वामन पुराण Vaman Puran

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


श्रीवामनपुराण - अध्याय ४०


 ऋषियोंने कहा ( पूछा ) - महाराज ! वह वसिष्ठापवाह कैसे उत्पन्न हुआ ? उस श्रेष्ठ सरिताने उन ऋषिको अपने प्रवाहमें क्यों वहा दिया था ? ॥१॥ 
लोमहर्षण बोले - ( ऋषियो ! ) राजर्षि विश्वामित्र एवं महात्मा वसिष्ठमें तपस्याके विषयमें परस्पर चुनौती होनेके कारण बड़ी भारी शत्रुता हो गयी । वसिष्ठका आश्रम स्थाणुतीर्थमें था और उसके पश्चिम दिशामें बुद्धिमान् विश्वामित्र महर्षिका आश्रम था; जहाँ देवाधिदेव भगवान् शिवने यज्ञ करनेके बाद सरस्वतीकी पूजा कर मूर्तिके रुपमें सरस्वतीकी स्थापना की थी । वसिष्ठजी वहीं घोर तपस्यामें संलग्न थे । उनकी तपस्यासे विश्वामित्र ( प्रभावतः ) हीन - से होने लगे ॥२ - ५॥ 
( एक बार ) विश्वामित्रने सरस्वतीको बुलाकर यह वचन कहा - सरस्वति ! तुम मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको अपने वेगसे कहा - सरस्वति ! तुम मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको अपने वेगसे बहा लाओ । मैं उन द्विजश्रेष्ठ वसिष्ठको यहाँ मारुँगा - इसमें संदेहकी बात नहीं है । इस ( अवाज्छनीय बात ) - को सुनकर वह महानदी दुःखित हो गयी । ( पर ) विश्वामित्रने उस प्रकार दुःखित एवं काँपती हुई उस महानदीको देखकर क्रोधमें भरकर कहा कि वसिष्ठको शीघ्र लाओ । उसके बाद उस श्रेष्ठ नदीने मुनिश्रेष्ठके पास जाकर उनसे रोते हुए विश्वामित्रकी उस बातको कहा ॥६ - ९॥ 
उन वसिष्ठजीने तपश्चर्यासे दुर्बल एवं अतिशय शोक - समन्वित उस श्रेष्ठ सरिता ( सरस्वती ) - से कहा - ( तुम ) विश्वामित्रके पास मुझे बहा ले चलो । उन दयालुके उस वचनको सुनकर उस सरस्वती सरिताने जलके ( तेज ) प्रवाहद्वारा उन्हें उस स्थानसे बहाना प्रारम्भ किया । किनारेसे ले जाये जानेके कारण बहते हुए मित्रावरुणके पुत्र वसिष्ठ - ऋषि प्रसन्न होकर देवी सरस्वतीकी स्तुति करने लगे - सरस्वति ! आप ब्रह्माके सरोवरसे निकली हैं । आपने अपने उत्तम जलसे समस्त जगतको व्याप्त कर दिया है ॥१० - १३॥ 
' आप ही आकाशगामिनी देवी हैं और मेघोंमें जलको उत्पन्न करती हैं । आप ही सभी जलोंके रुपमें वर्तमान हैं । आपकी ही शक्तिसे हम लोग अध्ययन करते हैं । आप ही पुष्टि, धृति, कीर्ति, सिद्धि, कान्ति, क्षमा, स्वधा, स्वाहा तथा सरस्वती हैं । यह पूरा विश्व आपके ही अधीन है । आप ही समस्त प्रणियोंमें वाणीरुपसे स्थित हैं । ' वसिष्ठजीने भगवती सरस्वतीकी इस प्रकार स्तुति की और सरस्वती नदीने उन विप्रदेवको विश्वामित्रके आश्रममें सुखपूर्वक पहुँच दिया और खिन्न होकर उन मुनिको विश्वामित्रके लिये निवेदित कर दिया ॥१४ - १७॥
उसके बाद सरस्वतीद्वारा बहाकर लाये गये वसिष्ठको देखकर विश्वामित्र क्रोधसे भर गये और वसिष्ठका अन्त करनेवाला शस्त्र ढूँढ़ने लगे । उन्हें क्रोधसे भरा हुआ देखकर ब्रह्महत्याके भयसे डरती हुई वह सरस्वती नदी गाधिपुत्र विश्वामित्रको वञ्जित कर दोनोंकी बातोंका पालन करती हुई उन वसिष्ठको जलमें ( पुनः ) बहा ले गयी । उसके बाद ऋषिप्रवर वसिष्ठको अपवाहित होते देखकर महातपस्वी विश्वामित्रके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये । फिर विश्वामित्रने कहा - ओ श्रेष्ठ नदी ! यतः तुम मुझे वञ्चितकर चली गयी हो, कल्याणि ! अतः श्रेष्ठ राक्षसोंसे संयुक्त होकर तुम शोणितका वहन करो - तुम्हारा जल रक्तसे युक्त हो जाय ॥१८ - २१॥ 
उसके बाद बुद्धिमान् विश्वामित्रसे इस प्रकार शाप प्राप्तकर सरस्वतीने एक वर्षतक रक्तसे मिले हुए जलको बहाया । उसके पश्चात् सरस्वती नदीको रक्तसे मिश्रित जलवाली देखकर ऋषि, देवता, गन्धर्व और अप्सराएँ अत्यन्त दुःखित हो गयीं । ( यतः ) उस पवित्र श्रेष्ठ तीर्थमें रुधिर ही बहने लगा । अतः वहाँ भूत, पिशाच, राक्षस एकत्र होने लगे । वे सभी रक्तका पान करते हुए वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगे । वे उससे अत्यन्त तृप्त, सुखी एवं निश्चिन्त होकर इस प्रकार नाचने एवं हँसने लगे, मानो उन्होंने स्वर्गको जीत लिया हो ॥२२ - २५॥
कुछ समय बीतनेपर तपस्याके धनी ऋषिलोग तीर्थयात्रा करते - करते सरस्वतीके तटपर पहुँचे । ( वहाँ ) भयानक राक्षसोंके द्वारा पीती जाती हुई महानदी सरस्वतीको देखकर वे उसकी रक्षाके लिये महान् प्रयत्न करने लगे । और महान् व्रतोंका अनुष्ठान करनेवाले उन महाभागोंने श्रेष्ठ नदीको ( पास ) बुलाकर उससे यह वचन फिर कहा - श्रेष्ठ सरिते ! हम सब आपसे यह जानना चाहते हैं कि यह जलाशय रक्तसे भरकर ऐसा क्षुब्ध कैसे हुआ है ? ॥२६ - २९॥ 
तब उसने विश्वामित्रके समस्त विकर्मोंका ( उनके सामने ही ) वर्णन किया । उसके पश्चात् प्रसन्न हुए मुनिजन सरस्वती तथा समस्त पापोंका विनाश करनेवाली अरुणा नदीको ले आये । ( जिससे सरस्वती - हदका शोणित पवित्र जल हो गया ) ( पर ) सरस्वतीके जलको ( इस प्रकार शुद्ध हुआ ) देखकर राक्षस बहुत दुःखित हो गये । वे दीनतापूर्वक उन सभी मुनियोंसे बार - बार कहने लगे कि हम सभी सदा भूखे एवं धर्मसे रहित रहते हैं । हम अपनी इच्छासे पापकर्म करनेवाले पापी नहीं बने हुए हैं, अपितु आप लोगोंकी अकृपा एवं अशोभन कर्मोंसे ही हमारा पक्ष बढ़ता रहता है; क्योंकि हम सभी ब्रह्मराक्षस हैं ॥३० - ३३॥
इसी प्रकार जो क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ब्राह्मणोंसे द्वेष करते हैं, वे ( ऐसे ही ) विकर्म करनेके कारण राक्षस हो जाते हैं । पापिनी स्त्रियोंके योनिदोषसे हमारी यह संतति बढ़ती रहती है । यह हमारी प्राचीन गति है । आप लोग सभी लोकोंका उद्धार करनेमें समर्थ हैं । ( लोमहर्षणजी कहते हैं - ) द्विजो ! वे कृपालु मुनि उन सदाकी रीति ब्रह्मराक्षसोंके इन वचनोंको सुनकर बहुत दुःखी हुए और परस्पर परामर्शकर उनसे बोले - ( ब्रह्मराक्षसो ! ) छींक तथा कीटके संसर्गसे दूषित, उच्छिष्ट भोजन, केशयुक्त, तिरस्कृत एवं श्वासवायुसे दूषित अन्न तुम राक्षसोंका भाग होगा ॥३४ - ३८॥ 
( पुनः लोमहर्षणजी बोले - ) ऋषियो ! इसको जानकर विद्वान् पुरुषको चाहिये कि इस प्रकारके अन्नोंको त्याग दे । इस प्रकार अन्न खानेवाला व्यक्ति राक्षसोंका भाग खाता है । उन तपोधन ऋषियोंने उस तीर्थको शुद्धकर उन राक्षसोंकी मुक्तिके लिये वहाँ एक सङ्गमकी रचना की । [ उसका फल इस प्रकार है - ] लोक - प्रसिद्ध अरुणा और सरस्वतीके सङ्गममें तीन दिनोंतक व्रतपूर्वक स्त्रान करनेवाला ( व्यक्ति ) सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है । ( आगे भी ) घोर कलियुग आनेपर तथा अधर्मका अधिक प्रसार हो जानेपर मनुष्य अरुणाके सङ्गममें स्त्रान करके मुक्ति प्राप्त कर लेंगे । इसको सुननेके बाद उन सभी राक्षसोंने उसमें स्त्रान किया और वे निष्पाप हो गये तथा दिव्य माला और वस्त्र धारणकर स्वर्गमें विराजने लगे ॥३९ - ४३॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें चालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥४०॥