श्रीनारदपुराण - पूर्वभाग

`नारदपुराण ’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द-शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


द्वितीय पाद - त्रिस्कन्ध ज्यौतिषका जातकस्कन्ध


 
सनन्दनजी कहते हैं --- नारद ! मेष आदि राशियाँ कालपुरुषके क्रमश : मस्तक , मुख , बाहु , ह्रदय , उदर , कटि , वस्ति ( पेंडू ), लिङ्ग , ऊरु , जानु , जङ्घा और दोनों चरण हैं ॥१॥ मङ्गल , शुक्र , बुध , चन्द्रमा , सूर्य , बुध , श्रुक्त , मङ्गल , गुरु , शनि , शनि तथा ग्रुरु - ये क्रमश : मेष आदि राशियोंके अधीश्वर ( स्वामी ) हैं ॥२॥ विषम राशियोंमें पहले सूर्यकी , फिर चन्द्रमाकी होरा बीतती है तथा सम राशियोंमें पहले चन्द्रमाकी , फिर सूर्यकी होरा बीतती है । आदिके दश अंशतक उसी राशिका द्रेष्काण होता है और उस राशिके स्वामी ही उस द्रेष्काणके स्वामी होते हैं । ग्यारहसे बीसवें अंशतक उस राशिसे पाँचर्वी राशिका द्रेष्काण होता है और उसके स्वामी ही उस द्रेष्काणके स्वामी होते हैं : इसी प्रकार अन्तिम दश अंश ( अर्थात्‌ २१ से ३० वें अंशतक ) उस राशिसे नवम राशिका द्रेष्काण होता है और उसीके स्वामी उस द्रेष्काणके स्वामी कहे गये हैं ॥३॥ विषम राशियोंमें पहले पाँच अंशतक मङ्गल , फिर पाँच अंशतक शनि , फिर आठ अंशतक बृहस्पति , फिर सात अंशतक बुध और अन्तिम पाँच अंशतक शुक्र त्रिंशांशेश कहे गये हैं । सम राशियोंमें इसके विपरीत क्रमसे पहले पाँच अंशतक शुक्र , फिर सात अंशतक बुध , फिर आठ अंशतक बृहस्पति , फिर पाँच अंशतक शनि और अन्तिम पाँच अंशतक मङ्गल त्रिंशांशेश बताये गये हैं ॥४॥ मेष आदि राशियोंके नवमांश मेष , मकर , तुला और कर्कसे प्रारम्भ होते हैं ( यथा - मेष , सिंह , धनुके मेषसे ; वृष , कन्या , मकरके मकरसे ; मिथुन , तुला और कुम्भके तुलासे तथा कर्क , वृश्चिक और मीनके नवमांश कर्कसे चलते हैं । ) २ . / १ / २ अंशके द्वादशांश होते हैं , जो अपनी राशिसे प्रारम्भ होकर अन्तिम राशिपर पूरे होते हैं और उन - उन रआसियोंके स्वामी ही उन द्वादशांशोंके स्वामी कहे गये हैं । इस प्रकार ये राशि , होरा आदि षड्‌वर्ग१ कहलाते हैं ॥५॥ 
वृष , मेष , धनु , कर्क , मिथुन , और मकर - ये रात्रिसंज्ञक हैं अर्थात्‌ रातमें बली माने गये हैं - ये पृष्ठभागसे उदय लेनेके कारण पृष्ठोदय कहलते हैं ( किंतु मिथुन पृष्ठोदय नहीं है ) । शेष राशियोंकी दिन संज्ञा है ( वे दिनमें बली और शीर्षोदय माने गये हैं ); मीन राशिको उभयोदय कहा गया है । मेष आदि राशियाँ क्रमसे क्रूर और सौम्य ( अर्थात्‌ मेष आदि विषम राशियाँ क्रूर और वृष आदि सम राशियाँ सौम्य ) हैं ॥६॥ मेष आदि राशिय़ाँ क्रमसे पुरुष . स्त्री और नपुंसक होती हैं ( नवीन मतमें दो विभाग हैं , मेष आदि विषम राशियाँ पुरुष और वृष आदि सम राशियाँ स्त्री हैं ) । इसी प्रकार मेष आदि राशियाँ क्रमश : चर , स्थिर और द्विस्वभावमें विभाजित हैं ( अर्थात्‌ मेष चर , वृष स्थिर और मिथुन द्विस्वभाव हैं , कर्क चर , सिंह स्थिर और कन्या द्विस्वभाव है । इसी क्रमसे शेष राशियोंको भी समझे ) । मेष आदि राशियाँ पूर्व आदि दिशाओंमें स्थित हैं ( यथा - मेष , सिंह , धनु पूर्वमें ; वृष कन्या , मकर दक्षिणमें ; मिथुन , तुला , कुम्भ पश्चिममें और कर्क , वृश्चिक , मीन उत्तरमें स्थित , हैं ) । ये सब अपनी - अपनी दिशामें रहती हैं ॥७॥ सूर्यका उच्च मेष , चन्द्रमाका वृष , मङ्गलका मकर , बुधका कन्या , गुरुका कर्क , शुक्रका मीन तथा शनिका उच्च तुला है । सूर्यका मेषमें १० अंश , चन्द्रमाका वृषमें ३ अंश , मङ्गलका मकरमें २८ अंश , बुधका कन्यामें १५ अंश , गुरुका कर्कमें ५ अंशम शुक्रका मीनमें २७ अंश तथा शनिका तुलामें २० अंश उच्चांश परमोच्च है ॥८॥
सूर्यादि ग्रहोंकी जो उच्च राशियाँ कही गयी हैं , उनसे सातवीं राशि उन ग्रहोंका नीच स्थान है ।
चरमें पूर्व नवमांश वर्गोत्तम है। स्थिरमें मध्य ( पाँचवाँ ) नवमांश और द्विस्वभावमें अन्तिम ( नवाँ ) नवमांश वर्गोत्तम है। तनु ( लग्न ) आदि बारह भाव हैं ॥९॥ सूर्यका सिंह , चन्द्रमाका वृष , मङ्गलका मेष , बुधका कन्या , गुरुका धन , शुक्रका तुला और शनिका कुम्भ यह मूल त्रिकोण कहा गया है । चतुर्थ और अष्टभावका नाम चतुरस्त्र है । नवम और पञ्चमका नाम त्रिकोण है ॥१०॥ द्वादश , अष्टम और षष्ठका नाम त्रिक है ; लघ्न चतुर्थ . सप्तम और दशमका नाम केन्द्र है। द्विपद , जलचर , कीट और पशु - ये राशियाँ क्रमश : केन्द्रमें बली होती हैं ( अर्थात्‌ द्विपद लग्नमें , जलचर चतुर्थमें , कीटा सातवेंमें और पशु दसवेंमें बलवान्‌ मागे गये हैं ) ॥११॥ केन्द्रके बादके स्थान ( २ , ५ . ८ , ११ , ये ) ‘ पणफर ’ कहे गये हैं। उसके बादके ३ , ६ , ९ , १२ - ये आपोक्लिम कहलाते हैं । मेषका स्वरूप रक्तवर्ण , वृषका श्वेत , मिथुनका शुकके समान हरित , कर्कका पाटल ( गुलाबी ), सिंहका धूम्र , कन्याका पाण्डु ( गौर ), तुलाका चितकबरा , वृश्चिकका कृष्णवर्ण , धनुका पीत , मकरका पिङ्ग , कुम्भका बभ्रु ( नेवले ) के सदृश और मीनका स्वच्छ वर्ण है । इस प्रकार मेषसे लेकर सब राशियोंकी कान्तिका वर्णन किया गया है । सब राशियाँ स्वामीकी दिशाकी ओर झुकी रहती हैं । सूर्याश्रित राशिसे दूसरेका नाम ‘ वेशि ’ है ॥१२ - १३॥
( ग्रहोंके शील , गुण आदिका निरूपण --- ) सूर्यदेव कालपुरुषके आत्मा , चन्द्रमा मन , मङ्गल पराक्रम , बधु वाणी , गुरु ज्ञान एवं सुख , शुक्र काम और शनैश्वर दुःख हैं ॥१४॥ सूर्य - चन्द्रमा राजा , मङ्गल सेनापति , बुध राजकुमार , बृहस्पति तथा शुक्र मन्त्री और शनैश्वर सेवक या दूत हैं , यह ज्यौतिष शास्त्रके श्रेष्ठ विद्वानोंका मत है ॥१५॥ सूर्यादि ग्रहोंके वर्ण इस प्रकार हैं । सूर्यका ताम्र , चन्द्रमाका शुक्ल , मङ्गलका रक्त , बुधका हरित , बृहस्पतिका पीत , शुक्रका चित्र ( चितकबरा ) तथा शनैश्वरका काला है । अग्नि , जल , कार्तिंकेय , हरि , इन्द्र , इन्द्राणी और ब्रह्मा - ये सूर्यादि ग्रहोंके स्वामी हैं ॥१६॥ सूर्य , शुक्र , मङ्गल , राहु शनि , चन्द्रमा , बुध तथा बृहस्पति - ये क्रमश : पूर्व , अग्निकोण , दक्षिण , नैऋत्यकोण , पश्चिम , वायव्यकोण , उत्तर तथा ईशनकोणके स्वामी हैं । क्षीण चन्द्रमा , सूर्य , मङ्गल और शनि - ये पापग्रह हैं - इनसे युक्त होनेपर बुध भी पापग्रह हो जाता है ॥१७॥ बुध और शनि नपुंसक ग्रह हैं । शुक्र और चन्द्रमा स्त्रीग्रह हैं । शेष सभी ( रवि , मङ्गल गुरु ) ग्रह पुरुष हैं । मङ्गल , बुध , गुरु , शुक्र तथा शानि - ये क्रमश : अग्नि , भूमि , आकाश , जल तथा वायु - इन तत्त्वोंके स्वामी हैं ॥१८॥ शुक्र और गुरु ब्राह्मण वर्णके स्वामी हैं । भौम तथा रवि क्षत्रिय वर्णके अधिपति हैं । शनि अन्त्यजोंके तथा राहु म्लेर्च्छेके स्वामी हैं ॥१९॥ चन्द्रमा , सूर्य और बृहस्पति सत्त्वगुणके , बुध और शुक्र रजोगुणके तथा मङ्गल और शनैश्वर तमोगुणके स्वामी हैं । सूर्य देवताओंके , चन्द्रमा जलके , मङ्गल अग्निके , बुध क्रीडाविहारके , बृहस्पति भूमिके , शुक्र कोषके , शनैश्वर शयनके तथा राहु ऊसरके स्वामी हैं ॥२०॥ स्थूल ( मोटे सूतसे बना हुआ ), नवीन , अग्निसे जला हुआ , जलसे भीगा हुआ , मध्यम ( न नया न पुराना ), सुदृढ ( मजबूत ) तथा फटा हुआ , इस प्रकार क्रमसे सूर्य़ आदि ग्रहोंका वस्त्र है । ताम्र ( ताँबा ), मणि , सुवर्ण , काँसा , चाँदी , मोती और लोहा - ये क्रमश : सूर्य आदि ग्रहोंके धातु हैं । शिशिर , वसन्त , ग्रीष्म , वर्षा , शरद्‌ और हेमन्त - ये क्रमसे शनि , शुक्र , मङ्गल , चन्द्र , बुध तथा गुरुकी ऋतु हैं । लग्नमें जिस ग्रहका द्रेष्काण हो , उस ग्रहकी ऋतु समझी जाती है ॥२१ - २२॥  
( ग्रहोंकी दृष्टि --- ) नारद ! सभी ग्रह अपने - अपने आश्रितस्थानसे ३ , १० , स्थानको एक चरणसे ; ५ , ९ , स्थानको दो चरणसे ; ४ , ८ , स्थानको तीन चरणसे और सप्तम स्थानको चार चरणसे देखते हैं । किंतु ३ , १० , स्थानको शनि : ५ . ९ , को गुरु तथा ४ , ८ , को मङ्गल पूर्ण दृष्टिसे ही देखते हैं । अन्य ग्रह केवल सप्तम स्थानको ही पूर्ण दृष्ट चारों चरणों से देखते हैं ॥२३॥
( ग्रहोंके कालमान --- )  अयन ( ६ मास ), मुहूर्त ( २ घडी ), अहोरात्र , ऋतु ( २ मास ), मास , पक्ष तथा वर्ष - ये कमसे सूर्य आदि ग्रहोंके कालमान हैं । तथा कटु ( मिर्च आदि ), लवण , तिक्त ( निम्बादि ), मिश्र ( सब रसोंका मेल ), मधुर , आम्ल ( खट्टा ) और कषाय ( कसैला )- ये क्रमश : सूर्य आदि ग्रहोंके रस हैं ॥२४॥
( ग्रहोंकी स्वाभाविक बहुसम्मत मैत्री --- ) ग्रहोंके जो अपने - अपने मूल त्रिकोण स्थान कहे गये हैं , उस ( मूल त्रिकोण ) स्थानसे २ , १२ , ५ , ९ , ८ , ४ , इन स्थानोंके तथा अपने उच्च स्थानोंके स्वामी ग्रह मित्र होते हैं और इनसे भिन्न ( मूल त्रिकोणसे १ , ३ , ६ , ७ , १० , ११ ) स्थानोंके स्वामी शत्रु होते हैं ।
( मतान्तरसे ग्रह - मैरी --- ) सूर्यका बृहस्पति , चन्द्रके गुरु - बुध , मङ्गलके शुक्र - बुध , बुधके रविको छोडकर शेष सब ग्रह , गुरुके मङ्गलको छोडकर सब ग्रह और शनिके मङ्गल - चन्द्र - रविको छोडकर शेष सभी ग्रह मित्र होते हैं । यह मत अन्य विद्वानोंद्वारा स्वीकृत है ।
( ग्रहोंकी तात्कालिक मैत्री --- ) उस - उस समयमें जो - जो दो ग्रह २ , १२। ३ , ११। ४ , १० - इन स्थानोंमें हों वे भै परस्पर तात्कालिक मित्र होते हैं । ( इनसे भिन्न स्थानमें स्थित ग्रह तात्कालिक शत्रु होते हैं ) इस प्रकार स्वाभाविक मैत्रीमें ( मूल त्रिकोणसे जिन स्थानोंके स्वामीको मित्र कहा गया है - उनमें ) दो स्थानोंके स्वामीको मित्र , एक स्थानके स्वामीको सम और अनुक्त स्थानके स्वामीको शत्रु समझे । तदनन्तर तात्कालिक मित्र और शत्रुका विचार करके दोनोंके अनुसार अधिमित्र , मित्र , सम , शुत्र और अधिशत्रुंका निश्चय करना चाहिये१ ॥२५ - २७॥
( ग्रहोंके बलका कथन --- ) अपने - अपने उच्च , मूल , त्रिकोण , गृह और नवमांशमें ग्रहोंके स्थानसम्बन्धी बल होते हैं । बुध और गुरुको पूर्व ( उदय - लग्न ) में , रवि और मङ्गलको दक्षिण ( दशम भाव )- में , शनिको पश्चिम ( सप्तम भाव )- में और चन्द्र तथा शुक्रको उत्तर ( चतुर्थ भाव )- में दिक्‌सम्बन्धी बल प्राप्त होता है । रवि और चन्द्रम उत्तरायण ( मकरसे ६ राशि )-- में रहनेपर तथा अन्य ग्रह वक्र और समागममें ( चन्द्रमाके साथ ) होनेपर चेष्टाबलसे युक्त समझे जाते हैं । तथा जिन दो ग्रहोंमें युति होती है , उनमें उत्तर दिशामें रहनेवाला भी चेष्टाबलसे सम्पन्न समझा जाता है ॥२८ - २९॥ चन्द्रमा , मङ्गल और शनि ये रात्रिमें , बुध दिन और रात्रि दोनोंमें तथा अन्य ग्रह ( रवि , गुरु और शुक्र ) दिनमें बली होते हैं । कृष्णपक्षमेम पापग्रह और शुक्लपक्षमें शुभग्रह बली होते हैं । इस प्रकार विद्वानोंने ग्रहोंका कालसम्बन्धी बल माना है ॥३०॥ शनि , मङ्गल , बुध , गुरु , शुक्र , चन्द्रमा तथा रवि - ये उत्तरोत्तर बली होते हैं । इस प्रकार यह ग्रहोंका नैसर्गिक स्वाभाविक बल है ॥३० . १ / २॥
( वियोनि जन्म - ज्ञान ---) ( प्रश्न , आधान या जन्म - समयमें ) यदि पापग्रह निर्बल हों , शुभग्रह बलवान्‌ हों , नपुंसक ( बुध , शनि ) केन्द्रमें हों तथा लग्नपर शनि या बुधकी दृष्टी हो तो तात्कालिक चन्द्रमा जिस राशिके द्वादशांशमें हो , उस राशिके सदृश वियोनि ( मानवेतर प्राणी )- का जन्म जानना चाहिये । अर्थात्‌ चन्द्रमा यदि वियोनि राशिके द्वादशांशमें हो तब वियोनि प्राणियोंका जन्म समझना चाहिये । अथवा पापग्रह अपने नवमांशमें और शुभग्रह अन्य ग्रहोंके नवमांशमें हो था निर्बला वियोनि राशि लग्नमें हो तो भी विद्वान्‌ पुरुष वियोनि या मानवेतर जीवके ही जन्मका प्रतिपादन करें ॥३३ . १ / २॥
( वियोनिके अङ्गोंमें राशिस्थान --- )  १ मस्तक , २ मुख , गला ( गर्दन ), ३ पैर , कंधा , ४ पीठ , ५ ह्रदय , ६ दोनों पार्श्व , ७ पेट , ८ गुदा - मार्ग , ९ पिछले पैर , १० लिङ्ग , ११ अण्डकोश , १२ चूतड तथा पुच्छ - इस प्रकार चतुष्पद आदि ( पशु - पक्षी )- के अङ्गोंमें मेषादि राशियोंके स्थान हैं ॥३४॥ 
( वियोनि वर्ण - ज्ञान --- ) लग्नमें जिस ग्रहका योग हो उस ग्रहके समान और यदि किसीका योग न हो तो लग्नके नवमांश ( राशि - राशिपति )- के समान वियोनिका वर्ण ( श्याम , और आदि रंग ) कहना चाहिये । बहुत - से ग्रहोंके योग या दृष्टि हों तो उनमें जो बली हों या जितने बली हों , उनके सदृश वर्ण कहना चाहिये । लग्नके सप्तम भावमें ग्रह हो तो ( उस ग्रहके समान उस ग्रहका जैसा वर्ण कहा गया है वैसा ) चिह्न उस वियोनिके पीठ आदि अङोंमे जानना चाहिये ॥३५॥
( पक्षिजन्म ज्ञान ---  ग्रहयुत लग्नमें पक्षिद्रेष्कोण१ हो अथवा बुधका नवमांश हो य चरराशिका नवमांश हो तथा उसपर शनि या चन्द्रमा अथवा दोनोंकी दृष्टि हो तो क्रमश : शनि और चन्द्रमाकी दृष्टिसे स्थलचर और जलचर पक्षीका जन्म समझना चाहिये ॥३६॥
( वृक्षादि जन्म - ज्ञान --- ) यदि लग्न , चन्द्र , गुरु और सूर्य - ये चारों निर्बल हों तो वृक्षोंका जन्म जानना चाहिये । स्थल या जल - सम्बन्धी वृक्षोंके भेद लग्नांशके अनुसार समझने चाहिये । उस स्थल या जलचर नवांशका स्वामी लग्नसे जितने नवमांश आगे हो उतनी ही स्थाल या जलसम्बन्धी वृक्षोंकी संख्या जाननी चाहिये ॥३७ - ३८॥ यदि उक्त अंशके स्वामी सूर्य हों तो अन्त : सार ( सखुआ , शीशम आदि ), शनि हो तो दुर्भग ( किसी उपयोगमें न आनेवाले कुर्कुस , फरहद आदि खोटे वृक्ष ), चन्द्रमा हो तो दूधवाले वृक्ष , मङ्गल हो तो काँटेवाले , गुरु हो तो फलवान्‌ ( आम आदि ), बुध हो तो विफल ( जिसमें फल नहीं होते ऐसे ) वृक्ष , शुक्र हो तो पुष्पके वृक्षो ( गेंदा , गुलाब आदि )- का जन्म समझना चाहिये । चन्द्रमाके अंशपति होनेसे समस्त चिकने वृक्ष ( देवदारु आदि ) तथा मङ्गलके अंशपति होनेपर कडुए वृक्ष ( निम्बादि ) का भी जन्म समझना चाहिये । यदि शुभग्रह अशुभ राशिमें हो तो सुन्दर भूमिमें खराब वृक्षका जन्म देता है । इससे अर्थत : यह बात निकली कि यदि कोई शुभग्रह अंशपति हो और वह शुभराशिमें स्थित हो तो सुन्दर भुमिमें सुन्दर वृक्षका जन्म होता है और यदि पापग्रह अंशपति होकर पापराशिमें स्थित हो तो खराब भूमिमें कुत्सित वृक्षका जन्म होता है । इसके सिवा , वह अंशपति अपने नवमांशसे आगे जितनी संख्यापर अन्य नवमांशमें हो , उतनी ही संख्यामें और उतने ही प्रकारके वृक्षोंका जन्म समझना चाहिये ॥४० . १ / २॥
( आधान - ज्ञान --- ) प्रतिमास मङ्गल और चन्द्रमाके हेतुसे स्त्रीको ऋतुधर्म हुआ करता है । जिस समय चन्द्रमा स्त्रीकी राशिसे नेष्ट ( अनुपचय ) स्थानमें हो और शुभ पुरुषग्रह ( बृहस्पति )- से देखा जाता हो तथा पुरुषकी राशिसे अन्यथा ( इष्ट = उपचय स्थानमें ) हो और बृहस्पतिसे दृष्ट हो तो उस स्त्रीको पुरुषका संयोग प्राप्त होता है । आधान - लग्नसे सप्तम भावपर पापग्रहका योग या दृष्टि हो तो रोषपूर्वक और शुभग्रहका योग एवं दृष्टि हो तो प्रसन्नतापूर्वक पति - पत्नीका संयोग होता है ॥४१ - ४२॥ आधानकालमें शुक्र , रवि , चन्द्रमा और मङ्गल अपने - अपने नवमांशमें हों , गुरु लग्नसे केन्द्र या त्रिकोणमें हो तो वीर्यवान्‌ पुरुषको निश्चय ही संतान होती है ॥४३॥ यदि सूर्यसे सप्तम भावमें मङ्गल और शनि हों तो वे पुरुषके लिये तथा चन्द्रमसे सप्तममें हों तो स्त्रीके लिये रोगप्रद होते हैं । सूर्यसे १२ , २में शनि और मङ्गल हों तो स्त्रीके लिये घातक होते हैं । अथवा इन ( शनि - मङ्गल )- मे एकसे युत और अन्यसे दृष्ट रवि हो तो वह पुरुषके लिये और चन्द्रमा यदि एकसे युत तथा अन्यसे दृष्ट हो तो चह स्त्रोके लिये घातक होता है ॥४४॥
दिनमें गर्भाधान हो तो शुक्र मातृग्रह हौर सूर्य पितृग्रह होते हैं । रात्रिमें गर्भाधान हो तो चन्द्रमा मातृग्रह और शनि पितृग्रह होते हैं । पितृग्रह यदि विषम राशिमें हो तो पिताके लिये और मातृग्रह सम राशिमें हो तो माताके लिये शुभकारक होता है । यदि पारग्रह बारहवें भावमें स्थित होकर पापग्रहसे देखा जाता और शुभग्रहसे न देखा जाता हो , अथवा लग्नमें शनि हो तथा उसपर क्षीण चन्द्रमा और मङ्गलकी दृष्टि हो तो गर्भाधान होनेसे स्त्रीका मरण होता है । लग्न और चन्द्रमा दोनों या इनमेंसे एक भी दो पापग्रहोंके बीचमें हो तो गर्भाधान होनेपर स्त्रि गर्भके सहित ( साथ ही ) या पृथक मृत्युको प्राप्त होती है । लग्न अथवा चन्द्रमासे चतुर्थ स्थानमें पापग्रह हो , मङ्गल अष्टम भावमें हो अथवा लग्नसे ४ , १२ वें स्थानमें मङ्गल और शनि हों तथा चन्द्रमा क्षीण हो तो भी गर्भवती स्त्रीका मरण होता है । यदि लग्नमें मङ्गल और सप्तममें रवि हों तो गर्भवती स्त्रीका शस्त्रद्वारा मरण होता है । गर्भाधानकालमें जिस मासका स्वामी अस्त हो , उस मासमें गर्भका स्त्राव होता है , इसलिये इस प्रकारके लग्नको गर्भाधानमें त्याग देना चाहिये ॥४५ - ४९॥
आधानकालिक लग्न या चन्द्रमाके साथ अथवा इन दोनोंसे ५ , ९ , ७ , ४ , १० , वें स्थानमें सब शुभग्रह हों और ३ , ६ , ११ , भावमें सब पापग्रह हों तथा लग्न और चन्द्रमापर सूर्यकी दृष्टि हो तो गर्भ सुखी रहता है ॥५०॥ रवि , गुरु चन्द्रमा और लग्न - ये विषम राशि एवं विषम नवमांशमें हों अथवा रवि और गुरु विषम राशिमें स्थित हों तो पुत्रका जन्म समझना चाहिये । उक्त सभी ग्रह यदि सम - राशि और सम - नवमांशमें हों अथवा मङ्गल , चन्द्रमा और शुक्र - ये सम - राशिमें हों तो विज्ञजनोंको कन्याका जन्म समझना चाहिये । अथवा वे सब द्विस्वभाव राशिमें हों और बुधसे देखे जाते हों तो अपने - अपने पक्षके यमल ( जुडर्वी संतान )- के जन्मकारक होते हैं । अर्थात्‌ पुरुषग्रह दो पुत्रोंके और स्त्रीग्रह दो कन्याओंके जन्मदायक होते हैं । यदि दोनों प्रकारके ग्रह हों तो एक पुत्र और एक कन्याका जन्म समझना चाहिये। लग्नसे विषम ३ , ५ , आदि स्थानोंमें स्थित शनि भी पुत्रजन्म - कारक होता है ॥५१ - ५३॥
क्रमश : विषम एवं सम - राशिमें स्थित रवि और चन्द्रमा अथवा बुध और शनि एक - दूसरेको देखते हों , अथवा सम - राशिस्थ सूर्य़को विषम - राशिस्थ मङ्गल देखता हो या विषम - सम राशिस्थ लग्न एवं चन्द्रमापर मङ्गलकी दृष्टि हो अथवा चन्द्रमा सम - राशि और लग्न विषम - राशिमेम स्थित हो तथा उनपर मङ्गलकी दृष्टि हो अथवा लग्न , चन्द्रमा और शुक्र - ये तीनों पुरुषराशिके नवमांशमें हों तो इन सब योगोंमें नपुंसकका जन्म होता है ॥५४ . १ / २॥
शुक्र और चन्द्रमा सम - राशिमें हों तथा बुध , मङ्गल , लग्न और बृहस्पति विषम - राशिमें स्थित होकर पुरुषहसे देखे जाते हों अथवा लग्न एवं चन्द्रमा सम - राशिमें हों या पूर्वोक्त बुध , मङ्गल , लग्न एवं गुरु सम - राशिमें हों तो ये यमल ( जुडवी ) संतानको जन्म देनेवाले होते हैं ॥५५ . १ / २॥
यदि बुध अपने ( मिथुन या कन्याके ) नवमांशमें स्थित होकर द्विस्वभाव राशिस्थ ग्रह और लग्नको देखता हो तो गर्भमें तीन संतानोंकी स्थिति समझनी चाहिये। उनमें दो तो बुध - नवमांशके सदृश होंगे और एक लग्नांशके सदृश। यदि बुध और लग्न दोनों तुल्य नवमांशमें हों तो तीनों संतानोंको एक - सा ही समझना चाहिये१ ॥५६ . १ / २॥
यदि धनु - राशिका अन्तिमांश लग्न हो , उसी अंशमें बली ग्रह स्थित हों और बलवान्‌ बुध या शनिसे देखे जाते हों , तो गर्भमें बहुत ( तीनसे अधिक ) संतानोंकी स्थिति समझनी चाहिये ॥५७ . १ / २॥
( गर्भमासोंके अधिपति --- ) शुक्र , मङ्गल , बृहस्पति , सूर्य , चन्द्रमा , शनि , बुध , आधान - लग्नेश , सूर्य और चन्द्रमा२ - ये गर्भाधानकालसे लेकर प्रसवपर्यन्त १० मासोंके क्रमश : स्वामी हैं । आधान - समयमें जो ग्रह बलवान्‌ या निर्बल होता है , उसके मामसें उसी प्रकार शुभ या अशुभ फल होता है ॥५८ . १ / २॥ बुध त्रिकोण ( ५ , ९ )- में हो और अन्य ग्रह निर्बल हों तो गर्भस्थ शिशुके दो मुख , चार पैर और चार हाथ होते हैं । चन्द्रमा वृषमें हो और अन्य सब पापग्रह राशि - संधिमें हों तो बालक गूँगा होता है । यदि उक्त ग्रहोंपर शुभ ग्रहोंकी दृष्टि हो तो वह बालक अधिक दिनोंमें बोलता है ॥५९ - ६०॥ मङ्गल और शनि यदि बुधकी राशि नवमांशमें हों तो शिशु गर्भमें ही दाँतसे युक्त होता है । चन्द्रमा कर्कराशिमें होकर लग्नमें हो तथा उसपर शनि और मङ्गलकी दृष्टि हो तो गर्भस्थ शिशु कुबडा होता है । मीन राशि लग्नमें हो और उसपर शनि , चन्द्रमा तथा मङ्गलकी दृष्टि हो तो गर्भका बालक पङ्गु होता है । पापग्रह और चन्द्रमा राशिसंधिमें हों और उनपर शुभ - ग्रहकी दृष्टि न हो तो गर्भस्थ शिशु जड ( मूर्ख ) होता है । मकरका अन्तिम अंश लग्नमें हो और उसपर शनि , चन्द्रमा तथा सूर्यकी दृष्टि हो तो गर्भका बच्चा वामन ( बौना ) होता है । पञ्चम तथा नवम लग्नके द्रेष्काणमें पापग्रह हो तो जातक क्रमश ; पैर , मस्तक और हाथसे रहित होता है ॥६१ - ६२॥
गर्भाधानके समय यदि सिंह लग्नमें सूर्य और चन्द्रमा हों तथा उनपर शनिज और मङगलकी दृष्टि हो तो शिशु नेत्रहीन होता है । यदि शुभ और पापग्रह दोनोंकी दृष्टी हो तो आँखमें फूली होती है । यदि लग्नसे बारहवें भावमें चन्द्रमा हो तो बालकका वाम नेत्र और सूर्य हो तो दक्षिण नेत्र नष्ट होता है । ऊपर जो अशुभ योग कहे गये हैं , उनपर शुभग्रहकी दृष्टि हो तो उन योगोंके फल पूर्ण नहीं होते हैं ( ऐसी परिस्थितिमें देवाराधन एवं चिकित्सा आदि यत्नोंसे अशुभ फलका निवारण हो जाता है ) ॥६३ - १ - २॥
यदि आधानलग्नमें शनिका नवमांश हो और शनि सप्तम भावमें हो तो तीन वर्षपर प्रसव होता है । यदि इसी स्थितिमें चन्द्रमा हो ( अर्थात्‌ लग्नमें चन्द्रमाका नवमांश हो और चन्द्रमा सप्तम भावमें स्थित हो ) तो बारह वर्षपर प्रसव होता है । इन योगोंका विचार जन्मकालमें भी करना चाहिये ॥६४ - ६५॥ आधानकालमें जिस द्वादशांशमें चन्द्रमा हो , उससे उतनी ही संख्या आगे राशिमें चन्द्रमाके जानेपर बालकका जन्म होता है । द्वादशांशभुक्त अंशादिको दोसे गुणा करके उसमें ५ से भाग देनेपर लब्धि राश्यादि मानकी सूचक होती है ॥६६ - ६७॥
( जन्मज्ञान --- ) ( शिशुकी जन्म - कुण्डलीमें ) यदि चन्द्रमा जन्मलग्नको नहीं देखता हो तो पिताके परोक्षमें बालकका जन्म समझना चाहिये । इसी योगमें यदि सूर्य चर राशिमें मध्य ( दशम ) भावसे आगे ( ११ , १२ )- में अथवा पीछे ( ९ , ८ )- में हो तो पिताके विदेश रहनेपर पुत्रक जन्म समझना चाहिये । ( इससे यह सिद्ध होता है कि यदि सूर्य स्थिर राशिमें हो तो स्वदेशमें रहते हुए पिताके परोक्षमें और द्विस्वभाव राशिमें हो तो स्वदेश और परदेशके मध्य स्थानमें पिताके रहनेपर बालकका जन्म होता है ) ।
लग्नमें शनि और सप्तम भावमें मङ्गल हो अथवा बुध और शुक्रके बीचमें चन्द्रमा हो तो भी पिताके परोक्षमे शिशुका जन्म समझना चाहिये। पापग्रहकी राशिवाले लग्नमें चन्द्रमा हो अथावा वह वृश्चिकके द्रेष्काणमें हो तथा शुभग्रह २। ११ भावमें स्थित हों तो सर्पका या सर्पसे वेष्टित मनुष्यका जन्म समझना चाहिये ॥६८ - ७०॥
मुनिश्रेष्ठ ! यदि सूर्य चतुष्पद राशिमें हो और शेष ग्रह बलयुक्त हों तो एक ही कोशमें लिपटे हुए दो शिशुओंका जन्म समझना चाहिये । शनि या मङ्गलसे युक्त सिंह , वृष , या मेष लग्न हो तो लग्नके नवमांशकी राशि जिस अङ्गकी हो , उस अङ्गमें नालसे लिपटे हुए शिशुका जन्म समझना चाहिये । 
यदि लग्न और चन्द्रमापर गुरुकी दृष्टि न हो अथवा चन्द्रमा सूर्यसे संयुक्त हो तथा उसे गुरु नहीं देखता हो अथवा चन्द्रमा पापग्रह और सूर्यसे संयुक्त हो तो शिशुको पर - पुरुषके वीर्यसे उत्पन्न समझना चाहिये । यदि दो पापग्रह पापराशिमें स्थित होकर सूर्यसे सप्तम भावमें हों तो सूर्यके चर आदि राशिके अनुसार विदेश , स्वदेश या मार्गसें बालकका जन्म समझना चाहिये । पूर्ण चन्द्रमा अपनी राशिमें हो , बुध लग्नमें हो , शुभग्रह चतुर्थ भावमें हो अथवा जलचर राशि लग्न हो और उससे सप्तम स्थानमें चन्द्रमा हो तो नौकापर शिशुका जन्म समझना चाहिये । नारद ! यदि जलचर राशि लग्नको जलचर राशिस्थ पूर्ण चन्द्रमा देखता हो अथवा वह १० , ४ या लग्नमें हो तो जलमें प्रसव होता है , इसमें संशा नहीं । यदि लग्न और चन्द्रमसे शनि बारहवें भावमें हों , उसपर पापग्रहकी दृष्टि हो तो बालकका कारागारमें जन्म होता है । तथा कर्क या वृश्चिक लग्नमें शनि हो और उसपर चन्द्रमाकी दृष्टि हो तो गङ्ढेमें बालकका जन्म समझना चाहिये । जलचर राशिस्थ शनि लग्नमें हो तथा उसपर बुध , सूर्य या चन्द्रमाकी दृष्टि हो तो क्रमश : क्रीडास्थान , देवालय और ऊसर भूमिमें शिशुका प्रसव समझना चाहिये । यदि मङ्गल बलवान्‌ होकर लग्नगत शनिको देखता हो तो श्मशान - भूमिमें , चन्द्रमा और शुक्र देखते हों तो रम्य स्थानमें , ग्रुरु देखता हो तो अग्निहोत्रग्रुहमें , सूर्य देखता हो तो राजगृह , देवालय और गोशालामें तथा बुध देखता हो तो चित्रशालामें बालकका जन्म समझना चाहिये ॥७१ - ७९॥
यदि लग्नमें चरराशि हो तो मार्गमें लग्नराशिके कथित स्थानके समान सथानमें बालकका जन्म होता है । यदि लग्नमें स्थिर राशि हो तो स्वदेशके ही उक्त स्थानमें जन्म होता है तथा यदि लग्न - राशि अपने नवमांशमें हो तो स्वगृहमें ही वैसे स्थानमें जन्म होता है । मङ्गल और शनिसे त्रिकोण ( ५ , ९ )- में अथवा सप्तम भावमें चन्द्रमा हो तो जातकको माता त्याग देती है । यदि उसपर गुरुकी दृष्टि हो तो त्यक्त होनेपर भी दीर्घायु होता है । पापग्रहसे दृष्ट चन्द्रमा यदि लग्नमें हो और मङ्गल सप्तम भावमें स्थित तो मातासे त्यक्त होनेपर जातक मर जाता है । अथवा पापदृष्ट चन्द्रमा यदि शनि - मङ्गलसे ११वें भावसे स्थित हो तो भी शिशुकी मृत्यु हो जाती है । यदि चन्द्रमा शुभग्रहसे देखा जाता हो तो बालक दूसरेके हाथमें जाकर सुखी होता है । यदि पापसे ही दृष्ट हो तो दूसरेके हाथमें जानेपर भी हीनायु होता है ॥८० - ८२॥
पितृसंज्ञक ग्रह बली हो तो पिताके घरमें और मातृसंज्ञक ग्रह बली हो तो माता ( अर्थात्‌ माता ) के घरमें जन्म समझना चाहिये । मुने ! यदि शुभग्रह नीच स्थानमें हो तो वृक्षादिके नीचे तृण - पत्रादिकी कुटीमें जन्म समझना चाहिये । शुभग्रह नीच स्थानमें हो और लग्न अथवा चन्द्रमापर एक स्थानस्थित शुभग्रहोंकी दृष्टि न हो तो निर्जन स्थानमें प्रसव होता है । यदि चन्द्रमा शनिकी राशिके नवमांशमें स्थित होकर चतुर्थ भावमें विद्यमान हो तथा शनिसे दृष्ट या युत हो तो प्रसवकालमें ‘ प्रसूतिका ’ का शयन पृथिवीपर समझना चालिये । शीर्षोदय राशि लग्न हो तो शिरकी ओरसे तथा पृष्ठोदय राशि लग्न हो तो पृष्ठ ( पैर )- की ओरसे शिशुका जन्म होता है । चन्द्रमासे चतुर्थ स्थानमें पापग्रह हो तो माताके लिये कष्ट समझना चाहिये ॥८५ . १ / २॥
जन्मसमयमें सब ग्रहोंकी अपेक्षा शनि बलवान्‌ हो तो सूतिका गृह पुराना , किंतु संस्कार किया हुआ समझना चाहिये । मङ्गल बली हो तो जला हुआ , चन्द्रमा बली हो तो नया और सूर्य बली हो तो अधिक काष्ठसे युक्त होकर भी मजबूत नहीं होता । बुध बली हो तो प्रसवगृह बहुत चित्रोंसे युक्त , शुक्र बली हो तो चित्रोंसे युक्त नवीन और मनोहर तथा गुरु बली हो तो सूतिकाका गृह सुदृढ समझना चाहिये ॥८६ - ८७॥
लग्नमें तुला , मेष , कर्क , वृश्चिक या कुम्भ हो तो ( वास्तु भूमिमें ) पूर्वभागमें ; मिथुन , कन्या , धनु या मीन हो तो उत्तर भागमें , वृष हो तो पश्चिम भागमें तथा मकर या सिंह हो तो दक्षिण भागमें सूतिकाका घर समझना चाहिये ॥८८॥
( गृहराशियोंके स्थान --- ) घरकी पूर्व आदि दिशाओंमें मेष आदि दो - दो राशियोंका और चारों कोणोंमें चारों द्विस्वभाव राशियोंको समझे । सूतिकागृहके समान ही सूतिकाके पलंगमें भी लग्न आदि भावोंको समझे । वहाँ ३ , ६ , ९ , और १२ वें भावको क्रामश : चारों पायोंमें समझना चाहिये । चन्द्रमा और लग्नके ) बीचमें जितने ग्रह हों उतनी उपसूतिकाओंकी प्रसवकालमें उपस्थिति समझनी चाहिये । दृश्य चक्रार्धमें ( सप्तम भावसे आगे लग्नतक जितने ग्रह हो , उतनी उपसूतिकाओंको घरसे बाहर समझे और अदृश्य चक्रार्धमें ( लग्नसे आगे सप्तमपर्यन्त ) जितने ग्रह हों , उतनी उपसूतिकाओंकी उपस्थिति घरके भीतर रहती है । बहुत - से आचार्यों और मुनियोंने इससे भिन्न मत प्रकट किया है । ( अर्थात्‌ दृश्य चक्रार्धमें जितने ग्रह हों उतनी उपसूतिकाओंको घरके भीतर तथा अदृश्य चक्रार्धमें जितने ग्रह हों , उतनीको घरके बहर कहा है ) ॥८९ - ९०॥
लग्नमें जो नवमांश हो , उसके स्वामी ग्रहके सदृश अथवा जन्मसमयमें जो ग्रह सबसे बली हो , उसके समान शिशुका शरीर समझना चाहिये । इसी प्रकार चन्द्रमा जिस नवमांशमें हो उस राशिके समान वर्ण ( गौर आदि ) समझना चाहिये । एवं द्रेष्काणवश लग्न आदि भावोंसे जातकके मस्तक आदि अङ्ग - विभाग जानना चाहिये । यथा - लग्नमें प्रथम द्रेष्काण हो तो लग्न मस्तक , २।१२ नेत्र , ३।११ कान , ४।१० नाक , ५।९ कपोल , ६।८ हनु ( ठुड्डी ) और ७ सप्तम भाव मुख । द्वितीय द्रेष्काण हो तो लग्न कण्ठ , २।१२ कंधा , ३।११ पसली , ४।१० ह्रदय , ५।९ भुज , ६।८ पेट और ७ नाभि । तृतीय द्रेष्काण हो तो लग्न वस्ति ( नाभि और लिङ्गके मध्यका स्थान ), २।१२ लिङ्ग , गुदमार्ग , ३।१२ अण्डकोश , ४।१० जाँघ , ५।९ घुटना , ६।८ पिण्डली और सप्तम भाव पैर समझना चाहिये ॥९१ - ९३॥
जिस अङ्गकी राशिमें पापग्रह हो , उस अङ्गमें व्रण और यदि उसपर शुभ ग्रहकी दृष्टि हो तो उस अङ्गमें चिह्न ( तिल मशक आदि ) समझना चाहिये । पापग्रह अपनी राशि या नवमांशमें , अथवा स्थिर राशिमें हो तो जन्मके साथ ही व्रण होता है अन्यथा उस ग्रहकी दशा - अन्तर्दशामें आगे चलकर व्रण होता है । शनिके स्थानमें वात या पत्थरके आघातसे , मङ्गलके स्थानमें विष , शस्त्र और अग्निसे , बुधके स्थानमें पृथ्वी ( मिट्टी )- के आघातसे , सूर्याश्रित अङ्गमें काष्ठ और पशुसे , क्षीण चन्द्राश्रित अङ्गमें सींगवाले पशु और जलचरके आघातसे व्रण होता है । जिस अङ्गकी राशिमें तीन पापग्रह हों , उस अङ्गमें निश्चितरूपसे व्रण होता ही है । षष्ठ भावमें पापग्रह हो तो उस राशिके आश्रित अङ्गमे व्रण होता है । यदि उसपर शुभग्रहकी दृष्टि हो तो उस अङ्गमें तिल या मसा होता है । यदि शुभग्रहका योग हो तो उस अङ्गमें चिह्न ( दाग ) मात्र होता है ॥९६ . १ / २॥
( ग्रहोंकें स्वरूप और गुणका वर्णन --- ) सूर्यकी आकृति चतुरस्त्र है , शरीरकी कान्ति और नेत्र पिङ्गल हैं । पित्तप्रधान प्रकृति है और उनके मस्तकपर थोडे - से केश हैं । चन्द्रमाका आकार गोल है ; उनकी प्रकृतिमें वात और कफकी प्रधानता है , वे पण्डित और मृदुभाषी हैं तथा उनके नेत्र बडे सुन्दर हैं। मङ्गलकी दृष्टि क्रूर है , युवावस्था है , पित्तप्रधान प्रकृति है और वह चञ्चल स्वभावका है । बुधकी प्रकृतिमें कफ , पित्त और वातकी प्रधानता है , वह हास्यप्रिय और अनेकार्थक शब्द बोलनेवाला है । बृहस्पतिकी अङ्गकान्ति , केश और नेत्र पिङ्गल हैं , उनका शरीर बडा है , प्रकृतिमें कफकी प्रधानता है और वे बडे बुद्धिमान्‌ हैं । शुक्रके अङ्ग और नेत्र सुन्दर हैं , मस्तकपर काले घुँघराले केश हैं और वे सर्वदा सुखी रहनेवाले हैं । शनिका शरीर लम्बा और नेत्र कपिश वर्णके हैं , उनकी वातप्रधान प्रकृति है , उनके केश कठोर हैं और वे बडे आलसी हैं ॥९७ - १००॥
( ग्रहोंके धातु --- )  स्नायु ( शिरा ), हड्डी , शोणित , त्वचा , वीर्य , वसा और मज्जा - ये क्रमश : शनि , सूर्य , चन्द्र , बुध , शुक्र , गुरु और मङ्गलके धातु हैं ॥१०१॥
( अरिष्टकथन --- ) चन्द्रमा , लग्न और पापग्रह - ये राशिके अन्तिमांशमें हों अथवा चन्द्रमा और तीनों पापग्रह ये लग्नादि चारों केन्द्रोंमें हों तथा कर्क लग्न हो तो जातककी मृत्यु होती है । दो पापग्रह लग्न और सप्तम भावमें हों तथा चन्द्रमा एक पापग्रहसे युक्त हो और उसपर शुभग्रहकी दृष्टि न हो तो शिशुका शीघ्र मरण होता है ॥१०२ - १०३॥ क्षीण चन्द्रमा १२ वें भावमें हो , पापग्रह लग्न और अष्टम भावमें हों तथा शुभग्रह केन्द्रमें न हों तो उत्पन्न शिशुकी मृत्यु होती है । अथवा पापयुक्त चन्द्रमा सप्तम , द्वादश या लग्नमें स्थित हो तथा उसपर केन्द्रसे भिन्नस्थानमें स्थित शुभग्रहकी दृष्टि न हो तो जातककी मृत्यु होती है । यदि चन्द्रमा ६ , ८ , स्थानमें रहकर पापग्रहसे देखा जाता हो तो शिशुका शीघ्र मरण होता है । शुभग्रहसे दृष्ट हो तो ८ वर्षमें और शुभ तथा पापग्रह दोनोंसे दृष्ट हो तो ४ वर्षमें जातककी मृत्यु हो जाती है । क्षीण चन्द्रमा लग्नमें तथा पापग्रह ८ , १ , ४ , ७ , १० , में स्थित हों तो उत्पन्न बालकका मरण होता है । अथवा दो पापग्रहोंके बीचमें होकर चन्द्रमा ४ , ७ , ८ , स्थानमेम स्थित हो या लग्न ही दो पापग्रहोंके बीचमें हो तो जातककी मृत्यु होती है । पापग्रह ७ , ८ , में हों और उनपर शुभग्रहकी दृष्टि न हो तो मातासहित शिशुकी मृत्यु होती है । राशिके अन्तिमांशमें चन्द्रमा पाग्रहसे अदृष्ट हो तथा पापग्रह त्रिकोण ( ५ , ९ )- मे हो अथवा लग्नमें चन्द्रमा और सप्तममें पापग्रह हो तो शिशुका मरण होता है । राहुग्रस्त चन्द्रमा पापग्रहसे युक्त हो और मङ्गल अष्टम स्थानमें स्थित हो तो माता और शिशु दोनोंकी मृत्यु होती है । इसी प्रकार राहुग्रस्त सूर्य यदि पापग्रहसे युक्त हो तथा बली पापग्रह अष्टम भावमें स्थित हो तो माता और शिशुका शस्त्रसे मरण होता है ॥१०४ - १०९॥ 
( आयुर्दायकथन :--- ) चन्द्रमा और बृहस्पतिसे युक्त कर्क लग्न हो , बुध और शुक्र केन्द्रमें हों और शेष ग्रह ( रवि , मङ्गल एवं शनि ) ३ , ६ , ११ , स्थानमें हों तो ऐसे योगमें उत्पन्न जातककी आयु बहुत अधिक होती है । मीन लग्नमें मीनका नवर्माश हो , बुध वृषमें २५ कलापर हो तथा शेष सब ग्रह अपने - अपने उच्च स्थानमें हों तो जातककी आयु परम ( १२० वर्ष ५ दिनकी ) होती है । लग्नेश बली होकर केन्द्रमें हो , उसपर शुभग्रहकी दृष्टि हो तो बालक धनसहित दीर्घायु होता है । चन्द्रमा अपने उच्चमें हो , शुभग्रह अपनी राशिमें हों , बली लग्नेश लग्नमें हो तो जातककी ६० वर्षकी आयु होती है । केन्द्रमें शुभग्रह हों और अष्टम भाव शुद्ध ( ग्रहरहित ) हो तो ७० वर्षकी आयु होती है । शुभग्रह अपने - अपने मूल त्रिकोणमें हों , गुरु अपने उच्चमें हो तथा लग्नेश बलवान्‌ हों तो ८० वर्षकी अयु होती है । सबल शुभग्रह केन्द्रमें हों और अष्टम भावमें कोई ग्रह न हो तो ३० वर्षकी आयु होती है । अष्टमेश नवम भावमें हों , बृहस्पति अष्टम भावमें रहकर पापग्रहसे दृष्ट हों तो २४ वर्षकी आयु होती है । लग्नेश और अष्टमेश दोनों अष्टम भावमें स्थित हों तो २७ वर्षकी आयु होती है । लग्गमें पापग्रहसहित बृहस्पति हों , उसपर चन्द्रमाकी दृष्टि हो तथा अष्टममें कोई ग्रहन हो तो २२ वर्षकी आयु समझनी चाहिये । शनि नवम भाव या लग्नमें हो , शुक्र केन्द्रमें हो और चन्द्रमा १२ या ९ में हो तो १०० वर्षकी आयु होती है । बृहस्पति कर्कमें होकर केन्द्रमें हो अथवा बृहस्पति और शुक्र दोनों केन्द्रमें हों तो १०० वर्षकी आयु समझनी चाहिये। अष्टमेश लग्नमें हो और अष्टम भावमें शुभग्रह न हो तो ४० वर्षकी आयु होती है । लग्नेश अष्टम भावमें और अष्टमेश लग्नमें हों तो ५ वर्षकी आयु होती है । शुक्र और बृहस्पति एक राशिमें हों अथवा बुध और चन्द्रमा लग्न या अष्टम भावमें हों तो ५० वर्षकी आयु होती है ॥११० - ११८॥
मुने ! मैंने इस प्रकार ग्रहयोग - सम्बन्धसे आयुर्दायका प्रमाण कहा है । अब गणितद्वारा स्पष्टायुर्दायका वर्णन करता हूँ । सूर्य , चन्द्रमा और लग्नमेंसे यदि सूर्य अधिक बली हो तो पिण्डायु , चन्द्रमा बली हो तो निसर्गायु और लग्न बली हो तो अंशायुका साधन करना चाहिये । उसका साधन - प्रकार मैं बतलता१ हूँ ॥११९ . १ / २॥ 
( पिण्डायु और निसर्गायुका२ साधन :--- ) सूर्य आदि ग्रह अपने - अपने उच्चमें हों तो क्रमश : १९ , २५ , १५ , १२ , १५ , २१ , और २० वर्ष पिण्डायुके प्रमाण होते हैं तथा २० , १ , २ , ९ , १८ , २० , ५० , ये क्रमश : सूर्यादि ग्रहोंके निसर्गायुर्दायके प्रमाण होते हैं ॥१२० - १२१॥
पिण्डायु और निसर्गायुमें आयु - साधन करना हो तो राश्यादि ग्रहमें अपने उच्चको घटाना चाहिये। यदि वह ६ राशिसे अल्प हो तो उसको १२ राशिमें घटाकर ग्रहण करें । उसके अंश बनानेसे वह आयुर्दाय - साधनमें उपयोगी होता है । जो ग्रह शत्रुके गृहमें हो उसके अंशोंमे उसीका तृतीयांश घटावे । यदि वह ग्रह वक्रगति न हो तभी ऐस करना चाहिये । ( यदि ग्रह वक्रगति हो तो शत्रुगृहमें रहनेपर भी तृतीयांश नहीं घटाना चाहिये ) तथा शनि और शुक्रको छोडकर अन्य ग्रह अस्त हों तो उनके अंशोंमें आधा घटा देना चाहिये । ( शनि और शुक्र अस्त हों तो भी उनके अंशोंमें आधा नहीं घटाना चाहिये ) । यदि किसी ग्रहमें दोनों हानि प्राप्त हो ( अर्थात्‌ वह शत्रुगृहमें हो और अस्त भी हो ) तो उसमें अधिक हानिमात्र करें ( अर्थात्‌ केवल आधा घटावे , तृतीयांश नहीं  ) । यदि लग्नमें पापग्रह हो तो उसकी राशिको छोडकर केवल अंशादिसे आयुर्दायके अंशको गुणा करके गुणनफलमें ३६० का भाग देकर लब्ध अंशादिको पूर्वोक्त अंशमें घटावे । इस प्रकार पापग्रहके समस्त लब्धांश घटावे । यदि उसमें शुभग्रहका योग या दृष्टि हो तो लब्धांशका आधा घटाना चाहिये । इस तरह आगे बताये जानेवाले प्रकारसे आयुर्दाय - साधन योग्य स्पष्ट अंश उपलब्ध होते हैं ॥११२ - १२५॥ 
( पिण्डायु - साधन :--- ) उन स्पष्टांशोंको अपने - अपने पूर्वोक्त गुणक ( उच्चस्थ वर्ष - संख्या १९ आदि ) - से गुणा करके गुणनफलमें ३६० से भाग देनेपर लब्धि वर्ष - संख्या होती है । शेषको १२ से गुणा करके ३६० से भाग देनेपर लब्धि मास - संख्या होती है । पुन : शेषको ३० से गुणा करके ३६० के द्वारा भाग देनेपर लब्धि दिन - संख्या होगी । फिर शेषको ६० से गुणा कर ३६० से भाग देनेपर लब्धि घटी एवं पलादि रूप होगी१ ॥१२६ - १२७॥ 
( लग्नायु - साधन :--- ) लग्नकी राशियोंको छोडकर अंशादिको कला बनाकर २०० से भाग देनेपर लब्धि वर्ष - संख्या होगी । शेषको १२ से गुणाकर २०० से भाग देनेपर लब्धि मास - संख्या होगी । पुन : पूर्ववत्‌ ३० आदिसे गुणा करके हरसे भाग देनेपर लब्धि दिनादिकी सूचक होगी२ ॥१२८ - ॥ 
( अंशायुर्दाय३ - साधन :--- ) लग्नसहित ग्रहोंके पृथक्‌ - पृथक अंश बनाकर ४० से भाग देकर जो शेष बचे उसे आयुर्दाय - साधनोपयोगी अंशादि समझे ; उसमें जो विशेष संस्कार कर्तव्य है , उसका वर्णन करता हूँ । लग्नमें ग्रहको घटावे । यदि शेष ६ राशिसे अल्प हो तो उसमें निम्नाङ्कित संस्कार विशेष करना चाहिये , अन्यथा नहीं । यदि घटाया हुआ ग्रह ६ राशिसे अल्प और १ राशिसे अधिक हो तो उन अंशोंसे ३० में भाग देकर लब्धिको १ में घटावे और शेषको गुणक समझे । यदि ग्रह घटाया हुआ लग्न १ राशिसे अल्प हो तो उन्हीं अंशोंमें ३० का भाग देकर लब्धिको १ में घटानेसे शेष गुणक होता है । इस प्रकार शुभग्रहके गुणकको आधा करके गुणक समझे और पापग्रहके समस्त गुणकोंको ग्रहण करे । फिर इस प्रकारके गुणकोंसे उपर्युक्त आयुर्दायके अंशको गुणा करे तो संस्कृत अंश होता है । यह संस्कार कहा गया है । इस संस्कृत आयुर्दायके अंशको कलात्मक बनाकर २०० से भाग देकर लब्धिको वर्ष समझे । फिर शेषको १२ ए गुणा करके गुणनफलमें २०० का भाग देनेसे लब्धिको मस समझे। तत्पश्चात्‌ शेषमें ३० आदिसे गुणा करके २०० का भाग देनेसे लब्धिको दिन एवं घटी आदि समझे ।
लग्नके आयुर्दायु अंशादिको ३ से गुणा करके गुणनफलमें १० का भाग देनेसे जो लब्धि हो , वह वर्ष है । फिर शेषको १२ आदिसे गुणा करके १० से भाग देनेपर जो लब्धि हो उसे मासादि समझे । ( लग्नकी आयुमें इतनी विशेषता है कि ) यदि लग्न सबल हो तो लग्नकी जितनी भुक्त राशिसंख्या हो उतने वर्ष और अधिक जोडे । तथा अंशादिको २ से गुणा करके ५ का भाग देकर लब्धिको मस समझकर उसे भी जोडे तथा शेषको ३० आदिसे गुणा करके हरसे भाग देकर जो लब्धि आवे , उसके तुल्य दिनादि रूप फल भी जोडे तो लग्नायु स्पष्ट होती है । यह क्रिया पिण्डायु और निसर्गायुमें नहीं की जाती है ॥१३५ . १ / २॥ 
( दशा - निरूपण :--- ) लग्न , सॄर्य और चन्द्रमा - इन तीनोंमें जो अधिक बली है , प्रथम उसीकी दशा होती है । फिर उससे केन्द्रस्थित ग्रहोंकी , अदनन्तर ‘ पणफर ’ स्थित ग्रहोंकी , तत्पश्चात्‌ ‘ आपोक्लिम ’ स्थित ग्रहोंकी दशा होती है । केन्द्रादि - स्थित ग्रहोंमें बलके अनुसार ही पूर्व - पूर्व दशा होती है । एक स्थानमें स्थित दो या तीन ग्रहोंमें यदि बलकी समानता हो तो उनमें जिसकी अधिक आयु हो उसकी प्रथम दशा होती है । आयुके वर्षादिमें भी समता हो तो जिस ग्रहका सूर्य - सान्निध्यसे प्रथम उदय हुआ हो , उसकी प्रथम द्शा है ॥१३६ - १३७॥ 
( अन्तर्दशा - कथन :--- ) दशापति पूर्णदशाका पाचक होता है , तथापि उसके साथ रहनेवाला ग्रह आधे ( १ / २ ) का , दशापतिसे त्रिकोण ( ५ , ९ ) - में रहनेवाला तृतीयांश ( १ / २ ) का , सप्तममें रहनेवाला सप्तमांश ( १ / ७ ) का , चतुरस्त्र ( ४।८ ) - में रहनेवाला चतुर्थोंश ( १ / ४ ) अन्तर्दशाका पाचक होता है । इससे सिद्ध है कि इन स्थानोंसे भिन्न स्थानमें स्थित ग्रहोंकी अन्तर्दशा नहीं होती है ॥१३८ - ॥ 
( अन्तर्दशा - साधनके गुणक :--- ) मूल दशापतिका ८४ , उसके साथ रहनेवालेका ४२ , त्रिकोणमें रहनेवालेका २८ , सप्तममें रहनेवालेका १२ तथा चतुर्थ - अष्टममें रहनेवालेका २१ गुणक कहा गया है । वर्षादि रूप दशा - प्रमाणको अपने - अपने गुणकसे गुणा करके सब गुणकोंके योगसे भाग देनेपर जो लब्धि आवे , वह वर्ष होता है । शेषको १२ , ३० आदिसे गुणा करके गुणनफलमें गुणकके योगसे भाग देनेपर जो लब्धि आवे , वह मास - दिन आदिका सूचक होती है । नारदजी ! इसी प्रकार अन्तर्दशामें उपदशाके मान समझने चाहिये ॥१४१ . १ / २॥ 
( दशाफल :--- ) दशारम्भ - कालमें यदि चन्द्रमा दशापतिके मित्रकी राशि , स्वोच्च , स्वराशि या दशापतिसे १ , ४ , ७ , ३ , १० , ११ , में शुभ स्थानमें हो तो जिस भावमें चन्द्रमा हो , उस भावकी विशेषरूपसे पुष्टि करता हुआ शुभ फल देता है । इन स्थानोंसे भिन्न स्थानमें हो तो उस भावका नाशक होता है ॥१४२ - १४३॥ पहले जिस ग्रहके जो द्रव्य बताये गये हैं , भाव और राशियोंमें जो उन ग्रहोंकी दृष्टि तथा योगका फल कहा गया है एवं आजीविका आदि जो - जो फल बताये गये हैं , उन सबका विचार उस ग्रहकी दशामें करना चाहिये । जो ग्रह पापदशामें प्रवेशके समय अपने शत्रुसे देखा जाता हो , वह विपत्तिकारक ( अत्यन्त अशुभ फल देनेवाला ) होता है तथा जो शुभग्रह मित्रसे दृष्ट हो और शुभवर्गमें रहकर तत्काल बलवान्‌ हो , वह सब आपत्ति ( दुष्ट फल ) - को नष्ट कर देता है। जिसका ( आगे बताया जानेवाला ) अष्टक वर्गज फल पूर्ण शुभ हो तथा जो ग्रह लग्न या चन्द्रमासे १ , ३ , ६ , १० , ११ , में स्वोच्च स्थानमें स्वराशिमें , अपने मूल त्रिकोणमें तथा मित्रकी राशिमें हो , उसका अशुभ फल भी मध्यम हो जाता है , मध्यम फल श्रेष्ठ हो जाता है तथा शुभ फल तो अत्यन्त श्रेष्ठ होता है । यदि वह ग्रह इससे भिन्न स्थानमें हो , तो उसके पाप - फलकी वृद्धि होती है और उसका शुभ फभ भी अल्प हो जाता है । इन फलोंको भी ग्रहके बलाबलको समझकर तदनुसार स्वल्प या अधिक समझना चाहिये ॥१४४ - १४८॥ 
( लग्न - दशा - फल :--- ) चर लग्नमें प्रथम , द्वितीय , तृतीय द्रेष्काण हो तो क्रमसे लग्नकी दशा शुभ , मध्यम और अशुभ फल देनेवाली होती है । द्विस्वभाव लग्न हो तो इससे विपरीत फल होता हैं ( अर्थात्‌ प्रथमादि द्रेष्काणमें क्रमसे अशुभ , मध्यम और शुभ फल देनेवाली दशा होती है ) । स्थिर लग्न हो तो प्रथमादि द्रेष्टकाणमें अशुभ , शुभ और मध्यम फल देनेवाली दशा होती है । लग्न यदि अपने स्वामी , गुरु और बुधसे युक्त एवं दृष्ट हो तो उसकी दशा शुभप्रद होती है । यदि वह पापग्रहसे युक्त या दृष्ट हो अथवा पापके मध्यमें हो तो उसकी दशा अशुभ फल देनेवाली होती है ॥१४९ - १५०॥ 
( अष्टक - वर्ग - कथन :--- ) सृर्य जन्म - कालिक स्वाश्रित राशिसे १। २। १०। ४। ८। ११। ९। ७ इन स्थानोंमेम शुभ होता है । मङ्गल और शनिसे भी इन्हीं स्थानोंमें रहनेपर वह शुभ होता है। शुक्रसे ७। १२। ६ में , गुरुसे ९। ५। ९ में भी वह शुभ होता है । लग्नसे ३। ६। १०। ११। १२। ४ इन स्थानोंमें सूर्य शुभ होता है ॥१५१ - १५२॥
चन्द्रमा लग्नसे ६ , ३ , १० . ११ , स्थानोंमें : मङ्गलसे २ ,  ५ , ९ सहित इन्हीं ६ , ३ , १० , ११ स्थानोंमें : अपने स्थानसे ३ , ६ , १० , ११ , ७ , १ में ; सूर्यसे ३ , ६ , १० , ११ , ७ , ८ , में : शनिसे ६ , ३ , ११ , ५ में : बुधसे ५ , ३ , ८ , १ , ४ , ७ , १० में ; गुरुसे १ , ४ , ७ , १० , ८ , ११ , १२ में और शुक्रसे ४ , ५ , ९ , ३ , ११ , ७ , १० इस स्थानोंमें शुभ होता है ॥१५३ - १५४॥
मङगल सूर्यसे ३ , ६ , १० , ११ , ५ मे : लग्नसे ३ , ६ , १० , ११ . १ में ’ चन्द्रमासे ३ , ६ , ११ में ; अपने आश्रित स्थानसे १ , ४ , ७ , १० , ८ , ११ , २ में ; शनिसे ९ , ८ , ११ , १ , ४ , ७ , १० में ; बुधसे ६ , ३ , ५ , ११ में ; शुक्रसे ६ , ११ , २ , ८ में और गुरुसे १० , ११ , १२ , ६ स्थानोंमें शुभ होता है ॥१५५ - १५६॥
बुध शुक्रसे ५ , ३ सहित २ , १ , ८ , ९ , ४ , ११ स्थानोंमें ; शनि और मङ्गलसे १० , ७ सहित २ , १ , ८ , ९ , ४ और ११ वें स्थानमें : गुरुसे १२ , ६ , ११ , ८ वें स्थानोंमें ; सूर्यसे ९ , ११ , ६ , ५ , १२ वें स्थानोंमें ; अपने आश्रित स्थानसे १ , ३ , १० , ९ , ११ , ६ , ५ , १२ वें स्थानोंमें ; चन्द्रमासे ६ , १० , ११ , ८ , ४ , १० में और लग्नसे १ तथा पूर्वोक्त ६ , १० , ११ , ८ , ४ , १० स्थानोंमें शुभ होता है ॥१५७ - १५८॥
गुरु मङ्गलसे १० , २ , ८ , १ , ७ , ४ , ११ स्थानोंमें ; अपने आश्रित स्थानसे ३ सहित पूर्वोक्त ( १० , २ , ८ , १ , ७ , ४ , ११ ) स्थानोंमें ; सूर्यसे ३ , ९ सहित पूर्वोक्त ( १० , २ , ८ , १ , ७ , ४ , ११ ) स्थानोंमें ; शुक्रसे ५ , २ , ९ , १० , ११ , ६ में ; चन्द्रमासे २ , ११ , ५ , ९ , ७ में ; शनिसे ५ , ३ , ६ , १२ में ; बुधसे ९ , ४ , ५ , ६ , २ , १० , १ , ११ में तथा लग्नसे ७ सहित पूर्वोक्त ( ९। ४ , ५ , ६ , २ , १० , १ , ११ ) स्थानोंमें शुभ होता है ॥१५९ - १६०॥
शुक्र लग्नसे १ , २ , ३ , ४ , ५ , ११ , ८ , ९ स्थानोंमें ; चन्द्रमासे भी इन्हीं स्थानों १ , २ , ३ , ४ , ५ , ११ , ८ , ९ - में और १२ वें स्थानमें ; अपने आश्रित स्थानसे १० सहित उक्त ( १ , २ , ३ , ४ , ५ , ११ , ८ , ९ ) स्थानोंमें ; शनिसे ३ , ५ , ९ , ४ , १० , ८ , ११ स्थानोंमें ; सूर्यसे ८ , ११ , १२ स्थानोंमें ; गुरुसे ९ , ८ , ५ , १० , ११ स्थानोंमें ; बुधसे ५ , ३ , ११ , ६ , ९ स्थानोंमें और मङ्गलसे ३ , ६ , ९ , ५ , ११ तथा बारहवें स्थानोंमें शुभ होता है ॥१६१ - १६२॥
शनि अपने आश्रित स्थानसे ३ , ५ , ११ , ६ में ; मङ्गलसे १० १२ सहित पूर्वोक्त ( ३ , ५ , ११ , ६ ) स्थानोंमें ; सूर्यसे १ , ४ , ७ , १० , ११ , ८ , २ में ; लग्नसे ३ , ६ , १० , ११ , १ , ४ में ; बुधसे ९ , ८ , ११ , ६ , १० , १२ में ; चन्द्रमसे ११ , ३ , ६ में ; शुक्रसे ६ , ११ , १२ में और गुरुसे ५ , ११ , ६ स्थानोंमें शुभ होता है ॥१६३ - १६४॥
उपर्युक्त स्थानोंमे ग्रह रेखा - प्रद और अनुक्त स्थानोंमें बिन्दुप्रद होते हैं । जो ग्रह लग्न या चन्द्रमासे वृद्धि या उपचय स्थान ( ३ , ६ , १० , ११ ) में हों , या अपने मित्रगृहमें , उच्च स्थानमें तथा स्वराशिमें स्थित हों , उनके द्वारा शुभ फलकी अधिकता होती है और इनसे भिन्न स्थानोंमें जो ग्रह हों , उनके द्वारा अशुभ फलोंकी अधिकता होती है ॥१६५॥ 
( एकादि रेखावाले स्थानका फल :--- ) उक्त प्रकारसे जिस स्थानमें एक रेखा हो , वहाँ ग्रहके जानेपर कष्ट होता है । दो रेखावाले स्थानमें जानेसे धनका नाश होता है । तीन रेखावालेमें जानेसे क्लेश होता है । चार रेखावाले स्थानमें ग्रहके पहुँचनेसे मध्यम फल होता है ( शुभ - अशुभ फलकी तुल्यता होती है ) । पाँच रेखावाले स्थानमें सुखकी प्राप्ति , छ ; रेखावालेमें धनका लाभ , सात रेखावाले स्थानमें सुख तथा आठ रेखावाले स्थानमें चारवश ग्रहके जानेपर अभीष्ट फलकी सिद्दि होती है ॥१६६॥ 
( आजीविका - कथन :--- ) जन्मकालिक लग्न और चन्द्रमासे १० वें स्थानमें यदि सूर्य आदि ग्रह हों तो क्रमसे पिता - माता , शुत्र , मित्र , भाई , स्त्री और नौकरके द्वारा धनका लाभ होता है । जन्मलग्न , जन्मकालिक चन्द्र तथा जन्मकालिक सूर्य - इन तीनों दशम स्थानके स्वामी जिस नवमांशमें हों , उस नवमांशके अधिपतिकी वृत्तिसे आजीविका समझनी चाहिये । यथा - उक्त दशम स्थानोंके स्वामी सूर्यके नवमांशमें हों तो तृण ( पत्र - पुष्पादि ) , सुवर्ण , औषध , ऊन ऊनी वस्त्र तथा रेशम आदिसे जीविका समझे । चन्द्रमाके नवमांशमें हों तो खेती , जलज ( मोती , मूँगा , शङ्ख , सीप आदि ) और स्त्रीके द्वारा जीविका चलती है । मङ्गलके नवमांश हों तो धातु अस्त्र - शस्त्र और साहससे जीवन - निर्वाह होता है । बुधके नवमांशमें हों तो काव्य , शिल्पकलादिसे , गुरुके नवमांशमें हों तो कव्या , शिल्पकलादिसे , गुरुके नवमांशमें हों तो देवता और ब्राह्मणोंके द्वारा तथा लोहा - सोना आदिके खानसे , शुक्रके नवमांशमें हों तो चाँदी , गौ तथा रत्न आदिसे और शनिके नवमांशमे हों तो परपीडन , परिश्रम और नीच कर्मद्वारा धनकी प्राप्ति होती है ॥१६७ - १६९॥ 
( राजयोगका वर्णन :--- ) शनि , सूर्य , गुरु और मङ्गल - ये चारों यदि अपने - अपने उच्चमें हों और इन्हींमें कोई एक लग्नमें हों तो इन चारों लग्नोंमें जन्म लेनेवाले बालक राजा होते हैं । लग्न अथवा चन्द्रमा वर्गोत्तम नवमांशमें हो और उसपर ४ . ५ या ६ ग्रहकी दृष्टि हो तो इसके २२ भेदमें २२ प्रकारके राजयोग होते हैं । मङ्गल अपने उच्चमें हो , रवि और चन्द्रमा धनराशिमें हों और मकरस्थ शनि लग्नमें हो तो जातक राजा होता है । उच्च ( मेष ) - क अरवि लग्नमें हो , चन्द्रमासहित शनि सप्तम भावमें हो , बृहस्पति अपनी राशि ( धनु या मीन ) - में हो तो जन्म लेनेवाला राज होता है ॥१७० - १७१॥ शनि अथवा चन्द्रमा अपने उच्चराशिका होकर लग्नमें हों , षष्ठ भावमें सूर्य और बुध हो , शुक्र तुलामें , मङ्गल मेषमें और गुरु कर्कमें हो तो इन दोनों लग्नोंमें जन्म लनेसे शिशु राजा होते हैं । उच्चस्थ१ मङ्गल यदि चन्द्रमाके साथ लग्नमें हो तो भी जातक राजा होता है । चन्द्रमा वृषा लग्नमें हो और सूर्य , गुरु तथा शनि ये क्रमसे ४ , ७ , १० वें स्थानमें हों तो जातक राजा होता है। मकर लग्नमें शनि हो और लग्नसे ३ , ६ , ९ एवं १२ वें भावमें क्रमश : चन्द्रमा , मङ्गल , बुध तथा बृहस्पति हों तो जन्म लेनेवाला बालक राजा होता है ॥१७२ - १७३॥
गुरुसहित चन्द्रमा धनमें और मङ्गल मकरमें हों तथा बुध या शुक्र अपने उच्चमें स्थित होकर लग्नमें विद्यमान हों तो उन दोनों योगोंमें जन्म लेनेवाला शिशु राजा होता है । बृहस्पतिसहित कर्क लग्न हो , बुध , चन्द्रमा तथा शुक्र तीनों ११ वें भावमें हों और सूर्य मेषमें हो तो जातक राजा होता है । चन्द्रमासहित मीन लग्न ही , सूर्य , शनि , मङ्गल - ये क्रमसे सिंह , कुम्भ और मकरमें हों तो उत्पन्न बालक राजा होता है । मङ्गलसहित मेष लग्न हो , बृहस्पति कर्कमें हो अथवा कर्कस्थ बृहस्पति लग्नमें हो तो जातक नरेश होता है । मङगल और शनि पञ्चम भावमें , गुरु , चन्द्रमा तथा शुक्र चतुर्थ भावमें और बुध कन्या लग्नमें हों तो जन्म लेनेवाला शिशु राजा होता है ॥१७४ - १७६॥ मकर लग्नमें शनि हो तथा मेष , कर्क , सिंह - ये अपने - अपने स्वामीसे युक्त हों , शुक्र तुलामें और बुध मिथुनमें हों तो बालक यशस्वी राजा होता है ॥१७७॥ मुनीश्वर ! इन बताये हुए योगोंमें जन्म लेनेवाला जिस किसीका पुत्र भी राजा होता है । तथा आगे जो योग बताये जायँगे , उनमें जन्म लेनेवाले राजकुमारको ही राजा समझना चाहिये। ( यदि अन्य व्यक्ति इस योगमें उत्पन्न हुआ हो तो वह राजाके तुल्य होता है , राजा नहीं ) । ॥१७८॥
तीन या अधिक ग्रह बली होकर अपने - अपने उच्च या मूल त्रिकोणमें हों तो बालक राजा होता है । सिंहमें सूर्य , मेष लग्नमें चन्द्रमा , मकरमें मङ्गल , कुम्भमें शनि और धनुमें बृहस्पति हो तो उत्पन्न शिशु भूपाल होता है । मुने ! शुक्र अपनी राशिमें होकर चतुर्थ स्थानमें स्थित हों , चन्द्रमा नवम भावमें रहकर शुभ ग्रहसे दृष्ट या युक्त हों तथा शेष ग्रह ३ , १ , ११ वें भावमें विद्यमान हों तो जातक इस वसुधाका अधीश्वर होता है । बुध सबल होकर लग्नमें स्थित हों , बलवान्‌ शुभग्रह नवम भावमें स्थित हों तथा शेष ग्रह ९ , ५ , ३ , ६ , १० और ११ वें भावमें हो तो उत्पन्न बालक धर्मात्मा नरेश होता है । चन्द्रमा , शनि और बृहस्पति क्रमश : द्सवें , ग्यरहवें तथा लग्नमें स्थित हों , बुध और मङ्गल द्वितीय भावमें तथा शुक्र और रवि चतुर्थ भावमें स्थित हों तो जातक भूपाल होता है । वृष लग्नमें चन्द्रमा , द्वितीयमें गुरु , ११ वेंमें शनि तथा शेष ग्रह भी स्थित हों तो बालक नरेश होता है ॥१७९ - १८३॥
चतुर्थ भावमें गुरु , १० वें भावमें रवि और चन्द्रमा , लग्नमें शनि और ११ वें भावमें शेष ग्रह हों तो उत्पन्न शिशु राजा होता है । मङ्गल और शनि लग्नमें हों , चन्द्रमा , गुरु , शुक्र , रवि और बुध - ये क्रमसे ४ , ७ , ९ , १० और ११ वेंमें हों तो ये स्ब ग्रह ऐसे बालकको जन्म देते हैं , जो भावी नरेश होता है । मुनीश्वर ! ऊपर कहे हुए योगोंमें उत्पन्न मनुष्यके दशम भाव या लग्नमें जो ग्रह हो , उसकी दशा - अन्तर्दशा आनेपर उसे राज्यकी प्राप्ति होती है । इन दोनों स्थानोंमें ग्रहन हो तो जन्म - समयमें जो ग्रह बलवान्‌ हो , उसकी दशामें राज्यलाभ समझना चाहिये तथा ओ ग्रह जन्म - समयमें शत्रु - राशि या अपनी नीच राशिमें हो , उसकी राशिमें क्लेश , पीडा आदिकी प्राप्ति होती है ॥१८५ . १ / २॥ 
( नाभस१ योग - कथन :--- ) समीपवर्ती दो केन्द्रस्थानोंमें ही ( रविसे शनिपर्यन्त ) सब ग्रह हों तो ‘ गदा ’ नामक योग होता है। केवल लग्न और सप्तम दो ही स्थानोंमें सब ग्रह हों तो ‘ शकट ’ योग होता है । दशम और चतुर्थमें ही सब ग्रहोंकी स्थिति हो तो ‘ विहग ’ ( पक्षी ) योग होता है । ५ , ९ और लग्न - इन तीन ही स्थानोंमें सब ग्रह हों तो ‘ श्रूङ्गाटक ’ योग होता है । इसी प्रकार यदि लग्न भिन्न स्थानसे त्रिकोण स्थानोंमें ही सब ग्रह हों तो ‘ हल ’ नामक योग होता है ॥१८६ - १८७॥ लग्न और सप्तममें सब शुभु ग्रह हों अथवा चतुर्थ - दशममें सब पापग्रह हों तो दोनों स्थितियोंमें ‘ वज्र ’ योग होता है । इसके विपरीत यदि लग्न , सप्तममें सब पापग्रह अथवा चतुर्थ , दशममें सब शुभग्रह हों तो ‘ यव ’ योग होता है । यदि चारों केन्द्रोंमें सब ( शुभ और पाप )- ग्रह मिलकर बैठे हों तो ‘ कमल ’ योग होता है और केन्द्रस्थानसे बाहर ( चारों पणफर अथवा चारों आपोक्लिमस्थानोंमें ) ही सब ग्रह स्थित हों तो ‘ वापी ’ नामक योग होता है ॥१८८॥ लग्नसे लगातार ४ स्थान ( १ , २ , ३ , ४ ) में ही सब ग्रह मौजूद हों तो ‘ यूप ’ योग होता है । चतुर्थसे चार स्थान ( ४ , ५ , ६ , ७ )- में ही सब ग्रह स्थित हों तो ‘ शर ’  योग होता है । सप्तमसे ४ स्थान ( ७ , ८ , ९ , १० )- में ही सब ग्रहोंकी स्थिति हो तो ‘ शक्ति ’ योग होता है और दशमसे ४ स्थान ( १० , ११ , १२ , १ )- में ही सब ग्रह मौजूद हों तो ‘ दण्ड ’ योग होता है ॥१८९॥ लग्नसे क्रमश : सात स्थानों ( १ , २ , ३ , ४ , ५ , ६ , ७ ),- में सब ग्रह हों तो ‘ नौका ’ योग , चतुर्थ भावसे आरम्भ करके लगातार सात स्थानोंमें सातों ग्रह हों तो ‘ कूट ’ योग , सप्तम भावसे आरम्भ करके लगातार सात स्थानोंमें सातों ग्रह विद्यमान हों तो ‘ छत्र ’  योग और दशमसे आरम्भ करके सात स्थानोंमें सब ग्रह स्थित हों तो ‘ चाप ’ नामक योग होता है। इसी प्रकार केन्द्रभिन्न स्थानसे आरम्भ करके लगातार सात स्थानोंमें सब ग्रह हों तो ‘ अर्धचन्द्र ’ नामक योग होता है ॥१९०॥
लग्नसे आरम्भ करके एक स्थानका अन्तर देकर क्रमश : ( १ , ३ , ५ , ७ , ९ और ११ इन ) ६ स्थानोंमें ही सब ग्रह स्थित हों तो ‘ चक्र ’ नामक योग होता है और द्वितीय भावसे लेकर एक स्थानका अन्तर देकर क्रमश : ६ स्थानों ( २ , ४ , ६ , ८ , १० , १२ )- में ही सब ग्रह मौजूद हों तो ‘ समुद्र ’  नामक योग होता है ।
७ से १ स्थानतकमें सब ग्रहोंके रहनेपर क्रमश : वीणा आदि नामवाले ७ योग होते हैं । जैसे - ७ स्थानोंमें सब ग्रह हों तो ‘ वीणा ’, ६ स्थानोंमें सब ग्रह हों तो ‘ दाम ’, ५ स्थानोंमें सब ग्रह हों तो ‘ पाश ’,  ४ स्थानोंमें सब ग्रह हों तो ‘ क्षेत्र ’, ३ स्थानोंमें सब ग्रह हों तो ‘ शूल ’, २ स्थानोंमें सब ग्रह हों तो ‘ युग ’ और एक ही स्थानमें सब ग्रह हों तो ‘ गोल ’ नामक योग होता है । सब ग्रह चरराशिमें हों तो ‘ रज्जु ’, स्थिर राशिमें हों तो ‘ मुसल ’ और द्विस्वभावमें हों तो ‘ नल ’  नामक योग होता है । सब शुभग्रह केन्द्रस्थानोंमें हों तो  ‘ माला ’  और सब पापग्रह केन्द्रस्थानोंमें हों तो  ‘ सर्प ’  नामक योग होता है ॥१९१ - १९३॥ 
( इन योगोंमें जन्म लेनेवालोंके फल :--- ) रज्जुयोगमें जन्म लेनेवाला बालक ईर्ष्यावान्‌ और राह चलने ( यात्रा करने या घूमने - फिरने )- की इच्छावाला होता है । मुसलयोगमें उत्पन्न शिशु धन और मानसे युक्त होता है । नलयोगमें उत्पन्न पुरुष अङ्गहीन , स्थिरबुद्धि और धनी होता है । मालायोगमें पैदा हुआ मानव भोगी होता है तथा सर्पयोगमें उत्पन्न पुरुष दुःखसे पीडित होता है ॥१९४॥ वीणायोगमें जिसका जन्म हुआ हो , वह मनुष्य सब कार्योंमें निपुण तथा सङ्गीत और नृत्यमें रुचि रखनेवाला होता है । दामयोगमें उत्पन्न मनुष्य दाता और धनाढय होता है । पाशयोगमें उत्पन्न धनवान्‌ और सुशील होता है । केदार ( क्षेत्र )- योगमें पैदा हुआ खेतीसे जीविका चलानेवाला होता है तथा शूलयोगमें उत्पन्न पुरुष शूरवीर , शस्त्रसे आघात न पानेवाला और अधन ( धनहीन ) होता है । युगयोगमें जन्म लेनेवाला पाखण्डि तथा गोलयोगमें उत्पन्न मनुष्य मलिन और निर्धन होता है ॥१९५ - १९६॥
चक्रयोगमें जन्म लेनेवाले पुरुषके चरणोंमें राजा लोग भी मस्तक झुकाते हैं । समुद्रयोगमें उत्पन्न पुरुष राजोचित भोगोंसे सम्पन्न होता है । अर्धचन्द्रमें पैदा हुआ बालक सुन्दर शरीरवाला तथा चापयोगमें उत्पन्न शिशु सुखी और शूरवीर होता है ॥१९७॥ छत्रयोगमें उत्पन्न मनुष्य मित्रोंका उपकार करनेवाला तथा कूटयोगमें उत्पन्न मिथ्याभाषी और जेलक मालिक होता है । नौकायोगमें उत्पन्न पुरुष निश्चय ही यशस्वी और सुखी होता है । यूपयोगमें जन्म लेनेवाला मनुष्य दानी , यज्ञ करनेवाला और आत्मवान्‌ ( मनस्वी और जितात्मा ) होता है । शरयोगमें उत्पन्न मनुष्य दूसरोंको कष्ट देनेवाला और गोपनीय स्थानोंका स्वामी होता है । शक्तियोगमें उत्पन्न नीच , आलसी और निर्धन होता है तथा दण्डयोगमें उत्पन्न पुरुष अपने प्रियजनोंसे वियोगका कष्ट भोगता है ॥१९८ - १९९॥ 
( चन्द्रयोगका कथन :-- - )  यदि चन्द्रमासे द्वितीयमें सूर्यको छोडकर कोई भी अन्य ग्रह हो तो ‘ सुनफा ’ योग होता है । द्वादशमें हो तो ‘ अनफा ’ और दोनों ( २ , १२ ) स्थानोंमें ग्रह हों तो ‘ दुरुधरा ’ योग समझना चाहिये , अन्यथा ( अर्थात्‌ २ , १२ में कोई ग्रह नहीं हों तो ) ‘ केमद्रुम ’ योग होता है ॥२००॥
( उक्त योगोंका फल :--- ) ‘ सुनफा ’ योगमें जन्म लेनेवाला पुरुष अपने भुजबलसे उपार्जित धनका , भोगी , दाता , धनवान्‌ , और सुखी होता है । ‘ अनफा ’ योगमें उत्पन्न मनुष्य रोगहीन , सुशील , विख्यात और सुन्दर रूपवाला होता है । ‘ दुरुधरा ’ योगमें जन्म लेनेवाला भोगी , सुखी , धनवान्‌ , दाता और विषयोंसे नि : स्पृह होता है तथा ‘ केमद्रुम ’ योगमें उत्पन्न मनुष्य अत्यन्त मलिन , दुःखी , नीच और निर्धन होता है ॥२०१ - २०१॥
( द्विग्रहयोगफल :--- ) मुले ! सूर्य यदि चन्द्रमासे युक्त हो तो भाँति - भाँतिके यन्त्र ( मशीन ) और पत्थरके कार्यमें कुशल बनाता है । मङ्गलसे युक्त हो तो वह बालकको नीच कर्ममें लगाता है , बुधसे युक्त हो तो यशस्वी , कार्यकुशल , विद्वान्‌ एवं धनी बनाता है , गुरुसे युक्त हो तो दूसरोंके कार्य करनेवाला , शुक्रसे युक्त हो तो धातुओं ( ताँबा आदि )- के कार्यमें निपुण तथा पात्र - निर्माण - कलाका जानकार बनाता है ॥२०३ - २०४॥
चन्द्रमा यदि मङ्गलसे युक्त हो तो जातक कूट वस्तु ( नकली सामान ), स्त्री और आसव - अरिष्टादिका क्रय - विक्रय करनेवाला तथा माताका द्रोही होता है । बुधके साथ चन्द्रमा हो तो उत्पन्न शिशुको धनी , कार्यकुशल तथा विनय और कीर्तिसे युक्त करता है ; गुरुसे युक्त हो तो चञ्चलबुद्धि , कुलमें मुख्य , पराक्रमी और अधिक धनवान्‌ बनाता है । मुने ! यदि शुक्रसे युक्त चन्द्रमा हो तो बालकको वस्त्रनिर्माण - कलाका ज्ञाता बनाता है और यदि शनिसे युक्त हो तो वह बालकको ऐसी स्त्रीके पेटसे उत्पन्न कराता है , जिसने पतिके मरनेपर या जीते - जी दूसरे पतिसे सम्बन्ध स्थापित कर लिया हो ॥२०५ - २०६॥
मङ्गल यदि बुधसे युक्त हो तो उत्पन्न हुआ बालक बाहुसे युद्ध करनेवाला ( पहलवान ) होता है । गुरुसे युक्त हो तो नगरका मालिक , शुक्रसे युक्त हो तो जूआ खेलनेवाला तथा गायोंको पालनेवाला और शनिसे युक्त हो तो मिथ्यावादी तथा जुआरी होता है ॥२०७॥
नारद ! बुध यदि बृहस्पतिसे युक्त हो तो उत्पन्न शिशु नृत्य और सङ्गीतका प्रेमी होता है । शुक्रसे युक्त हो तो मायावी और शनिसे युक्त हो तो उत्पन्न मनुष्य लोभी और क्रूर होता है ॥२०८॥
गुरु यदि शुक्रसे युक्त हो ती मनुष्य विद्वान्‌ , शनिसे युक्त हो तो रसोइया अथवा घडा बनानेवाला ( कुम्हार ) होता है । शुक्र यदि शनिके साथ हो तो मन्द दृष्टिवाला तथा स्त्रीके आश्रयसे धनोपार्जन करनेवाला होता है ॥२०९॥
( प्रव्रज्यायोग :--- ) यदि जन्म - समयमें चार या चारसे अधिक ग्रह एक स्थानमें बलवान्‌ हों तो मनुष्य गृहत्यागी संन्यासी होता है । उन ग्रहोंमें मङ्गल , बुध , गुरु , चद्रमा , शुक्र , शनि और सूर्य बली हों तो मनुष्य क्रमश : शाक्य ( रक्त - वस्त्रधारी बौद्ध ), आजीवक ( दण्डी ), भिक्षु , ( यती ), वृद्ध ( वृद्धश्रावक ), चरक ( चक्रधारी ), अह्नी ( नग्न ) और फलाहारी होता है । प्रव्रज्याकारक ग्रह यदि अन्य ग्रहसे पराजित हो तो मनुष्य उस प्रव्रज्यासे गिर जाता है । यदि प्रव्रज्याकारक ग्रह सूर्य - सान्निध्यवश अस्त हो तो मनुष्य उसकी दीक्षा ही नहीं लेता और यदि वह ग्रह बलवान्‌ हो तो उसकी ‘ प्रव्रज्या ’ में प्रीति रहती है । जन्मराशीशको यदि अन्य ग्रह नहीं देखता हो और जन्मराशीश यदि शनिको देखता हो अथवा निर्बल जन्मराशीशको शनि देखता हो या शनिके द्रेष्काण अथवा मङ्गल या शनिके दृष्टि हो तो इन योंगोंसे विरक्त होकर गृहत्याग करनेवाला पुरुष संन्यास - धर्मकी दीक्षा लेता है ॥२१० - २१३॥
( अश्विन्यादि नक्षत्रोंमें जन्मका फल :--- ) अश्विनी नक्षत्रमें जन्म हो तो बालक सुन्दर रूपवाला और भूषणप्रिय होता है । भरणीमें उत्पन्न शिशु सब कार्य करनेमें समर्थ और सत्यवक्ता होता है । कृत्तिकामें जन्म लेनेवाला अमिताहारी , परस्त्रीमें आसक्त , स्थिरबुद्धि और प्रियवक्त होता है । रोहिणीमें पैदा हुआ मनुष्य धनवान्‌ ; मृगशिरामें भोगी ; आर्द्रामें हिंसास्वभाववाला , शठ और अपराधी ; पुनर्वसुमें जितेन्द्रिय , रोगी और सुशील तथा पुष्यमें कवि और सुखी होता है ॥२१४ - २१५॥ आश्लेषा नक्षत्रमें उत्पन्न मनुष्य धूर्त , शठ , कृतघ्न , नीच और खान - पानका विचार न रखनेवाल होता है । मघामें भोगी , धनी तथा देवादिका भक्त होता है । पूर्वा फाल्गुनीमें दाता और प्रियवक्त होता है । उत्तरा फाल्गुनीमें धनी और भोगी ; हस्तमें चोरस्वभाव , ढीठ और निर्लज्ज तथा चित्रामें नाना प्रकारके वस्त्र धारण करनेवाला और सुन्दर नेत्रोंसे युक्त होता है । स्वातीमें जन्म लेनेवाला मनुष्य धर्मात्मा और दयालु होता है । विशाखामें लोभी , चतुर और क्रोधी : अनुराधामें भ्रमणशील और विदेशवासी ; ज्येष्ठामे धर्मात्मा और संतोषी तथा मूलमें धनीमानी और सुखी होता है । पूर्वाषाढमें मानी , सुखी और हृष्ट : उत्तराषाढमें विनयी और धर्मात्मा ; श्रवणमें धनी , सुखी और लोकमें विख्यात तथा धनिष्ठामें दानी , शूरवीर और धनवान्‌ होता है । शतभिषामें शत्रुको जीतनेवाला और व्यसनमें आसक्त ; पूर्वभाद्रपदमें स्त्रीके वशीभूत और धनवान्‌ ; उत्तर - भाद्रपदमें वक्ता , सुखी और सुन्दर तथा रेवतीमें जन्म लेनेवाला शूरवीर , धनवान्‌ और पवित्र ह्रदयवाला होता है ॥२१६ - २२०॥
( मेषादि चन्द्रराशिमें जन्मका फल :--- ) मेषराशिमें जन्म लेनेवाला कामी , शूरवीर और कृतज्ञ ; वृषमें सुन्दर , दानी और क्षमावान्‌ ; मिथुनमें स्त्रीभोगासक्त , द्यूतविद्याको जाननेवाला तथा कर्कराशिमें स्त्रीके वशीभूत और छोटे शरीरवाला होता है । सिंहराशिमें स्त्रीद्वेषी , क्रोधी , मानी , पराक्रमी , स्थिरबुद्धि और सुखी होता है । कन्याराशिमें धर्मात्मा , कोमल शरीरवाला तथा सुबुद्धि होता है । तुलाराशिमें उत्पन्न पुरुष पण्डित , ऊँचे कदवाला और धनवान्‌ होता है । वृश्चिकराशिमें जन्म लेनेवाला रोगी , लोकमें पूज्य और क्षत ( आघात )- युक्त होता है । धनुमें जन्म लेनेवाला कवि , शिल्पज्ञ और धनवान्‌ ; मकरमें कार्य करनेमें अनुत्साही , व्यर्थ घूमनेवाला और सुन्दर नेत्रोंसे युक्त : कुम्भमें परस्त्री और परधन हरण करनेके स्वभाववाला तथा मीनमें धनु - सदृश ( कवि और शिल्पज्ञ ) होता है ॥२२१ - २२३॥
यदि चन्द्रमाकी राशि बली हो तथा राशिका स्वामी और चन्द्रमा दोनों बलवान्‌ हों तो ऊपर कहे हुए फल पूर्णरूपसे संघटित होते हैं - ऐसा समझना चाहिये। अन्यथा विपरीत फल ( अर्थात्‌ निर्बल हो तो फलका अभाव या बलके अनुसार फलमें भी तारतम्य ) जानना चाहिये। इसी प्रकार अन्य ग्रहोंकी राशिके अनुसार फलका विचार करना चाहिये ॥२२४॥
( सूर्यादि ग्रह - राशि - फल :--- ) सूर्य यदि मेष - राशिमें हो तो जातक लोकमें विख्यात होता है। वृषमें हो तो स्त्रीका द्वेषी , मिथुनमें हो तो धनवान्‌ , कर्कमें हो तो उग्र स्वभाववाला , सिंहमें हो तो मूर्ख , कन्यामें हो तो कवि , तुलामें हो तो कलवार , वृश्चिकमें हो तो धनवान्‌ , धनुमें हो तो लोकपूज्य , मकरमें हो तो लोभी , कुम्भमें हो तो निर्धन और मीनमें हो तो जातक सुखसे रहित होता है ॥२२५॥
मङ्गल यदि सिंहमें हो तो जातक निर्धन , कर्कमें हो तो धनवान , स्वराशि ( मेष , वृश्चिक )- में हो तो भ्रमणशील , बुधराशि ( कन्या - मिथुन )- मे हो तो कृतज्ञ , गुरुराशि ( धनु - मीन )- में हो तो विख्यात , शुक्रराशि ( वृष - तुल )- में हो तो परस्त्रीमें आसक्त , मकरमें हो तो बहुत पुत्र और धनवाला तथा कुम्भमें हो तो दुःखी , दुष्ट और मिथ्यास्वभाववाला होता है ॥२२६ . १ / २॥
बुध यदि सूर्यकी राशि ( सिंह )- में हो तो स्त्रीका द्वेषी , चन्द्रराशि ( कर्क )- मे हो तो अपने परिजनोंका द्वेषी , मङ्गलकी राशि ( मेष - वृश्चिक )- में हो तो निर्धत और सत्त्वहीन , अपनी राशि ( मिथुन - कन्या )- मे हो तो बुद्धिमान्‌ और धनवान्‌ , गुरुकी राशि ( धनु - मीन )- में हो तो मान और धनसे युक्त , शुक्रकी राशि ( वृष - तुला )- में हो तो पुत्र और स्त्रीसे सम्पन्न तथा शनिकी राशि ( मकर - कुम्भ )- में हो तो ऋणी होता है ॥२२७ . १ / २॥
गुरु यदि सिंहमें हो तो सेनापति , कर्कमें हो तो स्त्री - पुत्रादिसे युक्त एवं धनी , मङ्गलकी राशि ( मेष - वृश्चिक )- में हो तो धनी और क्षमाशील , बुधकी राशि ( मिथुन - कन्या )- में हो तो वस्त्रादि विभवसे युक्त , अपनी राशि ( धनु - मीन )- में हो तो मण्डल ( जिला )- का मालिका . शुक्रकी राशि ( वृष - तुला )- में हो तो धनी और सुखी तथा शनिकी राशि ( मकर - कुम्भ )- मे हो तो मकरमें ऋणवान्‌ और कुम्भमें धनवान्‌ होता है ॥२२८ . १ / २॥
शुक्र सिंहमें हो तो जातक स्त्रीद्वारा धन - लाभ करनेवाला , कर्कमें हो तो घमण्ड और शोकसे युक्त , मङ्गलकी राशि ( मेष - वृश्चिक )- में हो तो बन्धुओंसे द्वेष रखनेवाला , बुधकी राशि ( मिथुन - कर्क )- में हो तो धनी और पापस्वभाव , गुरुकी राशि ( धनु - मीन )- में हो तो धनी और पण्डित , अपनी राशि ( वृष - तुला )- में हो तो धनवान्‌ और क्षमावान्‌ तथा शनिकी राशि ( मकर - कुम्भ )- में हो तो स्त्रीसे पराजित होता है ॥२२९ . १ / २॥
शनि यदि सिंहमें हो तो पुत्र और धनसे रहित , कर्कमें हो तो धन और संतानसे हीन , मङ्गलकी राशि ( मेष - वृश्चिक )- में हो तो निर्बुद्धि और मित्रहीन , बुधकी राशि ( मिथुन - कन्या )- में हो तो प्रधान रक्षक , गुरुकी राशि ( धनु - मीन )- में हो तो सुपुत्र , उत्तम स्त्री और धनसे युक्त , शुक्रकी राशि ( वृष - तुला )- में हो तो राजा और अपनी राशि ( मकर - कुम्भ )- में हो तो जातक ग्रामका अधिपति होता है ॥२३० . १ / २॥
( चन्द्रपर दृष्टिका फल :--- ) मेषस्थित चन्द्रमापर मङ्गल आदि ग्रहोंकी दृष्टि हो तो जातक क्रमसे राजा , पण्डित , गुणवान्‌ , चोर - स्वभाव , तथा निर्धन होता है ॥२३१॥
वृषस्थ चन्द्रमापर मङ्गल आदि ग्रहोंकी दृष्टि हो तो क्रमसे निर्धन , चोर - स्वभाव , राजा , पण्डित तथा प्रेष्य ( भृत्य ) होता है । मिथुनराशिमें स्थित चन्द्रमापर मङ्गल आदि ग्रहोंकी दृष्टि हो तो मनुष्य क्रमश : धातुओंसे आजीविका करनेवाला , राजा , पण्डित , निर्भय , वस्त्र बनानेवाला तथा धनहीन होता है । अपनी राशि ( कर्क )- में स्थित चन्द्रमापर यदि मङ्गलादि ग्रहोंकी दृष्टि हो तो जन्म लेनेवाला शिशु क्रमश : योद्धा , कवि , पण्डित , धनी , धातुसे जीविका करनेवाला तथा नेत्ररोगी होता है । सिंहराशिस्थ चन्द्रमापर यदि बुधादि ग्रहोंकी दृष्टि हो तो मनुष्य क्रमश ; ज्यौतिषी , धनवान्‌ , लोकमें पूज्य , नाई , राजा तथा नरेश होता है । कन्या - राशिस्थित चद्रमापर बुध आदि ग्रहोंकी दृष्टि हो तो शुभग्रहों ( बुध , गुरु , शुक्र )- की दृष्टि होनेपर जातक क्रमश : राजा , सेनापति एवं निपुण है और अशुभ ( शनि , मङ्गल , रवि )- की दृष्ट होनेपर स्त्रीके आश्रयसे जीविका करनेवाला होता है । तुला - राशिस्थ चन्द्रमापर यदि ( बुध आदि बुध , गुरु , शुक्र )- की दृष्टि हो तो उत्पन्न बालक क्रमसे भूपति , सोनार और व्यापारी होता है तथा शेषग्रह ( शनि , रवि और मङल )- की दृष्टि होनेपर वह हिंसाके स्वभाववाला होता है ॥२३२ - २३४॥ वृश्चिक - राशिस्थ चन्द्रमापर बुध आदि ग्रहोंकी दृष्टि होनेपर क्रमसे जातक दो संतानका पिता , मृदुस्वभाव , वस्त्रादिकी रँगाई करनेवाला , अङ्गहीन , निर्धन और भूमिपति होता है । धन - राशिस्थ चन्द्रमपर बुध आदि सुभग्रहोंकी दृष्टि हो तो उत्पन्न बालक क्रमश ; अपने कुल , पृथ्वी तथा जनसमूहका पालक होता है । शेष ग्रहों ( शानि , रवि तथा मङ्गल )- की दृष्टि हो तो जातक दम्भी और शठ होता है ॥२३५॥ मकर - राशिस्थित चन्द्रमापर बुध आदिकी दृष्टि हो तो वह क्रमशा ; भूमिपति , पण्डित , धनी , लोकमें पूज्य , भूपति तथा परस्त्रीमें आसक्त होता है । कुम्ब - राशिस्थ चन्द्रमापर भी उक्त ग्रहोंकी दृष्टि होनेपर इसी प्रकार ( मकर - राशिस्थके समान ) फल समझना चाहिये । मीन - राशिस्थ चन्द्रमापर शुभग्रहों ( बुध , गुरु और शुक्र )- की दृष्टि हो तो जातक क्रमश : हास्यप्रिय , राजा और पण्डित होता है । ( तथा शेष ग्रहों पापग्रहों )- की दृष्टि होनेपर अनिष्ट फल समझना चाहिये । ॥२३६॥ होरा ( लग्न ) के स्वामीकी होरामें स्थित चन्द्रमापर उसी होरामें स्थित ग्रहोंकी दृष्टि हो तो वह शुभप्रद होता है । जिस तृतीयांश ( द्रेष्काण )- में चन्द्रमा हो उसके स्वामीसे तथा मित्र - राशिस्थ ग्रहोंसे युक्त या दृष्ट चन्द्रमा शुभप्रद होता है । प्रत्येक राशिमें स्थित चन्द्रमापर ग्रहोंकी दृष्टि होनेसे जो - जो फल कहे गये हैं , उन राशियोंके द्वादशांशमें स्थित चन्द्रमापर भी उन - उन ग्रहोंकी दृष्टी होनेसे वे ही फल प्राप्त होते हैं ।
अब नवमांशमें स्थित चिन्द्रमापर भिन्न - भिन्न ग्रहोंकी दृष्टिसे प्राप्त होनेवाले फलोंका वर्णन करता हूँ । मङ्गलके नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर यदि सूर्यादि ग्रहोंकी दृष्टि हो तो जातक क्रमश : ग्राम या नगरका रक्षक , हिंसाके स्वभाववाला , युद्धमें निपुण , भूपति , धनवान्‌ तथा झगडालू होता है । शुक्रके नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर सूर्यादि ग्रहोंकी दृष्टि हो तो उत्पन्न बालक क्रमश : मूर्ख , परस्त्रीमें आसक्त , सुखी , काव्यकर्ता , सुखी तथा परस्त्रीमें आसक्ति रखनेवाला होता है । बुधके नवमांशमें स्थित चन्द्रपापर यदि सूर्यादि ग्रहोंकी दृष्ट हो तो बालक क्रमश : नर्तक , चोरस्वभाव , पण्डित , मन्त्री , सङ्गीतज्ञ तथा शिल्पकार होता है । अपने ( कर्क ) नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर यदि सूर्यादि ग्रहोंकी दृष्टि हो तो वह छोटे शरीरवाला , धनवान्‌ , तपस्वी , लोभी , अपनी स्त्रीकी कमाईपर पलनेवाला तथा कर्तव्यपरायण होता है । सुर्यके नवमांश ( सिंह )- में स्थित चन्द्रमापर यदि सूर्यादि ग्रहोंकी दृष्टि हो तो बालक क्रमश ; क्रोधी , राजमन्त्री , निधिपति या मन्त्री , राजा , हिंसाके स्वभाववाला तथा पुत्रहीन होता है । गुरुके नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर सूर्यादि ग्रहोंकी दृष्टि हो तो बालक क्रमश : हास्यप्रिय , रणमें कुशल , बलवान्‌ , मन्त्री , धर्मात्मा तथा धर्मशील होता है । शनिके नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर यदि सूर्यादि ग्रहोंकी हो तो जातक क्रमश : अल्पसंतति , दुःखी , अभिमानी , अपने कार्यमें तत्पर , दुष्टस्त्रीका पति तथा कृपण होता है । जिस प्रकार मेषादि राशि या उसके नवमांशमें स्थित चन्द्रमापर सूर्यादि ग्रहोंके दृष्टि - फल कहे गये हैं , इसी प्रकार मेषादि राशि या नवमांशमें स्थित सूर्यपर चन्द्रादि ग्रहोंकी दृष्टिसे भी प्राप्त होनेवाले फल समझने चाहिये ॥२३७ - २४३॥
( फलोंमें न्यूनाधिक्य :--- ) चन्द्रमा यदि वर्गोत्तम नवमांशमें हो तो पूर्वोक्त शुभ फल पूर्ण , अपने नवमांशमें हो तो मध्यम ( आधा ) और अन्य नवमांशमें हो तो अल्प समझना चाहिये । ( इसीसे यह भी सिद्ध हो जाता है कि जो अशुभ फल कहे गये है , वे भी विपरीत दशामें विपरीत होत हैं अर्थात्‌ वर्गोत्तममें चद्रमा हो तो अशुभ फल अल्प , अपने नवमांशमें हो तो आधा और अन्य नवमांशमें हो तो पूर्ण होते हैं ) । राशि और नवमांशके फलोंमें भिन्नता होनेपर यदि नवमांशका स्वामी बली हो तो वह राशिफलको रोककर ही फल देता है ॥२४४ . १ / २॥
( द्वादश भावगत ग्रहोंके फल :--- ) सूर्य यदि लग्नमें हो तो शिशु शूरवीर , दीर्घसूत्री ( देरसे काम करनेके स्वभाववाला ), दुर्बल दृष्टिवाला और निर्दय होता है । यदि मेषमें रहकर लग्नमें हो तो धनवान्‌ और नेत्ररोगी होता है और सिंह लग्नमें हो तो रात्र्यन्ध ( रतौंधीवाला ), तुलालग्नमें हो तो अंधा और निर्धन होता है । कर्क लग्नमें हो तो जातककी आँखमें फूली होती है । 
द्वितीय भावमें सूर्य हो तो बालक बहुत धनी , राजदण्ड पानेवाला और मुखका रोगी होता है । तृतीय स्थानमें हो तो पण्डित और पराक्रमी होता है । चतुर्थ स्थानमें सूर्य हो तो सुखहीन और पीडायुक्त होता है । सूर्य पञ्चम भावमें हो तो मनुष्य धनहीन और पुत्रहीन होता है । षष्ठ भावमें हो तो बलवान्‌ और शत्रुओंको जीतनेवाला होता है । सप्तम भावमें स्थित हो तो मनुष्य अपनी स्त्रीसे पराजित होता है । अष्टम भावमें हो तो उसके पुत्र थोडे होते हैं और उसे दिखायी भी कम ही देता है । नवम भावमें हो तो जातक पुत्रवान्‌ , धनवान्‌ और सुखी होता है । दशम भावमें ह तो विद्वान्‌ और पराक्रमी तथा एकादश भावमें हो तो अधिक धनवात्‌ और मानी होता है । यदि द्वादश भावमें सूर्य हो तो उत्पन्न बालक नीच और धनहीन होता है ॥२४५ - २४९॥
चन्द्रमा यदि मेष लग्नमें हो तो जातक गूँगा , बहिरा , अंधा और दूसरोंका दास होता है । वृष लग्नमें हो तो वह धनी होत है । द्वीतीय भावमें हो तो विद्वान्‌ और धनवान्‌ , तृतीय भावमें हो तो हिंसाके स्वभाववाला , चतुर्थ स्थानमें हो तो उस भावके लिये कहे हुए फलों ( सुख , ग्रुहादि )- से सम्पन्न , पञ्चम भावमें हो तो कन्यारूप संतानवाला और आलसी होता है । छठे भावमें हो तो बालक मन्दाग्निका रोगी होता है , उसे अभीष्ट भोग बहुत कम मिलते हैं तथा वह उग्र स्वभावका होता है । सप्तम भावमें हो तो जातक ईर्ष्यावान्‌ और अत्यन्त कामी होता है । अष्टम भावमें हो तो रोगसे पीडित , नवम भावमें हो तो मित्र और धनसे युक्त , दशम भावमें हो तो धर्मात्मा , बुद्धिमान्‌ और धनवान्‌ होता है । एकादश भावमें हो तो उत्पन्न शिशु विख्यात , बुद्धिमान्‌ और धनवान्‌ होता है तथा द्वादश भावमें हो तो जातक क्षुद्र और अङ्गहीन होता है ॥२५२ . १ / २॥
मङगल लग्नमें हो तो उत्पन्न शिशु क्षत शरीरवाला होता है । द्वितीय भावमें हो तो वह कदन्न१ भोजी तथा नवम भावमें हो तो पापस्वभाव होता है । इनसे भिन्न ( ३ , ४ , ५ , ६ , ७ , ८ , १० , ११ , १२ ) स्थानोंमें यदि मङ्गल हो तो उसके फल सूर्यके समान ही होते हैं ॥२५३ . १ / २॥
बुध लग्नमें हो तो जातक पण्डित होता है । द्वितीय भावमें हो तो शिशु धनवान्‌ , तृतीय भावमें हो तो दुष्ट स्वभाव , चतुर्थ भावमें हो तो पण्डित , पञ्चम भावमें हो तो राजमन्त्री , षष्ठ भावमें हो तो शत्रुहीन , सप्तममें हो तो धर्मज्ञाता , अष्टम भावमें हो तो विख्यात गुणवाला और शेष ( ९ , १० , ११ , १२ ) भावोंमें हो तो जैसे सूर्यके फल कहे गये हैं , वैसे ही उसके फल भी समझने चाहिये ॥२५४ . १ / २॥
बृहस्पति लग्नमें हो तो जातक विद्वान , द्वितीय भावसें हो तो प्रियभाषी , तृतीय भावमें हो तो कृपण , चतुर्थमें हो तो सुखा , पञ्चममें हो तो विज्ञ , षष्ठममें हो तो नीच स्वभाववाला , नवममें हो तो तपस्वी , दशममें हो तो धनवान्‌ , एकादशमें हो तो नित्य लाभ करनेवाला और द्वादशमें हो तो दुष्ट ह्रदयवाल होता है ॥२५५ . १ / २॥ शुक्र लग्नमें हो तो जातक कामी और सुखी , सप्तम भावमें हो तो कामी तथा पञ्चम भावमें हो तो सुखी होता है और अन्य भावों ( २ , ३ , ४ , ६ , ८ , ९ , १० , ११ , १२ )- मे हो तो वह उत्पन्न बालकको बृहस्पतिके समान ही फल देता है ॥२५६ . १ / २॥
शनि लग्नमें हो तो जातक निर्धन , रोगी , कामातुर , मलिन , बाल्यावस्थामें रोगी और आलसी होता है । किंतु यदि अपनी राशि ( मकर - कुम्भ ) या अपने उच्च ( तुला ) में हो तो जातक भूपति , ग्रामपति , पण्डित और सुन्दर शरीरवाला होता है । अन्य ( द्वितीय आदि ) भावोंमें सूर्यके समान ही शनिके भी फल होते हैं ॥२५७ - २५८॥
( फलमें न्यूनाधिकत्व :--- ) शुभग्रह यदि अपने उच्चमें हों तो पूर्णरूपसे उपर्युक्त फल प्राप्त होता है । यदि अपने मूल त्रिकोणमें हो तो तीन चरण , अपनी राशिमें हो तो आधा , मित्रके गृहमें हो तो एक चरण तथा शत्रुकी राशिमें हो तो उससे भी कम फल प्राप्त होता है और नीचमें या अस्त हो तो कुछ भी फल नहीं होता है । ( इस प्रकार शुभ ग्रह्के फल कहनेसे सिद्ध होता है कि पापग्रहका फल इसके विपरीत होता है । अर्थात्‌ पापग्रह नीचमें या अस्त हो तो पूर्ण फल , शत्रु - राशिमें तीन चरण , मित्र - राशिमें आधा , अपनी राशिमें एक चरण , अपने मूल त्रिकोणमें उससे भी अल्प और अपने उच्चमें हो तो अपना कुछ भी फल नहीं देता है ) ॥२५९ . १ / २॥
( स्वराशिस्थ ग्रहफल :--- ) यदि अपनी राशिमें एक ग्रह हो तो जातक अपने पिताके सदृश धनवान्‌ और यशस्वी होता है । दो ग्रह अपनी राशिमें हों तो बालक अपने कुलमें श्रेष्ठ , तीन ग्रह हों तो बन्धुओंमें माननीय , चार ग्रह हों तो विशेष धनवान्‌ , पाँच ग्रह हों तो सुखी , छ : ग्रह हों तो भोगी और यदि सातों ग्रहा अपनी राशिमें स्थित हों तो जातक राजा होता है ॥२६० . १ / २॥
यदि अपने मित्रकी राशिमें एक ग्रह हो तो जातक दूसरेके धनसे पालित , दो ग्रह हों तो मित्रोंके द्वारा पोषित और तीन ग्रह हों तो मित्रोंके द्वारा पोषित और तीन ग्रह हों तो वह अपने बन्धुओंके द्वारा पालित होता है । यदि चार ग्रह मित्रराशिमें हों तो बालक अपने बाहुबलसे जीवननिर्वाह करता है । पाँच ग्रह हों तो बहुत लोगोंका पालन करनेवाला होता है । छ : ग्रह हों तो सेनापति और सातों ग्रह मित्रराशिमें हों तो जातक राजा होता है ॥२६१ . १ / २॥
पापग्रह यदि विषम राशि और सूर्यकी होरा ( राश्यर्ध )- मे हों तो जातक लोकमें विख्यात , महान्‌ उद्योगी , अत्यन्त तेजस्वी , बुद्धिमान्‌ धनवान्‌ और बलवान्‌ होता है । तथा शुभग्रह यदि समराशि और चन्द्रमाकी होरामें हों तो जातक कान्तिमान्‌ , मृदु ( कोमल ) शरीरवाला , भाग्यवान्‌ , भोगी और बुद्धिमान्‌ होता है । यदि पापग्रह समराशि और सूर्यकी होरामें हों तो पूर्वॊक्त फल मध्यम ( आधा ) होता है । एवं शुभ यदि विषमराशि और सूर्यकी होरामें हों तो ऊपर कहे हुए फल नहीं प्राप्त होते हैं ॥२६२ - २६४॥
चन्द्रमा यदि अपने या अपने मित्रके द्रेष्काणमें हो तो जातक सुन्दर स्वरूपवाला और गुणवान्‌ होता है । अन्य द्रेष्काणमें हो तो उस द्रेष्काणकी राशि और द्रेष्काणपतिके सदृश ही फल प्राप्त होता है । सारांश यह है कि उस द्रेष्काणका स्वामी यदि चन्द्रमाका मित्र हो तो तीन चरण फल मिलता है , सम हो तो दो चरण ( आधा ) फल मिलता है , तथा शत्रु हो तो एक चरण फल होता है । यदि सर्प द्रेष्काण , शस्त्र द्रेष्काण , चतुष्पद द्रेष्काण और पक्षी द्रेष्ट्काणमें चन्द्रमा हो तो जातक क्रमश : उग्र - स्वभाव , हिंसाके स्वभाववाला , गुरुकी शय्यापर बैठनेवाला और भ्रमणशील होता है ॥२६६ . १ / २॥
( लग्ननवमांश राशिफल :--- ) लग्नमें मेषका नवमांश हो तो जातक चोरस्वभाव , वृष - नवमांश हो तो भोगी , मिथुन - नवमांश ओ तो धनी , कर्क - नवमांश हो तो बुद्धिमान्‌ , सिंह - नवमांश हो तो राजा , कन्या - नवमांश हो तो नपुंसक , तुला - नवमांश हो तो शत्रुको जीतनेवाला , वृश्चिक - नवमांश ओह तो बेगारी करनेवाला , धनुका नवमांश हो तो दासकर्म करनेवाला , मकर - नवमांश हो तो पापस्वभाव , कुम्भ - नवमांश हो तो हिंसाके स्वभाववाला और मीन - नवमांश लग्नमें हो तो बुद्धिहीन होता है । किंतु यदि वर्गोत्तम नवमांश ( अर्थात्‌ जो राशि हो उसीका नवमांश भी ) हो तो वह जातक इन ( चोरस्वभाव आदि सब )- का शासक होता है । ( जैसे मेष - नवमांशमें उत्पन्न मनुष्य चोरस्वभाव होता है , किंतु यदि मेष राशिमें मेषका नवमांश हो तो वह चोरस्वभाववालोंका शासक होता है , इत्यादि । ) इसी प्रकार मेषादि राशियोंके द्वादशांशमें मेषादि राशियोंके समान फल प्राप्त होते हैं ॥२६७ - २६८॥
( मङगल आदि ग्रहोंके त्रिंशांशफल :--- ) मङ्गल अपने त्रिंशांशमें हो तो जातक स्त्री , बल , आभूषण तथा परिजनादिसे सम्पन्न , साहसी और तेजस्वी होता है । शनि अपने त्रिंशांशमें हो तो रोगो , स्त्रीके प्रति कुटिल , परस्त्रीमें आसक्त , दुःखी वस्त्रादि आवश्यक सामग्रीसे सम्पन्न , किंतु मलिन होता है । गुरु अपने त्रिंशांशमें हो तो जातक सुखी , बुद्धिमान , धनी , कीर्तिमान्‌ , तेजस्वी , लोकमें मान्य , रोगहीन , उद्यमी और भोगी होता है । बुध अपने त्रिंशांशमें हो तो मनुष्य मेधावी , कलाकुशल , काव्य और शिल्पविद्याका ज्ञाता , विवादी , कपटी , शास्त्रतत्त्वज्ञ तथा साहसी होता है । शुक्र अपने त्रिंशांशमें हो तो जातक अधिक संतान , सुख , आरोग्य , सौन्दर्य और धनसे युक्त , मनोहर शरीरवाला तथा अजितोन्द्रिय होता है ॥२६९ - २७३॥
( सूर्य - चन्द्र - फल :--- ) मङ्गलके त्रिंशांशमें सूर्य हो तो जातक शूरवीर , चन्द्रमा हो तो दीर्घसूत्री , बुधके त्रिंशांशमें सूर्य हो तो जातक कुटिल और चन्द्रमा हो तो हिंसाके स्वभाववाला होता है । गुरुके त्रिशांशमें रवि हो तो गुणी और चन्द्रमा हो गुरुके त्रिंशांशमें रवि हो तो गुणी और चन्द्रमा हो तो भी गुणी होता है । शुक्रके त्रिंशांशमें सूर्य हो तो बालक सुखी और चन्द्रमा हो तो विद्वान्‌ होता है । शनिके त्रिंशांशामें रवि हो तो सुन्द्रर शरीरवाला तथा चद्रमा हो तो सर्वजनप्रिय होता है ॥२७४॥
( करक ग्रह :--- ) अपने - अपने मूल त्रिकोण , स्वराशि या स्वोच्चमें स्थित ग्रह यदि केन्द्रमें हों तो वे सब परस्पर कारक ( शुभफलदायक ) होते है , उनमें दशम स्थानमें रहनेवाला सबसे बढकर कारक होता है ॥२७५॥
( शुभजन्मलक्षण :--- ) लग्न या चन्द्रमा वर्गोत्तम नवमांशमें हो या वेशि ( सुर्यसे द्वितीय ) स्थानमें शुभग्रह हो अथवा केन्द्रोंमें कारक ग्रह हों तो जन्म शुभप्रद होता है । अर्थात्‌ इस स्थितिमेम जन्म लेनेवाला बालक सुखी और यशस्वी होता है ॥२७६॥ गुरु , जन्मराशि और जन्म - लग्नेश ये सभी या इनमेंसे एक भी केन्द्रमें हो तो जीवनके मध्यभागमें सुखप्रद होते हैं । तथा पृष्ठोदय राशिमें रहनेवाला ग्रह वयस्‌के अन्तमें , द्विस्वभाव राशिस्थ ग्रह वयस्‌के मध्यमें और शीर्षोदय राशिस्थ ग्रह पूर्ववयस्‌में अपने - अपने फल देते हैं ॥२७७॥
( ग्रहगोचरफलसमय :--- ) सूर्य और मङ्गल ये दोनों राशिमें प्रवेश करते ही अपने राशि - सम्बन्धी ( गोचर ) फल देते हैं । शुक्र और बृहस्पति राशिके मध्यमें जानेपर और चन्द्रमा तथा शनि ये दोनों राशिके अन्तिम तृतीयांशमें पहुँचनेपर अपने शुभ या अशुभ गोचर फल देते हैं । तथा बुध सर्वदा ( आदि , मध्य , अन्तमें ) अपने शुभाशुभ फलको देता है ॥२७८॥
( शुभाशुभ योग :--- ) लग्न या चन्द्रमसे पञ्चम और सप्तम भाव शुभग्रह और अपने स्वामीसे युक्त या दृष्ट हों तो जातकको उन दोनों ( पुत्र और स्त्री )- का सुख सुलभ होता है , अन्यथा नहीं । तथा कन्या लग्नमें रवि और मीन लग्नमें शनि हो तो ये दोनों स्त्रीका नाश करनेवाले होते हैं । इसी प्रकार पञ्चम भव ( मेष - वृश्चिकसे अतिरिक्त राशि )- में मङ्गल हो तो पुत्रका नाश करनेवाला होता है । यदि शुक्रसे केन्द्र ( १ , ४ , ७ , १० )- में पापग्रह हों अथवा दो पापग्रहोंके बीचमें शुक्र हों , उनपर शुभग्रहका योग या दृष्टि नहीं हो तो उस जातककी स्त्रीका मरण अग्निसे या गिरनेसे होता है । लग्नसे १२ , ६ भावोंमें चन्द्रमा और सूर्य हों तो वह स्त्रीसहित एक नेत्रवाले ( काण ) पुरुषको जन्म देता है । ऐसा मुनियोंने कहा है । लग्नसे सप्तम या नवम , पञ्चममें शुक्र और सूर्य दोनों हों तो उस जातककी स्त्री विकल ( अङ्गहीना ) होती है ॥२७९ - २८२॥
शनि लग्नमें और शुक्र सप्तम भावमें राशिसन्धि ( कर्क , वृश्चिक , मीनके अन्तिमांश ) में हों तो वह जातक वन्ध्या स्त्रीका पति होता है । यदि पञ्चम भाव शुभग्रहसे युक्त या दृष्ट न हो , लग्नसे १२ , ७ में और लग्नमें यदि पापग्रह हों तथा पञ्चम भावमें क्षीण चन्द्रमा स्थित हों तो वह पुरुष पुत्र और स्त्रीसे रहित होता है । शनिके वर्ग ( राशि - नवांश )- में शुक्र सप्तम भावमें हो और शनिसे दृष्ट हो तो वह जातक परस्त्रीमें आसक्त होता है । यदि वे दोनों ( शनि और शुक्र ) चन्द्रमाके साथ हों तो वह स्वयं परस्त्रीमें आसक्त और उसकी पत्नी परपुरुषमें आसक्त होती है ॥२८४ . १ / २॥
शुक्र और चन्द्रमा दोनों सप्तम भावमें हों तो जातक स्त्रीहीन अथवा पुत्रहीन होता है । पुरुष और स्त्री ग्रह सप्तम भावमें हों और उनपर शुभग्रहोंकी दृष्टि हो तो पति - पत्नी दोनों परिणताङ्ग ( परमायुर्दाय भोगकर वृद्धावस्थातक जीनेवाले ) 
होते हैं । दशम , सप्तम और चतुर्थ भावमें क्रमश : चन्द्रमा , शुक्र और पापग्रह हों तो जातक वंशका नाशक होता है । अर्थात्‌ उसका वंश नष्ट हो जाता है । बुध जिस द्रेष्काणमें हो उसपर यदि केन्द्र - स्थित शनिकी दृष्टि हो तो जातक शिल्पकलामें कुशल होता है । शुक्र यदि शनिके नवमांशमें होकर द्वादश भावमें स्थित हो तो जातक दासीका पुत्र होता है । सूर्य और चन्द्रमा दोनों सप्तम भावमें रहकर शनिसे दृष्ट हों तो जातक नीच स्वभाववाला होता है । शुक्र और मङ्गल दोनों सप्तम भावमें स्थित हों और उनपर पाग्रहकी दृष्टि हो तो जातक वातरोगी होता है । कर्क या वृश्चिकके नवमांशमें स्थित चन्द्रमा यदि पापग्रहसे युक्त हो तो बालक गुप्त रोगसे ग्रस्त होता है । चन्द्रमा यदि पापग्रहोंके बीचमें रहकर लग्नमें स्थित हो तो उत्पन्न शिशु कुष्ठरोगी होता है । चन्द्रमा दशम भावमें , मङ्गल सप्तम भावमें और शनि यदि वेशि ( सूर्यसे द्वितीय ) स्थानमें हो तो जातक विकल ( अङ्गहीन ) होता है । सूर्य और चन्द्रमा दोनों परस्पर नवमांशमें हों तो बालक शूलरोगी होता है । यदि दोनों किसी एक ही स्थानमें हों तो कृश ( क्षीणशरीर ) होता है । यदि सूर्य , चन्द्रमा , मड्गल और शनि - ये चारों क्रमश : ८ , ६ , २ , १२ भावोंमें स्थित हों तो इनमें जो बली हो , उस ग्रहके दोष ( कफ , पित्त और वात - सम्बन्धी विकार )- से जातक नेत्रहीन होता है । यदि ९ , ११ , ३ , ५ - इन भावोंमें पापग्रह हों तथा उनपर शुभग्रहकी दृष्टि नहीं ह तो वे उत्पन्न शिशुके लिये कर्णरोग उत्पन्न करनेवाले होते हैं । सप्तम भावमें स्थित पापग्रह यदि शुभग्रहसे दृष्ट न हों तो वे दन्तरोग उत्पन्न करते हैं । लग्नमें गुरु और सप्तम भावमें शनि हो तो जातक वातरोगसे पीडित होता है । ४ या ७भावमें मङ्गल और लग्नमें बृहस्पति हो अथवा शनि लग्नमें और मङ्गल ९ , ५ , ७ भावमें हो अथवा बुधसहित चन्द्रमा १२ भावमें हो तो जातक उन्मादरोगसे पीडित होता है ॥२९३ . १ / २॥
यदि ५ , ९ , २ और १२ भावोंमें पापग्रह हो तो उस जातकको बन्धन प्राप्त होता है । ( उसे जेलला कष्ट भोगना पडता है ) । लग्नमें जैसी राशि हो उसके अनुकूल ही बन्धन समझना चाहिये । ( जैसे चतुष्पद राशि लग्न हो तो रस्सीसे बँधकर , द्विपदराशि लग्न हो तो बेडीसे बँधकर तथा जलचर राशि लग्न हो तो बिना बन्धनके ही वह जेलमें रहता है ) । यदि सर्प , श्रृडखला , पाशसंज्ञक द्रेष्काण लग्नमें हों तथा उनपर बली पापग्रहकी दृष्टि हो तो भी पूर्वोक्त प्रकारसे बन्धन प्राप्त होता है । मण्डल ( परिवेष )- युक्त चन्द्रमा यदि शनिसे युक्त और मङ्गलसे देखा जाता हो तो जातक मृगी रोगसे पीडित , अप्रियभाषी और क्षयरोगसे युक्त होता है । मण्डल ( परिवेष )- युक्त चन्द्रमा यदि दशम भावस्थित सूर्य , शनि और मङ्गलसे दृष्ट हो तो जातक भृत्य ( दूसरेका नौकर ) होता है ; उनमें भी एकसे दृष्ट हो तो श्रेष्ठ दोसे दृष्ट हो तो मध्यम और तीनोंसे दृष्ट हो तो अधम भृत्य होता है ॥२९४ - २९६॥
( स्त्रीजातककी विशेषता ---) ऊपर कहे हुए पुरुष जातकके जो - जो फल स्त्री - जातकमें सम्भव हों , वे वैसे योगमें उत्पन्न स्त्रीमात्रके लिये समझने चाहिये । जो फल स्त्रीमें असम्भ हों , वे सब उसके पतिमें समझने चाहिये । स्त्रीके स्वामीकी मृत्युका विचार अष्टम भावसे , शरीरके शुभाशुभ फलका विचार लग्न और चन्द्रमासे तथा सौभाग्य औ पतिके स्वरूप , गुण आदिका विचार सप्तम भावसे करना चाहिये ॥२९७ . १ / २॥ स्त्रीके जन्मसमयमें लग्न और चन्द्रमा दोनों समराशि और सम नवमांशमें हों तो वह स्त्री अपनी प्रकृति ( स्त्रीस्वभाव )- से युक्त होती है । यदि उन दोनों ( लग्न और चन्द्रमा ) पर शुभग्रहकी दृष्टि हो तो वह सुशीलतारूप आभूषणसे विभूषित होती है । यदि वे दोनों ( लग्न तथा चन्द्रमा ) विषमराशि और विषम नवमांशमें हों तो वह स्त्री पुरुषसदृश आकार और स्वभाववाली होती है । यदि उन दोनोंपर पापग्रहकी दृष्टि हो तो स्त्री पापस्वभाववाली और गुणहीना होती है ॥२९८ . १ / २॥
लग्न और चन्द्रमाके आश्रित मङ्गलकी राशि ( मेष - वृश्चिक )- में यदि मङ्गलका त्रिंशांश हो तो वह स्त्री बालावस्थामें ही दुष्ट - स्वभाववाली होती है । शनिका त्रिंशांश हो तो दासी होती है । गुरुका त्रिंशांश हो तो सच्चरित्रा , बुधका त्रिंशांश हो तो मायावती ( धूर्त ) और शुक्रका त्रिंशांश हो तो वह उतावली होती है । शुक्रराशि ( वृष - तुला )- में स्थित लग्न या चन्द्रमामें मङ्गलका त्रिंशांश हो तो नारी बुरे स्वभाववाली , शनिका त्रिंशांश हो तो पुनभू ( दूसरा पति करनेवाली ), गुरुका त्रिंशांश हो तो गुणवती , बुधका त्रिंशांश हो तो कलाओंको जाननेवाली और शुक्रशा त्रिंशांश हो तो लोकमें विख्यात होती है । बुधराशि ( मिथुन - कन्या )- में स्थित लग्न या चन्द्रमामें यदि मङ्गला त्रिंशांश हो तो मायावती , शनिका हो तो हीजडी , गुरुका हो तो पतिव्रता , बुधका हो तो गुणवती और शुक्रका हो तो चञ्चला होती है । चन्द्र - राशि ( कर्क )- में स्थित लग्न या चन्द्रमामें यदि मङ्गका त्रिंशांश हो तो नारी स्वेच्छाचारिणी , शनिका हो तो पतिके लिये घातल , गुरुका हो तो गुणवती , बुधका हो तो शिल्पकला जाननेवाली और शुक्रका त्रिंशाश हो तो नीच स्वभाववाली होती है । सिंहराशिस्थ लग्न या चन्द्रमामें यदि मङ्गलका त्रिंशांश हो तो पुरुषके समान आचरण करनेवाली , शनिका हो तो कुलटा स्वभाववाली , गुरुका हो तो रानी , बुधका हो तो पुरुषसदृश बुद्धिवाली और शुक्रका त्रिंशांश हो तो अगम्यगामिनी होती है । गुरुराशि ( धनु - मीन )- स्थित लग्न या चन्द्रमामें मङ्गलका त्रिंशांश हो तो नारी गुणवती , शनिका हो तो भोगोंमें अल्प आसक्तिवाली , गुरुका हो तो गुणवती , बुधका हो तो ज्ञानवती और शुक्रका त्रिंशांश हो तो पतिव्रता होती है । शनिराशि ( मकर - कुम्भ ) स्थित लग्न या चन्द्रमामें मङ्गलका त्रिंशांश हो तो स्त्री दासी , शनिका हो तो नीच पुरुषमें आसक्त , गुरुका हो तो पतिव्रता , बुधका हो तो दुष्ट - स्वभाववाली और शुक्रका त्रिंशांश हो तो संतान - हीना होती है । इस प्रकार लग्न और चन्द्राश्रित राशियोंके फल ग्रहोंके बलके अनुसार न्य़ून या अधिक समझने चाहिये ॥१ / २ . ३०४॥
शुक्र और शनि ये दोनों परस्पर नवमांशमें ( शुक्रके नवमांशमें शनि और शनिके नवमांशमें शुक्र ) हों अथवा शुक्रराशि ( वृष - तुला ) लग्नमें कुम्भका नवमांश हो तो इन दोनों योगोंमें जन्म लेनेवाली स्त्री कामाग्निसे संतप्त हो स्त्रियोंसे भी क्रीडा करती है ॥३०५॥
( पतिभाव --- ) स्त्रीके जन्मलग्नसे सप्तम भावमें कोई ग्रह नहीं हो तो उसका पति कुत्सित होता है । सप्तम स्थान निर्बल हो और उसपर शुभग्रहकी दृष्टि नहीं हो तो उस स्त्रीका पति नपुंसक होता है । सप्तम स्थानमें बुध और शनि हों तो भी पति नपुंसक होता है । यदि सप्तम भावमें चरराशि हो तो उसका पति परदेशवासी होता है । सप्तम भावमें सूर्य हो तो उस स्त्रीको पति त्याग देता है । मङ्गल हो तो वह स्त्री बालविधवा होती है । शनि सप्तम भावमें पापग्रहसे दृष्ट हो तो वह स्त्री कन्या ( अविवाहिता ) रहकर ही वृद्धावस्थाको प्राप्त होती है ॥३०६ - ३०७॥
यदि सप्तम भावमें एकसे अधिक पापग्रह हो तो भी स्त्री विधवा होती है , शुभ और पाप दोनों हों तो वह पुनर्भू होती है । यदि सप्तम भावमें पापग्रह निर्बल हो और उसपर शुभग्रहकी दृष्टि न हो तो भी स्त्री अपने पतिद्वारा त्याग दी जाती है , अन्यथा शुभग्रहकी दृष्टि होनेपर वह पतिप्रिया होती है ॥३०८॥
मङ्गलके नवमांशमें शुक्र और शुक्रके नवमांशमें मङ्गल हो तो वह स्त्री परपुरुषमें आसक्त होती है । इस योगमें चन्द्रमा यदि सप्तम भावमें हो तो वह अपने पतिकी आज्ञासे कार्य करती है ॥३०९॥
यदि चन्द्रम अऔर शुक्रसे संयुक्त शनि एवं मङ्गलकी राशि ( मकर , कुम्भ , मेष और वृश्चिक ) लग्नमें हों तो वह स्त्री कुलटा - स्वभाववाली होती है । यदि उक्त लग्नपर पापग्रहकी दृष्टि हो तो वह स्त्री अपनी मातासहित कुलटा - स्वभाववाली होती है । यदि सप्तम भावमें मङ्गलका नवमांश हो और उसपर शनिकी दृष्टि हो तो वह नारी रोगयुक्त योनिवाली होती है । यदि सप्तम भावमें शुभग्रहका नवमांश हो तब तो वह पतिकी प्यारी होती है । शनिकी राशि या नवमांश सप्तम भावमें हो तो उस स्त्रीका पति वृद्ध और मूर्ख होता है । सप्तम भावमें मङ्गलकी राशि या नवमांश हो तो उसका पति स्त्रीलोलुप और क्रोधी होता है । बुधकी राशि या नवमांश हो त विद्वान्‌ और सब कार्यमें निपुण होता है । गुरुकी राशि या नवमांश हो तो जितेन्द्रिय और गुणी होता है । चन्द्रमाकी राशि या नवमांश हो तो कामी और कोमल होता है । शुक्रकी राशि या नवमांश हो तो भाग्यवान्‌ तथा मनोहर स्वरूपवाला होता है । सूर्यकी राशि या नवमांश सप्तम भावमें हो तो उस स्त्रीका पति अत्यन्त कोमल और अधिक कार्य करनेवाला होता है ॥३१२ . १ / २॥
शुक्र और चन्द्रमा लग्नमें हों तो वह स्त्री सुख तथा ईर्ष्यावाली होती है । यदि बुध और चन्द्रमा लग्नमें हों तो कलाओंको जाननेवाली तथा सुख और गुणोंसे युत होती है । शुक्र और बुध लग्नमें हों तो सौभाग्यवती , कलाओंको जाननेवाली और अत्यन्त सुन्दरी होती है । लग्नमें तीन शुभग्रह हों तो वह अनेक प्रकारके सुख , धन और गुणोंसे युत होती है ॥३१४ . १ / २॥
पापग्रह अष्टम भावमें हो तो वह स्त्री अष्टमेश जिस ग्रहके नवमांशमें हो उस ग्रह्के पूर्वकथित बाल आदि वयस्‌में विधवा होती है । यदि द्वितीय भावमें शुभग्रह हों तो वह स्त्री स्वयं ही स्वामीके सम्मुख मृत्युको प्ताप्त होती है । कन्या , वृश्चिक , सिंह या वृष राशिमें चद्रमा हो तो स्त्री थोडी संततिवाली होती है । यदि शनि मध्यम बली तथा चन्द्रमा , शुक्र और बुध ये तीनों निर्बल हों तथा शेष ग्रह ( रवि , मङ्गल और गुरु ) सबल होकर विषम राशि - लग्नमें हों तो वह स्त्री कुरूपा होती है ॥३१५ - ३१७॥
गुरु , मङ्गल , शुक्र , बुध ये चारों बली होकर समराशि लग्नमें स्थित हों तो वह स्त्री अनेक शास्त्रोंको और ब्रह्मको जाननेवाली तथा लोकमें विख्यात होती है ॥३१८॥
जिस स्त्रीके जन्मलग्नसे सप्तममें पापग्रह हो और नवम भावमें कोई ग्रह हो तो स्त्री पूर्वकथित नवमस्थ ग्रहजनित प्रव्रज्याको प्राप्त होती है । इन ( कहे हुए ) विषयोंका विवाह , वरण या प्रश्नकालमें भी विचार करना चाहिये ॥३१९॥
( निर्याण ( मृत्यु ) विचार --- )  लग्नसे अष्टम भावको जो - जो ग्रह देखते हैं , उनमें जो बलवान्‌ हो उसके धातु ( कफ , पित्त या वात )- के प्रकोपसे जातक ( स्त्री - पुरुष )- का मरण होता है । अष्टम भावमें जो राशि हो , वह काल पुरुषके जिस अङ्ग ( मस्तकादि )- में पडती हो ; उस अङ्गमें गोर होनेसे जातककी मृत्यु होती है । बहुत ग्रहोंकी दृष्टि या योग हो तो उन - उन ग्रहोंसे सम्बन्ध रखनेवाले रोगोंसे मरण होता है । यथा अष्टममें सूर्य हों तो अग्निसे , चन्द्रमा हों तो जलसे ; मङ्गल हों तो शस्त्रघातसे , बुध हों तो ज्वरसे , गुरु हों तो अज्ञात रोगसे , शुक्र हों तो प्याससे और शनि हों तो भूखसे मरण होता है । तथा अष्टम भावमें चर राशि हो तो परदेशमें , स्थिर राशि हो तो स्वस्थानमें और द्विस्वभाव राशि हो तो मार्गमें मृत्यु होती है । सूर्य और मङ्गल यदि १० , ४ भावमें हों तो पर्वत आदि ऊँचे स्थानसे गिरकर मनुष्यकी मृत्यु होती है ॥३२० - ३२२॥
४ , ७ , १० भावोंमें यदि शनि , चन्द्र , मङ्गल हों तो कूपमें गिरकर मरण होता है । कन्या - राशिमें रवि और चन्द्रमा दोनों , हों उनपर पापग्रहकी दृष्टि हो तो अपने सम्बन्धीके द्वारा मरण होत है । यदि उभयोदय ( मीन ) लग्नमें चन्द्रमा और सूर्य दोनों हों तो जलमें मरण होता है । यदि मङ्गलकी राशिमें स्थित चन्द्रमा दो पापग्रहोंके बीचमें हो तो शस्त्र या अग्निसे मृत्यु होती है ॥३२३ - ३२४॥
मकरमें चन्द्रमा और कर्कमें शनि हों तो जलोदररोगसे मरण होता है । कन्याराशिमें स्थित चन्द्रमा दो पापग्रहोंके बीचमें हों तो रक्तशोषरोगसे मृत्यु होती है । यदि दो पापग्रहोंके बीचमें स्थित चन्द्रमा , शनिकी राशि ( मकर और कुम्भ )- में हों तो रज्जु ( रस्सी ), अग्नि अथवा ऊँचे स्थानसे गिरकर मृत्यु होती है । ५ , ९ भावोंमें पापग्रह हो और उनपर शुभग्रहकी दृष्टि न हो तो बन्धनसे मृत्यु होती है । अष्टम भावमें पाश , सर्प या निगड द्रेष्काण हो तो भी बन्धनसे ही मृत्यु होती है । पापग्रहके साथ बैठा हुआ चन्द्रमा यदि कन्याराशिमें होकर सप्तम भावमें स्थित हो तथा मेषमें शुक्र और लग्नमें सूर्य हो तो अपने घरमें स्त्रीके निमित्तसे मरण होता है । चतुर्थ भावमें मङ्गल या सूर्य हों , दशम भावमें शनि हो और लग्न , ५ , ९ भावोंमें पापग्रहसहित चन्द्रमा हो अथवा चतुर्थ भावमें सूर्य और दशममें मङ्गल रहकर क्षीण चन्द्रमासे दृष्ट हों तो इन योगोंमें काष्ठसे आहत होकर मनुष्यकी मृत्यु होती है । यदि ८ , १० , लग्न तथा ४ भावोंमें क्षीण चन्द्रमा , मङ्गल , शनि और सूर्य हों तो लाठीके प्रहारसे मृत्यु होती है । यदि वे ही ( क्षीण चन्द्रमा , मङ्गल , शनि तथा सूर्य ) १० , ९ लग्न और ५ भावोंमें हों तो मुद्नर आदिके आघातसे मृत्यु होती है । यदि ४ , ७ , १० भावोंमें क्रमश : मङ्गल , रवि और शनि हों तो शस्त्र , अग्नि तथा राजाके द्वारा मृत्यु होती है । यदि शनि , चन्द्रमा और मङ्गल - ये २ , ४ , १० भावोंमें हों तो कीडोंके क्षतसे शरीरका पतन ( मरण ) होता है । यदि दशम भावमें सूर्य और चतुर्थ भावमें मङ्गल हों तो सवारीपरसे गिरनेके कारण मृत्यु होती है । यदि क्षीण चन्द्रमाके साथ मङ्गल सप्तम भावमें हो तो यन्त्र ( मशीन )- के आघातसे मृत्यु होती है । यदि मङ्गल , शनि और चन्द्रमा - ये तुला , मेष तथा शनिकी राशि ( मकर - कुम्भ )- में हों अथवा क्षीण चन्द्रमा , सूर्य और मड्गल - ये १० , ७ , ४ भावोंमें स्थित हो तो विष्ठाके समीप मृत्यु होती है । क्षीण चन्द्रमापर मङ्गलकी दृष्टि हो और शनि सप्तम भावमें हो तो गुह्य ( बवासीर आदि )- रोग या कीडा , शस्त्र , अग्नि अथवा काष्ठके आघातसे मरण होता है । मङ्गलसहित सूर्य सप्तम भावमें , शनि अष्टममें और क्षीण चन्द्रमा चतुर्थ भावमें हों तो पक्षीद्वारा मरण होता है । यदि लग्न , ५ , ८ , ९ भावोंमें सूर्य , मङल , शानि और चन्द्रमा हों तो पर्वत - शिखरसे गिरनेके कारण अथवा वज्रपातसे या दीवार गिरनेसे मृत्यु होती है ॥३२५ - ३३५॥
लग्नसे २२ वाँ द्रेष्काण अर्थात्‌ अष्टम भावका द्रेष्काण जो हो , उसका स्वामी अथवा अष्टम भावका स्वामी - ये दोनों या इनमेंसे जो बली हो , वह अपने गुणोंसे ( पूर्वोक्त अग्निशस्त्रादिद्वारा ) मनुष्यके लिये मरणकारण होता है । लग्नमें जो नवमांश होता है , उसका स्वामी जो ग्रह हो उसके समान स्थान ( अर्थात्‌ वह जिस राशिमें हो उस राशिका जैसा स्थान ) बताया गया है , वैसे स्थान तथा उसपर जिस ग्रहका योग या दृष्टि हो उसके समान स्थानमें , परदेशमें मनुष्यका मरण होता है तथा लग्नके जितने अंश अनुदित ( भोग्य ) हों , उन अंशोंमें जितने समय हों , उतने समयतक मरणकालमें मोह होता है । यदि उसपर अपने स्वामीकी दृष्टि हो तो उससे द्विगुणित और शुभग्रहकी दृष्टि हो तो उससे त्रिगुणित समयपर्यन्त मोह होता है । इस विषयकी अन्य बातें अपनी बुद्धिसे विचारकर समझनी चाहिये ॥३३७ . १ / २॥
( शव - परिणाम --- ) अष्टम स्थानमें जिस प्रकारका द्रेष्काण हो उसके अनुसार देहधारीकी मृत्यु और उसकी शवके परिणामपर विचार करना चाहिये । यथा - अग्नि ( पापग्रह )- का द्रेष्काण हो तो मृत्युके बाद उसका शव जलाकर भस्म किया जाता है । जल ( सौम्य ) द्रेष्काण हो तो जलमें फेंका जानेपर वह वहीं गल जाता है । यदि सौम्य द्रेष्काण पापग्रहसे युक्त या पाप द्रेष्काण शुभग्रहसे युक्त हो तो मुर्दा न जलाया जाता है , न जलमें गलाया जाता है , अपितु सूर्यकिरण और हवासे सूख जाता है । यदि सर्प द्रेष्काण अष्टम भावमें हो तो उस मुर्देको गीदड और कौए आदि नोंचकर खाते हैं ॥३३८ . १ / २॥
( पूर्वजन्मस्थिति --- ) सूर्य और चन्द्रमामें जो अधिक बलवान्‌ हो , वह जिस द्रेष्काणमें स्थित हो उस द्रेष्काणके स्वामीके अनुसार पूर्वजन्मकी स्थिति समझी जाती है । यथा - उक्त द्रेष्काणका स्वामी गुरु हो तो जातक पूर्वजन्ममें देवलोकमें था । चन्द्रमा या शुक्र द्रेष्काणका स्वामी हो तो वह पितृलोकमें था । सूर्य या मङ्गल द्रेष्काणका स्वामी हो तो वह जातक पहले जन्ममें भी मर्त्यलोकमें ही था और शनि या बुध हो तो वह पहले नरकलोकमें रहा है - ऐसा समझना चाहिये । यदि उक्त द्रेष्काणका स्वामी अपने उच्चमें हो तो जातक पूर्वजन्ममें देवादि लोकमें श्रेष्ठ था । यदि उच्च और नीचके मध्यमें हो तो उस लोकमें उसकी मध्यम स्थिति थी और यदि अपने नीचमें हो तो वह उस लोकमें निम्नकोटिकी अवस्थामें था - ऐसा उच्च और नीच स्थानके तारतम्यसे समझना चाहिये ।
( गति - भावी जन्मकी स्थिति --- ) षष्ठ और अष्टम भावके द्रेष्काणोंके स्वामीमेंसे जो अधिक बली हो , मरनेके बाद जातक उसी ग्रहके ( पूर्वदर्शित ) लोकमेम जाता है तथा सप्तम स्थानमें स्थित ग्रह बली हो तो वह अपने लोकमें ले जाता है ।
( मोक्षयोग --- ) यदि बृहस्पति अपने उच्चमें होकर ६ , १ , ४ , ७ , ८ , १० अथवा १२ मेम शुभग्रहके नवमांशमें हो और अन्य ग्रह निर्बल हों तो मरण होनेपर मनुष्यका मोक्ष होता है । यह योग जन्म और मरण दोनों कालोंसे देखन चाहिये ॥३४१ . १ / २॥
( अज्ञात जन्म - समयको जाननेका प्रकार --- ) जिस व्यक्तिके आधान या जन्मका समय अज्ञात हो , उसके प्रश्र - लग्नसे जन्म - स्मय समझना चाहिये। प्रश्न - लग्नके पूर्वार्ध ( १५ अंशतक )- में उत्तरायण और उत्तरार्ध ( १५ अंशके बाद )- में दक्षिणायन जन्मका समय समझना चाहिये । त्र्यंश ( द्रेष्काण ) द्वारा क्रमश : लग्न , ५ , ९ राशिमें गुरु समझकर फिर प्रश्नकर्ताके वयस्‌के अनुसार वर्षमानकी कल्पना करनी चाहिये । लग्नमें सूर्य हो तो ग्रीष्मऋतु , अन्यत्या अन्य ग्रहोंके ऋतुका वर्णन पहले किया जा चुका है । अयन और ऋतुमें भिन्नता हो तो चन्द्रमा , बुध और गुरुकी ऋतुओंके स्थानमें क्रमसे शुक्र , मङ्गल , शनिकी ऋतु परिवर्तित करके समझना चाहिये तथा ऋतु सर्वथा सूर्यकी राशिसे ही ( सौरमाससे ही ) ग्रहण करनी चाहिये । इस प्रकार अयन और ऋतुके ज्ञान होनेपर लग्नके द्रेष्काणमें पूर्वार्ध हो तो ऋतुका प्रथम मास , उत्तरार्ध हो तो द्वितीय मास समझना चाहिये तथा द्रेष्काणके पूर्वार्ध या उत्तरार्धके भुक्तांशोंसे अनुपात द्वारा तिथि ( सूर्यके गत अंशादि ) का ज्ञान करना चाहिये ॥३४४ . १ / २॥
( दिन - रात्रि जन्म - ज्ञान --- ) प्रश्न लग्नमें दिनसंज्ञक , रात्रि - संज्ञक राशियाँ हों तो विलोमक्रमसे ( दिनसंज्ञक राशिमें रात्रि और रात्रिसंज्ञक राशिमें दिन ) जन्मका समय समझना चाहिये और लग्नके अंशादिसे अनुपात द्वारा इष्ट घटयादिको समझना चाहिये ।
( जन्म - लग्नज्ञान --- ) केवल जन्म - लग्न जाननेके लिये प्रश्नकर्ता प्रश्न करे तो लग्नसे , ( १ , ५ , ९में ) जो राशि बली हो , वही उसका जन्म - लग्न समझना चाहिये अथवा वह जिस अङ्गका स्पर्श करते हुए प्रश्न करे , उस अङ्गकी राशिको ही जम - लग्न कहना चाहिये ।
( जन्म - राशि - ज्ञान --- ) जन्म - राशि जाननेके लिये प्रश्न करे तो प्रश्न - लग्नसे जितने आगे चन्द्रमा हो , चन्द्रमासे उतने ही आगे जो राशि हो वह पूछनेवालेकी जन्मराशि समझनी चाहिये ॥३४५ - ३४६॥
( प्रकारान्तरसे अज्ञात जन्मकालादिका ज्ञान --- ) प्रश्रलग्नमें वृष या सिंह हो तो लग्नराश्यादिको कलात्मक बनाकर १० से गुणा करे । मिथुन या वृश्चिक हो तो ८ से , मेष या तुला हो तो ७ से , मकर या कन्या हो तो ५ से गुणा करे । शेष राशियों ( कर्क , धन , कुम्भ , मीन )- मेंसे कोई लग्न हो तो उसकी कलाको अपने संख्यासे ( जैसे कर्कको ४ से ) गुणा करे । यदि लग्नमें ग्रह हो तो फिर उसी गुणनफलको गुहगुणकोंसे भी गुणा करे । जैसे - बृहस्पति हो तो १० से , मङ्गल हो तो ८ से , शुक्र हो तो ७ से , बुध हो तो ५ से , अन्य ग्रह ( रवि , शनि और चन्द्रमा ) हो तो ५ से गुणा करे । इस प्रकार लग्नकी राशिके अनुसार गुणन तो निश्चित ही रहता है । यदि उसमें ग्रह हो तभी ग्रहका गुणन भी करना चाहिये । जितने ग्रह हों , सबके गुणकसे गुणा करना चाहिये इस प्रकार गुणनफलको ध्रुवपिण्ड मानकर उसको ७ से गुणाकर २७ के द्वारा भाग देकर १ आदि शेषके अनुसार अश्विनी आदि जन्म - नक्षत्र समझने चाहिये । इस प्रणालीमें विशेषता यह है कि उक्त रीतिसे आयी हुई संख्यामेम कभी ९ जोडकर और कभी ९ घटाकर नक्षत्र लिया जाता है । तथा उक्त ध्रुवपिण्डको १० से गुणा करके गुणनफलसे वर्ष , ऋतु और मास समझे । पक्ष और तिथि जाननी हो तो ध्रुवपिण्डको ८ से गुणा करके २ से भाग देकर एक शेष हो तो शुक्लपक्ष और दो शेष हो तो कृष्णपक्ष समझे। इसमें भी ९ जोड या घटाकर ग्रहण करना चाहिये। अर्थात्‌ गुणनफलमें ९ जोड या ९ घटाकर भाग देना चाहिये । इसी प्रकार पक्षज्ञान होनेपर गुणनफलमें ही १५ से भाग देकर शेषके अनुसार प्रतिपदा आदि तिथि समझे तथा अहोरात्र जानना हो तो ध्रुवपिण्डको ७ से गुणा करके दोसे भाग देकर एक शेष हो तो दिन और दो शेष हो तो रात्रि समझे। लग्न - नवांश , इष्ट - घडी तथा होरा जानना हो तो ध्रुवपिण्डको ५ से गुणा करके अपने - अपने विकल्पसे ( अर्थात्‌ लग्न जाननेके लिये १२ से , इष्ट घडी जाननेके लिये ६० से ( अथवा दिन या रात्रिका ज्ञान होनेपर दिनमान या रात्रिमान - घटीसे ), नवमांशके लिये ९ से तथा होराके लिये २ से भाग देकर सेषद्वारा सबका ज्ञान करना चाहिये । इस प्रकार जिनके जन्म - समय आदिका ज्ञान न हो उनके लिये इन सब बातोंका विचार करना चाहिये ॥३४७ - ३५०॥
( द्रेष्काणका स्वरूप --- ) हाथमें फरसा लिये हुए काले रंगका पुरुष , जिसकी आँखें लाल हों और जो सब जीवोंकी रक्षा करनेमें समर्थ हो , मेषके प्रथम द्रेष्काणका स्वरूप है । प्याससे पीडित एक पैरसे चलनेवाला , घोडेके समान मुख , लाल वस्त्रधरी और घडेके समान आकार - यह मेषके द्वितीय द्रेष्काणका स्वरूप है । कपिलवर्ण , क्रूरदृष्टि , क्रूरस्वभाव , लाल वस्त्रधारी और अपनी प्रतिज्ञा भङ्ग करनेवाला - यह मेषके तृतीय द्रेष्काणका स्वरूप है । भूख और प्याससे पीडित , कटे - छँटे घुँघराले केश तथा दूधके समान धवल वस्त्र - यह वृषके प्रथम द्रेष्काणका स्वरूप है । मलिनशरीर , भूखसे पीडित , बकरेके समान मुख और कृषि आदि कार्योंमें कुशल - यह वृषके दूसरे द्रेष्काणका रूप है । हाथीके समान विशालकाय , शरभ के समान पैर , पिङ्गल वर्ण और व्याकुल चित्त - यह वृषके तीसरे द्रेष्काणका स्वरूप है । सूईसे सीने - पिरोनेका काम करनेवाली , रूपवती , सुशीला तथा संतानहीना नारी , जिसने हाथको ऊपर उठा रखा है , मिथुनका प्रथम द्रेष्काण है । कवच और धनुष धारण किये हुए उपवनमें क्रीडा करनेकी इच्छासे उपस्थित गरुडसदृश मुखवाला पुरुष मिथुनका दूसरा द्रेष्काण है । नृत्य आदिकी कलामें प्रवीण , वरुणके समान रत्नोंके अनन्त भण्डारसे भरा - पूरा , धनुर्धर वीर पुरुष मिथुनका तीसरा द्रेष्काण है । गणेशजीके समान कण्ठ , शूकरके सदृश मुख , शरभके - से पैर और वनमें रहनेवाला - यह कर्कके प्रथम द्रेष्काणका रूप है । सिरपर सर्प धारण किये , पलाशकी शाखा पकडकर रोती हुई कर्कशा स्त्री - यह कर्कके दूसरे द्रेष्काणका स्वरूप है । चिपटा मुख , सर्पसे वेष्टित , स्त्रीकी खोजमें नौकापर बैठकर जलमें यात्रा करनेवाला पुरुष - यह कर्कके तीसरे द्रेष्काणका रूप है ॥३५१ - ३५६॥ सेमलके वृक्षके नीचे गीदड और गीधको लेकर रोता हुआ कुत्ते - जैसा मनुष्य - यह सिंहके प्रथम द्रेष्काणका स्वरूप है । धनुष और कृष्ण म्रुघचर्म धारण किये , सिंह - सदृश पराक्रमी तथा घोडेके समान आकृतिवाला मनुष्य - यह सिंहके दूसरे द्रेष्काणका स्वरूप है । फल और भोज्यपदार्थ रखनेवाला , लंबी दाढीसे सुशोभित , भालू - जैसा मुख और वानरोंके - से चपल स्वभाववाला मनुष्य - सिंहके तृतीय द्रेष्काणका रूप है । फूलसे भरे कलशवाली , विद्याभिलाषिणी , मलिन वस्त्रधारिणी कुमारी कन्या - यह कन्या राशिके प्रथम द्रेष्काणका स्वरूप है । हाथमें धनुष , आय - व्ययका हिसाब रखनेवाला , श्याम - वर्ण शरीर , लेखनकार्यमें चतुर तथा रोएँसे भरा मनुष्य - यह कन्या राशिके दूसरे द्रेष्काणका स्वरूप है । गोरे अङ्गोपर धुले हुए स्वच्छ वस्त्र , ऊँचा कद , हाथमें कलश लेकर देवमन्दिरकी ओर जाती हुई स्त्री - यह कन्या राशिके तीसरे द्रेष्काणका परिचय है ॥३५७ - ३५९॥
हाथमें तराजू और बटखरे लिये बाजारमें वस्तुएँ तौलनेवाला तथा बर्तन - भाँडोंकी कीमत कूतनेवाला पुरुष तुलाराशिका प्रथम द्रेष्काण है । हाथमें कलश लिये भूख - प्याससे व्याकुल तथा गीधके समान मुखवाला पुरुष , जो स्त्री - पुत्रके साथ विचरता है , तुलाका दूसरा द्रेष्काण है । हाथमें धनुष लिये हरिनका पीछा करनेवाला , किन्नरके समान चेष्टवाला , सुवर्णकवचधारी पुरुष तुलाका तृतीय द्रेष्काण है । एक नारी , जिसके पैर नाना प्रकारके सर्प लिपटे होनेसे श्वेत दिखायी देते हैं , समुद्रसे किनारेकी ओर जा रही है , यही वृश्चिकके प्रथम द्रेष्टकाणका रूप है । जिसके सब अङ्ग सर्पोंसे ढके हैं और आकृति कछुएके समान है तथा जो स्वामीके लिये सुखकी इच्छा करनेवाली है ; ऐसी स्त्री वृश्चिकका दूसरा द्रेष्काण है । मलयगिरिका निवासी सिंह , मुखाकृति कछुए - जैसी है , कुत्ते , शूकर और हरिन आदिको डरा रहा है , वही वृश्चिकका तीसरा द्रेष्काण है ॥३६० - ३६२॥ मनुष्यके समान मुख , घोडे - जैसा शरीर , हाथमें धनुष लेकर तपस्वी और यज्ञोंकी रक्षा करनेवाला पुरुष धनुराशिका द्रेष्काण है । चम्पापुरुषके समान कान्तिवाली , आसनपर बैठी हुई , समुद्रके रत्नोंको बढानेवाली , मझोले कदकी स्त्री धनुका दूसरा द्रेष्काण है । दाढी - मूँछ बढाये आसनपर बैठा हुआ , चम्पापुष्पके सदृश कान्तिमान्‌ , दण्ड , पट्ट - वस्त्र और मृगचर्म धारण करनेवाला पुरुष धनुका तीसरा द्रेष्काण है । मगरके समान दाँत , रोएँसे भरा शरीर तथा सूअर - जैसी आकृतिवाला पुरुष मकरका प्रथम द्रेष्काण है । कमलदलके समान नेत्रोंवाली , आभूषण - प्रिया श्यामा स्त्री मकरका दूसरा द्रेष्काण है । हाथमें धनुष , कम्बल , कलश और कवच धारण करनेवाला किन्नरके समान पुरुष मकरका तीसरा द्रेष्काण है ॥३६३ - ३६६॥ गीधके समान मुख , तेल , घी और मधु पीनेकी इच्छावाला , कम्बलधारी पुरुष कुम्भका प्रथम द्रेष्काण है। हाथमें लोहा , शरीरमें आभूषण तथा मस्तकपर भाँड ( बर्तन ) लिये मलिन वस्त्र पहनकर जली गाडीपर बैठी हुई स्त्री कुम्भका दूसरा द्रेष्काण है । कानमें बडे - बडे रोम शरीरमेम श्याम कान्ति , मस्तकपर किरीट तथा हाथमें फल - पत्र धारण करनेवाला बर्तनका व्यापारी कुम्भका तीसरा द्रेष्काण है । भूषण बनानेके लिये नाना प्रकारके रत्नोंको हाथमें लेकर समुद्रमें नौकापर बैठा हुआ पुरुष मीनका प्रथम द्रेष्काण है । जिसके मुखकी कान्ति चम्पाके पुष्पके सदृश मनोहर है , वह अपने परिवारके साथ नौकापर बैठकर समुद्रके बीचसे तटकी ओर आती हुई स्त्री मीनका दूसरा द्रेष्काण है। गङेढके समीप तथा चोर और अग्निसे पीडित होकर रोता हुआ , सर्पसे वेष्टित , नग्न शरीरवाला पुरुष मीन राशिका तीसर द्रेष्काण है । इस प्रकार मेषादि बारहों राशिक तीसरा द्रेष्काण है । इस प्रकार मेषादि बारहों राशियोंमें होनेवाले छत्तीस द्रेष्काणांशके रूप क्रमसे बताये गये हैं । मुनिश्रेष्ठ नारद ! यह संक्षेपमें जातक नामक स्कन्ध कहा गया है। अब लोक - व्यवहारके लिये उपयोगी संहितास्कन्धका वर्णन सुनो - ॥३६७ - ३७०॥ ( पूर्वभाग द्वितीय पाद अध्याय ५५ )