लोमहर्षण बोले - बलिने वनों और पर्वतोंके साथ सम्पूर्न पृथ्वीको क्षोभसे भरी देखकर हाथ जोड़ करके शुक्राचार्यको प्रणाम कर पूछा - आचार्यदेव ! समुद्र तथा पर्वतोंके साथ पृथ्वीके क्षुब्ध होनेका क्या कारण है और अग्निदेव असुरोंके भागोंको क्यों नहीं ग्रहण कर रहे हैं ? बलिने इस प्रकार प्रश्न करनेपर वेदज्ञोंमें श्रेष्ठ बुद्धिमान् शुक्राचार्यने चिरकालतक ध्यान लगाकर ( और तथ्य समझकर ) दैत्येन्द्रसे कहा - कश्यपके घरमें जगदयोनि - संसारको उत्पन्न करनेवाले सनातन परमात्मा वामनके रुपमें अवतीर्ण हो गये हैं ॥१ - ४॥
दानवश्रेष्ठ ! वे ही प्रभु तुम्हारे यज्ञमें आ रहे हैं । उन्हींके पैर रखनेसे पृथ्वीमें विक्षोभ हो रहा है जिससे यह पृथ्वी काँप रही है, ये पर्वत भी काँप रहे हैं और सिन्धुमें जोरोंकी लहरें उठ रही हैं । इस भूमिमें उन भूतपति भगवानको वहन करनेकी शक्ति नहीं है । ये ही ( परमात्मा ) देव, असुर, गन्धर्व - देवों, मनुष्यों एवं महासुरोंको धारण करते हैं । जगतको धारण करनेवाले भगवान कृष्णकी ही यह गम्भीर ( अचिन्त्य ) माया है, जिस मायाके द्वारा यह संसार धार्यधारकभावसे क्षुब्ध हो रहा है ॥५ - ८॥
उनके सन्निधान होनेके कारण देवताओंके शत्रु दैत्यलोग यज्ञ - भाग पानेके योग्य नहीं रह गये हैं, अतएव तीनों अग्निदेव भी असुरोंके भागको नहीं ले रहे हैं । शुक्राचार्यकी बात सुननेके बाद बलिके रोंगटे खड़े हो गये । उसके बाद बलिने ( शुक्राचार्यसे ) कहा - ब्रह्मन् ! मैं धन्य एवं कृतकृत्य हो गया, जो स्वयं यज्ञके अधिपति भगवान् लगातार मेरे यज्ञमें पधार रहे हैं । कौन दूसरा पुरुष मुझसे श्रेष्ठ है ? सदैव सावधान रहनेवाले योगीलोग जिन नित्य परमात्माको देखना चाहते हैं, वे ही देव मेरे यज्ञमें ( कृपाकर ) पधार रहे हैं । आचार्य ! मुझे जो करना चाहिये, उसे आप आदिष्ट कीजि९ये ॥९ - ११॥
शुक्राचार्य बोले - असुर ! वेदोंका विधान है कि यज्ञभागके भोक्ता देवता है । परंतु दैत्य ! तुमने यज्ञभागका भोक्ता दानवोंको बना दिया है । ( यह वेद - विधानके विपरीत किया है - विधानका उल्लङ्घन किया है । ) ये ही देव सत्त्वगुणका आश्रय लेकर विश्वकी स्थिति और पालन करते हैं और ये ही सृष्टि भी करते हैं, फिर ये ही प्रभु स्वयं प्रजाका ( जीवोंका ) अन्त भी करते हैं । विष्णु स्थितिके कार्यमें ( कल्याणमय मर्यादाके स्थापनमें ) तत्पर हो गये हैं । अतः आपको निश्चय ही बन्दी होना है । महाभाग ! इसपर विचारकर तुम्हारे मनमें जैसी इच्छा हो वैसा करो । दैत्यपते ! ( देखना ) तुम थोड़ीसी भी वस्तु देनेके लिये उनसे प्रतिज्ञा मत करना । व्यर्थकी कोमल और मधुर बातें करना । महासुर ! कृतकृत्य एवं देवताओंका कार्य पूरा करनेवाले यथा देवताओंके ऐश्वर्यके लिये प्रयत्नशील भगवान् श्रीकृष्णके याचना करनेपर ' मैं देवताओंके हेतु पर्याप्त धन दूँगा ' ऐसा कहना ॥१२ - १६॥
बलि बोले - ब्रह्मन् ! मैं दूसरोंके याचना करनेपर भी ' नहीं है ' - ऐसा कैसे कह सकता हूँ ? फिर संसारके पापोंको दूर करनेवाले ( उन ) देवसे कहनेकी तो बात ही क्या है ? विविध प्रकारके व्रतों एवं उपवासोंसे जो परमेश्वर ग्रहण किये जाने योग्य हैं, वे ही गोविन्द मुझसे ' दो ' इस प्रकार कहेंगे तो इससे बढ़कर ( मेरे लिये ) और ( भाग्य ) क्या हो सकता है ? जिनके लिये दम - शमादि शौच - भीतरी - बाहरी पवित्रता आदि गुणोंसे युक्त लोग यज्ञीय उपकरणों एवं सम्पत्तियोंको लगाकर यज्ञ करते हैं, वे ही यज्ञेश ( यज्ञके स्वामी ) यदि मुझसे ' दो ' इस प्रकार कहेंगे तो मेरे किये हुए सभी कर्म सफल हो गये और हमारा तपश्चरण भी सफल हो गये और हमारा तपश्चरण भी सफल हो गया; क्योंकि विश्वके स्वामी स्वयं मुझसे ' दो ' - इस तरह कहेंगे ॥१७ - २०॥
गुरुदेव ! क्या अपने यहाँ ( याचकरुपमें ) आये उन परमेश्वरसे ' नहीं हैं - मैं ऐसा कहूँ ? ( यह तो उचित नहीं जँचता ) भले ही प्राणोंका त्याग कर दूँगा; किंतु किसी भी याचक मनुष्यसे ' नहीं हैं ' - यह नहीं कह सकता । दूसरोंके भी याचना करनेपर जब मैंने ' नहीं हैं ' - ऐसा नहीं कहा तो आज अपने यहाँ स्वयं पूर्ण परमेश्वरके आ जानेपर मैं यह कैसे कहूँगा कि ' नहीं हैं ' ? दानके कारण यदि कठिनाई आती है तो उसे वीर पुरुष प्रशंसनीय ही मानते हैं । क्योंकि दानका महत्त्व उससे और बढ़ जाता है । गुरो ! ( हाँ, साधारणतया यह समझा जाता है कि - ) जो दान बाधा डालनेवाला नहीं होता, वह निःसंदेह बलवान् कहा गया है । ( पर ऐसा प्रसङ्ग नहीं आ सकता; क्योंकि ) मेरे राज्यमें ऐसा कोई भी नहीं है, जो सुखी न हो और न कोई रोगी या दुःखी ही है, न कोई रा उद्वेजित किया गया है शम आदि गुणोंसे रहित है । महाभाग ! सभी लोग हष्ट, तुष्ट, पुण्यात्मा - धर्मपरायण तृप्त एवं सुखी हैं । अधिक क्या है ? मैं तो सदा सुखी हूँ ॥२१ - २५॥
मुनिशार्दूल ! आपके मुखसे सुनकर मुझे यह मालूम हो गया कि मैं यहाँपर विशिष्ट दानरुपी बीजका शुभ फल प्राप्त कर रहा हूँ । वे हरि यदि मुझसे दान लेकर देवताओंकी पुष्टि करते हैं तो यज्ञसे आराधित वे ( हरि ) मुझपर निश्चय ही प्रसन्न हैं । यदि श्रेष्ठ बीज ( ऐसा दान ) महान् ( योग्य ) पात्र, पूज्य जनार्दनको मिल गया तो फिर मुझे क्या नहीं मिला ? निश्चय ही मेरा यह दान विशिष्ट गुणोंवाला है और देवता मेरे ऊपर प्रसन्न हैं । दानके उपभोगकी अपेक्षा दान देना सौ - गुना सुख देनेवाला माना गया है ॥२६ - २९॥
यज्ञसे पूजे गये श्रीहरि निश्चय ही मेरे ऊपर प्रसन्न हैं । तभी तो निस्संदेह मुझे दर्शन देकर मेरा कल्याण करनेवाले वे प्रभु आ रहे हैं, निश्चय ही यही बात हैं । देवताओंके देवभागकी प्राप्तिमें रुकावट होनेके कारण यदि वे क्रोधवश मेरा वध करने भी आ रहे हों तो भी उन अच्युतसे होनेवाला मेरा वध करने भी आ रहे हों तो भी उन अच्युतसे होनेवाला मेरा वध भी प्रशंसनीय ही होगा । मुनिश्रेष्ठ ! यह समझकर गोविन्दके यहाँ समुपस्थित होनेपर आप मेरे दानमें विघ्न न डालें ॥३० - ३२॥
लोमहर्षण बोले - शुक्राचार्य और बलिमें इस प्रकार बात हो ही रही थी कि सर्वदेवमय, अचिन्त्य भगवान् अपनी मायासे अपना वामनरुप धारणकर वहाँ पहुँच गये । उन प्रभुको यज्ञस्थानमें उपस्थित देखकर दैत्यलोग उनके प्रभावसे अशान्त और तीव्र तेजसे रहित हो गये । उस महायज्ञमें एकत्र ( उपस्थित ) वसिष्ठ, विश्वामित्र, गर्ग एवं अन्य श्रेष्ठ मुनिजन अपना - अपना जप करने लगे । बलिने भी अपने सम्पूर्ण जन्मको सफल माना; किंतु उसके बाद ( इधर ) खलबली मच गयी और संक्षुब्ध होनेके कारण किसीने कुछ भी नहीं कहा ॥३३ - ३६॥
उनके देदीप्यमान तेजके कारण प्रत्येकने देवाधिदेवकी पूजा की । उसके बाद वामनरुपमें प्रत्यक्ष प्रकट हुए विष्णुभगवानने लोगोंसे पूजित होनेके बाद एक दृष्टिसे ( चारों ओर देखकर ) उन विनम्र दैत्यपति एवं मुनिवरोंको देखा तथा यज्ञ, अग्नि, यजमान, यज्ञकर्ममें अधिकृत सदस्यों एवं द्रव्यकी सामग्रियोंकी प्रशंसा की । विप्रो ! तत्काल ही सभी सदस्यगण यज्ञमण्डपमें उपस्थित पात्रस्वरुप वामनके प्रति ' साधु - साधु ' कहने लगे । उस समय हर्षमें विह्वल होकर महासुर बलिने अर्घ लिया और गोविन्दकी पूजा की तथा उनसे यह कहा ॥३७ - ४०॥
बलिने कहा - ( वामनदेव ! ) अनन्त सुवर्ण और रत्नोंके ढेर तथा हाथी, घोड़े, स्त्रियाँ, वस्त्र, आभूषण, गायें तथा ग्रामसमूह - ये सभी वस्तुएँ, समस्त पृथ्वी अथवा आपकी जो अभिलाषा हो वह मैं देता हूँ । आप अपना अभीष बतलायें । मेरे प्रिय लगनेवाले समस्त अर्थ आपके लिये हैं ॥४१ - ४२॥
दैत्यपति बलिके इस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक उदार वचन कहनेपर वामनका आकार धारण करनेवाले भगवानने हँसते हुए दुर्बोध वाणीमें कहा - राजन् ! मुझे अग्निशालाके लिये तीन पग ( भूमि ) दें । सुवर्ण, ग्राम एवं रत्न आदि उनकी इच्छा रखनेवाले याचकोंको प्रदान करें ॥४३ - ४४॥
बलिने कहा - हे पदधारियोंमें श्रेष्ठ ! तीन पग भूमिसे आपका कौन - सा स्वार्थ सिद्ध होगा । सौ अथवा सौ हजार पग भूमि आप माँगिये ॥४५॥
श्रीवामनने कहा - हे दैत्यपते ! मैं इतना पानेसे ही कृतकृत्य हूँ । ( मेरा स्वार्थ इतनेसे ही सिद्ध हो जायगा ) आप दूसरे याचना करनेवाले याचकोंको उनके इच्छानुकूल दान दीजियेगा । महात्मा वामनकी यह वाणी सुनकर ( बलिने ) उन महात्मा वामनको तीन पग भूमि देनेके लिये वचन दे दिया । दान देनेके लिये हाथपर जल गिरते ही वामन अवामन ( विराट् ) बन गये । तत्क्षण उन्होंने उन्हें अपना सर्वदेवमय स्वरुप दिखाया । चन्द्र और सूर्य उनके दोनों नेत्र, आकाश सिर, पृथ्वी दोनों चरण, पिशाच पैरकी अँगुतियाँ एवं गुह्यक हाथोंकी अँगुलियाँ थे ॥४६ - ४९॥
जानुओंमें विश्वेदेवगण, दोनों जङ्घाओंमें सुरश्रेष्ठ साध्यगण, नखोंमें यक्ष एवं रेखाओंमें अप्सराएँ थीं । समस्त नक्षत्र उनकी दृष्टियाँ, सूर्यकिरणें प्रभुके केश, तारकाएँ उनके रोमकूप एवं महर्षिगण रोमोंमें स्थित थे । विदिशाएँ उनकी बाहें, दिशाएँ उन महात्माके कर्न, दोनों अश्विनीकुमार श्रवण एवं वायु उन महात्माके नासिकास्थानपर थे । उनके प्रसादमें ( मधुर हास्यछटामें ) चन्द्रदेव तथा मनमें धर्म आश्रित थे । सत्य उनकी वाणी तथा जिह्वा सरस्वतीदेवी थीं ॥५० - ५३॥
देवमाता अदिति उनकी ग्रीवा, विद्या उनकी वलियाँ, स्वर्गद्वार उनकी गुदा तथा त्वष्टा एवं पूशा उनकी भौंहे थे । वैश्वानर उनके मुख तथा प्रजापति वृषण थे । परंब्रह्म उनके हदय तथा कश्यप मुनि उनके पुंस्त्व थे । उनकी पीठमें वसु देवता, सभी सन्धियोंमें मरुदगण, वक्षः स्थलमें रुद्र तथा उनके धैर्यमें महार्णव आश्रित थे । उनके उदरमें गन्धर्व एवं महाबली मरुदगण स्थित थे । लक्ष्मी, मेधा, धृति, कान्ति एवं सभी विद्याएँ उनकी कटिमें स्थित थीं ॥५४ - ५७॥
समस्त ज्योतियाँ एवं परम महत् तप उन देवाधिदेवके उत्तम तेज थे । उनके शरीर एवं कुक्षियोंमें वेद थे तथा बड़े - बड़े यज्ञ इष्टियाँ थीं, पशु एवं ब्राह्मणोंकी चेष्टाएँ उनकी दोनों जानुएँ थीं । उन महात्मा विष्णुके सर्वदेवमय रुपको देखकर वे दैत्य उनके निकट उसी प्रकार जाते थे, जिस प्रकार अग्निके निकट पतिंगे जाते हैं । महादैत्य चिक्षुरने दाँतरसे उनके पैरके अँगूठेको दबोच लिया । फिर भगवानने अँगुठेसे उसमी ग्रीवापर प्रहार किया और - ॥५८ - ६१॥
अपने पैरों एवं हाथोंके तलवोंसे समस्त असुरोंको रगड़ डाला तथा विराट् शरीर धारण करके शीघ्र ही उन्होंने पृथ्वीको उनसे छीन लिया । भूमिको नापते समय चन्द्र और सूर्य उनके स्तनोंके मध्य स्थित थे तथा आकाशके नापते सम्कय उनके सक्शिप्रदेश ( जाँघ ) - में करते समय देवताओंकी रक्षा करनेमें स्थत श्रीविष्णुके जानुमूल ( घुटनेके स्थान ) - में चन्द्र एवं सूर्य स्थित हो गये । उरुक्रम ( लंबी डगोंवाले ) विष्णुने तीनों लोकोको जीतकर एवं उन बडे - बड़े असुरोंका वध कर तीनों लोक इन्द को दे दिये ॥६२ - ६५॥
शक्तिशाली भगवान् विष्णुने पृथ्वीतलके नीचे स्थित सुतल नामक पातालको बलिके लिये दे दिया । तदनन्तर सर्वेश्वर विष्णुने दैत्येश्वरसे कहा - मैंने तुम्हारे द्वारा दानके लिये दिये हुए जलको अपने हाथमें ग्रहण किया हैं; अतः तुम्हारी उत्तम आयु कल्पप्रमाणकी होगी तथा वैवस्वत मन्वन्तरका काल व्यतीत होनेपर एवं सावर्णिक मन्वन्तरके आनेपर तुम इन्द्रपद प्राप्त करेंगे - इन्द्र बनोगे । इस समयके लिये मैनें समस्त भुवनको पहले ही इन्द्रको दे रखा है । इकहत्तर चतुर्युगीके कालसे कुछ अधिक कालातक जो समयकी व्यवस्था है अर्थात एक मन्वन्तरके कालतक मैं उसके ( इन्दके ) विरोधियोंको अनुशासित करुँगा ॥६६ - ७०॥
बलि ! पूर्वकालमें उसने बड़ी श्रद्धासे मेरी आराधना की थी, अतः तुम मेरे कहनेसे सुतल नामक पातालमें जाकर मेरे आदेशका भलीभाँति पालन करो तथा देवताओंके मुखसे भरे - पुरे सैकड़ों प्रासादोंसे पूर्ण विकसित कमलोंवाले सरोवरों, हदों एवं शुद्ध श्रेष्ठ सरिताओंवाले उस स्थानपर निवास करो । दानवेश्वर ! सुगन्धिसे अनुलिप्त हो तथा श्रेष्ठ आभरणोंसे भूषित एवं माला और चन्दन आदिसे अलंकृत सुन्दर स्वरुपवाले तुम नृत्य और गीतसे युक्त विविध भाँतिके महान् भोगोंका उपभोग करते हुए सैकड़ों स्त्रियोंसे आवृत होकर इतने कालतक मेरी आज्ञासे वहाँ निवास करो । जबतक तुम देवताओं एवं ब्राह्मणोंसे विरोध न करोगे, तबतक समस्त कामनाओंसे युक्त भोगोंको भोगोगे । किंतु जब तुम देवों एवं ब्राह्मणोंके साथ विरोध करोगे तो देखनेमें भयंकर वरुणके पाश तुम्हें बाँध लेंगे ॥७१ - ७६॥
बलिने पूछा - हे भगवन् ! हे देव ! आपकी आज्ञासे वहाँ पातालमें निवास करनेवाले मेरे भोगोंका साधन क्या होगा ? जिससे तृप्त होकर मैं सदा आपका स्मरण करुँगा ॥७७॥
श्रीभगवानने कहा - अविधिपूर्वक दिये गये दान, श्रोत्रिय ब्राह्मणसे रहित श्राद्ध तथा बिना श्रद्धाके किये गये जो हवन हैं, वे तुम्हारे भाग होंगे । दक्षिणा - रहित यज्ञ, अविधिपूर्वक किये गये कर्म और व्रतसे रहित अध्ययन तुम्हें फल प्रदान करेंगे । हे बलि ! जलके बिना की गयी पूजा, बिना कुशकी की गयी क्रिया और बिना घीके गये हवन तुमको फल देंगे । इस स्थानका आश्रय कर जो मनुष्य किन्हीं भी क्रियाओंको करेगा, उसमें कभी भी असुरोंका अधिकार न होगा । अत्यन्त पवित्र ज्येष्ठाश्रम तथा विष्णुप्रद सरोवरमें जो श्राद्ध, दान, व्रत या नियम - पालन करेगा तथा विधि या अविधिपूर्वक जो कोई क्रिया वहाँ की जायगी, उसके लिये वे सभी निः संदेह अक्षय फलदायी होगा । जो मनुष्य ज्येष्ठमासके शुक्ल पक्षमें एकदशीके दिन उपवास कर द्वादशीके दिन विष्णुपद नामके सरोवरमें स्त्रान कर वामनका दर्शन करनेके बाद यथाशक्ति दान देगा, वह परम पदको प्राप्त करेगा ॥७८ - ८४॥
लोमहर्षणजी बोले - भगवान् उस सर्वव्यापी रुपसे बलिको यह वरदान तथा इन्द्रको स्वर्ग प्रदानकर अन्तर्हित हो गये । तबसे बलशाली इन्द्र पहलेकी भाँति तीनों लोकोंका शासन करने लगे और बलि सर्वदा पातालमें निवास करने लगे । इस प्रकार उन भगवान् ( वामन ) विष्णुका उत्तम माहात्म्य कहा गया; जो इसे ( वामन - माहात्म्यको ) सुनता है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है । द्विजश्रेष्ठो ! बलि एवं प्रह्लादके संवाद, बलि एवं शुक्रकी मन्त्रणा तथा बलि एवं विष्णुके चरितका जो मनुष्य स्मरण करेंगे, उन्हें कभी कोई आधि एवं व्याधि न होगी तथा उनका मन भी मोहसे आकुल नहीं होगा । हे महाभागो ! इस कथाको सुनकर राज्यच्युत व्यक्ति अपने राज्यको एवं वियोगी मनुष्य अपने प्रियको प्राप्त करता है । ( इनकी सुननेसे ) ब्राह्मणकी वेदकी प्राप्ति होती है, क्षत्रिय पृथ्वीकी जय प्राप्त करता है तथा वैश्यको धन - समृद्धि एवं शूद्रको सुखकी प्राप्ति होती है । वामनका माहात्म्य सुननेसे पापोंसे मुक्ति होती है ॥८५ - ९१॥
वामन पुराण Vaman Puran
श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।