदेश


 
जडभरत और सौवीरनरेशका संवाद - परमार्थका निरूपण तथा ऋभुका 
निदाघको अद्वैतज्ञानका उपदेश
सनन्दनजी कहते हैं --- नारदजी ! ब्राह्मणका परमार्थयुक्त वचन सुनकर सौवीर - नरेशने विनयसे नम्र होकर कहा ।
राजा बोले --- विप्रवर ! आपने सम्पूर्ण जीवोंमें व्याप्त जिस विवेक - विज्ञानका दर्शन कराया है , वह प्रकृतिसे परे ब्रह्मका ही स्वरूप है । परंतु आपने जो यह कहा कि मैं पालकी नहीं ढोटा हूँ और न मुझपर पालकीका भार ही है । जिसने यह पालकी उठा रखी है , वय शरीर मुझसे भिन्न है । जीवोंकी प्रवृत्ति गुणोंकी प्रेरणासे होती है और ये गुण कर्मोंसे प्रेरित होकर प्रवृत्त होते हैं । इसमें मेरा कर्तृत्व क्या है ? परमार्थके ज्ञाता द्विजश्रेष्ठ ! आपकी वह बात कानमें पडते ही मेरा मन परमार्थका जिज्ञासु होकर उसे प्राप्त करनेके लिये विह्नल हो उठा है। महाभाग द्विज ! मैं पहलेसेही महर्षि कपिलके पास जाकर यह पूछनेके लिये उद्यत हुआ था कि इस जगत्‌में श्रेय क्या है , यह मुझे बताइये । किंतु इसके बीचमें ही आपने जो ये बातें कही हैं , उन्हे सुनकर मेरा मन परमार्थश्रवणके लिये आपकी ओर दौड रहा है । महर्षि कपिलजी सर्वभूतस्वरूप भगवान्‌ विष्णुके अंश हैं और संसारके मोहका नाश करनेके लिये इस पृथ्वीपर उनका आगमन हुआ है - ऐसा मुझे जान पडता है । वे ही भगवान्‌ कपिल मेरे हितकी कामनासे यहाँ आपके रूपमें प्रत्यक्ष प्रकट हुए हैं , तभी तो आप ऐसा भाषण कर रहे हैं । अत : ब्रह्मन्‌ ! मेरे मोहका नाश करनेके लिये जो परम श्रेय हो , वह मुझे बताइये ; क्योंकि आप सम्पूर्ण विज्ञानमय जलकी तरंगोंके समुद्र जान पडते हैं ।
ब्राह्मणने कहा --- भूपाल ! क्या तुम श्रेयकी ही बात पूछते हो ? जो मनुष्य देवताकी आराधना करके धन - सम्पत्ति चाहता है , पुत्र तथा राज्य ( एवं स्वर्ग )- की अभिलाषा करता है , उसके लिये तो वे ही वस्तुएँ श्रेय हैं ; परंतु विवेकी पुरुषके लिये परमात्माकी प्राप्ति ही श्रेय है । स्वर्गलोकरूप फल देनेवाला जो यज्ञ आदि कर्म है , वह भी श्रेय ही है ; परंतु प्रधान श्रेय तो उसके फलकी इच्छा न करनेमें ही है । भूपाल ! योगयुक्त तथा अन्य पुरुषोंको भी सदा परमात्माका चिन्तन करना चाहिये : क्योंकि परमात्माका संयोगरूप जो श्रेय है , वही वास्तविक श्रेय है । इस प्रकार श्रेय तो अनेक हैं , सैकडों और हजारों प्रकारके हैं ; किंतु वे सब परमार्थ नहीं हैं । परमार्थ मैं बतलाता हूँ , सुनो - यदि धन ही परमार्थ होता तो धर्मके लिये उसका त्याग क्यों किया जाता तथा भोगोंकी प्राप्तिके लिये उसका व्यय क्यों किया जाता ? नरेश्वर ! यदि इस संसारमें राज्य आदिकी प्राप्तिको परमार्थ कहा जाय तो वे कभी रहते हैं और कभी नहीं रहते हैं ; इसलिये परमार्थको भी आगमापायी मानना पडेगा । यदि ऋग्वेद , यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंसे सम्पन्न होनेवाले यज्ञकर्मको तुम परमार्थ मानो तो उसके विषयमें मैं जो कहता हूँ , उसे सुनो । राजन्‌ ! कारणभूत मृत्तिकासे जो कर्म उत्पन्न होता है , वह कारणका अनुगमन करनेसे मृत्तिकास्वरूप ही समझा जाता है । इस न्यायसे समिधा , घृत और कुशा आदि विनाशशील द्रव्योंद्वारा जो क्रिया सम्पादित होती है , वह भी अवश्य ही विनाशशील होगी ; परंतु विद्वान्‌ पुरुष परमार्थको अविनाशी मानते हैं । जो क्रिया नाशवान्‌ पदार्थोंसे सम्पन्न होती है , वह और उसका फल दोनों निस्संदेह नाशवान्‌ होते हैं । यदि निष्काम - भावसे किया जानेवाला कर्म स्वर्गादि फल न देनेके कारण परमार्थ माना जाय तो मेरे विचारसे वह परमार्थभूत मोक्षका साधनमात्र है और साधन कभी परमार्थ हो नहीं सकता ( क्योंकि वह साध्य माना गया है ) राजन्‌ ! यदि आत्माके ध्यानको ही परमार्थ नाम दिया जाय तो वह दूसरोंसे आत्माका भेद करनेवाला है ; कितुं परमार्थमें भेद नहीं होता । अत : राजन्‌ ! निस्संदेह ये सब श्रेय ही हैं , परमार्थ नहीं। भूपाल ! अब मैं संक्षेपसे परमार्थका वर्णन करता हूँ , सुनो - --
नरेश्वर ! आत्मा एक , व्यापक , सम , शुद्ध , निर्गुण और प्रकृतिसे परे है , उसमें जन्म और वृद्धि आदि विकार नहीं हैं । वह सर्वत्र व्यापक तथा परम ज्ञानमय है । असत्‌ नाम और जाति आदिसे उस सर्वव्यापक परमात्माका न कभी संयोग हुआ , न है और न होगा ही । वह अपने और दूसरेके शरीरोंमें विद्यमान रहते हुए भी एक ही है । इस प्रकारका जो विशेष ज्ञान है , वही परमार्थ है । द्वैतभावना रखनेवाले पुरुष तो अपरमार्थदर्शी ही हैं। जैसे बाँसुरीमें एक ही वायु अभेदभावसे व्याप्त है ; किंतु उसके छिद्रोंके भेदसे उसमें षड्‍ज , ऋषभ आदि स्वरोंका भेदा हो जाता है , उसी प्रकार उस एक ही परमात्माके देव , मनुष्य आदि अनेक भेद प्रतीत होते हैं । उस भेदकी स्थिति तो अविद्याके आवरणतक ही सीमित है । राजन्‌ ! इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास सुनो ---
निदाघ नामक ब्राह्मणको उपदेश देते हुए महामुनि ऋभुने जो कुछ कहा था , उसीका इसमें वर्णन है । परमेष्ठी ब्रह्माजीके एक ऋभु नामक पुत्र हुए । भूपते ! वे स्वभावसे ही परमार्थतत्त्वके ज्ञाता थे । पूर्वकालमें पुलस्त्यमुनिके पुत्र निदाघ उनके शिष्य हुए थे । ऋभुने बडी प्रसन्नतोके साथ निदाघको सम्पूर्ण तत्त्वज्ञानका उपदेश दिया था । समस्त ज्ञानप्रधान शास्त्रोंका उपदेश प्राप्त कर लेनेपर भी निदाघकी अद्वैतमें निष्ठा नहीं हुई । नरेश्वर ! ऋभुने निदाघकी इस स्थितिको ताड लिया था। देविका नदीके तटपर वीरनागर नामक एक अत्यन्त समृद्धिशाली और परम रमणीय नगर था , उसे महर्षि पुलस्त्यने बसाया था । उसी नगरमें पहले महर्षि ऋभुके शिष्य योगवेत्ता निदाट निवास करते थे । उनके वहाँ रहत हुए जब एक हजार दिव्य वर्ष व्यतीत हो गये , तब महर्षि ऋभु अपने शिष्य निदाघको देखनेके लिये उनके नगरमे गये । निदाघ बलिवैश्वदेवके अन्तमे द्वारपर बैठकर आतिथियोंकी प्रतीक्षा कर रहे थे । वे ऋभुको पाद्य और अर्घ्य देकर अपने घरमेंले गये और हाथ - पैर धुलाकर उन्हें आसनपर बिठाया तत्पश्चात्‌ ! द्विजश्रेष्ठ निदाघने आदरपूर्वक कहा -‘ विप्रवर । अब भोजन कीजिये । ’
ऋभु बोले --- द्विजश्रेष्ठ ! आपके घरमें भोजन करने योग्य जो - जो अन्न प्रस्तुत हो , उसका नाम बतलाइये ।
निदाघबे कहा --- द्विजश्रेष्ठ ! मेरे घरमें सत्तू ,
जौकी लपसी और बाटी बनी हैं । आपको इनमेंसे जो कुछ रुचे , वही इच्छानुसार भोजन कीजिये । 
ऋभु बोले --- ब्रह्मन्‌ ! इन सबमें मेरी रुचि नहीं है । मुझे तो मीठा अन्न दो । हलुआ , खीर और खाँडके बने हुए पदार्थ भोजन कराओं ।
निदाघने अपनी स्त्रीसे कहा --- शोभने ! हमारे घरमें जी अच्छी - से - अच्छी भोजन - सामग्री उपलब्ध हो , उसके द्वारा इन अतिथि - देवताके लिये मिष्टान्न बनाओ ।
पतिके ऐसा कहनेपर ब्राह्मणपत्नाने स्वामीकी आज्ञाका आदर करते हुए ब्राह्मण देवताके लिये मीठा भोजन तैयार किया । राजन्‌ ! महामुनि ऋभुके इच्छानुसार मिष्टान्न भोजन कर लेनेपर निदाघने विनीतभावसे खडे होकर पूछा ।
निदाघ बोले --- ब्रह्मन्‌ ! कहिये , भोजनसे आपको भलीभाँति तृप्ति हुई ? आप संतुष्ट हो गये न ? अब आपका चित्त पूर्णत : स्वस्थ है न ? विप्रवर ! आप कहाँके रहनेवाले हैं . कहाँ जानेको उद्यत हैं और कहाँसे आपका आगमन हुआ है ? यह सब बताइये ।
ऋभुने कहा --- ब्रह्मन्‌ ! जिसे भूख लगती है , उसीको अन्न भोजन करनेपर तृप्ति भी होती है । मुझे तो न कभी भूख लगी और न तृप्ति हुई । फिर मुझसे क्यों पूछते हो ? जठराग्निसे पार्थिव धातु ( पहलेके खाये हुए पदार्थ )- के पच जानेपर क्षुधाकी प्रतीति होती है । इसी प्रकार पिये हुए जलके क्षीण हो जानेपर मनुष्योंको प्यासका अनुभव होता है । द्विज ! ये भूख और प्यास देहके ही धर्म हैं , मेरे नहीं। अत : मुझे कभी भूख लगनेकी सम्भावना ही नहीं है । इसलिये मुझे तो सर्वदा तृप्ति रहती ही है । ब्रह्मन्‌ ! मनकी स्वस्थता और संतोष - ये दोनों चित्तके धर्म ( विकार ) हैं। अत : आत्मा इन धर्मोंसे संयुक्त नहीं होता और तुमने जो यह पूछा है कि आपका निवास कहाँ है , आप कहाँ जायँगे और आप कहाँसे आते हैं - इन तीनों प्रश्रोंके विषयमें मेरा मत सुनो । आत्मा सबमें व्याप्त है । यह आकाशकी भाँति सर्वव्यापक है , अत : इसके विषयमें कहाँसे आये , कहाँ रहते हैं और कहाँ जायँगे - यह प्रश्र कैसे सार्थक हो सकता है ? इसलिये मैं न जानेवाला हूँ और न आनेवाला । ( तू , मैं और अन्यका भेद भी शरीरको लेकर ही है ) वास्तवमें न तू तू है , न अन्य अन्य है और न मैं मैं हूँ ( केवल विशुद्ध आत्मा ही सर्वत्र विराजमान है ) इसी प्रकार मीठा भी मीठा नहीं है। मैंने जो तुमसे मिष्टान्नके लिये पूछा था उसमें भी मेरा यही भव था कि देखूँ , ये क्या कहते हैं । द्विजश्रेष्ठ ! इस विषयमें मेरा विचार सुनो । मीठा अन्न भी तृप्त हो जानेके बाद मीठा नहीं लगता तो वही उद्वेगजनक हो जाता है । कभी - कभी जो मीठा नहीं है , वह भी मीठा लगता है अर्थात्‌ अधिक भूख होनेपर फीका अन्न भी मीठा ( अमृतके समान ) लगता है । ऐसा कौन - सा अन्न है , जो आदि , मध्य और अन्त - तीनों कालमें रुचिकर ही हो । जैसे मिट्टीक घर मिट्टीसे लिपनेपर स्थिर होता है , उसी प्रकार यह पार्थिव शरीर पार्थिव परमाणुओंसे पुष्ट होता है । जौ , गेहूँ , मूँग , घी , तेल , दूध , दही , गुड और फल आदि सभी भोज्य - पदार्थ पार्थिव परमाणु ही तो हैं ( इनमेंसे कौन स्वादिष्ट है और बे - मीठेका विचार करनेवाला है , उस मनको तुम्हें समदर्शी बनाना चाहिये ; क्योंकि समता ही मोक्षका उपाय है ।
राजन्‌ ! ऋभुके ये परमार्थयुक्त वचन सुनकर महाभाग निदाघने उन्हें प्रणाम करके कहा -‘ ब्रह्मन्‌ ! आप प्रसन्न होइये और बताइये , मेरा हितसाधन करनेके लिये यहाँ पधारे हुए आप कौन हैं ? आपके इन वचनोंको सुनकर मेरा सम्पूर्ण मोह नष्ट हो गया है । ’
ऋभु बोले --- द्विजश्रेष्ठ ! मैं तुम्हारा आचार्य ऋभु हूँ और तुम्हें तत्त्वको समझनेवाली बुद्धि देनेके लिये यहाँ आया था । अब मैं जाता हूँ । जो कुछ परमार्थ है , वह सब मैंने तुम्हें बता दिया । इस प्रकार परमार्थ - तत्त्वका विचार करते हुए तुम इस सम्पूर्ण जगत्‌को एकमात्र वासुदेवसंज्ञक परमात्माका स्वरूप समझो । इसमें भेदका सर्वथा अभाव है ।
ब्राह्मण जडभरत कहते हैं --- तदनन्तर निदाघने ‘ बहुत अच्छा ’ कहकर गुरुदेवको प्रणाम किया और बडी भक्तिसे उनकी पूजा की । तत्पश्चात्‌ वे निदाघकी इच्छा न होनेपर भी वहाँसे चले गये । नरेश्वर ! तदनन्तर एक सहस्र दिव्य वर्ष बीतनेके बाद गुरुदेव महर्षि ऋभु निदाघको ज्ञानोपदेश करनेके लिये पुन : उसी नरमें आये । उन्होंने नगरसे बाहर ही निदाघको देखा । वहाँका राजा बहुत बडी सेना आदिके साथ धूम - धामसे नगरमें प्रवेश कर रहा था और निदाघ मनुष्योंकी भीड - भाडसे दूर हटकर खडे थे । वे जंगलसे समिधा और कुशा लेकर आये थे और भूख - प्याससे उनका गला सूख रहा था । निदाघको देखकर ऋभु उनके समीप गये और अभिवादन करके बोले -‘ बाबाजी ! आप यहाँ एकान्तमें कैसे खडे हैं ?’
निदाघ बोले --- विप्रवर ! आज इस रमणीय नगरमें यहाँके राजा प्रवेश करना चाहते हैं। अत : यहाँ मनुष्योंकी यह बहुत बडी भीड इकठ्ठी हो गयी है। इसीलिये मैं यहाँ खडा हूँ ।
ऋभुने पूछा --- द्विजश्रेष्ठ ! आप यहाँकी बातोंके जानकार मालूम होते हैं । अत : बताइये , यहाँ राजा कौन है और दूसरे लोग कौन हैं ?
निदाघ बोले --- यह ज पर्वतशिखरके समान ऊँचे और मतवाले गजराजपर चढा हुआ है , वही राजा है और दूसरे लोग उसके परिजन हैं ।
ऋभुने पूछा --- महाभाग ! मैंने हाथी तथा राजाको एक ही साथ देखा है । आपने विशेषरूपसे इनका पृथक‌ - पृथक्‌ चिह्न नहीं बताया ; इसलिये मैं पहचान न सका । अत : आप इनकी विशेषता बतलाइये । मैं जानना चाहता हूँ कि इनमें कौन राजा है और कौन हाथी ?
निदाघ बोले --- ब्रह्मन्‌ ! इनमें यह जो नीचे है , वह हाथी है और इसके ऊपर ये राजा बैठे हैं । इन दोनोंमें एक वाहन है और दूसरा सवार । भला , वाह्य - वाहक - सम्बन्धको कौन नहीं जानता ?
ऋभुने पूछा --- ब्रह्मन्‌ ! जिस प्रकार मैं अच्छी तरह समझ सकूँ , उस तरह मुझे समझाइये । ‘ नीचे ’ इस शब्दका क्या अभिप्राय है और ‘ ऊपर ’ किसे कहते हैं ?
ब्राह्मण जडभरत कहते हैं --- ऋभुके ऐसा कहनेपर निदाघ सहसा उनके ऊपर चढ गये और इस प्रकार बोले -‘ सुनिये , आप मुझसे जो कुछ पूछ रहे हैं , वह अब समझाकर कहता हूँ । इस समय मैं राजाकी भाँति ऊपर हूँ और श्रीमान्‌ गजराजकी भाँति नीचे । ब्राह्मणदेव ! आपको भलीभाँति समझानेके लिये ही मैंने यह दृष्टान्त दिखाया है ।
ऋभुने कहा --- द्विजश्रेष्ठ ! यदि आप राजाके समान हैं और मैं हाथीके समान हूँ तो यह बताइये कि आप कौन हैं और मैं कौन हूँ ?
ब्राह्मण कहते हैं --- ऋभुके ऐसा कहनेपर निदाघ्ने तुरंत ही उनके दोनों चरणोंमें मस्तक नवाया और कहा -‘ भगवन्‌ ! आप निश्चय ही मेरे आचार्यपाद महर्षि ऋभु हैं ; क्योंकि दूसरेका ह्रदय इस प्रकार अद्वैत - संस्कारसे सम्पन्न नहीं है . जैसा कि मेरे आचार्यका । अत : मेरा विश्वास है , आप मेरे गुरुजी ही यहाँ पधारे हुए हैं ।
ऋभुने कहा --- निदाघ ! पहले तुमने मेरी बडी सेवा - शुश्रूषा की है । इसलिये अत्यन्त स्नेहवश मैं तुम्हें उपदेश देनेके लिये तुम्हारा आचार्य ऋभु ही यहाँ आया हूँ । महामते ! समस्त पदार्थोंमें अद्वैत आत्मबुद्धि होना ही परमार्थका सार है । मैंने तुम्हें संक्षेपसे उसका उपदेश कर दिया ।
ब्राह्मण जडभरत कहते हैं --- विद्वान्‌ गुरु महर्षि ऋभु निदाघसे ऐसा कहकर चले गये । निदाघ भी उनके उपदेशसे अद्वैतपरायण हो गये और सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेसे अभिन्न देखने लगे । ब्रह्मर्षि निदाघने इस प्रकार ब्रह्मपरायण होकर परम मोक्ष प्राप्त कर लिया। धर्मज्ञ नरेश ! इसी प्रकार तुम भी आत्माको सबमें व्याप्त जानते हुए अपनेमें तथा शत्रु और मित्रमें समान भाव रखो ।
सनन्दनजी कहते हैं --- ब्राह्मणके ऐसा कहनेपर राजाओंमें श्रेष्ठ सौवीर - नरेशने परमार्थकी ओर दृष्टि रखकर भेदबुद्धि त्याग दी और वे ब्राह्मण भी पूर्वजन्मकी बातोंकी स्मरण करके बोधयुक्त हो उसी जन्ममें मुक्त हो गये । मुनीश्वर नारद ! इस प्रकार मैंने तुम्हे परमार्थरूप यह अध्यात्मज्ञान बताया है । इसे सुननेवाले ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्योंको भी यह मुक्ति प्रदान करनेवाला है ।