ऋषियोंने [ लोमहर्षणजीसे ] कहा - ( मुने ! आप ) हमसे उन सात वनों, नौ नदियों, समग्र तीर्थो एवं तीर्थ - स्त्रानके फलका वर्णन करें । पुराणवेत्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ मुने ! जिस - जिस विधानसे जिस तीर्थका जो फल होता है, उन सबको आप विस्तारपूर्वक बतलावें ॥१ - २॥
लोमहर्षणने कहा - ( ऋषियो ! ) कुरुक्षेत्रके मध्यमें जो सात वन हैं, उनका मैं वर्णन करता हूँ, आपलोग उसे सुनें । उन वनोंके नाम सभी पापोंको नष्ट करनेवाले तथा पवित्र हैं । ( उन वनोंके नाम हैं - ) पवित्र काम्यकवन, महान् अदितिवन, पुण्यप्रद व्यासवन, फलकीवन, सूर्यवन, महान् मधुवन तथा सर्वकल्मषनाशक पवित्र शीतवन - ये ही सात वन हैं । हे द्विजो ! ( अब ) नदियों ( के नाम ) - को मुझसे सुनो । ( उनके नाम हैं - ) पवित्र सरस्वती नदी, वैतरणी नदी, महापवित्र आपगा, मन्दाकिनी गङ्गा, मधुस्त्रवा, वासुनदी, पापनाशिनी कौशिकी, महापवित्र दृषद्वती ( कग्गर ) तथा हिरण्वती नदी । इनमें सरस्वतीके अतिरिक्त सभी नदियाँ वर्षाकालमें ( ही ) बहनेवाली हैं ॥३ - ८॥
वर्षाकालमें इनका जल पवित्र माना जाता है । इनमें कभी भी रजस्वलत्व दोष नहीं होता । तीर्थके प्रभावसे ये सभी श्रेष्ठ नदियाँ पवित्र हैं । हे मुनियो ! आपलोग ( अब ) प्रसन्न होकर तीर्थस्त्रानका महान् फल सुनें । वहाँ जाना एवं उनका स्मरण करना समस्त पापोंका नाश करनेवाला होता है । महाबलवान् रन्तुक नामक द्वारपालका दर्शन करनेके बाद यक्षको प्रणाम कर तीर्थयात्रा प्रारम्भ करनी चाहिये । विप्रेन्द्रो ! उसके बाद महान् बाद महान् अदितिवनमें जाना चाहिये, जहाँ अदितिने पुत्रके लिये अत्यन्त कठोर तप किया था ॥९ - १२॥
वहाँ स्त्रानकर तथा देवमाता अदितिका दर्शनकर मनुष्य समस्त दोषोंसे रहित ( निर्मल ) वीर पुत्र उत्पन्न करता है और सैकड्चों सूर्योंके समान प्रकाशमान विमानपर आरुढ़ होता है । विप्रेन्द्रो ! इसके बाद ' सवन ' नामसे विख्यात सर्वोत्तम विष्णु - स्थानको जाना चाहिये, जहाँ भगवान् हरि सदा संनिहित रहते हैं । विमल तीर्थमें स्त्रानकर विमलेश्वरका दर्शन करनेसे मनुष्य निर्मल हो जाता है तथा रुद्रलोकमें जाता है । एक आसनपर स्थित कृष्ण और बलदेवका दर्शन करनेसे मनुष्य कलिके दुष्कर्मोंसे उत्पन्न पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥१३ - १६॥
उसके पश्चात् तीनों लोकोंमें विख्यात पारिप्लव नामक तीर्थमें जाय । वहाँ स्त्रान करनेके पश्चात् वेदोंसहित ब्रह्माका दर्शन करनेस्से अथर्ववेदका ज्ञान प्राप्त कर निर्मल स्वर्गको प्राप्त करता है । कौशिकी - संगम तीर्थमें जाकर स्त्रान कर मनुष्य परम पदको प्राप्त करता है । समस्त पापोंसे मुक्त करनेवाले धरणीके तीर्थमें जाकर स्त्रान करनेसे क्षमाशील मनुष्य परम पदकी प्राप्ति करता है । वहाँ स्त्रान करनेमात्रसे पृथ्वीपर मनुष्यद्वारा किये गये समस्त अपराध क्षमा कर दिये जाते हैं ॥१७ - २०॥
उसके बाद दक्षाश्रममें जाकर दक्षेश्वर शिवका दर्शन करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता हैं । द्विजोत्तमो ! तदनन्तर शालूकिनी तीर्थमें जाकर स्त्रान करनेके उपरान्त भक्तिपूर्वक हरसे संयुक्त हरिका पूजन कर मनुष्य समस्त पापोंसे रहित इच्छाके अनुकूल लोकोंको प्राप्त करता है । सर्पिर्दधि नामवाले नागोंके उत्तम तीर्थमें जाकर स्त्रान करनेसे मनुष्य नाग - भयसे मुक्त हो जाता है । विप्रश्रेष्ठो ! तदनन्तर रन्तुक नामक द्वारपालके पास जाय । वहाँ एक रात्रि निवास करे तथा कल्याणकारी ( उस ) श्रेष्ठ तीर्थमें स्त्रान करनेके बाद दूसरे दिन प्रयत्नपूर्वक ( निष्ठाके साथ मन लगाकर ) द्वारपालका पूजन करे एवं ब्राह्मणोंको भोजन कराये । फिर उन्हें प्रणाम कर इस प्रकार क्षमा - प्रार्थना करे - ' हे यक्षेन्द्र ! तुम्हारी कृपासे मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाता है । मैं अपनी अभीष्ट सिद्धिको प्राप्त करुँ ( मेरी मनः कामना पूर्ण हो ) । ' इस प्रकार यक्षेन्द्रको प्रसन्न करनेके पश्चात् पञ्चनद तीर्थमें जाना चाहिये । जहाँ भगवान् रुद्रने दानवोंके लिये भयंकर पाँच नदोंका निर्माण किया है, उस स्थानपर समस्त संसारमें प्रसिद्ध पञ्चनद तीर्थ है; ॥१२ - २७॥
क्योंकि करोड़ों तीर्थोंको एकत्र ( स्थापित ) कर भगवान् वहाँ स्थित हैं, अतः उसे त्रैलोक्य - प्रसिद्ध कोटितीर्थ कहा जाता है । मनुष्य श्रद्धापूर्वक उस तीर्थमें स्त्रान कर तथा कोटीश्वर हरका दर्शन कर पाँच प्रकारके ( महा ) यज्ञोंके अनुष्ठानका फल प्राप्त करता है । उसी स्थानपर सब देवताओंने भगवान् वामनदेवकी स्थापना की है । वहाँ भी स्त्रान करनेसे मनुष्यको अग्निष्टोस यज्ञका फल प्राप्त होता है । श्रद्धावान् जितेन्द्रिय मनुष्य अश्विनीकुमारोंके तीर्थमें जाकर रुपवान् और यशस्वी होता है ॥२८ - ३१॥
विष्णुद्वारा वर्णित वाराह नामक विख्यात तीर्थ है । श्रद्धालु पुरुष उसमें स्त्रान कर परमपदको प्राप्त करता है । विप्रेन्द्रो ! उसके बाद श्रेष्ठ सोमतीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ चन्द्रमा पूर्वकालमें तपस्या कर व्याधिसे मुक्त हुए थे । उस शुभ तीर्थमें स्त्रान कर सोमेश्वर भगवानका दर्शन करनेसे मनुष्य राजसूय - यज्ञका फल प्राप्त करता है तथा व्याधियों और सभी दोषोंसे मुक्त होकर सोमलोकमें जाता एवं चिरकालतक वहाँ सानन्द विहार करता है ॥३२ - ३५॥
वहींपर भूतेश्वर एवं ज्वालामालेश्वर नामक लिङ्ग है । उन दोनोम लिङ्गोंकी पूजा करनेसे ( मनुष्य ) पुनर्जन्म नहीं पाता । एकहंस ( सरोवर ) - में स्त्रान कर मनुष्य हजारों गौओंके दानका फल प्राप्त करता है । ' कृतशौच ' नामक तीर्थमें जाकर मनोयोगपूर्वक तीर्थकी सेवा करनेवाला द्विजोत्तम ' पुण्डरीक ' यज्ञविशेषके फलको प्राप्त करता है तथा उसकी शुद्धि हो जाती है ( - वह पवित्र हो जाता है ) । उसके बाद बुद्धिमान् महादेवके मुञ्जवट नामक तीर्थमें एक रात्रि निवास करके मनुष्य गाणपत्य ( गणनायकके पदको ) प्राप्त करता है । वहीं विश्वप्रसिद्ध महाग्राही यक्षिणी है । वहाँ जाकर स्त्रान करनेके बाद यक्षिणीको प्रसन्न कर उपवास करनेसे महान पातकोंका नाश होता है ॥३६ - ४०॥
पुण्यकी वृद्धि करनेवाले कुरुक्षेत्रके उस विख्यात द्वारकी प्रदक्षिणा कर ब्राह्मणोंको भोजन कराये । फिर पुष्करमें जाकर पितृदेवोंकी अर्चना करे । उस तीर्थका महात्मा जमदग्निनन्दन परशुरामजीने निर्माण किया था । वहाँ ( जाकर ) मनुष्य सफल - मनोरथ हो जाता है और राजाको अश्वमेधयज्ञके फलकी प्राप्ति होती हैं । कार्तिकी पूर्णिमाको जो मनुष्य वहाँ कन्यादान करेगा, उसके ऊपर देवता प्रसन्न होकर उसे मनोवाञ्छित फल देंगे । वहाँ कपिल नामक महायक्ष स्वयं द्वारपालके रुपमें स्थित हैं, जो पापियोंके मार्गमें विघ्न उपस्थित कर उनकी दुर्गति करते हैं ( जिससे वे पापाचरण न करें तथा धर्मकी मर्यादा स्थित रहे ) । ' उदूखलमेखला ' नामक उनकी महायक्षी पत्नी दुन्दुभि बजाकर वहाँ नित्य भ्रमण करती रहती है ॥४१ - ४५॥
उस यक्षीने पापवाले देशमें उत्पन्न पुत्रके साथ एक रात्रिमें स्त्रीको देखनेके बाद दुन्दुभि बजाकर उससे कहा - युगन्धरमें दही खाकर तथा अच्युतस्थलमें निवास करनेके बाद भूतालयमें स्त्रान कर तुम पुत्रके साथ निवास करना चाहती हो । मैंने दिनमें यह बात तुमसे कही है । रात्रिमें मैं अवश्य तुमको खा जाऊँगी । उसकी यह बात सुननेके बाद यक्षिणीको प्रणाम कर उसने दीन वाणीमें उससे कहा - ' हे भामिनी ! मेरे ऊपर दया करो । ' फिर उस यक्षिणीने उससे कृपापूर्वक कहा - जब किसी समय सूर्य - ग्रहण होगा, उस समय सान्निहत्य ( सरोवर ) - में स्त्रान करके पवित्र होकर तुम स्वर्ग चली जाओगी ॥४६ - ५०॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें चौंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥३४॥
वामन पुराण Vaman Puran
श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।