श्रीनारदपुराण - पूर्वभाग

`नारदपुराण ’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द-शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


द्वितीय पाद - शिक्षा-निरूपण


 
सूतजी कहते हैं --- सनन्दनजीका ऐसा वचन सुनकर नारदजी अतृप्त - से रह गये । वे और भी सुननेके लिये उत्सुक होकर भाई सनन्दनजीसे बोले ।
नारदजीने कहा --- भगवन्‌ ! मैंने आपसे जो कुछ पूछा है , वह सब आपने बता दिया । तथापि भगवत्सम्बन्धी चर्चाको बारंबार सुनकर भी मेरा मन तृप्त नहीं होता - अधिकाधिक सुननेके लिये उत्कण्ठित हो रहा है । सुना जाता है , परम धर्मज्ञ व्यास - पुत्र शुकदेवजीने आन्तरिक और बाह्म - सभी भोगोंसे पूर्णत : विरक्त होकर बडी भारी सिद्धि प्राप्त कर ली । ब्रह्मन्‌ ! महात्माओंकी सेवा ( सत्सङ्ग ) किये बिना प्राय : पुरुषको विज्ञान ( तत्त्व - ज्ञान ) नहीं प्राप्त होता , किंतु व्यासनन्दन शुकदेवने बाल्यावस्थामें ही ज्ञान पा लिया : यह कैसे सम्भव हुआ ? महाभाग ! आप मोक्षशास्त्रके तत्त्वको जाननेवाली हैं । मैं सुनना चाहता हूँ , आप मुझसे शुकदेवजीका रहस्यमय जन्म और कर्म कहिये ।
सनन्दनजी बोले --- नारद ! सुनो , मैं शुकदेवजीकी उत्पत्तिका वृत्तान्त संक्षेपसे कहूँगा । मुने ! इस वृत्तान्तको सुनकर मनुष्य ब्रह्मतत्त्वका ज्ञाता हो सकता है । अधिक आयु हो जानेसे , बाल पक जानेसे , धनसे अथवा बन्धु - बान्धवोंसे कोई बडा नहीं होता । ऋषि - मुनियोंने यह धर्मपूर्ण निश्चय किया है कि हमलोगोंमें जो ‘ अनूचान ’ हो , वही महान्‌ है ।
नारदजीने पूछा --- सबको मान देनेवाले विप्रवर ! पुरुष ‘ अनूचान ’ कैसे होता है ? वह उपाय मुझे बताइये ; क्योंकि उसे सुननी लिये मेरे मनमें बडा कौतूहल है ।
सनन्दनजी बोले --- नारद ! सुनो , मैं अनुचानका लक्षण बताता हूँ , जिसे जानकर मनुष्य अङ्गोंसहित वेदोंका ज्ञाता होता है । शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , ज्यौतिष तथा छन्द : शास्त्र - इन छ : को विद्वान्‌ पुरुष वेदाङ्ग कहते हैं । धर्मका प्रतिपादन करनेमें ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद - ये चार वेद ही प्रमाण बताये गये हैं । जो श्रेष्ठ द्विज गुरुसे छहों अङ्गोंसहित वेदोंका अध्ययन भलीभाँति करता है , वह ‘ अनूचान ’ होता है ; अन्यथा करोडों ग्रन्थ बाँच लेनेसे भी कोई ‘ अनुचान ’ नही कहला सकता ।
नारदजीने कहा :--  मानद ! आप अङ्गोंसहित इन सम्पूर्ण वेदोंके महापण्डित हैं । अत : मुझे अङ्गों और वेदोंका लक्षण विस्तारपूर्वक बताइये ।
सनन्दनजी बोले --- ब्रह्मन्‌ ! तुमने मुझपर प्रश्रका यह अनुपम भार रख दिया । मैं संक्षेपसे इन सबके सुनिश्चित सार - सिद्धान्तका वर्णन करूंगा । वेदवेत्ता ब्रह्मार्षियोंने वेदोंकी शिक्षामें स्वरको प्रधान कहा है ; अत : स्वरका वर्णण करता हूँ . सुनो - स्वर - शास्त्रोंके निश्चयके अनुसार विशेषरूपसे आर्चिक ( ऋक्सम्बन्धी ), गाथिक ( गाथा - सम्बन्धी ) और सामिक ( सामसम्बन्धी ) स्वर - व्यवधानका प्रयोग करना चाहिये । ऋचाओंमें एकका अन्तर देकर स्वर होता है । गाथाओंमें दोके व्यवधानसे और साम - मन्त्रोंमें तीनके व्यवधानसे स्वर होता है । स्वरोंका इतना ही व्यवधान सर्वत्र जानना चाहिये । ऋक्‌ , साम और यजुर्वेदके अङ्गभूत जो याज्य - स्तोत्र , करण और मन्त्र आदि याज्ञिकोंद्वारा यज्ञोंमें प्रयुक्त होते हैं , शिक्षा - शास्त्रका ज्ञान न होनेसे उनमें विस्वर ( विरुद्ध स्वरका उच्चारण ) हो जाता है । मन्त्र यदि यथार्थ स्वर और वर्णसे हीन हो तो मिथ्या - प्रयुक्त होनेके कारण वह उस अभीष्ट अर्थका बोध नहीं कराता : इतना ही नहीं , वह वाक्‌रूपी वज्र यजमानकी हिंसा कर देता है - जैसे ‘ इन्द्रशत्रु ’ यह पद स्वरभेदजनित अपराधके कारण यजमानके लिये ही अनिष्टकारी हो गया । सम्पूर्ण वाङमयके उच्चारणके लिये वक्ष : स्थल , कण्ठ और सिर - ये तीन स्थान हैं । इन तोनोंको सवन कहते हैं , आर्थात्‌ वक्ष : स्थानमे नीचे स्वरसे जो शब्दोच्चारण होता है , उसे प्रात : सवन कहते हैं : कण्ठस्थानमें मध्यम स्वरसे किये हुए शब्दोच्चारणका नाम माध्यन्दिनसवन है तथा मस्तकरूप स्थानमें उच्च स्वरसे जो शब्दोच्चारण है , उसे तृतीयसवन कहते हैं। अधरोत्तरभेदसे सप्तस्वरात्मा सामके भी पूर्वोक्त तीन ही स्थान हैं । उरोभाग , कण्ठ तथा सिर - ये सातों स्वरोंके विचरण - स्थान हैं । किंतु उर : स्थलमें मन्द्र और अतिस्वारकी ठीक अभिव्यक्ति न होनेसे उसे सातों स्वरोंका विचरण - स्थल नहीं कहा जा सकता : तथापि अध्ययनाध्यापनके लिये वैसा विधान किया गया है। ( ठीक अभिव्यक्ति न होनेपर भी उपांशु या मानस प्रयोगमें वर्ण तथा स्वरका सूक्ष्म उच्चारण तो होता ही है । ) कठ , कलाप , तैत्तिरीय तथा आह्वरक शाखाओंमें और ऋवेद तथा सामवेदमें प्रथम स्वरका उच्चारण करना चाहिये । ऋग्वेदकी प्रवृत्ति दूसरे और तीसरे स्वरके द्वारा होती है । लौलिक व्यवहारमें उच्च और मध्यमका संघात - स्वर होता है । आह्वरक शाखावाले तृतीय तथा प्रथममें उच्चारित स्वरोंका प्रयोग करते हैं । तैत्तिरीय शाखावाले द्वितीयसे लेकर पञ्चमतक चार स्वरोंका उच्चारण करते हैं । सामगान करनेवाले विद्वान्‌ प्रथम ( षडज ), द्वितीय ( ऋषभ ), तृतीय गान्धार , चतुर्थ मध्यम , मन्द्र पञ्चम , क्रुष्ट धैवत तथा अतिस्वार निषाद - इन सातों स्वरोंका प्रयोग करते हैं । द्वितीय और प्रथम - ये ताण्डी ताण्डयप्रञ्चविंशादि ब्राह्मणके अध्येता कौथुम आदि शाखावाले तथा भाल्लवी छन्दोग शाखावाले विद्वानोंके स्वर हैं तथा शतपथ ब्राह्मणमें आये हुए ये दोनों स्वर वाजसनेयी शाखावालोंके द्वारा भी प्रत्युक्त होते हैं । ये सब वेदोंमें प्रयुक्त होनेवाले स्वर विशेषरूपसे बताये गये हैं । इस प्रकार सार्ववैदिक स्वर - संचार कहा गया है ।
अब मैं सामवेदके स्वर - संचारका वर्णन करूँगा । अर्थात्‌ छन्दोग विद्वान्‌ सामगानमें तथा ऋक्पाठमें जिन स्वरोंका उपयोग करते हैं , उनका यहाँ विशेषरूपसे निरूपण किया जाता है । यहाँ श्लोक थोडे होंगे ; किंतु उनमें अर्थ - विस्तार अधिक होगा । यह उत्तम वेदाङ्गका विषय सावधानीसे श्रवण करनेयोग्य है । नारद ! मैंने तुम्हें पहले भी कभी तान , राग , स्वर , ग्राम तथा मूर्च्छनाओंका लक्षण बताया है , जो परम पवित्र , पावन तथा पुण्यमय है । द्विजातियोंको ऋग्वेद , यजुर्वेद और सामवेदके स्वरूपका परिचय कराना - इसे ही शिक्षा कहते हैं । सात स्वर , तीन ग्राम , इक्कीस मूर्च्छना और उनचास तान - इन सबको स्वर - मण्डल कहा गया है । षडज , ऋषभ , गान्धार , मध्यम , पञ्चम , धैवत तथा सातवाँ निषाद - ये सात स्वर हैं । षड्‌ज , मध्यम और गान्धार - ये तीन ग्राम कहे गये हैं । भूर्लोकसे षडज उत्पन्न होता है , भुवर्लोकसे मध्यम प्रकट होता है तथा स्वर्ग एवं मेघलोकसे गान्धारका प्राकटय होता है । ये तीन ही ग्राम - स्थान हैं । स्वरोंके राग - विशेषसे ग्रामोंके विविध राग कहे गये हैं । साम - गान करनेवाले विद्वान्‌ मध्यम - ग्राममें बीस , षडजग्राममें चौदह तथा गान्धारग्राममें पंद्रह तान स्वीकार करते हैं । नन्दी , विशाला , सुमुखी , चित्रा , चित्रवती , सुखा तथा बला - ये देवताओंकी सात मूर्च्छनाएँ जाननी चाहिये । आप्यायिनी , विश्वभृता , चन्द्रा , हेमा , कपर्दिनी , मैत्री तथा बार्हती - ये पितरोंकी सात मूर्च्छनाएँ हैं । षङजस्वरमें उत्तर मन्द्रा , ऋषभमें अभिरूढता ( या अभिरुद्नता ) तथा गान्धारमें अश्वक्रान्ता नामवाली तीसरी मूर्च्छना मानी गयी है । मध्यमस्वरमें सौवीरा पञ्चममें हृषिका तथा धैवतमें उत्तरायता नामकी मूर्च्छना जाननी चाहिये। निषादस्वरमें रजनी नामक मूर्च्छनाको जाने। ये ऋषियोंकी सात मूर्च्छनाएँ हैं । गन्धर्वगण देवताओंकी सात मूर्च्छनाओंका आश्रय लेते हैं । यक्षलोग पितरोंकीसात मूर्च्छनाएँ अपनाते हैं , इसमें संशय नहीं है। ऋषियोंकी जो सात मूर्च्छनाएँ हैं , उन्हें लौकिक कहा गया है - उनका अनुसरण मनुष्य करते हैं । षडजस्वर देवताओंको और ऋषभस्वर ऋषि - मुनियोंको तृप्त करता है । गान्धारस्वर पितरोंको , मध्यमस्वर गन्धर्वोंको तथा पञ्चमस्वर देवताओं , पितरों एवं महर्षियोंको भी संतुष्ट करता है । निषादस्वर यक्षोंको तथा धैवत सम्पूर्ण भूत - समुदायको तृप्त करता है । गानकी गुणवृत्ति दस प्रकारकी है अर्थात्‌ लौकिक - वैदिक गान दस गुणोंसे युक्त हैं । रक्त , पूर्ण , अलंकृत , प्रसन्न , व्यक्त , विक्रुष्ट , श्लक्ष्ण , सम , सुकुमार तथा मधुर - ये ही वे दसों गुण हैं । वेणु , वीणा तथा पुरुषके स्वर जहाँ एकमें मिलकर अभिन्न - से प्रतीत होते हैं और उससे जो रञ्जन होता हैं , उसका नाम ‘ रक्त ’ है । स्वर तथा श्रुतिकी पूर्ति करनेसे तथा छन्द एवं पादाक्षरोंके संयोग ( स्पष्ट उच्चारण )- से जो गुण प्रकट होता है , उसे ‘ पूर्ण ’ कहते हैं । कण्ठ अर्थात्‌ प्रथम स्थानमें जो स्वर स्थित है , उसे नीचे करके ह्रदयमें स्थापित करना और ऊँचे करके सिरमें ले जाना - यह ‘ अलंकृत ’ कहलाता है । जिसमें कण्ठका गद्‌गदभाव निकल गया है और किसी प्रकारकी शङ्का नहीं रह गयी है , वह ‘ प्रसन्न ’ नामक गुण है । जिसमें पद , पदार्थ , प्रकृति , विकार , आगम , लोप , कृदन्त , तद्धित्त , समास , धातु , निपात , उपसर्ग , स्वर , लिङग , वृत्ति , वार्तिक , विभक्त्यर्थ तथा एकवचन , बहुवचन , आदिका भलीभाँति उपपादन हो , उसे ‘ व्यक्त ’ कहते हैं । जिसके पद और अक्षर स्पष्ट हों तथा जो उच्च स्वरसे बोला गया हो , उसका नाम ‘ विक्रुष्ट ’ है । द्रुत ( जल्दबाजी ) और विलम्बित - दोनों दोषोंसे रहित , उच्च , नीच , प्लुच , समाहार , हेल , ताल और उपनय आदि उपपत्तियोंसे युक्त गीतको ‘ श्लक्ष्ण ’ कहते हैं । स्वरोंके अवाप - निर्वाप ( चढाव - उतार )- के जो प्रदेश हैं , उनका व्यवहित स्थानोंमें जो समावेश होता है , उसीका नाम ‘ सम ’ है । पद , वर्ण , स्वर तथा कुहरण ( अव्यक्त अक्षरोंको कण्ठ दबाकर बोलना )- ये सभी जिसमें मृदु - कोमल हों , उस गीतको ‘ सुकुमार ’ कहा गया है । स्वभावसे ही मुखसे निकले हुए ललित पद एवं अक्षरोंके गुणसे सम्मन्न गीत ‘ मधुर ’ कहलाता है । इस प्रकार गान इन दस गुणोंसे युक्त होता है ।
इसके विपरीत गीतके दोष बताये जाते हैं - इस विषयमें ये श्लोक कहे गये हैं । शङ्कित , भीषण , भीत , उद्‌घुष्ट , आनुनासिक , काकस्वर , मूर्धगत ( अत्यन्त उच्च स्वरसे सिरतक चढाया हुआ अपूर्णगान ), स्थान - विवर्जित , विस्वर , विरस , विश्लिष्ट , विषमाहत , व्याकुल तथा तालहीन - ये चौदह गीतके दोष हैं । आचार्यलोग समगानकी इच्छा करते हैं। पण्डितलोग पदच्छेद ( प्रत्येक पदका विभाग ) चाहते हैं । स्त्रियाँ मधुर गीतकी अभिलाषा करती हैं और दूसरे लोग विक्रुष्ट ( पद और अक्षरके विभागपूर्वक उच्च स्वरसे उच्चारित ) गीत सुनना चाहते हैं । षडजस्वरका रंग कमलपत्रके समान हरा है । ऋषभस्वर तोतेके समान कुछ पीलापन लिये हरे रंगका है । गान्धार सुवर्णके समान कान्तिवाला है । मध्यमस्वर कुन्दके सदृश श्वेतवर्णका है । पञ्चमस्वरका रंग श्याम है । धैवतको पीले रंगका माना गया है । निषादस्वरमें सभी रंग मिले हुए हैं । इस प्रकार ये स्वरोंके वर्ण कहे गये हैं । पञ्चम , मध्यम और षडज - ये तीनों स्वर ब्राह्मण माने गये हैं । ऋषभ और धैवत - ये दोनों ही क्षत्रिय हैं । गान्धार तथा निषाद - ये दोनों स्वर आधे वैश्य कहे गये हैं और पतित होनेके कारण ये आधे शूद्र हैं । इसमें संशय नहीं है । जहाँ ऋषभके अनन्तर प्रकट हुए षडजके साथ धैवतसहित पञ्चमस्वर मध्यमरागमें प्राप्त होता है , उस निषदसहित स्वरग्रामको ‘ षाडव ’ या ‘ षाडजव ’ जानना चाहिये । यदि मध्यमस्वरमें पञ्चमका विराम हो और अन्तरस्वर गान्धार हो जाय तथा उसके बाद क्रमसे ऋषभ , निषाद एवं पञ्चमका उदय हो तो उस पञ्चमको भी ऐसा ही ( षाडव या षाडजव ) समझे । यदि मध्यमस्वरका आरम्भ होनेपर गान्धारका आधिपत्य ( वृद्धि ) हो जाय , निषादस्वर बारंबार जाता - आता रहे , धैवतका एक ही बार उच्चारण होनेके कारण वह दुर्बलावस्थामें रहे तथा षडज और ऋषभकी अन्य पाँचोंके समान ही स्थिति हो तो उसे ‘ मध्यम ग्राम ’ कहते हैं । जहाँ आरम्भमें षडज हो और निषादका थोडा - सा स्पर्श किया गया हो तथा गान्धारका अधिक उच्चारण हुआ हो , साथ ही धैवतस्वरका कम्पन - पातन देखा जाता हो तथा उसके बाद दूसरे स्वरोंका यथारुचि गान किया गया हो , उसे ‘ षडजग्राम ’ कहा गया है । जहाँ आरम्भमें षडज हो और इसके बाद अन्तरस्वर - संयुक्त काकली देखी जाती हो अर्थात्‌ चार बार केवल निषादका ही श्रवण होता हो , पञ्चम स्वरमें स्थित उस आधारयुक्त गीतको ‘ श्रुति कैशिक ’ जानना चाहिये । जब पूर्वोक्त कैशिक नामक गीतको सब स्वरोंसे संयुक्त करके मध्यमसे उसका आरम्भ किया जाय और मधममें ही उसकी स्थापना हो तो वह ‘ कैशिक मध्यम ’ नामक ग्रामराग होता है । जहाँ पूर्वोक्त काकली देखी जाती हो और प्रधानता पञ्चम स्वरकी हो तथा शेष दूसरे - दुसरे स्वर सामान्य स्थितिमें हों तो कश्यप ऋषि उसे मध्यम ग्रामजनित ‘ कैशिक राग ’ कहते हैं । विद्वान्‌ पुरुष ‘ गा ’ का अर्थ गेय मानते हैं और ‘ ध ’ का अर्थ कलापूर्वक बाजा बजाना कहते हैं और रेफसहित ‘ व ’ का अर्थ वाद्य - सामग्री कहते हैं । यही ‘ गान्धर्व ’ शब्दका लक्ष्यार्थ है । जो सामगान करनेवाले विद्वानोंका प्रथम स्वर है , वही वेणुका मध्यम स्वर कहा गया है । जो उनका द्वितीय स्वर है , वही वेणुका गान्धार स्वर है और जो उनका तृतीय है , वही वेणुका ऋषभ स्वर माना गया है । सामग विद्वानोंके चौथे स्वरको वेणुका षडज कहा गया है । उनका पञ्चम वेणुका धैवत होता है । उनके छठेको वेणुका निषाद समझना चाहिये और उनका सातवाँ ही वेणुका पञ्चम माना गया है । मोर षडज स्वरमें बोलता है । गायें ऋषभ स्वरमें रँभाती हैं , भेड और बकरियाँ गान्धार स्वरमें बोलती हैं । तथा क्रौञ्च ( कुरर ) पक्षी मध्यम स्वरमें बोलता है । जब साधारणरूपसे सब प्रकारके फूल खिलने लागते हैं , उस वसन्त ऋतुमें कोयल पञ्चम स्वरमें बोलती है । घोडा धैवत स्वरमें हिनहिनाता है और हाथी निषाद स्वरमें चिग्घाडता है । षडज स्वर कण्ठसे प्रकट होता है । ऋषभ मस्तकसे उत्पन्न होता है , गान्धारका उच्चारण मुखसहित नासिकासे होता है और मध्यम स्वर ह्रदयसे प्रकट होता है । पञ्चम स्वरका उत्थान छाती , सिर और कण्ठसे होता है । धैवतको ललाटसे उत्पन्न जानना चाइये तथा निषादका प्राकटय सम्पूर्ण संधियोंसे होता है । षडज स्वर नासिका , कण्ठ , वक्ष : स्थल , तालु , तालु , जिह्वा तथा दाँतोंके आश्रित है । इन छ : अङ्गोंसे उसका जन्म होता है । इसलिये उसे ‘ षडज ’ कहा गया है । नाभिसे उठी हुई वायु कण्ठ और मस्तकसे टकराकर व्रुषभके समान गर्जना करती है । इसलिये उससे प्रकट हुए स्वरका नाम ‘ ऋषभ ’ है । नाभिसे उठी हुई वायु कण्ठ और सिरसे टकराकर पवित्र गन्ध लिये हुए बहती है । इस कारण उसे ‘ गान्धार ’ कहते हैं । नाभिसे उठी हुई वायु ऊरु तथा ह्र्दयसे टकराकर नाभिस्थानमें आकर मध्यवर्ती होती है । अत : उससे निकले हुए स्वरका नाम ‘ मध्य ’ होता है । नाभिसे उठी हुई वायु वक्ष , हृदय , कण्ठ और सिरसे टकराकर इन पाँचों स्नानोंसे स्वरके साथ प्रकट होती है । इसलिये उस स्वरका नाम ‘ पञ्चम ’ रखा जाता है । इसलिये उस स्वरका साथ प्रकट होती है । इसलिये उस स्वरका नाम ‘ पञ्चम ’ रखा जाता है । अन्य विद्वान्‌ धैवत और निषाद - इन दो स्वरोंको छोडकर शेष पाँच स्वरोंको पाँचों स्थानोंसे प्रकट मानते हैं । पाँचों स्थानोंमें स्थित होनेके कारण इन्हें सब स्थानोंमें धारण किया जाता है । षडज स्वर अग्निके द्वारा गाया गया है । ऋषभ ब्रह्माजीके द्वारा गाया कहा जाता है । गान्धारका गान सोमने और मध्यम स्वरका गान विष्णुने किया है । नारदजी ! पञ्चम स्वरका गान तो तुम्हींने किया है , इस बातको स्मरण करो । धैवत और निषाद - इन दो स्वरोंको तुम्बुरुने गाया है । विद्वान्‌ पुरुषोंने ब्रह्माजीको आदि - षडज स्वरका देवता कहा है । ऋषभका प्रकाश तीखा और उद्दीस है , इसलिये अग्निदेव ही उसके देवता हैं । जिसके गान करनेपर गौएँ संतुष्ट होती हैं , वह गान्धार है और इसी कारण गौएँ ही उसकी अधिष्ठात्री देवी हैं । गान्धारको सुनकर गौएँ पास आती हैं , इसमें संदेह नहीं है । पञ्चम स्वरके देवता सोम है , जिन्हें ब्राह्मणोंका राजा कहा गया है । जैसे चन्द्रमा शुक्लपक्षमें बढता है और कृष्णपक्षमें घटता है , उसी प्रकार स्वरग्राममें प्राप्त होनेपर जिस स्वरका ह्नास होता और वृद्धि होती है तथा इन पूर्वोत्पन्न स्वरोंकी जहाँ अतिसंधि होती है , वह धैवत है । इसीसे उसके धैवतत्वका विधान किया गया है । निषादमें सब स्वरोंका निषादन ( अन्तर्भाव ) होता है . इसीलिये वह निषाद कहलाता है । यह सब स्वरोंको अभिभूत कर लेता है - ठीक उसी तरह , जैसे सूर्य सब नक्षत्रोंको अभिभूत करता है ; क्योंकि सूर्य ही इसके अधिदेवता हैं ।
काठकी वीणा तथा गात्रवीणा - ये गान - जातिमें दो प्रकारकी वीणाएँ होती हैं । नारद ! सामगानके लिये गात्रवीणा होती है , उसका लक्षण सुनो। गात्रवीणा उसे कहते हैं , जिसपर सामगान करनेवाले विद्वान्‌ गाते हैं । वह अंगुलि और अङ्गुष्ठसे रञ्जित तथा स्वर - व्यञ्जनसे संयुक्त होती है । उसमें अपने दोनों हाथोंको संयममें रखकर उन्हें घुटनोंपर रखे और गुरुका अनुकणर करे , जिससे भिन्न बुद्धि न हो । पहले प्रणवका उच्चारण करे , फिर व्याहृतियोंका । तदनन्तर गायत्री मन्त्रका उच्चारण करके सामगान प्रारम्भ करे । सब अंगुलियोंको फैलाकर स्वरमण्डलका आरोपण करे । अंगुलियोंसे अङ्गुष्ठका और अङ्गुष्ठसे अंगुलियोंका स्पर्श कदापि न करे । अंगुलियोंको बिलगाकर न रखे और उनके मूलभागका भी स्पर्श न करे , सदा उन अंगुलियोंके मध्यपर्वमें अँगूठेके अग्रभागसे स्पर्श करना चाहिये । विभागके ज्ञाता पुरुषको चाहिये कि मात्रा - द्विमात्रा - वृद्धिके विभागके लिये बायें हाथकी अंगुलियोंसे द्विमात्रका दर्शन कराता रहे । जहाँ त्रिरेखा देखी जाय , वहाँ संधिका निर्देश करे ; वह पर्व है , ऐसा जानना चाहिये । शेष अन्तर - अन्तर है । साममन्त्रमें ( प्रथम और द्वितीय स्वरके बीच ) जौके बराबर अन्तर करे तथा ऋचाओंमें तिलके बराबर अन्तर करे । मध्यम पर्वोंमें भलीभाँति निविष्ट किये हुए स्वरोंका ही निवेश करे । विद्वान्‌ पुरुष यहाँ शरीरके किसी अवयवको कँपाये नहीं । नीचेके अङ्ग - ऊरु , जङ्घा आदिको सुखपूर्वक रखकर उनपर दोनों हाथोंको प्रचलित परिपाटीके अनुसार रखे ( अर्थात्‌ दाहिने हाथको गायके कानके समान रखे और बायेंको उत्तानभावसे रखे ) । जैसे बादलोंमें बिजली मणिमय सूत्रकी भाँति चमकती दिखायी देती है , यही विवृत्तियों ( पदादि विभागों )- के छेद - बिलगाव - स्पष्ट निर्देशका दृष्टान्त है। जैसे सिरके बालोंपर कैंची चलती है और बालोंको पृथक्‌ कर देती है , उसी प्रकार पद और स्वर आदिका ‍पृथक्‌ - पृथक्‌ विभागपूर्वक बोध कराना चाहिये । जैसे कछुआ अपने सब अङ्गोंको समेट लेता है , उसी प्रकार अन्य सब चेष्टाओंको विलीन करके मन और दृष्टि देकर विद्वान्‌ पुरुष , स्वस्थ , शान्त तथा निर्भीक होकर वर्णोंका उच्चारण करे । मन्त्रका उच्चारण करते समय नाककी सीधमे पूर्व दिशाकी ओर गोकर्णके समान आकृतिमें हाथको उठाये रखे और हाथके अग्रभागपर दृष्टि रखते हुए शास्त्रके अर्थका निरन्तर चिन्तन करता रहे । मन्त्र - वाक्यको हाथ और मुख दोनोंसे साथ - साथ भलीभाँति प्रचारित करे । वर्णोंका जिस प्रकार द्रुतादि वृत्तिसे आरम्भमें उच्चारण करे , उसी प्रकार उन्हें समाप्त भी करे । ( एक ही मन्त्रमें दो वृत्तियोंकी योजना न करे ) । अभ्याघात , निर्घात , प्रगान तथा कम्पन न करे , समभावसे साममन्त्रोंका गान करे । जैसे आकाशमें श्येन पक्षी सम गतिसे उडता है , जैसे जलमें विचरती हुई मछलियों अथवा आकाशमें उडते हुए पक्षियोंके मार्गका विशेष रूपसे पता नहीं चलता , उसी प्रकार सामगानमें स्वरगत श्रुतिके विशेष स्वरूपका अवधारण नहीं होता । सामान्यत : गीतमात्रकी उपलब्धि होती है । जैसे दहीमें घी अथवा काठके भीतर अग्नि छिपी रहती है और प्रयत्नसे उसकी उपलब्धि बी होती है , उसी प्रकार स्वरगत श्रुति भी गीतमें छिपी रहती है , प्रयत्नसे उसके विशेष स्वरूपकी भी उपलब्धि होती है । प्रथम स्वरसे दूसरे स्वरपर जो स्वर - संक्रमण होता है , उसे प्रथम स्वरसे संधि रखते हुए ही करे , जैसे छाया एवं धूप सूक्ष्म गतिसे धीरे - धीरे एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाते हैं - न तो पूर्वस्थानसे सहसा सम्बन्ध तोडते हैं और नये स्थानपर ही वेगसे जाते है , उसी प्रकार स्वर - संक्रमण भी सम तथा अविच्छिन्न भावसे करे । जब प्रथम स्वरको खींचते हुए द्वितीय स्वर होता है , तब उसे ‘ कर्षण ’ कहते हैं। विद्वान्‌ पुरुष निम्नाङ्कित छ : दोषोंसे युक्त कर्षणका त्याग करे , अनागत तथा अतिक्रान्त अवस्थामें कर्षण न करे । द्वितीय स्वरके आरम्भसे पहले उसकी अनागत अवस्था है , प्रथम स्वरका सर्वथा व्यतीत हो जाना उसकी अतिक्रान्तावस्था है ; इन दोनों स्थितियोंमें प्रथम स्वरका कर्षण न करे । प्रथम मात्राका विच्छेद करके भी कर्षण न करे । उसे विषमाहत - कम्पित करके भी द्वितीय स्वरपर न जाय। कर्षणकालमें तीन मात्रासे अधिक स्वरका विस्तार न करे । अस्थितान्तका त्याग करे अर्थात्‌ द्वितीय स्वरमें भी त्रिमात्रायुक्त स्थिति करनी चाहिये , न कि दो मात्रासे ही युक्त। जो स्वर स्थानसे च्युत होकर अपने स्थानका अतिवर्तन ( लङ्घन ) करता है , उसे सामगान करनेवाले विद्वान्‌ ‘ विस्वर ’ कहते हैं और वीणा बजाकर गानेवाले गायक उसे ‘ विरक्त ’ नाम देते हैं । स्वयं अभ्यास करनेके लिये द्रुतवृत्तिसे मन्त्रोच्चारण करे । प्रयोगके लिये मध्यम वृत्तिका आश्रय ले और शिष्योंके उपदेशके लिये विलम्बित वृत्तिका अवलम्बन करे । इस प्रकार शिक्षाशास्त्रोक्त विधिसे जिसने ग्रन्थ ( सामगान ) को ग्रहण किया है . वह विद्वान्‌ द्विज ग्रन्थोच्चारणकी शिक्षा लेनेवाले शिषोंको हाथसे ही अध्ययन कराये ।
क्रुष्ट ( सप्तम एवं पञ्चम ) स्वरका स्थान मस्तकमें है । प्रथम ( षडज ) स्वरका स्थान ललाटमें है । द्वितीय ऋषभ स्वरका स्थान दोनों भौंहोंके मध्यमें हैं । तृतीय ( गान्धार ) स्वरका स्थान दोनों कानोंमें हैं । चतुर्थ ( मध्यम ) स्वरका स्थान कण्ठ है । मन्द्र ( पञ्चम )- का स्थान रसना बतायी जाती है । ( मन्द्रस्योरसि तूच्यते - इस पाठके अनुसार उसका स्थान वक्ष : स्थल भी है । ) अतिस्वार नामवाले नीच स्वर ( निषाद ) का स्थान ह्रदयमें बताया जाता है । अङ्गुष्ठके शिरोभागमें क्रुष्ट ( सप्तम - पञ्चम ) का न्यास करना चाहिये अङ्गुमें ही प्रथम स्वरका भी स्थान बताया गया है । तर्जनीमें गान्धार तथा मध्यमामें ऋषभकी स्थिति है । अनामिकामें षडज और कनिष्ठिकामें धैवत हैं । कनिष्ठाके नीचे मूल भागमें निषाद स्वरकी स्थिति बताये । मन्द्र स्वरसे सर्वथा पृथक्‌ न होनेसे निषाद ‘ अपर्व ’ है । उसका पृथक्‌ ज्ञान न होनेके कारण उसे ‘ असंज्ञ ’ कहा गया है तथा उसमें लिङ्ग , वचन आदिका सम्बन्ध न होनेसे उसे ‘ अव्यय ’ भी कहते हैं । अत : मन्द्र ही मन्दीभूत होकर ‘ परिस्वार ’ ( निषाद ) कहा गया है । क्रुष्ट स्वरसे देवता जीवन धारण करते हैं और प्रथमसे मनुष्य : द्वितीय स्वरसे पशु तथा तृतीयसे गन्धर्व और अप्सराएँ जीवन धारण करती हैं । अण्डज ( पक्षी ) तथा पितृगण चतुर्थ - स्वरजीवी होते हैं । पिशाच , असुर तथा राक्षस मन्दस्वरसे जीवन - निर्वाह करते हैं । नीच अतिस्वार ( निषाद )- से स्थावर - जङ्गमरूप जगत्‌ जीवन धारण करता है । इस प्रकार सामिक स्वरसे सभी प्राणी जीवन धारण करते हैं । 
जो दीप्तास , आयता , करुणा , मृदु तथा मध्यम श्रुतियोंका विशेषज्ञ नहीं है , वह आचार्य कहलानेका अधिकारी नहीं है । मन्द्र ( पञ्चम ), द्वितीय , चतुर्थ , अतिस्वार ( षष्ठ ) और तृतीय - इन पाँच स्वरोंकी श्रुति ‘ दीप्ता ’ कही गयी है । ( प्रथमकी श्रुति मृदु है ) और सप्तमकी श्रुति ‘ करुणा ’ है । अन्य जो ‘ मृदु ’,’ मध्यमा ’ और ‘ आयता ’ नामवाली श्रुतियाँ हैं , वे द्वितीय स्वरमें होती हैं । मैं उन सबके पृथक्‌ - पृथक लक्षण बताता हूँ । नीच अर्थात्‌ तृतीय स्वर परे रहते द्वितीय स्वरकी आयता श्रुति होती है , विपर्यय अर्थात्‌ चतुर्थ स्वर परे रहनेपर उक्त स्वरकी मुदुभूता श्रुति होती है । अपना स्वर परे हो और स्वरान्तर परे न हो तो उसकी मध्यमा श्रुति होती है । यह सब विचारकर सामस्वरका प्रयोग करना चाहिये । क्रुष्ट स्वर परे होनेपर द्वितीय स्वरमें स्थित जो श्रुति है , उसे ‘ दीप्ता ’ समझे । प्रथम स्वरमें हो तो वह ‘ मृदु ’ श्रुति मानी गयी है । यदि चतुर्थ स्वरमें हो तो वही श्रुति मृदु कहलाती है । तथा मन्द्र स्वरमें हो तो दीप्ता होती है । सामकी समाप्ति होनेपर जिस किसी भी स्वरमें स्थित श्रुति दीप्ता ही होती है । स्वरके समाप्त होनेसे पहले आयतादि श्रुतिका प्रयोग न करे । स्वर समाप्त होनेपर भी जबतक गानका विच्छेद न हो जाय , दो स्वरोंके मध्यमें भी श्रुतिका प्रयोग न करे। ह्नस्व तथा दीर्घ अक्षरका गान होते समय भी श्रुति नहीं करनी चाहिये ( केवल प्लुतमें ही श्रुति कर्तव्य है ) तथा जहाँ घुट - संज्ञ्क स्वर हो , वहाँ भी श्रुतिका प्रयोग न करे । तालव्य इकारका ‘ आ ’ ‘ इ ’ भाव होता है और ‘ आ उ ’ भाव होता है ; ये दो प्रकारकी गतियाँ हैं और ऊष्म वर्ण ‘ श ष स ’ के साथ जो त्रिविध पदान्त सन्धि है - ये सब मिलकर पाँच स्थान हैं ; इन स्थानोंमे घुट - संज्ञक स्वर जानना चाहिये ( इसमें श्रुति नहीं करनी चाहिये ) । श्रुतिस्थानोंमें जहाँ स्वर और स्वरान्तर समाप्त न हुए हों तथा ओ ह्नस्व , दीर्घ एवं ‘ घुट ’ संज्ञाके स्थल हैं , वे सब श्रुतिसे रहित हैं , उनमें श्रुति नहीं करनी चाहिये । वहाँ स्वरसे ही श्रुतिवत्‌ कार्य होता है ।
( सामव्यतिरिक्त स्थलोंमें ) उदात्त स्वरमें ‘ दीप्ता ’ नामवाली श्रुतिको जाने । स्वरितमें भी विद्वान्‌ लोग ‘ दीप्ता ’ की ही स्थिति मानते हैं । अनुदात्तमें ‘ मृदु ’ श्रुति जाननी चाहिये । गान्धर्व गानमें श्रुतिका अभाव होनेपर भी स्वरको ही श्रुतिके समान करना चाहिये , वहाँ स्वरमें ही श्रुतिका वैभव निहित है । उदात्त , अनुदात्त , स्वरित , प्रचय तथा निघात - ये पाँच स्वरभेद होते हैं ।
इसके बाद मैं आर्चिकके तीन स्वरोंका प्रतिपादन करता हूँ । पहला उदात्त , दूसरा अनुदात्त और तीसरा स्वरित है । जिसको उदात्त कहा गया है , वही स्वरितसे परे हो तो विद्वान्‌ पुरुष उसे प्रचय कहते हैं । वहाँ दूसरा कोई स्वरान्तर नहीं होता । स्वरितके दो भेद हैं - वर्ण - स्वार तथा अतीत - स्वार । इसी प्रकार वर्ण भी मात्रिक एवं उच्चरितके पश्चात दीर्घ होता है । प्रत्यय - स्वाररूप प्रत्ययका दर्शन होनेसे उसे सात प्रकारका जानना चाहिये । वह क्या , कहाँ और कैसा हैं , इसका ज्ञान पदसे प्राप्त करना चाहिये । दाहिने कानमें सातों स्वरोंका श्रवण करावे । आचार्योंने पुत्रों और शिष्योंके हितकी इच्छासे ही इस शिक्षाशास्त्रका प्रणयन किया है । उच्च ( उदात्त )- से कोई उच्चतर नहीं है और नीच ( अनुदात्त )- से नीचतर नहीं है । फिर विशिष्ट स्वरके रूपमें जो ‘ स्वार ’ संज्ञा दी जाती है , उसमें स्वारका क्या स्थान है ? ( इसके उत्तरमें कहते हैं - ) उच्च ( उदात्त ) और नीच ( अनुदात्त )- के मध्यमें जो ‘ साधारण ’ यह श्रुति है , उसीको शिक्षाशास्त्रके विद्वान्‌ स्वार - संज्ञामें ‘ स्वार ’ नामसे जानते हैं । उदात्तमें निषाद और गान्धार स्वर हैं , अनुदात्तमें ऋषभ और धैवत स्वर हैं । और ये - षडज , मध्यम तथा पञ्चम - स्वरितमें प्रकट होते हैं । जिसके परे ‘ क ’ और ‘ ख ’ हैं तथा जो जिह्वामूलीयरूप प्रयोजनमो सिद्ध करनेवाली है , उस ‘ ऊष्मा ’ ( क , ख )- को ‘ मात्रा ’ जाने । वह अपने स्वरूपसे ही ‘ कला ’ है ( किसी दूसरे वर्णका अवयव नहीं है । इसे उपध्मानीयका भी उपलक्षण मानना चाहिये ) ।
जात्य , क्षैप्र , अभिनिहित , तैरव्यञ्जन , तिरोविराम , प्रश्लिष्ट तथा सातवाँ पादवृत्त - ये सात वार हैं । अब मैं इन सब स्वारोंका पृथक्‌ - पृथक्‌ लक्षण बतलाता हूँ । लक्षण कहकर उन सबके यथायोग्य उदाहरण भी बताऊँगा । जो अक्षर ‘ य ’ कार और ‘ व ’ कारके साथ स्वरित होता है तथा जिसके आगे उदात्त नहीं होता , वह ‘ जात्य ’ स्वार कहलाता है । जब उदात्त ‘ इ ’ वर्ण और ‘ उ ’ वर्ण कहीं पदादि अनुदात्त अकार परे रहते सन्धि होनेपर ‘ य ’ ‘ व ’ के रूपमें परिणत हो स्वरित होते हैं , तो वहाँ सदा ‘ क्षैप्र ’ स्वारका लक्षण समझना चाहिये । ‘ ए ’ और ‘ ओ ’ इन दो उदात्त स्वारोंसे परे जो वकारसहित अकार निहित ( अनुदात्तरूपमें निपातित ) हो और उसका जहाँ लोप (‘ ए ’ कार या ’ उ ’ कार में अनुप्रवेश ) होता है , उसे ‘ अभिनिहित ’ स्वार माना जाता है । छन्दमें जहाँ कहीं या जो कोई भी ऐसा स्वरित होता है , जिसके पूर्वमें उदात्त हो , तो वह सर्व बहुस्वार - ( सर्वत्र बहुलतासे होनेवाला स्वर ) ‘ तैरव्यञ्जन ’ कहलाता है । यदि उदात्त अवग्रह हो और अवग्रहसे परे अनन्तर स्वरित हो तो उसे ‘ तिरोविराम ’ समझना चाहिये । जहाँ उदात्त ‘ इ ’ कारको अनुदात्त ‘ इ ’ कारसे संयुक्त देखो , वहाँ विचार लो कि ‘ प्रश्लिष्ट ’ स्वार है । जहाँ स्वर अक्षर अकारादिमें स्वरित हो और पूर्वपदके साथ संहिता विभक्त हो , उसे पादवृत्त स्वारका शास्त्रोक्त लक्षण समझना चाहिये ।
‘ जात्य ’ स्वारका उदाहरण है -‘ स जात्येन ’ इत्यादि । श्रुष्टी + अग्र = श्रुष्टयग्ने आदि स्थलोंमें ‘ क्षैप्र ’ स्वार है । ‘ वे मन्वत ’ इत्यादिमें ‘ अभिनिहित ’ स्वार जानना चाहिये । उ + ऊतये = ऊतये , वि + ईतये = वीतये इत्यादिमें ‘ तैरव्यञ्जन ’ नामक स्वार है । ‘ विस्कभिते विस्कभिते ’ आदि स्थलोंमें ‘ तिरोविराम ’ है । ‘ हि इन्द्र गिर्वण ;’=’ हीन्द्र० ’ इत्यादिमें ‘ प्रश्लिष्ट ’ स्वार है । ‘ क ईम्‌ कईं वेद ’ इत्यादिमें ‘ पादवृत्त ’ नामक स्वार है । इस प्रकार ये सब सात स्वार हैं ।
जात्य स्वरोंको छोडकर एक पूर्ववर्ती उदात्त अक्षरसे परे जो भी अक्षर हो , उसकी स्वरित संज्ञा होती है । यह स्वरितका सामान्य लक्षण बताया जाता है । पूर्वोक्त चार स्वार उदात्त अथवा एक अनुदात्त परे रहनेपर शास्त्रत :‘ कम्प ’ उत्पन्न करते हैं । ( जिसका स्वरूप चल हो , उस स्वारका नाम कम्प है ) इसका उदाहरण है ‘ जुह्वग्नि : । ’ ‘ उप त्वा जुहू ’, ‘ उप त्वा जुह्वो मम ’ इत्यादि । पूर्वपद ‘ इ ’ कारान्त हो और परे ‘ उ ’ कारकी स्थिति हो तो मेधावी पुरुष वहाँ ‘ ह्नस्व कम्प ’ जाने - इसमें संशय नहीं है । यदि ‘ उ ’ कारद्वययुक्त पद परे हो तो इकारान्त पदमें दीर्घ कम्प जानना चाहिये । इसका दृष्टान्त है -‘ शग्ध्यृषू ’ इत्यादि । तीन दीर्घ कम्प जानने चाहिये , जो संध्यक्षरोंमें होते हैं । उनके क्रमश : उदहारण ये हैं - मन्या । पथ्या । न इन्द्राभ्याम्‌ । शेष ह्नस्व कहे गये है । जब अनेक उदात्तोंके बाद कोई अनुदात्त प्रत्यय हो तो एक उदात्त परे रहते दूसरे - तीसरे उदात्तकी ‘ शिवकम्प ’ संज्ञा होती है अर्थात्‌ वह शिवकम्पसंज्ञक आद्युदात्त होता है । किंतु वह उदात्त प्रत्यय होना चाहिये । जहाँ दो , तीन , चार आदि उदात्त अक्षर हों , नीच - अनुदात्त हो और उससे पूर्व उच्च अर्थात्‌ उदात्त हो और वह भी पूर्ववर्ती उदात्त या उदात्तोंसे परे हो तो वहाँ विद्वान्‌ पुरुष ‘ उदात्त ’ मानते हैं । रेफ या ‘ ह ’ कारमें कहीं द्वित्व नहीं होता - दो रेफ या दो ‘ ह ’ कारका प्रयोग एक साथ नहीं होता । कवर्ग आदि वर्गोंके दूसरे और चौथे अक्षरोंमें भी कभी द्वित्व नहीं होता । वर्गके चौथे अक्षरको तीसरेके द्वारा और दूसरेको प्रथमके द्वारा पीडित न करे । आदि मध्य और अन्त्य ( क , ग , ङ आदि ) - को अपने ही अक्षरसे पीडित ( संयुक्त ) करे । यदि संयोगदशामें अनन्त्य ( जो अन्तिम वर्ण नहीं है , वह ‘ ग ’ कार आदि ) वर्ण पहले हो और ‘ न ’ कारादि अन्त्य वर्ण बादमें हो तो मध्येमें यम ( य व र ल ञ म ङ ण न ) अक्षर स्थित होता है , वह पूर्ववर्ती अक्षरका सवर्ण हुआ करता है। पूर्ववर्ती श ष स तथा य र ल व - इन अक्षरोंसे संयुक्त वर्गान्त्य वर्णॊंको देखकर यम निवृत्त हो जाते हैं - ठीक वैसे ही , जैसे चोर - डाकुओंको देखकर राही अपने मार्गसे लौट जाते हैं । संहितामें जब वर्गके तीसरे और चौथे अक्षर संयुक्त हों तो पदकालमें चतुर्थ अक्षरसे ही आरम्भ करके उत्तर पद होगा । दूसरे , तीसरे और ‘ ह ’ कार - इन सबका संयोग हो तो उत्तरपद हकारादि ही होगा । अनुस्वार  , उपध्मानीय तथा जिह्वामूलीयके अक्षर किसी पदमें नहीं जाते , उनका दो बार उच्चारण नहीं होता । यदि पूर्वमें र या ह अक्षरसे संयोग हो तो परवर्ती अक्षरका द्वित्व हो जाता है । जहाँ संयोगमें स्वरित हो तथा उद्धत ( नीचेसे ऊपर जाने ) - में और पतन ( ऊँचेसे नीचे जाने ) - में स्वरित हो , वहाँ पूर्वाङ्गको आदिमें करके ( नीचमें उच्चत्व लाकर ) पराङ्गके आदिमें स्वरितका संनिवेश करे । संयोगके विरत ( विभक्त ) होनेपर जो उत्तरपदसे असंयुक्त व्यञ्जन दिखायी दे , उसे पूर्वाङ्ग जानना चाहिये तथा जिस व्यञ्जनसे उत्तरपदका आरम्भ हो , उसे पराङ्ग । संयोगसे परवर्ती भागको स्वरयुक्त करना चाहिये , क्योंकि वह उत्तम एवं संयोगका नायक है , वहीं प्रधानतया स्वरकी विश्रान्ति होती है तथा व्यञ्जनसंयुक्त वर्णका पूर्व अक्षर स्वरित है : उसे बिना स्वरके ही बोलना चाहिये । अनुस्वार , पदान्त , प्रत्यय तथा सवर्णपद परे रहनेपर होनेवाला द्वित्व तथा रेफस्वरूप स्वरभक्ति - यह सब पूर्वाङ्ग कहलाता है । पादादिमें , पदादिमें , संयोग तथा अवग्रहोंमें भी ‘ य ’ कारके द्वित्वका प्रयोग करना चाहिये ; उसे ‘ य्य ’ शब्द जानना चाहिये । अन्यत्र ‘ य ’ केवल ‘ य ’ के रूपमें ही रहता है । पदादिमें रहते हुए भी विच्छेद विभाग न होनेपर अथवा संयोगके अन्तमें स्थित होनेपर र्‌ ह्‌ रेफविशिष्ट य - इनको छोडकर अन्य वर्णोंका अयादेश द्वित्वाभाव देखा जाता है । स्वयं संयोगयुक्त अक्षरको गुरु जानना चाहिये । अनुस्वारयुक्त तथा विसर्गयुक्त वर्णका गुरु होना तो स्पष्ट ही है । शेष अणु ( ह्नस्व ) है। ‘ ह्नि ’ ‘ गो ’ इनमें प्रथम संयुक्त और दूसरा विसर्गयुक्त है । संयोग और विसर्ग दोनोंके आदि अक्षरका गुरुत्व भी स्पष्ट है । जो उदात्त है , वह उदात्त ही रहता है ; जो स्वरित है , वह पदमें नीच ( अनुदात्त ) होता है। जो अनुदात्त है , वह तो अनुदात्त रहता ही है ; जो प्रचयस्थ स्वर है , वह भी अनुदात्त हो जाता है। विभिन्न मन्त्रोंमें आये हुए ‘ अग्नि :’,‘ सुत :,’ ‘ मित्रम्‌ .‘ इदम्‌ ’ ‘ वयम्‌ ’. ‘ अया ’,‘ वहा ’,‘ प्रियम्‌ .‘ , ‘ दूतम्‌ ’, ‘ घृतम्‌ ’,‘ चित्तम्‌ ’ तथा ‘ अभि ’- ये पद नीच ( अर्थात्‌ अनुदात्तसे आरम्भ ) होते हैं । ‘ अर्क ’, ‘ सुत ’, ‘ यज्ञ ’,‘ कलश ’, ‘ शत ’ तथा ‘ पवित्र ’- इन शब्दोंमें अनुदात्तसे श्रुतिका उच्चारण प्रारम्भ किया जाता है । ‘ हरि ’,‘ वरुण ’,‘ वरेण्य ’ , ‘ धारा ’ तथा ‘ पुरुष ’- इन शब्दोंमें रेफयुक्त स्वर ही स्वरित होता है । ‘ विश्वानर ’ शब्दमें नकारयुक्त और अन्यत्र ‘ नर ’ शब्दोंमें रेफयुक्त स्वर ही स्वरित होता है। परंतु ‘ उदुत्तमं त्वं वरूण ’ इत्यादि वरुण - सम्बन्धी दो मन्त्रोंमें ‘ व ’ कार ही स्वरित होता है , रेफ नहीं। ‘ उरु धारा मरं कृतम्‌ ’, ‘ उरु धारेव दोहने ’ इत्यादि मन्त्रोंमें ‘ धारा ’ का ‘ धाकार ’ ही स्वरित होता है , रेफ नहीं । ( यह पूर्व नियमका अपवाद है ) ह्नस्व या दीर्घ जो अक्षर यहाँ स्वरित होता है , उसकी पहली आधी मात्रा उदात्त होती है और शेष आधी मात्रा उसस परे अनुदात होती है ( पाणिनिने भी यही कहा है -‘ तस्यादित उदात्तमर्धह्नस्वम ’ [ १।२।३२ ] ) कम्प , उत्स्वरित और अभिगीतके विषयमें जो द्विस्वरका प्रयोग होता है , वहाँ ह्नस्वको दीर्घके समान करे और ह्नस्व कर्षण करे । पलक मारनेमें जितना समय लगता है , वह एक मात्रा है । दुसरे आचार्य ऐसा मानते हैं कि बिजली चमककर जितने समयमें अदृश्य हो जाती है , वह एक ‘ मात्रा ’ का मान है । कुछ विद्वानोंका ऐसा मत है कि ऋ छ अथवा श के उच्चारणमें जितना समय लगता है , उतने कालकी एक मात्रा होती है । समासमें यदि अवग्रह ( विग्रह या पद - विच्छेद ) करे तो उसमें समासपदको संहितायुक्त ही रखे ; क्योंकि वहाँ जिससे अक्षरादिकरण होता है , उसी स्वरको उस समास - पदका अन्त मानते हैं । सर्वत्र , पुत्र , मित्र , सखि , अद्रि , शतक्रतु , आदित्य , प्रजातवेद , सत्पति , गोपति , वृत्रहा , समुद्र - य सभी शब्द अवग्राह्म ( अवग्रहके योग्य ) हैं । ‘ स्वर्युव :’, ‘ देवयुव :’, ‘ अरतिम्‌ ’, ‘ देवतातये ’, ‘ चिकिति :’, ‘ चुक्रुधम ’- इस सबमें एक पद होनेके कारण पण्डितलोग अवग्रह नहीं करते । अक्षरोंके नियोगसे चार प्रकारकी विवृत्तियाँ जाननी चाहिये , ऐसा मेरा मत है । अब तुम मुझसे उनके नाम सुनो - वत्सानुसृता , वत्सानुसारिणी , पाकवती और पिपीलिका । जिसके पूर्वपदमें ह्नत्व और उत्तरपदमें दीर्घ है , वह ह्नस्वादिरूप बछडोंसे अनुगत होनेक कारण ‘ वत्सानुसृता ’ विवृत्ति कही गयी है । जिसमें पहले ही पदमें दीर्घ और उत्तर पदमें ह्नस्व हो , वह ‘ वत्सानुसारिणी ’ विवृत्ति है । जहाँ दोनों पदोंमें ह्नस्व है , वह ‘ पाकवती ’ कहलाती है तथा जिसके दोनों पदोंमें दीर्घ है , वह ‘ पिपीलिका ’ कही गयी है । इन चारों विवृत्तियोंमें एक मात्राका अन्तर होता है । दूसरोंके मतमें यह अन्तर आधा मात्रा है और किन्हींके मतमें अणु मात्रा है । रेफ तथा श ष स - ये जिनके आदिमें हों , ऐसे प्रत्यय परे होनेपर ‘ मकार ’ अनुस्वारभावको प्राप्त होता है । य व ल परे हों तो वह परसवर्ण होता है और स्पर्शवर्ण परे हों तो उन - उन वर्गोंके पञ्चम वर्णको प्राप्त होता है । नकारान्त पद पूर्वमें हो और स्वर परे हो तो नकारके द्वारा पूर्ववर्ती आकार अनुरञ्जित होता है , अत : उसे ‘ रक्त ’ कहते है ( यथा ‘ महाँ३असि ’ इत्यादि ) । यदि नकारान्त पद पूर्वमें हो और य व हि आदि व्यञ्जन परे हों तो पूर्वकी आधी मात्रा - अणु मात्रा अनुरञ्जित होती है । पूर्वमें स्वरसे संयुक्त हलन्त नकार यदि पदान्तमें स्थित हो और उसके परे भी पद हो तो वह चार रूपोंसे युक्त होता है । कहीं वह रेफ होता है , कहीं रंग ( या रक्त ) बनता है , कहीं उसका लोप और कहीं अनुस्वार हो जाता है ( यथा ‘ भवांश्चिनोति में रेफ होता है । ‘ महाँ ३ असि ’ में रंग है । ‘ महाँ इन्द्र ’ में ‘ न ’ का लोप हुआ है । पूर्वका अनुनासिक या अनुस्वार हुआ है ) । ‘ रंग ’ ह्रदयसे उठता है , कांस्यके वाद्यकी भाँति उसकी ध्वनि होती है । वह मृदु तथा दो मात्राका ( दीर्घ ) होता है । दधन्वाँ २ यह उदाहरण है । नारद ! जैसे सौराष्ट्र देशकी नारी ‘ अरां ’ बोलती है , उसी प्रकार ‘ रंग ’ का प्रयोग करना चाहिये - यह मेरा मत है । नाम , आख्यात , उपसर्ग तथा निपात - इन चार प्रकारके पदोंके अन्तमें स्वरपूर्वक ग ड द व ङ ण न म ष स - ये दस अक्षर ‘ पदान्त ’ कहे गये हैं । उदात्त स्वर , अनुदात्त स्वर और स्वरित स्वर जहाँ भी स्थित हों , व्यञ्जन उनका अनुसरण करते हैं । आचार्यलोग तीनों स्वरोंकी ही प्रधानता बताते हैं । व्यञ्जनोंको तो मणियोंके समान समझे और स्वरको सूत्रके समान ; जैसे बलवान्‌ राजा दुर्बलके राज्यको हडप लेता है , उसी प्रकार बलवान्‌ दुर्बल व्यञ्जनको हर लेता है । ओभाव , विवृत्ति , श , ष , स , र , जिह्नामूलीय तथा उपध्मानीय - ये ऊष्माकी आठ गतियाँ हैं । ऊष्मा ( सकार ) इन आठ भावोंमें परिणत होता है । संहितामें जो स्वर - प्रत्यया विवृत्ति होती है , वहाँ विसर्ग समझे अथवा उसका तालव्य होता है । जिसकी उपधामें संध्यक्षर ( ए , ओ , ऐ , औ ) हों ऐसी सन्धिमें यदि य और व लोपको प्राप्त हुए हों तो वहाँ व्यञ्जननामक विवृत्ति और स्वरनामक प्रतिसंहिता होती है । जहाँ ऊष्मान्त विरत हो और सन्धिमें ‘ व ’ होता हो , वहाँ जो विवृत्ति होती है , उसे ‘ स्वर विवृत्ति ’ नामसे कहना चाहिये । यदि ‘ ओ ’ भावका प्रसंधान हो तो उत्तर पद ऋकारादि होता है ; वैसे प्रसंधानको स्वरान्त जानना चाहिये । इससे भिन्न ऊष्माका प्रसंधान होता है ( यथा ‘ वायो ऋ ’ इति। यहाँ ओभावका प्रसंधान है । ‘ क इह ’ यहाँ ऊष्माका प्रसंधान है ) । जब श ष स आदि परे हों , उस समय यदि प्रथम ( वर्गके पहले अक्षर ) और उत्तम ( वर्गके अन्तिम अक्षर ) पदान्तमें स्थित हों तो वे द्वितीय स्थानको प्राप्त होते हैं । ऊष्मसंयुक्त होनेपर अर्थात्‌ सकारादि परे होनेपर प्रथम जो तकार आदि अक्षर हैं , उनको द्वितीय ( थकार आदि )- कि भाँति दिखाये - थकार आदिकी भाँति उच्चारण करे , उन्हें स्पष्ट : थकार आदिके रूपमें ही न समझ ले । उदाहरणके लिये -‘ मत्स्य :’,‘ क्षुर :’ और ‘ अप्सरा :’ आदि उदाहरण हैं । लौकिक श्लोक आदिमें छन्दका ज्ञान करानेके लिये तीन हेतु हैं - छन्दोमान , वृत्त और पादस्थान ( पदान्त ) । परंतु ऋचाएँ स्वभावत : गायत्री आदि छन्दोंसे आवृत हैं । उनकी पाद - गणना या गुरु , लघु एवं अक्षरोंकी गणना तो छन्दोविभागको समझनेके लिये ही है ; उन लक्षणोंके अनुसार ही ऋचाएँ हों , यह नियम नहीं है। लौकिक छन्द ही पाद और अक्षर - गणनाके अनुसार होते हैं । ऋवर्ण और स्वरभक्तिमें जो रेफ है , उसे अक्षरान्तर मानकर छन्दकी अक्षर - गणना या मात्रागणनामें सम्मिलित करे । किंतु स्वरभक्तियोंमें प्रत्ययके साथ रेफरहित अक्षरकी गणना करे । ऋवर्णमें रेफरूप व्यञ्जनकी प्रतीति पृथक्‌ होती है और स्वररूप अक्षरकी प्रतीति अलग होती है । यदि ‘ ऋ ’ से ऊष्माका संयोग न हो तो उस ऋकारको लघु अक्षर जाने । जहाँ ऊष्मा ( शकार आदि )- से संयुक्त होकर ऋकार पीडित होता है , उस ऋवर्णको ही स्वर होनेपर भी गुरु समझना चाहिये ; यहाँ ‘ तृचम्‌ ’ उदाहरण है । ( यहाँ ऋकार लघृ है ) । ऋषभ , गृहीत , बृहस्पति , पृथिवी तथा निऋति - इन पाँच शब्दोंमें ऋकार स्वर ही है , इसमें संशय नहीं है। श , ष , स , ह , र - ये जिसके आदिमें हों , ऐसे पदमें द्विपद सन्धि होनेपर कहीं ‘ इ ’ और ‘ उ ’ से रहित एकपदा स्वरभक्ति होती है , वह क्रमवियुक्त होती है । स्वरभक्ति दो प्रकारकी कही गयी है - ऋकार तथा रेफ । उसे अक्षरचिन्तकोंने क्रमश : ‘ स्वरोदा ’ और ‘ व्यञ्जनोदा ’ नाम दिया है । श , ष , स के विषयमें स्वरोदया एवं विवृत्ता स्वरभक्ति मानी गयी है और हकारके विषयमें विद्वान्‌ लोग व्यञ्जनोदया एवं संवृता स्वरभक्ति निश्चित करते हैं ( दोनोंके क्रमश : उदाहरण हैं -‘ ऊर्षति , अर्हति ) । स्वरभक्तिका प्रयोग करनेवाला पुरुष तीन दोषोंको त्याग दे - इकार , उकार तथा ग्रस्तदोष । जिससे परे संयोग हो और जिससे परे छ हो , जो विसर्गसे युक्त हो , द्विमात्रिक ( दीर्घ ) हो , अवसानमें हो , अनुस्वारयुक्त हो तथा घुडन्त हो - ये सब लघु नहीं माने जाते ।
पथ्या ( आर्या ) छन्दके प्रथम और तृतीय पाद बारह मात्राके होते हैं । द्वितीय पाद अठारह मात्राका होता है और अन्तिम ( चतुर्थ ) पाद पंद्रह मात्राका होता है । यह पथ्याका लक्षण बताया गया : जो इससे भिन्न है , उसका नाम विपुला है । अक्षरमें जो ह्नस्व है , उससे परे यदि संयोग न हो तो उसकी ‘ लघु ’ संज्ञा होती है । यदि ह्नस्वसे परे संयोग हो तो उसे गुरु समझे तथा दीर्घ अक्षरोंको भी गुरु जाने । जहाँ स्वरके आते ही विवृति देखी जाती हो , वहाँ स्वरके आते ही विवृत्ति देखी जाती हो , वहाँ गुरु स्वर जानना चाहिये : वहाँ लघुकी सत्ता नहीं है । पदोंके जो स्वर है , उनके आठ प्रकार जानने चाहिये - अन्तोदात्त , आद्युदात्त , उदात्त , अनुदात्त , नीचस्वरित , मध्योदात्त , स्वरित तथा द्विरुदात्त - ये आठ पद - संज्ञाएँ हैं । ‘ अग्निर्वृत्राणि ’ इसमें ‘ अग्नि :’  अन्तोदात्त है । ‘ सोम : पवते ’ इसमें ‘ सोम :’  आद्युदात्त है । ‘ प्र वो यह्नम्‌ ’ इसमें ‘ प्र ’  उदात्त और ‘ व :’  अनुदात्त है । ‘ बलं न्युब्जं वीर्यम्‌ ’ इसमें ‘ वीर्यम्‌ ’  नीचस्वरित हौ । ‘ हविषा विधेम ’ इसमें ‘ हविषा ’  मध्योदात्त है । ‘ भूर्भुव : स्व :’ इसमें ‘ स्व :’  स्वरित है । ‘ वनस्पति :’ में ‘ व ’ कार और ‘ स्प ’ दो उदात्त होनेसे यह द्विरुदात्तका उदाहरण है । नाममें अन्तर एवं मध्यमें उदात्त होता है । निपातमें अनुदात्त होता है । उपसर्गमें आद्य स्वरसे परे स्वरित होता है तथा आख्यातमें दो अनुदात्त होते हैं । स्वरितसे परे जो धार्य अक्षर हैं ( यथा ‘ निहोता सत्सि ’ इसमें ‘ ता ’ स्वरित है , उससे परे ‘ सत्सि ’ ये धार्य अक्षर हैं ), वे सब प्रचयस्थान हैं ; क्योंकि ‘ स्वरित ’ प्रचित होता है । वहाँ आदिस्वरितका निघात स्वर होता है । जहाँ प्रचय देखा जाय , वहाँ विद्वान्‌ पुरुष स्वरका निघात करे । जहाँ केवल मृदु स्वरित हो , वहाँ निघात न करे । आचार्य - कर्म पाँच प्रकारका होता है - मुख , न्यास , करण , प्रतिज्ञा तथा उच्चारण । इस विषयमें कहते हैं , सप्रतिज्ञ उच्चारण ही श्रेय है । जिस किसी भी वर्णका करण ( शिक्षादि शास्त्र ) नहीं उपलब्ध होता हो , वहाँ प्रतिज्ञा ( गुरुपरम्परागत निश्चय )- का निर्वाह करना चाहिये ; क्योंकि करण प्रतिज्ञारूप ही है । नारद ! तुम , तुम्बुरु , वसिष्ठजी तथा विश्वावसु आदि गन्धर्व भी सामके विषयमें शिक्षाशास्त्रोक्त सम्पूर्ण लक्षणोंको स्वरकी सूक्ष्मताके कारण नहीं जान पाते ।
जठराग्निकी सदा रक्षा करे । हितकर ( पथ्य ) भोजन करे । भोजन पच जानेपर उष : कालमें नींदसे उठ जाय और ब्रह्मका चिन्तन करे । शरत्कालमें जो विषुवद्‌योग ( जिस समय दिन - रात बराबर होते हैं ) आता है , उसके बीतनेके बाद जबतक वसन्त ऋतुकी मध्यम रात्रि उपस्थित न हो जाय तबतक वेदोंके स्वाध्यायके लिये उष :- कालमें उठना चाहिये । सबेरे उठकर मौनभावसे आम , पलाश , बिल्व , अपामार्ग अथवा शिरीष - इनमेंसे किसी वृक्षकी टहनी लेकर उससे दाँतुन करे । खैर , कदम्ब , करबीर तथा करंजकी भी दाँतुन ग्राह्य है । काँटे तथा दूधवाले सभी वृक्ष पवित्र और यशस्वी माने गये हैं । उनकी दाँतुनसे इस पुरुषकी वाक्‌ - इन्द्रियमें सूक्ष्मता ( कफकी ) कमी होकर सरलतापूर्वक शब्दोच्चारणकी शक्ति ) तथा मधुरता ( मीठी आवाज ) आती है । वह व्यक्ति प्रत्येक वर्णका स्पष्ट उच्चारण कर लेता है , जैसी कि ‘ प्राचीनौदवज्रि ’ नामक आचार्यकी मान्यता है । शिष्यको चाहिये वह नमकके साथ सदा त्रिफलाचूर्ण भक्षण करे । यह त्रिफला जठराग्निको प्रज्वलित करनेवाली तथा मेधा ( धारणशक्ति )- को बढानेवाली है । स्वर और वर्णके स्पष्ट उच्चारणमें भी सहयोग करनेवाली है । पहले जठरानलकी उपासना अर्थात्‌ - मल - मूत्रादिका त्याग करके आवश्यक धर्मों ( दाँतुन , स्नान , संध्योपासन )- का अनुष्ठान करनेके अनन्तर मधु और घी पीकर शुद्ध हो वेदका पाठ करे । पहले सात मन्त्रोंको उपांशुभावसे ( बिना स्पष्ट बोले ) पढे उसके बाद मन्द्रस्वरमें वेदपाठ आरम्भ करके यथेष्ट स्वरमें मन्त्रोच्चारण करे । यह सब शाखाओंके लिये विधि है । प्रात : काल ऐसी वाणीका उच्चारण न करे , जो प्राणोंका उपरोध करती हो ; क्योंकि प्राणोपरोधसे वैस्वर्य ( विपरीत स्वरका उच्चारण ) हो जाता है । इतना ही नहीं , उससे स्वर और व्यञ्जनका माधुर्य भी लुप्त हो जाता है , इसमें संशय नहीं है । कुतीर्थसे प्राप्त हुई दग्ध ( अपवित्र ) वस्तुको जो दुर्जन पुरुष खा लेते हैं , उनका उसके दोषसे उद्धार नहीं होता - ठीक उसी तरह , जैसे पापरूप सर्पके विषसे जीवनकी रक्षा नहीं हो पाती । इसी प्रकार कुतीर्थ ( बुरे अध्यापक )- से प्राप्त हुआ जो दग्ध ( निष्फल ) अध्ययन है , उसे जो लोग अशुद्ध वर्णोंके उच्चारणपूर्वक भक्षण ( ग्रहण ) करते हैं , उनका पापरूपी सर्पके विषकी भाँति पापी उपाध्यायसे मिले हुए उस कुत्सित अध्ययनके दोषसे छुटकारा नहीं होता । उत्तम आचार्यसे प्राप्त अध्ययनको ग्रहणे करके अच्छी तरह अभ्यासमें लाया जाय तो वह शिष्यमें सुप्रतिष्ठित होता है और उसके द्वारा सुन्दर मुख एवं शोभन स्वरसे उच्चारित वेदकी बडी शोभा होती है । जो नाक , आँख , कान आदिके विकृत होनेसे विकराल दिखायी देता है , जिसके ओठ लंबे - लंबे हैं , जो सब बात नाकसे ही बोलता है , जो गद्नद - कण्ठसे बोलता है अथवा जिसकी जीब बँधी - सी रहती है अर्थात्‌ जो रुक - रुककर बोलता है , वह वेदमन्त्रोंके प्रयोगका अधिकारी नहीं है । जिसका चित्त एकाग्र है , अन्त : करण वशमें है और जिसके दाँत तथा ओष्ठ सुन्दर हैं , ऐसा व्यक्ति यदि स्नानसे शुद्ध हो गाना छोड दे तो वह मन्त्राक्षरोंका ठीक प्रयोग कर सकता है । जो अत्यन्त क्रोधी , स्तब्ध , आलसी तथा रोगी हैं और जिनका नम इधर - उधर फैला हुआ है , वे पाँच प्रकारके मनुष्य विद्या ग्रहण नहीं कर पाते । विद्या धीरे - धीरे पढी जाती है। धन धीरे - धीरे कमाया जाता है , पर्वतपर धीरे - धीरे चढना चाहिये । मार्गका अनुसरण भी धीरे - धीरे ही करे और एक दिनमें एक योजनसे अधिक न चले । चींटी धीरे - धीरे चलकर सहस्त्रों योजन चली जाती है । किंतु गरुड भी यदि चलना शुरू न करे तो वह एक पग भी आगे नहीं जा सकता । पापीकी पापदूषित वाणी प्रयोगों ( वेदमन्त्रों )- का उच्चारण नहीं कर सकती - ठीक उसी तरह , जैसे बातचीतमें चतुर सुलोचना रमणी बहरेके आगे कुछ नहीं कह सकती । जो उपांशु ( सूक्ष्म ) उच्चारण करता है , जो उच्चारणमें जल्दबाजी करता है तथा जो डरता हुआ - सा अध्ययन करता है , वह सहस्त्र रुपों ( शद्बोच्चारण )- के विषयमें सदा संदेहमें ही पडा रहता है । जिसने केवल पुस्तुकके भरोसे पढा है , गुरूके समीप अध्ययन नहीं किया है , वह सभामें समानित नहीं होता - वैसे ही , जैसे जारपुरुषसे गर्भ धारण करनेवाली स्त्री समाजमें प्रतिष्ठा नहीं पाती । प्रतिदिन व्यय किये जानेपर अञ्जनकी पर्वतराशिका भी क्षय हो जाता है और दीमकोंके द्वारा थोडी - थोडी मिट्टीके संग्रहसे भी बहुत ऊँचा वल्मीक बन जाता है , इस 
दृष्टान्तको सामने रखते हुए दान और अध्ययनादि सत्कर्मोंमें लगे रहकर जीवनके प्रत्येक दिनको सफल बनावे - व्यर्थ न बीतने दे । कीडे चिकने धूलकणोंसे जो बहुत ऊँचा वल्मीक बना लेते हैं , उसमें उनके बलका प्रभाव नहीं है , उद्योग ही कारण है । विद्याको सहस्त्रों बार अभ्यासमें लाया जाय और सैकडों बार शिष्योंको उसे पढाया जाय , तब वह उसी प्रकार जिह्वाके अग्रभागपर आ जायगी , जैसे जल ऊँचे स्थानसे नीचे स्थानमें स्वयं बह आता है । अच्छी जातिके घोडे आधी रातमें भी आधी ही नींद सोते हैं अथवा वे आधॊ रातमें सिर्फ एल पहर सोते हैं , उन्हींकी भाँति विद्यार्थियोंके नेत्रोंमें चिरकालतक निद्रा नहीं ठहरती । विद्यार्थीं भोजनमें आसक्त होकर अध्ययनमें विलम्ब न करे । नारीके मोहमें न फँसे । विद्याकी अभिलाषा रखनेवाला छात्र आवश्यकता हो तो गरुड और इंसकी भाँति बहुत दूरतक भी चला जाय । विद्यार्थी जनसमूहसे उसी तरह डरे , जैसे सर्पसे डरता है । दोस्ती बढानेके व्यसनको नरक समझकर उससे भी दूर रहे । स्त्रियोंसे उसी तरह बचकर रहे , जैसे राक्षसियोंसे । इस तरह करनेवाला पुरुष ही विद्या प्राप्त कर सकता है । शठ प्रकृतिके मनुष्य विद्यारूप अर्थकी सिद्धि नहीं कर पाते । कायर तथा अहंकारी भी विद्या एवं धनका उपार्जन नहीं कर पाते । लोकापवादसे डरनेवाले लोग भी विद्या और धनसे वञ्चित रह जाते हैं तथा ‘ जो आज नहीं कल ’ करते हुए सदा आगामी दिनकी प्रतीक्षामें बैठे रहते हैं , वे भी न विद्या पढ पाते हैं न धन ही लाभ करते हैं । जैसे खनतीसे धरती खोदनेवाला पुरुष एक दिन अवश्य पानी प्राप्त कर लेता है , उसी प्रकार गुरुकी निरन्तर सेवा करनेवाला छात्र गुरुमें स्थित विद्याको अवश्य ग्रहण कर लेता है । गुरुसेवसे विद्या प्राप्त होती है अथवा बहुत धन व्यय करनेसे उनकी प्राप्ति होती है । अथवा एक विद्या देनेसे दूसरी विद्या मिलती है ; अन्यथा उसकी प्राप्ति नहीं होती । यद्यपि बुद्धिके गुणोंसे सेवा किये बिना भी विद्या प्राप्त हो जाती है ; तथापि वन्ध्या युवतीकी भाँति वह सफल नहीं होती । नारद ! इस प्रकार मैंने तुमसे शिक्षाग्रन्थका संक्षेपसे वर्णन किया है । इस आदिवेदाङ्गको जानकर मनुष्य ब्रह्मभावकी प्राप्तिके योग्य हो जाता है । ( पूर्वभाग - द्वितीय पाद , अध्याय ५० )