वामन पुराण Vaman Puran

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


श्रीवामनपुराण - अध्याय २७


 लोमहर्षणने कहा - इस प्रकार ब्रह्मज्ञानी द्विजश्रेष्ठ कश्यपने विष्णुकी उत्तम स्तुति की; उसे सुनकर प्रसन्न होकर सामर्थ्यशाली एवं ऐश्वर्यसम्पन्न नारायणने अत्यन्त संतुष्ट होकर प्रसन्न मनसे सुसंस्कृत शब्दों एवं अक्षरोंवाला समयानुकूल उचित वचन कहा - श्रेष्ठ देवताओ ! वर माँगो । तुम सबका कल्याण हो; मैं तुम लोगोंको ( इच्छित ) वर दूँगा । 
कश्यपने कहा - सुरश्रेष्ठ ! यदि आप हम सबपर प्रसन्न हैं तो हम सभीका यह निश्चय है कि श्रीमान् भगवान् आप स्वयं इन्द्रके छोटे भाईके रुपमें अदितिके कुटुम्बियोंके आनन्द बढ़ानेवाले पुत्र बनें । वरकी याचना करनेवाली देवमाता अदितिने भी वरदानी भगवानसे पुत्रकी प्राप्तिके लिये अपने इस उत्तम अभिप्रायको प्रकट किया - कहा ॥१ - ५॥
[ अदितिके अभिप्रायको जानकर ] देवताओंने कहा - महेश्वर ! सभी देवताओंके परम कल्याणके लिये आप हम सबकी सदा रक्षा करनेवाले, पालनपोषण करनेवाले, दान देनेवाले एवं आश्रय बनें । इसके बाद भगवान् विष्णुने उन देवताओंसे तथा कश्यपसे कहा कि आप सभीके जितने भी शत्रु होंगे वे सभी मेरे सम्मुख क्षणमात्र भी नहीं टिक सकेंगे । देवश्रेष्ठो ! परमेष्ठी ( ब्रह्मा ) - के द्वारा विधान किये गये कर्मोंके द्वारा मैं समस्त असुरोंको मारकर देवताओंको यज्ञभागके सर्वप्रथम भाग ग्रहण करनेवाले अधिकारी एवं हव्यभोक्ता और पितरोंको कव्यभोक्ता बनाऊँगा । सुरोत्तमो ! अब आपलोग जिस मार्गसे आये हैं, फिर उसी मार्गसे वापस लौट जायँ ॥६ - ९॥
लोमहर्षणने कहा - प्रभावशाली भगवान् विष्णुने जब ऐसा कहा तब महात्मा देवगण, कश्यप एवं अदितिने प्रसन्नचित्तसे उन प्रभुका पूजन किया एवं देवेश्वरको नमस्कार करनेके बाद पूर्व दिशामें स्थित कश्यपके विस्तृत आश्रमकी ओर शीघ्रतासे चल पड़े । जब देवगण कुरुक्षेत्र - वनमें स्थित महान् आश्रममें पहुँचे तब लोगोंने अदितिको प्रसन्नकर उसे तपस्या करनेके लिये प्रेरित किया । ( फीर ) उसने दस हजार वर्षोंतक वहाँ कठिन तपस्या की ॥१० - १३॥ 
श्रेष्ठ ऋषियो ! ( जिस वनमें अदितिने तप किया ) उस दिव्य वनका नाम उसके नामपर अदितिवन पड़ा । वह समस्त कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला एवं मङ्गलकारी है । ऋषिश्रेष्ठो ! परम अर्थको जाननेवाली ( तत्त्वज्ञा ) अदितिने अपने पुत्रोंको दैत्योंके द्वारा अपमानित देखा; उसने सोचा कि तब मेरा पुत्रका जनना ही व्यर्थ हैं; इसलिये अपनी वाणीको संयतकर ; हवा पीकर नम्रतापूर्वक शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले, भक्तजनप्रिय, देवताओं और दैत्योंके मूर्तिस्वरुप, आदि - मध्य और अन्तके रुपमें रहनेवाले भगवान् श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये उनकी सत्य एवं मधुर वाणियोंसे उत्तम स्तुति करना प्रारम्भ कर दिया ॥१४ - १६॥
अदिति बोलीं - कृत्यासे उत्पन्न दुःखका नाश करनेवाले प्रभुको नमस्कार है । कमलकी मालाको धारण करनेवाले पुष्करमाली भगवानको नमस्कार है । परम मङ्गलकारी, कल्याणस्वरुप आदिविधाता प्रभो ! आपको नमस्कार है । कमलनयन ! आपको नमस्कार है । पद्मनाभ ! आपको नमस्कार है । ब्रह्माकी उत्पत्तिके स्थान, आत्मजन्मा ! आपको नमस्कार है । प्रभो ! आप लक्ष्मीपति, इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, संयमियोंके द्वारा दर्शन पाने योग्य, हाथमें सुदर्शन चक्र धारण करते हैं; आपको नमस्कार है । स्वामिन् ! आत्मज्ञानके द्वारा यज्ञ करनेवाले, योगियोंके द्वारा ध्यान करने योग्य, योगकी साधना करनेवाले योगी, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणसे रहित किंतु ( दयादि ) विशिष्ट गुणोंसे युक्त ब्रह्मरु पी श्रीहरि भगवानको नमस्कार है ॥१७ - २०॥
जिन आप परमेश्वरमें सारा संसार स्थित है, किंतु जो संसारसे दृश्य नहीं है, ऐसे स्थूल तथा अतिसूक्ष्म आप शार्ङ्गधारी देवको नमस्कार है । सम्पूर्ण जगतकी अपेक्षा करनेवाले प्राणी जिन आपके दर्शनसे वञ्जित रहते हैं, आपका वे दर्शन नहीं कर पाते, परंतु जिन्होंने जगतकी अपेक्षा नहीं कि, उन्हें आप उनके हदयमें स्थित दीखते हैं । आपकी ज्योति बाहर है एवं अलक्ष्य है, सर्वोत्तम ज्योति है; यह सारा जगत् आपमें स्थित है, आपसे उत्पन्न होता है और आपका ही है, जगतके देवता उन आपको नमस्कार है । जो अप सबके आदिमें प्रजापति रहे हैं एवं पितरोंके श्रेष्ठ स्वमी हैं, देवताओंके स्वामी हैं ; उन आप श्रीकृष्णको बार - बार नमस्कार है ॥२१ - २४॥
जो प्रवृत्त एवं निवृत्त कर्मोंसे विरक्त तथा स्वर्ग और मोक्षके फलके देनेवाले हैं, उन गदा धारण करनेवाले भगवानको नमस्कार है । जो स्मरण करनेवालेके सारे पाप नष्ट कर देते हैं; उन विशुद्ध हरिमेधाको मेरा नमस्कार है । जो प्राणी अविनाशी भगवानको अखिलाधार, ईशान एवं अजके रुपमें देखतें हैं, वे कभी भी जन्म - मरणको नहीं प्राप्त होते । प्रभो ! मैं आपको प्रणाम करती हूँ । आपकी आराधना यज्ञोमद्वारा होती है, आप यज्ञकी मूर्ति हैं, यज्ञमें आपकी स्थिति है; यज्ञपुरुष ! आप ईश्वर, प्रभु विष्णुको मैं नमस्कार करती हूँ ॥२५ - २८॥ 
वेदोंमें आपका गुणगान हुआ है - इसे वेदज्ञ गाते हैं । आप विद्वज्जनोंके आश्रय हैं, वेदोंसे जानने योग्य एवं नित्यस्वरुप हैं; आप विष्णुको मेरा नमस्कर है । विश्व जिनसे समुद्धूत हुआ है और जिनमें विलीन होगा तथा जो विश्वके उद्भव एवं प्रतिष्ठाके स्वरुप हैं, उन महान आत्मा ( परमात्मा ) - को मेरा नमस्कार है । जिनके द्वारा मायाजालसे बँधा हुआ ब्रह्मासे लेकर चराचर ( विश्व ) व्याप्त है, उन उपेन्द्र भगवानको मैं नमस्कार करती हूँ । जो ईश्वर जलस्वरुपमें स्थित होकर अखिल विश्वका भरण करते हैं, उन विश्वपति एवं प्रजापति विष्णुको मैं नमस्कार करती हूँ ॥२९ - ३२॥ 
जो सूर्यरुपी उपेन्द्र असुरमय रात्रिसे उत्पन्न, रुपधारी तमका विनाश करते हैं, मैं उनको प्रणाम करती हूँ । जिनकी सूर्य तथा चन्दमा - रुप दोनों आँखें समस्त लोकोंके शुभाशुभ कर्मोंको सतत देखती रहती हैं, उन उपेन्द्रको मैं नमस्कार करती हूँ । जिन सर्वेश्वरके विषयमें मेरा यह समस्त उद्गार सत्य है - असत्य नहीं है, उन अजन्मा, अव्यय एवं स्त्रष्टा विष्णुको मैं नमस्कार करती हूँ । हे जनार्दन ! यदि मैंने यह सत्य कहा है तो उस सत्यके प्रभावसे मेरे मनकी सारी अभिलाषाएँ परिपूर्ण हों ॥३३ - ३६॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें सत्ताईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥२७॥