मार्कण्डेयजीने कहा - मुने ! अब मैं आपसे स्थाणुतीर्थके प्रभावको सुनना चाहता हूँ । इस तीर्थमें किसने सभी प्रकारके पापों एवं भयोंको दूर करनेवाली सिद्धि प्राप्त की ? ॥१॥
सनत्कुमारने कहा ( उत्तर दिया ) - मार्कण्डेय ! तुम स्थाणुके उत्तम माहात्म्यको पूर्णतया सुनो, जिसको सुनकर मनुष्य सभी पापोंसे बिलकुल छूट जाता है । इस अचर - सचर संसारके प्रलयकालीन समुद्रमें विलीन हो जानेपर अव्यक्तजन्मवाले विष्णुकी नाभिसे एक कमल उत्पन्न हुए । उनसे मरीचि हुए और मरीचिके पुत्र हुए कश्यप । कश्यपसे सूर्य उत्पन्न हुए उनसे उत्पन्न हुए मनु । मनुके छींकनेपर उनके मुँहस्से एक पुत्रकी उत्पत्ति हुई । वह सारी पृथ्वीके धर्मकी रक्षा करनेवाला राजा हुआ । उस राजाकी भया नामकी पत्नी हुई, जो ( सचमुच ) भय उत्पन्न करनेवाली थी । वह कालकी कन्या थी और मृत्युके गर्भसे उत्पन्न हुई थी ॥२ - ६॥
( फिर तो ) उससे वेनने जन्म लिया जो दुष्टात्मा था तथा वेदोंकी निन्दा करनेवाला था । उस पुत्रके मुखको देखकर राजा क्रुद्ध हो गया और वनमें चला गया । उसने वहाँ घोर तपस्या की तथा पृथ्वी एवं आकाशके बीचके स्थानको धर्मसे व्याप्तकर नहीं लौटनेवाले स्थान उस ब्रह्मलोकको प्राप्त कर लिया । ( और इधर ) वेन सम्पूर्ण भूमण्डलका राजा हो गया । अपने नानाके उस दोषके कारण कालकन्या भयाके उस दुष्टात्मा वेद - निन्दक पुत्रने नगरमें यह घोषणा करा दी कि कभी भी ( कोई ) दान द दे, यज्ञ न करे एवं हवन न करे - ( दान, यज्ञ, हवन करना अपराध माना जायेगा ) ॥७ - १०॥
इस संसारमें एकमात्र मैं ही आप लोगोंका वन्दनीय और पूजनीय हूँ । आप लोग मुझसे रक्षित रहकर आनन्दपूर्वक निवास करें । मुझसे भिन्न कोई दूसरा देवता नहीं है, जो आप लोगोंका उत्तम आश्रय हो सके । वेनके इस वचनकी सुननेके पश्चात् सभी ऋषियोंने आपसमें मिलकर ( निश्चय किया और ) राजासे यह वचन कहा - राजन् ! धर्मके विषयमें वेद - ( - शास्त्र ) ही प्रमाण हैं । उन्हींसे यज्ञ विहित हैं, प्रतिष्ठित हैं - विष्णुरुपमें मान्य हैं । ( उन ) यज्ञोंके किये बिना स्वर्गमें रहनेवाले देवता सन्तुष्ट नहीं होते और बिना सन्तुष्ट हुए वे अन्नकी वृद्धिके लिये जलकी वृष्टि नहीं करते । अतः विष्णुमय यज्ञों और देवताओंसे ही चर - अचर समस्त संसारका धारण और पोषण होता है । यह सुनकर वेन क्रोधसे आँखें लालकर बार - बार कहने लगा - ॥११ - १५॥
क्रोधसे झल्लाकर ( तिलमिलाकर ) उसने ' न यज्ञ करना होगा और न दान देना होगा ' - ऐसा कहा । उसके बाद ऋषियोंने भी क्रुद्ध होकर मन्त्रद्वारा वज्रमय कुशोंसे उसे मार डाला । उसके ( मर जानेके ) बाद ( राजासे रहित ) संसारमें अराजकता छा गयी, जिससे सर्वत्र अशान्ति फैल गयी । चोरों - डाकुओंने लोकजनोंको पीडित कर डाला । दस्युदलोंसे त्रस्त जनवर्ग उन ऋषियोंकी शरणमें गया, जिस ऋषिवर्गने उस वेनको मार डाला था । उसके बाद उन सभी ऋषियोंने उसके बायें हाथको मथित किया । उससे एक पुरुष निकला जो छोटा बौना दीख रहा था । सभी ऋषियोंने उससे कहा - ' निषीदतु भवान् ' अर्थात् आप बैठें ॥१६ - १९॥
उस बायें हाथके मथनेसे निकले हुए बौने पुरुषसे ऋषियोंद्वारा ' निषीदतु भवान् ' कहनेके कारण ' निषीदतु ' के आधारपर निषादोंकी उत्पत्ति हुई जो वेनकी पापमूर्ति थे । इसके बाद उस बौने पुरुषको राज्यकार्यसंचालनमें अनुपयुक्त समझकर उन सभी ऋषियोंने ( पुनः मरे हुए ) वेनके दायें हाथको मथा । उस हाथके मथे जानेपर बड़े शालवृक्षकी भाँति और दिव्य लक्षणोंसे युक्त एक दूसरा पुरुष निकला । उसके हाथमें धनुष, बाण, चक्र और ध्वजाकी रेखाएँ थीं । उस समय उसे उत्पन्न हुआ देखकर इन्द्रके सहित सभी देवताओंने उसको पृथ्वीमें भूलोकका पालन करनेवाले राजाके रुपमें ( राजपदपर ) अभिषीक्त कर दिया । उसके बाद उसने पृथिवीका धर्मपूर्वक रञ्जन किया - प्रताको प्रसन्न रखा ॥२० - २३॥
उसके पिताने जिस जनताको अपने कुकृत्योंसे अपरागवाली बना दिया था उसी जनताको उसने भलीभाँति पालित किया । सारी पृथ्वीका रञ्जन करनेके कारण ही उसे यथार्थरुपमें ' राजा ' शब्दसे सम्बोधित किया जाने लगा । वह पृथ्वीपति राजा उनके राज्य प्राप्त कर चिन्तन करने लगा कि मेरे पिता अधर्मी, पाप - मति और यज्ञका विशेषतया उच्छेद करनेवाले थे । इसलिये कौन - सी क्रिया की जाय जो उन्हें परलोकमें सुख देनेवाली हो । ( उसी समय ) इस प्रकार चिन्तन करते हुए उसके पास नारदजी आ गये । उसने उन नारदजीको बैठनेके लिये आसन दिया और साष्टाङ्ग प्रणाम कर पूछा - भगवान् ! आप सारे संसारके प्राणियोंके शुभ और अशुभको जानते हैं; ( देखें, ) मेरे पिता देवताओं और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाले दुराचारी थे । विप्रदेव ! वे अपने कर्तव्य कर्मसे रहित थे और अब वे परलोक चले गये हैं ( उनकी गतिके लिये मुझे कौन - सी क्रिया करनी चाहिये ? ) ॥२४ - २८॥
उसके बाद नारदभगवान् अपनी दिव्य दृष्टिसे देखकर उससे बोले - राजन् ! तुम्हारे पिता म्लेच्छोंके बीचमें जन्मे हैं । उन्हें क्षयरोग और कुष्ठरोग हो गया है । महात्मा नारदके ऐसे वचनको सुनकर वह राजा दुःखी हो गया और विचारने लगा कि अब मुझे क्या करना चाहिये । इस प्रकार सोचते - विचारते उस महात्मा राजाको बुद्धि उत्पन्न हुई कि संसारमें पुत्र उसको कहते हैं जो पितरोंको नरकके भयसे तार दे । इस प्रकार विचार करके उस राजाने नारदमुनिस्से पूछा - मुने ! मेरे उस दिवंगत पिताके उद्धारके लिये मुझे क्या करना चाहिये ? ॥२९ - ३२॥
नारदजीने कहा - तुम स्थाणु भगवानके महान् तीर्थस्वरुप संनिहित नामके सरोवरकी ओर जाओ एवं उसकी उस देहको तीर्थोंमें शुद्ध करो । वह राजा महात्मा नारदजीकी यह बात सुन करके मन्त्रीके ऊपर राज्यभार सौंपकर वहाँ चला गया । उसने उत्तर दिशामें जाकर म्लेच्छोंके बीच महान् कुष्ठ और क्षयरोगसे पीड़ित अपने पिताको देखा । तब महान् शोकसे सन्तप्त होकर उसने कहा कि म्लेच्छो ! मैं इस पुरुषको प्रणाम करता हूँ और इसे अपने घर ले जाता हूँ ॥३३ - ३६॥
यदि तुम लोग उचित समझो तो मैं इस पुरुषको वहाँ ले जाकर रोगसे मुक्त करुँ । वे सभी म्लेच्छ उस दयालु पुरुषसे साष्टाङ्ग प्रणाम करते हुए बोले - ठीक हैं; जैसा समझो, वैसा करो । उसके बाद उसने पालकी ढोनेवाले योग्य पुरुषोंको बुलाकर और उन्हें दुगुना पारिश्रमिक देकर कहा - इस द्विजको सुखपूर्वक ले चलो । उस दयालु राजाकी बात सुनकर वे लोग पालकी उठाकर शीघ्रतासे कुरुक्षेत्र होते हुए स्थाणुतीर्थमें ले जाकर और ( उसे ) उतारकर ( स्वस्थान ) चले गये ॥३७ - ४०॥
स्थाणु तीर्थमें पहुँचनेपर जब वह राजा म्लेच्छोंके बीच उत्पन्न हुआ एवं क्षय और कुष्ठरोगसे आक्रान्त अपने पिताकी देहको मध्याह्न कालमें स्त्रान कराने लगा तो अन्तरिक्षमें वायुरुपसे देवताओंने यह वचन कहा कि तात ! इस प्रकारका साहस मत करो । तीर्थकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करो । यह अत्यन्त घोर पाप कर चुका है, ( इसका ) रोम - रोम पापसे भरा है, घिरा है । वेदकी निन्दा करना महान् पाप है, जिसका अन्त नहीं होता । अतएव यह स्त्रान करके इस महान् तीर्थको तत्काल नष्ट कर देगा । वायुरुपी देवताओंके इस वचनको सुनकर दुःखी एवं शोकसे सन्तप्त हुए राजाने कहा - देवताओ ! यह घोर पापसे अत्यन्त परिव्याप्त है ॥४१ - ४४॥
( परन्तु ) देवगण ! आप लोग इसके लिये जो प्रायश्चित्त कहेंगे, उसे मैं करुँगा । उसके ऐसा कहनेपर उन सभी देवताओंने यह बात कही - तीर्थमें बार - बार ( स्त्रान करके ) तीर्थ - जलद्वारा इसे बार - बार सींचो । सरस्वतीके तटपर ' ओजसतीर्थ ' से ' चुलुक ' पर्यन्त हर एक तीर्थमें स्त्रान करनेव ला श्रद्धालु पुरुष मुक्तिको प्राप्त करता है । यह अपना ही पालन - पोषण करनेमें लगा रहता था एवं देवताओंकी निन्दा करनेमें तत्पर रहता था । ब्राह्मणोंने इसको पाप करनेके कारण त्याग दिया था । यह कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता । इसलिये ( इसकी यदि शुद्धि चाहते हो तो ) इसके उद्देश्यसे तीर्थोंमे जाकर भक्तिपूर्वक स्त्रान करके तीर्थ - जलसे इसे अभिषिक्त करो । इससे यह पवित्र हो जायगा । उसके बाद राजा देवताओंके इन वचनोंके सुननेके बाद वहाँ अपने पिताके लिये एक आश्रमका निर्माण कराकर उसके उद्देश्यसे तीर्थयात्रा करने चला गया । वह प्रतिदिन उन तीर्थोंमें स्त्रान करते हुए तीर्थजलसे अपने पिताको अभिषिक्त करने लगा । इसी समय वहाँ एक कुत्ता आ गया । ( कुत्तेका इतिहास इस प्रकार हैं - ) पूर्वकालमें वह कुत्ता स्थाणुतीर्थमें स्थित मठमें देव - द्रव्योंकी रक्षा करनेवाला - दानमें प्राप्त द्रव्यका सदा पालन करनेवाला - सर्वजनप्रिय एवं देवकृत्यमें रत कौलपति नामका महन्त था । इस प्रकार वह अपना जीवनयापन कर रहा था । एक बार धर्म - मार्गमें स्थित रहते हुए भी उस कौलपतिकी बुद्धि कुछ समयके बाद धर्ममार्गसे हट गयी । वह देवद्रव्यका नाश ( दुरुपयोग ) करने लगा । वह अधर्मी ( बना ) कौलपति जब मरकर परलोकमें गया, तब यमराजने उसे ( उसके कर्मविपाकको ) देखकर कहा - तुम कुत्तेकी योनिमें जाओ, देर मत करो । उनके कहनेके पश्चात् वह महन्त सौगन्धिक वनमें कुत्तेकी योनिमें उत्पन्न हुआ ॥४५ - ५५॥
उसके बाद बहुत समय व्यतीत होनेतक वह कुत्ता कुत्तोंके झुंडसे धिरा रहता था; फिर भी कुतियासे अपमानित होनेके कारण अत्यन्त दुःखित रहता था । इसलिये वह द्वैतवनको छोड़कर पवित्र सान्निहत्य - सरोवरमें चला गया । उसमें प्रवेश करते ही स्थाणु भगवानकी ही कृपासे अत्यन्त प्यासा होकर उसने सरस्वती नदीमें डुबकी लगायी । उसमें स्त्रान करनेसे ही वह समस्त पापोंसे विमुक्त हो गया । उसके बाद आहाराके लोभसे उसने कुटीमें प्रवेश किया । उस कुत्तेको प्रवेश करते देखकर भयभीत होकर उस ( वेन ) - ने उसका धीरेसे स्पर्श किया । स्पर्श करनेके बाद स्थाणुतीर्थमें उसने स्त्रान किया । पूर्वतीर्थोंमें स्त्रान करनेके बाद तीर्थके जलबिन्दुओंसे सिञ्चित करनेवाले पुत्रसे एवं उस कुत्तेके शरीरसे निकले जल - बिन्दुओंसे सिञ्चित होने तथा कुत्तेके भयसे स्थाणुतीर्थमें गिर जानेके कारण स्त्रान हो जानेके माहात्म्यसे अपने पिताका उद्धार कर दिया और संयतेन्द्रिय होकर उसने तत्काल दिव्य देह धारण कर भगवान् स्थाणुको प्रणाम किया और स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥५६ - ६२॥
वेन स्तुति करने लगा - मैं अजन्मा चन्द्रमाके शिरोभूषणवाले, ईशानदेव, महात्म, सारे संसारका पालन करनेवाले आप महादेवकी शरण ग्रहण करता हूँ । देवदेवेश ! समस्त शत्रुओंके निषूदन ! देवेश ! बलिको निरुद्ध करनेवाले ! देवों एवं दैत्योंसे पूजित ! आपको नमस्कार है । हे ( विरुप आँखवाले ) विरुपाक्ष ! हे ( हजारों आँखोंवाले ) सहस्त्राक्ष ! हे तीन नेत्रोंवाले ! हे यक्षेश्वरप्रिय ! हे चारों ओरसे ( हाथ - पैरवाले ) पाणीपादयुक्त ! हे चारों ओर आँख एवं मुखवाले ! आपको नमस्कार हैं । आप सर्वत्र सुन सकनेवाले और सभी स्थानोंपर व्याप्त हैं । संसारमें आपने सभीको आवृत्त कर ( ढक ) रखा है । हे शङ्कुकर्ण ! हे महाकर्ण ! हे कुम्भकर्ण ! हे समुद्रनिवासी ! आपको नमस्कार है ॥६३ - ६६॥
हे गजेन्द्रकर्ण ! हे गोकर्ण ! हे पाणिकर्ण ! हे शतजिह्व ! हे शतावर्त ! हे शतोदर ! हे शतानन ! आपको नमस्कार है । गायत्रीका जप करनेवाले विद्वान् आपकी ही महिमा गाते हैं । सूर्यकी पूजा करनेवाले सूर्यरुपसे आपकी ही पूजा करते हैं । आपको ही सभी लोग इन्द्रसे श्रेष्ठ वंशवाला ब्रह्मा मानते हैं । महामूर्ते ! आपकी मूर्तिमें समुद्र, मेघ और समस्त देवता ऐसे स्थित हैं जैसे गोशालामें गौएँ रहती है । मैं आपके शरीरमें सोम, अग्नि, वरुण, नारायण, सूर्य, ब्रह्मा और बृहस्पतिको देख रहा हूँ ॥६७ - ७०॥
आप भगवान् कारण, कार्य, क्रियाके करण, प्रभव, प्रलय, सत, असत एवं दैवत है । भव, शर्व, वरद, उग्ररुप धरण करनेवाले, अन्धकासुरको मारनेवाले और पशुओंके पति पशुपतिको नमस्कार है । हे त्रिपुरनाशक ! तीन जटावाले, तीन सिरवाले हाथमें त्रिशूल लिये रहनेवाली त्र्यम्बक एवं त्रिनेत्र ( कहलानेवाले ) आपको नमस्कार है । हे मुण्ड, चण्ड और अण्डकी उत्पत्तिके हेतु, डिण्डिमपणि एवं डिण्डिमुण्ड ! आपको नमस्कार है ॥७१ - ७४॥
हे ऊर्ध्वकेश, ऊर्ध्वदंष्ट, शुष्क, विकृत, धूम्र, लोहित, कृष्ण एवं नीलग्रीव ! आपको नमस्कार है । अप्रतिरुप, विरुप, शिव, सूर्यमाल, सूर्य एवं स्वरुपध्वजमालीको नमस्कार है । मानातिमानको नमस्कार है । आप पटुतरको नमस्कार है । गणेन्द्रनाथ, वृषस्कन्ध एवं धन्वीको नमस्कार है । संक्रन्दन, चण्ड, पर्णधारपुट एवं हिरण्यवर्णको नमस्कार है । कनकवर्चसको नमस्कार है ॥७५ - ७८॥
स्तुत किये गये तथा स्तुति योग्य ( आप ) - को नमस्कार है । स्तुतिमें स्थित, सर्व, सर्वभक्ष एवं सर्वभूतशरीरी आपको नमस्कार है । होता, हन्ता तथा सफेद और ऊँची पताकावालेको नमस्कार है । नमन करनेयोग्य एवं नम्रको नमस्कार है । आप कटकटको नमस्कार है । कृशनाश, शयित, उत्थित, स्थित, धावमान, मुण्ड एवं कुटिलको नमस्कार है । नर्तनशील, लय वाद्यशाली, नाट्यके उपहारके लोभी एवं मुखोंमें बम - बम - जैसे मुँहसे बोले जानेवाले वाद्य - प्रेमीको नमस्कार है ॥७९ - ८२॥
ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, बलवानसे भी बलवानको नष्ट करनेवाले, कालनाश, कालस्वरुप एवं संसारक्षयस्वरुप आपको नमस्कार है । हे हिमालयकी पुत्रीके पति - पार्वतीपति ! आप भैरवको नमस्कार है और उग्ररुप आपको नित्य नमस्कार है । दस बाहुओंवाले ( शिव ) - को नमस्कार है । चिताके भस्मको प्रिय माननेवाले, कपालपाणि, अत्याधिक भयंकर भयरुप ( भीष्म ) एवं व्रतधर ( आप ) - की ( नमस्कार ) है । विकृत मुँहवाले ( आप ) - को नमस्कार है । पवित्र तेजस्विनी दृष्टिवाले, कच्चे - पक्के फलके गूदेको प्रिय माननेवाले, तुम्बी एवं वीणाको प्रिय माननेवालेको नमस्कार है ॥८३ - ८६॥
वृषाङ्क्तवृक्षको नमस्कार है । गोवृषाभीरुतको नमस्कार है । कटङ्क्तट, भीम एवं परसे भी परको नमस्कार है । सर्ववरिष्ट, वर एवं वरदायीको नमस्कार है । विरक्त एवं रक्तरुप, भावन एवं अक्षमालीको नमस्कार है । विभेद एवं भेदसे भिन्न, छाया, तपन, अघोर तथा घोररुप एवं घोरघोरतर रुपको नमस्कार है । शिव एवं शान्तको नमस्कार है । शान्ततम, बहुनेत्र एवं कपालधारीको नमस्कार है । हे एकमूर्ति ! आपको नमस्कार है ॥८७ - ९०॥
क्षुद्र, लुब्ध, यज्ञभागाप्रिय, पञ्चाल एवं सिताङ्गको नमस्कार है । यमके नियमनकर्ताको नमस्कार है । चित्रोरुघण्ट, घण्टाघण्टनिघण्टीको नमस्कार है । सहस्त्रशतघण्ट एवं घण्टामालाविभूषितको नमस्कार है । प्राणसंघट्टगर्व, किलिकिलिप्रिय, हुंहुंकार, पार एवं हुंहुंकारप्रियको नमस्कार है । समसम, गृहव्रुक्षनिकेती, गर्भमांसश्रृगाल, तारक एवं तरको नित्य नमस्कार है ॥९१ - ९४॥
यज्ञ, यजमान, हुत, प्रहुत, यज्ञवाह, हव्य, तप्य और तपनको नमस्कार है । पयसरुप आपको नमस्कार है । तुण्डोंके पतिको नमस्कार है । पयसरुप आपको नमस्कार है । तुण्डोंके पतिको नमस्कार है । अन्नद, अन्नपति एवं अनेक प्रकारके अन्नभोजीको नमस्कार है । हजारों सिरवाले, हजारों चरणवाले, हजारों शूलको उठाये हुए और हजारों आभूषणवालेको नमस्कार है । बालानुचरकी रक्षा करनेवाले, बाललीलामें विलास करनेवाले, बाल, वृद्ध, क्षुब्ध एवं क्षोभणको नमस्कार है ॥९५ - ९८॥
गङ्गालुलितकेश और मुञ्जकेशको नमस्कार है । छः कर्मोंसे संतुष्ट तथा तीन कर्मोंमें लगे रहनेवाले ( आप ) - को नमस्कार है । नग्नप्राण, चण्ड, कृश, स्फोटन तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके कथ्य और कथनको नमस्कार है । सांख्य, सांख्यमुख्य, सांख्य - योगमुख, विरथरथ्य तथा चतुष्पथरथको नमस्कार है । काले मृगचर्मके उत्तरीयवाले, साँपके जनेऊवाले, वक्त्रसंधानकेश, त्र्यम्बिकाम्बिकनाथ, दृश्य एवं अदृश्य और वेधास्वरुप हे हरिकेश ! आपको नमस्कार है ॥९९ - १०२॥
हे काम ! हे कामद ! हे कामको नष्ट करनेवाले ! आप तृप्त और अतृप्तविचारीको नमस्कार है । हे सर्वद ! हे पाप दूर करनेवाले ! आप कल्पसंख्याविचारीको नमस्कार है । हे महासत्त्व ! हे महाबाहु ! हे महाबल ! हे महामेघ ! हे महाप्राख्य ! हे महाकाल एवं हे महाद्युति ! आपको नमस्कार है । हे मेघावर्त्त ! हे युगावर्त्त ! आप चन्द्रार्कपतिको नमस्कार है । आप ही अन्न, अन्नके भोक्ता, पक्वभुक् एवं पवित्रोंमें श्रेष्ठ हैं । हे देवदेवेश ! आप ही जरायुज, अण्डज, स्वेदज, उदभिज्ज - चतुर्विध भूतसमुदाय हैं ॥१०३ - १०६॥
आप इस चराचरकी सृष्टि करनेवाले, पालन करनेवाले एवं संहार करनेवाले हैं । विद्वज्जन आपको ब्रह्म एवं ज्ञानियोंकी ( कैवल्य ) गति कहते हैं । आप मनकी परमज्योति हैं और ज्योतियोंके ( धारण करनेवाले ) वायु हैं । ब्रह्मवादीजन आपको हंसवृक्षपर रहनेवाला भ्रमर कहते हैं । वेद और उपनिषदोंके समूह स्तुतियोंद्वारा आपका ही नित्य पाठ करते हैं । आप ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्य अवर वर्ण, मेघसमूह, विद्युत तथा मेघागर्जन भी हैं ॥१०७ - ११०॥
आप युग, नक्षत्र, ग्रह, संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, निमेष, काष्ठा तथा कला हैं । आप वृक्षोंमें अर्जुन वृक्ष, पर्वतोंमें हिमालय, पशुओंमें व्याघ्र, पक्षियोंमें गरुड़ और साँपोंमें शेषनाग हैं । आप समुद्रोमें क्षीरसागर, यन्त्रोंमे धनुष, आयुधोंमें वज्र और व्रतोंमें सत्य हैं । आप ही द्वेष, इच्छा, राग, मोह, क्षमा, अक्षमा, व्यवसाय, धैर्य, लोभ, काम, क्रोध, जय और पराजय हैं ॥१११ - ११४॥
आप बाण धारण करनेवाले, गदा धारण करनेवाले, खट्वाङ्ग धारण करनेवाले एवं धनुर्धारी हैं । आप विदारण करनेवाले, प्रहार करनेवाले, अवबोधन ( सतर्क ) करनेवाले, प्राप्त करानेवाली और सनातन हैं । आप दस लक्षणोंसे संयुक्त धर्म, अर्थ एवं काम तथा समस्त समुद्र, नदियाँ, गङ्गा, पर्वत एवं सरोवर हैं । समस्त लताएँ, वल्लियाँ, तृण, ओषधियाँ; पशु, मृग, पक्षी; पृथ्वी, अप आदि नवों द्रव्यों; उत्क्षेपण - आक्षेपण आदि पाँच कर्मो; रुप, रस, गन्ध आदि चौबीस गुणोंके आरम्भक भी आप ही हैं । आप ही समयपर फूल एवं फल देनेवाले हैं । आप वेदोंके आदि और अन्त हैं, गायत्री तथा प्रणव भी आप ही हैं । आप ही लोहित, नील, कृष्ण, पीत, सित, कद्रु, कपिल, कपोत, मेचक, सवर्ण, अवर्ण, कर्ता वें हर्त्ता हैं ॥११५ - ११९॥
आप इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, पवन, उपप्लव, चित्रभानु, स्वर्भानु एवं भानु हैं । आप शिक्षा, होत्र, त्रिसौपर्ण, यजुर्वेदका शतरुद्रिय, पवित्रोंमें पवित्र एवं मङ्गलोंमें मङ्गल हैं । आप तिन्दुक्त, शिलाजतु, वृक्ष, मुद्र, सबके जीवन, प्राण, सत्त्व, रज, तम तथा प्रतिपत्पति हैं । आप ही प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, उन्मेष, निमेष, छींक एवं जँभाई हैं ॥१२० - १२३॥
आप लोहितके अन्तः स्थित, दृष्टि, बड़े मुँहवाले, भारी पेटवाले, पवित्र रोमावलीवाले, हरिश्मश्रु, ऊर्ध्वकेश एवं चल तथा अचल हैं । आप गाने, बजाने, नृत्यकलाके विद्वान् हैं तथा गाना - बजाना करनेवालोंके भी आप प्रिय हैं । आप मत्स्य, जाल, जलौका, काल तथा केलि - कला एवं कलह हैं । आप अकाल, विकाल, दुष्काल और कालस्वरुप हैं । आप मृत्यु, मृत्युकर्त्ता, यक्ष तथा यक्षको भी भय देनेवाले हैं । आप संवर्तक, अन्तक एवं संवर्तकनामक बादल हैं । आप घण्ट, घण्टी, महाघण्टी, चिरी, काली और मातलि भी हैं ॥१२४ - १२७॥
आप ब्रह्मा, काल, यम कौर अग्निको दण्ड देनेवाले, मुण्डी एवं त्रिमुण्डधारी हैं । आप चतुर्युग, चतुर्वेद एवं चातुर्होत्रके प्रवर्त्तक हैं । आप चारों आश्रमोंके नेता तथा चारों वर्णोंकी सृष्टि करनेवाले हैं । आप नित्यद्यूतप्रिय, ( धर्म्य ) धूर्तईके भी प्रयोक्ता, गणाध्यक्ष और गणोंके स्वामी हैं । आप लाल माला और लाल वस्त्र धारण करनेवाले हैं तथा गिरिक, गिरिकप्रिय, शिल्प, शिल्पिश्रेष्ठ तथा हर प्रकारके शिल्पोंके प्रवर्त्तक हैं । आप भगनेत्राङ्कुश, चण्ड एवं पूष्पाके दाँतोंके विनाशक हैं । आप स्वाहा, स्वधा, वषट्कार और नमस्कार हैं । आपको बारम्बार नमस्कार है ॥१२८ - १३१॥
आप गूढ़व्रतवाले, गुप्ततपस्यावाले, तारक और तारकामय हैं । आप धाता, विधाता, संधाता और पृथ्वीके श्रेष्ठ धारण और पोषण करनेवाले हैं । आप ब्रह्मा, तप, सत्य, व्रत - चर्या और सरल एवं शुद्ध हैं । आप ( पञ्च ) भूतस्वरुप ऐश्वर्य और प्राणियोंके उत्पत्ति - स्थान हैं । आप भूः, भुवः, स्वः, ऋतः, ध्रुव, कोमल तथा महेश्वर हैं । आप दीक्षित, अदीक्षित, कान्त, दुर्दान्त ( उग्र ) और दान्तसे उत्पन्न हैं । आप चन्द्रावर्त्त, युगावर्त्त, युगावर्त्त, संवर्त्तक और प्रवर्तक हैं । आप बिन्दु, काम, अणु, स्थूल तथा कनेरकी मालाके प्रेमी हैं ॥१३२ - १३५॥
आप नन्दीमुख, भीममुख, सुमुख तथा दुर्मुख हैं । आप हिरण्यगर्भ. शकुनि, महासर्पपति तथा विराट् हैं । आप अधर्मका नाश करनेवाले महादेव, दण्डधार, गणोत्कट, गोनर्द, गोप्रतार तथा गोवृषेश्वर - वाहन हैं । आप त्रैलोक्यरक्षक, गोविन्द, गोमार्ग तथा मार्ग हैं । आप स्थिर, श्रेष्ठ, स्थाणु, विक्रोश तथा क्रोश हैं । आप दुर्वारण, दुर्विषह, दुःसह, दुरतिक्रम, दुर्धर्ष, दुष्प्रकाश, दुर्दर्श, दुर्जय तथा जय हैं ॥१३६ - १३९॥
आप चन्द्र, अनल, शीत, उष्ण, क्षुधा, तृष्णा, निरामय, आधिव्याधि, व्याधिहन्ता एवं व्याधियोंको नष्ट करनेवाले हैं । आप समूह हैं और समूहके हन्ता तथा सनातन देव हैं । आप शिखण्डी, पुण्डरीकाक्ष तथा पुण्डरीकवनके आश्रय हैं । मरुत्पति ! हे देवदेव ! आप तीन नेत्रवाले, दण्डधारी, भयंकर दाँतवाले, कुलके अन्त करनेवाले, विषको नष्ट करनेवाले, सुरश्रेष्ठ, सोमरस पीनेवाले, अमृताशी, जगतके स्वामी तथा गणेश्वर हैं । आप मधुसंग्रह करनेवालोंमें मधुप, वाणियोंमें ब्रह्मवाक, घृतच्युत, समस्त लोकोंका पालन - पोषण और उपसंहार करनेवाले एवं सर्वलोकके पितामह हैं ॥१४० - १४३॥
आप हिरण्यरेता तथा अद्वितीय पुरुष हैं । आप स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक भी हैं । आप ही बालक, युवक, वृद्ध, देवदंष्ट्रा, गिरि, संसारके रचयिता तथा संसारके संहार करनेवाले भी हैं । आप विश्व रचनेवालोंमें वरणीय धाता हैं । विनयी जन सदैव आपकी पूजा करते हैं । चन्द्रमा एवं सूर्य आपके नेत्रस्वरुप हैं । आप ही अग्नि एवं प्रपितामह हैं । सरस्वतीरुप आपकी आराधना कर लोग ( प्राञ्जल ) वाणीकी प्राप्ति करते हैं । आप दिन और रात्रि हैं और निमेष एवं उन्मेषके कर्त्ता हैं । हे शंकर ! ब्रह्मा, गोविन्द तथा प्राचीन ऋषि भी आपकी महिमाको ठीक - ठीक नहीं जान सकते । आप ( अपनेमें ) लाखों पुरुषोंको समावृत कर स्थित हैं । आप सदा महान् तमसे परे रहनेवाले परम रक्षक एवं ( सबके ) अवबोधक हैं ॥१४४ - १४७॥
निद्ररहित ( अतः सदा जागरुक ), श्वासपर विजय प्राप्त करनेवाले, सत्त्वगुणमें सदा स्थित एवं संयतेन्द्रिय योगिजन जिस ज्योतिका दर्शन करते हैं, उस योगात्मक ( आप ) - को नमस्कार है । सूक्ष्म होनेके कारण आपकी जो मूर्तियाँ प्रदर्शित नहीं की जा सकतीं उनके द्वारा आप सदा मेरी इस प्रकार रक्षा करें जैसे पिता अपने औरस पुत्रकी रक्षा करता है । पुण्यात्मन् ! आप मेरी रक्षा करें । मैं आपका रक्षणीय हूँ । आपको नमस्कार है । आप भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् हैं; मैं सदा आपका भक्त हूँ । जटी, जण्डी, लम्बोदरशरीरी तथा कमण्डलुनिषङ्ग रुद्रात्माको नमस्कार है ॥१४८ - १५१॥
जिनके केशोंमें बादल, समस्त अङ्गोंकी सन्धियोंमें नदियाँ एवं कुक्षिमें चारों समुद्र हैं, उन तोयात्मा भगवानको नमस्कार है । प्रलयकाल उपस्थित होनेपर भूतोंको अपने उदरमें स्थित रखकर जो जलके मध्यमें शयन करते हैं उन जलशायी ( विष्णु ) - की मैं शरण लेता हूँ । रात्रिमें आप जो राहुके मुखमें प्रवेश कर सोमको पीते हैं तथा आपके तेजसे रक्षित राहु सूर्यको ग्रस लेता हैं, ऐसे आपको नमस्कार है । रुद्रगन्धकी रक्षामें जो यहाँ गर्भ ( वाष्पराशि ) गिरे, आपके ही तेजसे गिरे; अतः आपको नमस्कार हैं; उन्हीं अद्भुत ( तेजों ) - में स्वाहा तथा स्वधाको वे प्राप्त करते हैं ॥१५२ - १५५॥
सभी देहधारियोंकी देहमें स्थित अङ्गुष्ठमात्रामें निवास करनेवाले जो पुरुष हैं, वे नित्य मेरी रक्षा करें तथा वे मुझे सर्वदा संतृप्त करें । जो नदियाँ, समुद्रों, पर्वतों, गुहामों, वृक्षकी जड़ों, गार्योंके रहनेके स्थानों, घने जंगलों, चौराहों, गलियों, चबूतरों, सभाओं, हथसारों, घुड़सारों और रथशालाओं, जीर्ण बाग - बगीचों, आलयों, पञ्चभूतों, पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण दिशाओं एवं अग्निकोण, नैऋत्यकोण, वायव्यकोण एवं ईशानकोणोंमें स्थित हैं । जो चन्द्र और सूर्यके बीचमें रहनेवाले, चन्द्र तथा सूर्यकी किरणोंमें स्थित, रसातलमें रहनेवाले एवं उससे भी आगे पहुँचे हुए हैं, उनको नित्य बारम्बार नमस्कार हैं; नमस्कार है; नमस्कार है ॥१५६ - १६०॥
जिनकी कोई संख्या नहीं है और न प्रणाम तथा रुप ही है, उन अनगिनत रुद्रगणोंको सदा नमस्कर है । आपका कल्याण हो । आपके भक्तिभावमें स्थित मेरे ऊपर आप प्रसन्न हों । हे देव ! आपहीमें मेरा हदय, मेरी बुद्धि एवं मति है । द्विजोत्तमने इस प्रकार महादेवकी स्तुति करके विराम ले लिया ॥१६१ - १६३॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें सैंतालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥४७॥
वामन पुराण Vaman Puran
श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।