वामन पुराण Vaman Puran

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


श्रीवामनपुराण - अध्याय ३६


 लोमहर्षण बोले - द्विजोत्तमो ! मानुषतीर्थके पूर्व दिशामें एक कोसपर द्विजोंसे पूजित ' आपगा ' नामकी एक विख्यात नदी हैं । वहाँ साँवाके चावलको दूधमें सिद्धकर और उसमें घी मिलाकर जो ब्राह्मणको देते हैं, उनके पाप नहीं रह जाते । जो व्यक्ति उस आपगा नदीके तटपर जाकर श्राद्ध करेंगे, वे निः संदेह समस्त ( शुभ ) कामनाओंसे पूर्ण होंगे । सभी पितर कहते हैं तथा पितामह लोग स्मरण करते हैं कि हमारे कुलमें कोई ऐसा पुत्र या पौत्र उत्पन्न होगा, जो आपगा नदीके तटपर जाकर तिलसे तर्पण करेगा, जिससे हम सभी सैकड़ों कल्पतक ( अनन्त कालतक ) तृप्त रहेंगे ॥१ - ५॥ 
भाद्रपदके महीनेमें, विशेषकर कृष्णपक्षमें, चतुर्दशी तिथिको मध्याह्न कालमें पिण्डदान करनेवाला मनुष्य मुक्ति प्राप्त करता है । विप्रवरो ! उसके बाद समस्त लोकोंमें ' ब्रह्मोदुम्बर ' नामसे प्रसिद्ध ब्रह्माके श्रेष्ठ स्थानमें जाना चाहिये । द्विजवरो ! वहाँ ब्रह्मर्षिकुण्डमें स्नान करनेवाले व्यक्तिको सप्तर्षियोंकी कृपासे सात सोमयज्ञोंका फल प्राप्त होता है । भरद्वाज, गौतम, जमदग्नि, कश्यप, विश्वामित्र, वसिष्ठ एवं भगवान् अत्रि ( इन सात ) ऋषियोंने मिलकर पृथ्वीमें दुर्लभ इस कुण्डको बनाया था । ब्रह्मद्वारा सेवित होनेके कारण यह स्थान ' ब्रह्मोदुम्बर ' कहलात है ॥६ - १०॥
अव्यक्त जन्मवाले ब्रह्माके उस श्रेष्ठ तीर्थमें स्नान करके मनुष्य ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है - इसमें कोई संदेहकी बात नहीं है । जो मनुष्य वहाँ देवताओं और पितरोंके उद्देश्यसे ब्राह्मणोंको भोजन करायेगा, उसके पितर सुखी होकर उसे संसारमें दुर्लभ वस्तु प्रदान करेंगे । सात ऋषियोंके उद्देश्यसे जो ( व्यक्ति ) अलगसे स्त्रान करेगा, वह ऋषियोंके अनुग्रहसे सात लोकोंका स्वामी होगा । वहाँ सभी पापोंका विनाश करनेवाला विख्यात कपिस्थल नामक तीर्थ है, जहाँ वृद्धकेदार नामके देव स्वयं विद्यमान हैं । वहाँ स्त्रान करनेके बाद दिण्डिके साथ रुद्रदेवका अर्चन करनेसे मनुष्यको अन्तर्धानकी शक्ति प्राप्त होती है और वह शिवलोकमें आनन्द प्राप्त करता है ॥११ - १५॥ 
जो व्यक्ति उस स्थानपर तर्पण करके दिण्डि भगवानको प्रणाम कर तीन चुल्लू जल पीता है, वह केदारतीर्थमें जानेका फल प्राप्त करता है । जो व्यक्ति वहाँ शिवजीके उद्देश्यसे चैत्र शुक्ला चतुर्दशी तिथिमें श्राद्ध करता है, वह परम पद ( मोक्ष ) - को प्राप्त कर लेता है । उसके बाद कलसी नामके तीर्थमें जाना चाहिये जहाँ भद्रा, निद्रा, माया, सनातनी, कात्यायनीरुपा दुर्गादेवी स्वयं अवस्थित हैं । कलसी तीर्थमें स्नानकर उसके तीरपर स्थित दुर्गादेवीका दर्शन करनेवाला मनुष्य दुस्तर संसारदुर्ग ( सांसारिक भवबन्धन ) - को पार कर जाता है । इसमें ( तनिक भी ) संदेह नहीं करना चाहिये ॥१६ - १९॥
दुर्गादेवीके दर्शनके बाद तीनों लोकोंमें दुर्लभ सरकतीर्थमें जाना चाहिये । वहाँ कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको माहेश्वरदेवका दर्शन करके मनुष्य ( अपने ) सभी मनोरथोंको प्राप्त करता और ( अन्तमें ) शिवलोकमें चला जाता है । द्विजश्रेष्ठो ! सरकतीर्थमें तीन करोड़ तीर्थ विद्यमान हैं । सरके बीच कूपमें रुद्रकोटि स्थित है । उस सरमें यदि व्यक्ति स्त्रान कर रुद्रकोटिका स्मरण करता है तो निः संदेह ( उसके द्वारा ) रुद्रकोटि पूजित हो जाते हैं और रुद्रोंके प्रसादसे वह व्यक्ति समस्त दोषोंसे छूट जाता है । वह इन्द्रसम्बन्धी ज्ञानसे पूरित होकर परम पदको प्राप्त कर लेता है । वहीं पापों और भयोंका दूर करनेवाला इडास्पद नामका तीर्थ वर्तमान है ॥२० - २४॥ 
इस इडास्पद नामके तीर्थके दर्शनसे ही मनुष्य मुक्तिको प्राप्त कर लेता है । वहाँ स्त्रान करके पितरों एवं देवोंका पूजन करनेसे मनुष्यकी दुर्गति नहीं होती और उसे मनोवाञ्छित वस्तु प्राप्त होती है । सभी पापोंका विनाश करनेवाला केदार नामक महातीर्थ है । वहाँ जाकर स्त्रान करनेसे मनुष्यको सभी प्रकारके दानोंका फल प्राप्त होता है । वहींपर पृथ्वीमें दुर्लभ किंरुप नामका ( भी ) तीर्थ है । उसमें स्त्रान करनेवाले मनुष्यको सभी प्रकारके यज्ञोंका फल प्राप्त होता है । सरकके पूर्वमें तीनों लोकोमें सुप्रसिद्ध सम्पूर्ण पापोंका विनाश करनेवाला अन्यजन्म नामका तीर्थ हैं ॥२५ - २८॥ 
नरसिंहका शरीर धारण कर शक्तिशाली दानव ( हिरण्याक्ष ) - का वध करनेके बाद विष्णु पशुयोनिमें स्थित सिंहोंमें प्रेम करने लगे । उसके बाद गन्धर्वोंके साथ सभी देवताओंने वरदाता शिवकी आराधना कर साष्टाङ्ग प्रणाम करते हुए विष्णुसे पुनः स्वदेह ( स्वरुप ) धारण करनेकी प्रार्थना की । उसके बाद ( फिर ) महादेवने शरभ ( सिंहोंसे भी बलवान् पशु - विशेष ) - का रुप धारण करके ( नरसिंहसे ) हजारों दिव्य वर्षोंतक युद्ध किया - कराया । दोनों देवता ( आपसमें ) युद्ध करते हुए सरोवरमें गिर पड़े । उस सरोवरके तीरपर ( स्थित ) अश्वत्थ ( पीपल ) - वृक्षके नीचे देवर्षि नारद ध्यान लगाये बैठे थे । उन्होंने उन दोनोंको देखा । ( फिर तो ) विष्णु चतुर्भुज - रुपमें और शिव लिङ्गरुपमें ( परिवर्त्तित ) हो गये । उन दोनों पुरुषों ( देवों ) - को देखकर उन्होंने भक्तिभावसे उनकी स्तुति की ॥२९ - ३३॥ 
[ नादजीने स्तुति की ] - देवाधिदेव शिवको नमस्कार है । प्रभावशाली विष्णुको नमस्कार है । स्थिति ( प्रजापालन ) करनेवाले श्रीहरिको नमस्कार है । संहारके आधारभूत उमापति भगवान् शिवको नमस्कार है । बहुरुपधारी शङ्करजी एवं विश्वरुपधारी ( विश्वात्मा ) विष्णुको नमस्कार है । परमसिद्ध ( योगीश्वर ) शङ्कर एवं ज्ञानके मूल कारण भगवान् कृष्णको नमस्कार है । मैं धन्य तथा सदा पुण्यवान् हूँ; क्योंकि मुझे ( आज ) आप दोनों ( श्रेष्ठ ) पुरुषों ( देवों ) - के दर्शन प्राप्त हुए । आप दोनों पुरुषोद्वारा पवित्र किया गया मेरा यह आश्रम पुण्यमय हो गया । आजसे तीनों लोकोंमें यह ' अन्यजन्म ' नामसे प्रसिद्ध हो जायगा । जो व्यक्ति यहाँ आकर इस तीर्थमें स्त्रान कर अपने पितरोंका तर्पण करेगा श्रद्धासे सम्पन्न उस पुरुषको यहाँ इन्द्र - सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त हो जायगा ॥३४ - ३७॥
मैं पीपल वृक्षके मूलमें सदा निवास करुँगा । उस अश्वत्थ ( पीपल वृक्ष ) - को प्रणाम करनेवाला व्यक्ति भयंकर यमराजको नहीं देखेगा । श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! उसके बाद ( उस तीर्थसेवीको ) उत्तम नागहदमें जाना चाहिये । पौण्डरीकमें स्त्रान करके मनुष्य पुण्डरीक ( एक प्रकारके यज्ञ ) - का फल प्राप्त करता है । शुक्लपक्षकी दशमी, विशेषकर चैत्रमासकी ( शुक्ला ) दशमी तिथिमें वहाँ किया गया स्त्रान, जप और श्राद्ध मोक्षपथकी प्राप्ति करानेवाला होता है । पुण्डरीकमें स्त्रान करनेके बाद देवताओंद्वरा पूजित ' त्रिविष्टप ' नामक तीर्थमें जाना चाहिये । वहाँ पापोंसे विमुक्त करनेवाली पवित्र वैतरणी नदी है । वहाँ स्त्रानकर शूलपाणि वृषध्वज ( शिव ) - की पूजा कर मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा विशुद्ध होकर निश्चय ही परमगतिको प्राप्त कर लेता है ॥३८ - ४२॥ 
विप्रश्रेष्ठो ! तत्पश्चात् सर्वश्रेष्ठ रसावर्त्त ( तीर्थ ) - में जाना चाहिये । वहाँ भक्तिसहित स्त्रान करनेवाला सर्वश्रेष्ठ सिद्धि ( मुक्ति ) प्राप्त करता है । चैत्रमासके शुक्लपक्षकी चतुर्दशी ( चौदस ) तिथिको ' अलेपक ' नामक तीर्थमें स्त्रान कर वहाँ शिवकी पूजा करनेसे पापसे लिप्त नहीं होता - पाप दूर भाग जाता है । विप्रवरो ! वहाँसे उत्तम फलकीवनमें जाना चाहिये । वहाँ देवता, गन्धर्व, साध्य और ऋषि लोग रहते हैं एवं दिव्य सहस्त्र वर्षोंतक बहुत तप करते हैं । दृषद्वती ( कग्गर ) नदीमें स्नानकर देवताओंका तर्पण करनेसे मनुष्य अग्निष्टोम और अतिरात्र नामक यज्ञोंसे मिलनेवाले फलको प्राप्त करता है ॥४३ - ४६॥
सोमवारके दिन चन्द्रमाके क्षीण हो जानेपर अर्थात् सोमवती अमावास्याको जो मनुष्य श्राद्ध करता है, उसका पुण्यफल सुनो । जैसे गया - क्षेत्रमें किया गया श्राद्ध पितरोंको नित्य तृप्त करता है, वैसे ही फलकीवनमें रहनेवालोंको श्राद्ध करनेसे पितरोंको तृप्ति होती है । जो मनुष्य मनसे फलकीवनका स्मरण करता है, उसके भी पितर निः संदेह तृप्ति प्राप्त करते हैं । वहीं सभी देवोंसे सुशोभित एक ' सुमहत् ' तीर्थ हैं; उसमें स्त्रान करनेवाला पुरुष हजारों गौओंके दानका फल प्राप्त करता है । मानव पाणिखात तीर्थमें सांख्य ( ज्ञान ) और योग ( कर्म ) - के अनुष्ठान करनेसे होनेवाले फलको प्राप्त करता है ॥४७ - ५१॥
पाणिखा के बाद ' मिश्रक ' नामक महान् एवं श्रेष्ठ तीर्थमें जाना चाहिये । मुनिश्रेष्ठो ! वहाँ महात्मा व्यासदेवने दधीचिऋषिके हेतु तीर्थोंको एकमें मिश्रित किया था । इस मिश्रक तीर्थमें स्त्रान कर लेनेवाला मनुष्य ( मानो ) सभी तीर्थोंमें स्त्रान कर लेता है । फीर संयमशील तथा नियमित आहार करनेवाला होकर व्यासवनमेम जाना चाहिये । ' मनोजव ' तीर्थमें स्त्रानकर ' देवमणि ' शङ्करका दर्शन करनेसे मनुष्यको अभीष्ट - सिद्धिकी प्राप्ति होती है - इसमें संदेह नहीं । मनुष्यको देवीके मधुवटी नामक तीर्थमें जाकर स्त्रान करके संयत होकर देवों एवं पितरोंकी पूजा करनी चाहिये । ऐसा करनेवाला व्यक्ति देवीकी आज्ञासे ( जैसी चाहता है, वैसी ) सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥५२ - ५६॥
जो मनुष्य ' कौशिकी ' और ' दृषद्वती ' ( कग्गर ) नदियोंके संगममें स्त्रान करता और नियत भोजन करता है, वह श्रेष्ठ पुरुष सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है । श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! ' व्यासस्थली ' नामका एक स्थान है, जहाँ पुत्रशोकसे दुःखी होकर वेदव्यासने अपने शरीरत्यागका निश्चय कर लिया था, पर देवोंने उन्हें पुनः सँभाल लिया । उसके बाद उस भूमिमें जानेवाले मनुष्यको पुत्रशोक नहीं होता । ' किंदत्तकूप ' में जाकर एक पसर ( तौलका एक परिमाण ) तिलका दान करनेसे मनुष्य परमसिद्धि और ऋणसे मुक्ति प्राप्त करता हैं । ' अह्न ' एवं ' सुदिन ' नामक ये दो तीर्थ पृथ्वीमें दुर्लभ हैं । इन दोनोंमें स्त्रान करनेसे मनुष्य विशुद्धात्मा होकर सूर्यलोकको प्राप्त करता है ॥५७ - ६१॥ 
उसके बाद तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध ' कृतजप्य ' नामके तीर्थमें जाना चाहिये । वहाँ नियमपूर्वक संयत रहते हुए गङ्गामें स्त्रान करना चाहिये । वहाँपर महादेवका पूजन करनेसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है । वहींपर कोटितीर्थ स्थित है । वहाँ श्रद्धापूर्वक स्त्रानकर ' कोटीश्वर ' नाथका दर्शन करनेसे मनुष्य कोटि यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है । उसके बाद तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध ' वामनक ' तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ प्रभावशाली विष्णुने वामनरुप धारणकर बलिका राज्य छीन कर इन्द्रको दे दिया ॥६२ - ६५॥
वहाँ ' विष्णुपद ' तीर्थमें स्त्रान कर वामनदेवकी पूजा कर समस्त पापोंसे शुद्ध होकर ( छूटकर ) मनुष्य विष्णुके लोकको प्राप्त कर लेता है । वहींपर सभी पापोंको नष्ट करनेवाला ज्येष्ठाश्रम नामका तीर्थ है, उसका दर्शन कर मनुष्य मुक्ति प्राप्त करता है - इसमें संदेह नहीं । ज्येष्ठ महीनेके शुक्लपक्षकी एकादशी तिथिको उपवास कर द्वादशी तिथिके दिन स्त्रानकर मानव मनुष्योंमें श्रेष्ठता ( बड़प्पन ) प्राप्त करता है । वहाँ ( सर्वाधिक ) प्रभावशाली विष्णुभगवानने यज्ञादिमें दीक्षित ( लगे हुए ), प्रतिष्ठित एवं सम्मान्य तथा विष्णुभगवानकी आराधनामें परायण ब्राह्मणोंको सम्मानित किया था ॥६६ - ६९॥ 
उन्हें दिये गये ( पात्रक ) श्राद्ध और अनेक प्रकारके दान अक्षय एवं मन्वन्तरतक स्थिर रहते हैं । वहीं तीनों लोकोंमें विख्यात ' कोटितीर्थ ' है । उस तीर्थमें स्त्रानकर मनुष्य करोड़ों यज्ञोंके फल प्राप्त करता है । उस तीर्थमें ' कोटीश्वर ' महादेवका दर्शन कर मनुष्य उन महादेवकी कृपासे गाणपत्य पद ( गणनायकत्वकी उपाधि ) प्राप्त करता है । और वहीं महात्मा सूर्यदेवका महान् तीर्थ है । उसमें भक्तिपूर्वक स्त्रानकर मनुष्य सूर्यलोकमें महान् माना जाता है ॥७० - ७३॥
श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! कोटितीर्थके बाद पापका नाश करनेवाले ' कुलोत्तारणतीर्थ ' में जाना चाहिये, जिसे प्राचीनकालमें विष्णुने वर्णाश्रम - धर्मका पालन करनेवाले मनुष्योंको तारनेके लिये बनाया था । जो मनुष्य ब्रह्मचर्यव्रतसे विशुद्ध मुक्तिकी इच्छा करते हैं ऐसे लोग भी उस तीर्थमें जाकर परम पदका दर्शन कर लेते हैं । ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी और संन्यासी वहाँ स्त्रानकर अपने कुलके ( ७ + ७ + ७ = २१ ) इक्कीस पूर्व पुरुषोंका उद्धार कर देते हैं । जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रुस तीर्थमें तीर्थपरायण होकर एवं भक्तिसे स्त्रान करते हैं, वे सभी परम पदका दर्शन करते हैं । और जो दूर रहता हुआ भी वामनसहित कुरुक्षेत्रका स्मरण करता है, वह भी मुक्ति प्राप्त कर लेता है; फिर वहाँ निवास करनेवालेका तो कहना ही क्या ? ॥७४ - ७८॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें छत्तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥३६॥