वामन पुराण Vaman Puran

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


श्रीवामनपुराण - अध्याय १३


 
सुकेशिने कहा - आदरणीय ऋषियो ! आप लोगोंने पुष्करद्वीपके भयंकर अवस्थानका वर्णन किया, अब आप लोग ( कृपाकर ) जम्बूदीपकी स्थितिका वर्णन करें ॥१॥ 
ऋषियोंने कहा - राक्षसेश्वर । ( अब ) तुम हम लोगोंसे जम्बूद्वीपकी स्थितिका वर्णन सुनो । यह द्वीप अत्यन्त विशाल है और नव भागोंमें विभक्त है । यह स्वर्ग एवं मोक्ष - फलको देनेवाला है । जम्बूद्वीपके बीचमें इलावृतवर्ष, पूर्वमें अद्भुत भद्राश्ववर्ष तथा पूर्वोत्तरमें हिरण्यकवर्ष है । पूर्व - दक्षिणमें किन्नरवर्ष, दक्षिणमें भारतवर्ष तथा दक्षिण - पश्चिममें हरिवर्ष बताया गया है । इसके पश्चिममें केतुमालवर्ष, पश्चिमोत्तरमें रम्यकवर्ष और उत्तरमें कल्पवृक्षसे समादृत कुरुवर्ष है ॥२ - ५॥
सुकेशि ! ये नव पवित्र और रमणीय वर्ष हैं । भारतवर्षके अतिरिक्त इलावृतादि आठ वर्षोंमें बिना प्रयत्नके स्वभावतः बड़ी - बड़ी सिद्धियाँ मिलती हैं । उनमें उतम, मध्यम, अधम आदिका किसी प्रकारका कोई भेद नहीं है । निशाचर ! इस भारतवर्षके भी नव उपद्वीप हैं । ये सभी द्वीप समुद्रोंसे घिरे हैं और परस्पर अगम्य हैं । भारतवर्षके नव उपद्वीपोंके नाम इस प्रकार हैं - इन्द्रद्वीप, कसेरुमान्, ताम्रवर्ण, गभास्तिमान् , नागद्वीप, कटाह, सिंहल और वारुण । नवाँ मुख्य यह कुमारद्वीप भारत - सागरसे लगा हुआ दक्षिणसे उत्तरकी ओर फैला है ॥६ -१०॥ 
वीर ! भारतवर्षके पूर्वकी सीमापर किरात, पश्चिममें यवन, दक्षिणमें आन्ध्र तथा उत्तरमें तुरुष्कलोग निवास करते हैं । इसके बीचमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रलोग रहते हैं । यज्ञ, युद्ध एवं वाणिज्य आदि कर्मोंके द्वारा वे सभी पवित्र हो गये हैं । उनका व्यवहार, स्वर्ग और अपवर्ग ( मोक्ष ) - की प्राप्ति तथा पाप एवं पुण्य इन्हीं ( यज्ञादि ) कर्मोंद्वारा होते हैं । इस वर्षमें महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, ऋक्ष, विन्ध्य एवं पारियात्र नामवाले सात मुख्य कुल पर्वत हैं ॥११ - १४॥ 
इसके मध्यमें अन्य लाखों पर्वत हैं जो अत्यन्त विस्तृत, उत्तुङ्ग ( ऊँचे ) रम्य एवं सुन्दर शिखरोंसे सुशोभित हैं । यहाँ कोलाहल, वैभ्राज, मन्दागिरि, दर्दुर, वातंधम, वैद्युत, मैनाक, सरस, तुङ्गप्रस्थ, नागगिरि, गोवर्ध न, उज्जयन्त ( गिरिनार ), पुष्पगिरि, अर्बुद ( आबू ), रैवत, ऋष्यमूक, गोमन्त ( गोवाका पर्वत ), चित्रकूट, कृतस्मर, श्रीपर्वत, कोङ्कण तथा अन्य सैकड़ों पर्वत भी विराज रहे हैं ॥१५ - १८॥ 
उनसे संयुक्त आर्यों और म्लेच्छोंके विभागोंके अनुसार जनपद हैं । यहाँके निवासी जिन उत्तम नदियोंके जल पीते हैं उनका वर्णन भलीभाँति सुनो । पाँच रुपकी सरस्वती, यमुना, हिरण्वती, सतलज, चन्द्रिका, नीला, वितस्ता, ऐरावती, कुहू, मधुरा, देविका, उशीरा, धातकी, रसा, गोमती, धूतपापा, बाहुदा, दृषद्वती, निश्चीरा, गण्डकी, चित्रा, कौशिकी, वसूधरा, सरयू तथा लौहित्या - ये नदियाँ हिमालयकी तलहटीसे निकली हैं ॥१९ - २२॥ 
वेदस्मृति, वेदवती, वृत्रघ्नी, सिन्धु, पर्णाशा, नन्दिनी, पावनी, मही, पारा, चर्मण्वती, लूपी, विदिशा, वेणुमती, सिप्रा तथा अवन्ती - ये नदियाँ पारियात्रपर्वतसे निकली हुई हैं । महानद, शोण, नर्मदा, सुरसा, कृपा, मन्दाकिनी, दशार्णा, चित्रकूटा, अपवाहिका, चित्रोत्पला, तमसा, करमोदा, पिशाचिका, पिप्पलश्रोणी, विपाशा, वञ्जुलावती, सत्सन्तजा, शुक्तिमती, मञ्जिष्ठा, कृत्तिमा, वसु और बालुवाहिनी - ये नदियाँ तथा दूसरी जो बालुका बहानेवाली हैं, ऋक्षपर्वतकी तलहटीसे निकली हुई हैं ॥२३ - २७॥ 
शिवा, पयोष्णी ( पैनगंगा ), निर्विन्ध्या ( कालीसिंध ), तापी, निषधावती, वेणा, वैतरणी, सिनीबाहु, कुमुद्वती, तोया, महागौरी, दुर्गन्धा तथा वाशिला - ये पवित्र जलवाली कल्याणकारिणी नदियाँ विन्ध्यपर्वतसे निकली हुई हैं । गोदावरी, भीमरथी, कृष्णा, वेणा, सरस्वती, तुङ्गभद्रा, सुप्रयोगा, बाह्या, कावेरी, दुग्धोदा, नलिनी, रेवा ( नर्मदा ), वारिसेना तथा कलस्वना - ये महानदियाँ सह्यपर्वतके पाद ( नीचे ) - से निकलती हैं ॥२८ - ३१॥
कृतमाला, ताम्रपर्णी, वञ्जुला, उत्पलावती, सिनी तथा सुदामा - ये नदियाँ शुक्तिमान् पर्वतसे निकली हुई हैं । ये सभी नदियाँ पवित्र, पापोंका प्रशमन करनेवाली, जगतकी माताएँ तथा सागरकी पत्नियाँ हैं । राक्षस ! इनके अतिरिक्त भारतमें अन्य हजारों छोटी नदियाँ भी बहती हैं । इनमें कुछ तो सदैव प्रवाहित होनेवाली हैं । उत्तर एवं मध्यके देशोंके निवासी इन पवित्र नदियोंके जलको स्वेच्छाया पान करते हैं । मत्स्य, कुशट्ट, कुणि, कुण्डल, पाञ्चाल, काशी, कोसल, वृक, शबर, कौवीर, भूलिङ्ग, शक तथा मशक जातियोंके मनुष्य मध्यदेशमें रहते हैं ॥३२ - ३६॥
वाह्लीक, वाटधान, आभीर, कालतोयक, अपरान्त, शूद्र, पह्लव, खेटक, गान्धार, यवन, सिन्धु, सौवीर, मद्रक, शातद्रव, ललित्थ, पारावत, मूषक, माठर, उदकधार, कैकेय, दशम, क्षत्रिय, प्रातिवैश्य तथा वैश्य एवं शूद्रोंके कुल, काम्बोज, दरद, बर्बर, अङ्गलौकिक, चीन, तुषार, बहुधा, बाह्यतोदर, आत्रेय भरद्वाज, प्रस्थल, दशेरक, लम्पक, तावक, राम, शूलिक, तङ्गण, औरस, अलिभद्र, किरातोंकी जातियाँ, तामस क्रममास, सुपार्श्व, पुण्ड्रक, कुलूत, कुहुक, ऊर्ण, तूणीपाद, कुक्कुट, माण्डव्य एवं मालवीय - ये जातियाँ उत्तर भारतमें निवास करती हैं ॥३७ - ४३॥
अङ्ग ( भागलपुर ), वंग एवं मुद्गरव ( मुंगेर ), अन्तर्गिरि, बहिर्गिर, प्रवङ्ग, वाङ्गेय, मांसाद, बलदन्तिक, ब्रह्मोत्तर, प्राविज्य, भार्गव, केशबर्बर, प्राग्ज्योतिषा, शूद्र, विदेह, ताम्रलिप्तक, माला, मगध एवं गोनन्द - ये पूर्वके जनपद हैं । हे राक्षस ! शालकटंकट ! पुण्ड्र, केरल, चौड, कुल्य, जातुष, मूषिकाद, कुमाराद, महाशक, महाराष्ट्र, माहिषिक, कालिङ्ग ( उड़ीसा ), आभीर, नैषीक, आरण्य, शबर, बलिन्ध्य, विन्ध्यमौलेय, वैदर्भ, दण्डक, पौरिक, सौशिक, अश्मक, भोगवर्द्धन, वैपिक, कुन्दल, अन्ध्र, उद्भिद एवं नलकारक - ये दक्षिणके जनपद हैं ॥४४ - ४९॥ 
सुकेशि ! शूपांरक ( बम्बईका क्षेत्र ), कारिवन, दुर्ग, तालीकट, पुलीय, ससिनील, तापस, तामस, कारस्कर, रमी, नासिक्य, अन्तर, नर्मद, भारकच्छ, माहेय, सारस्वत, वात्सेय, सुराष्ट्र, आवन्त्य एवं अर्बुद ये पश्चिम दिशामें स्थित जनपदोंके निवासी हैं । कारुप, एकलव्य, मेकल, उत्कल, उत्तमर्ण, दशार्ण, भोज, किंकवर, तोशल, कोशल, त्रैपुर, ऐल्लिक, तुरुस, तुम्बर, वहन, नैषध, अनूप, तुण्डिकेर, वीतहोत्र एवं अवन्ती - ये सभी जनपद विन्ध्याचलके मूलमें ( उपत्यका - तराईंमें ) स्थित हैं ॥५० - ५५॥ 
अच्छा, अब हम पर्वताश्रित प्रदेशोंके नामोंका वर्णन करेंगे । उनके नाम इस प्रकार हैं - निराहार, हंसमार्ग, कुपथ, तंगण, खश, कुथप्रावरण, ऊर्ण, पुण्य, हुहुक, त्रिगर्त, किरात, तोमर एवं शिशिरादिक । निशाचर ! तुमसे कुमारद्वीपके इन देशोंका विस्तारस्से हम लोगोंने वर्णन किया । अब हम इन देशोंमें वर्तमान देश - धर्मका पदर्थांतः वर्णन करेंगे उसे सुनो ॥५६ - ५८॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तेरहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१३॥