वामन पुराण Vaman Puran

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


श्रीवामनपुराण - अध्याय ५८


 पुलस्त्यजी बोले - जब शङ्कर एवं देवताओंने देवताओंके सेनापतिके पदपर कुमार कार्तिकेयका अभिषेक किया तब उक्त पदपर अभिषिक्त कुमारने भक्तिपूर्वक शङ्कर, पार्वती और पवित्र अग्निको प्रणाम किया । उसके बाद छः कृत्तिकाओं एवं कुटिलाको भी सिर झुकाकर प्रणाम करके ब्रह्माको नमस्कार कर यह वचन कहा ॥१ - २॥ 
कुमारने कहा - देवताओ ! आप लोगोंको नमस्कार है । तपोधनो ! आप लोगोंको ओंकारके साथ नमस्कार ( ॐ नमः ) है । आप लोगोंकी अनुकम्पासे मैं महिष एवं तारक दोनों शत्रुओंपर विजय प्राप्त करुँगा । देवताओ ! मैं शिशु हूँ, मैं कुछ भी बोलना नहीं जानता । ब्रह्माके सहित आप लोग इस समय मुझे अनुमति दें । महात्मा कुमारके इस प्रकार कहनेपर सभी देवता निडर होकर उनका मुख देखने लगे । भगवान् शङ्कर पुत्रके स्नेहवश उठे और ब्रह्माको अपने दाहिने हाथसे पकड़कर स्कन्दके समीप ले आये । उसके बाद उमाने पुत्रसे कहा - शत्रुको मारनेवाले ! आओ ! आओ ! संसारसे वन्दित विष्णुके दिव्य चरणोंको प्रणाम करो ॥३ - ७॥ 
उसके बाद कार्तिकेयने हँसकर कहा - हे माता ! मुझे स्पष्ट बतलाओ कि ये कौन हैं, जिन्हें हमारे - जैसे ( अन्य ) व्यक्ति भी प्रेमपूर्वक प्रणाम करते हैं ? माताने उनसे कहा - ये महात्मा गरुडध्वज कौन हैं, यह तुम्हें कार्य कर लेनेपर ब्रह्मा भी बतलायेंगे । तुम्हारे पिता शङ्करदेवने मुझसे केवल यही बतलाया कि इनसे बढ़कर हमलोग या अन्य कोई शरीरधारी नहीं है । पार्वतीके स्पष्टतः कहनेपर कार्तिकेयने जनार्दनको प्रणाम किया एवं दोनों हाथोंको जोड़कर वे खड़े हो गये और भगवान् अच्युतसे आज्ञा माँगने लगे । लोकस्त्रष्टा भगवान् विष्णुने हाथ जोड़े हुए स्कन्दका स्वस्त्ययन कर उन्हें आज्ञा दी ॥८ - १२॥ 
नारदने कहा - विप्रर्षे ! गरुडध्वज विष्णुने मयूरध्वज कार्तिकेयके लिये जिस पवित्र स्वस्त्ययनका पाठ किया, उसे आप मुझसे कहें ॥१३॥ 
पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) स्कन्दकी विजय एवं महिषके वधके लिये भगवान् विष्णुद्वारा कहे गये मङ्गलमय स्वस्तिवाचन - स्वस्त्ययनको सुनिये । ( विष्णुने जो स्वस्त्ययन - पाठ किया, वह इस प्रकार है - ) रजोगुणसे सम्पन्न कमलयोनि ब्रह्मा तुम्हारा कल्याण करें । पत्नीसहित वृषभध्वज शङ्कर प्रेमपूर्वक तुम्हारा मङ्गल करें । मयूरवाहन ! अग्निदेव तुम्हारा कल्याण करें । सूर्य तुम्हारा मङ्गल करें । शुक्र सदैव तुम्हारा मङ्गल करें तथा शनैश्चर तुम्हारा मङ्गल करें ॥१४ - १७॥
मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, वसिष्ठ, भृगु, अङ्गिरा, मार्कण्डेय - ये ऋषि तुम्हारा मङ्गल करें । सप्तर्षिगण तुम्हारा सदा मङ्गल करें । विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, साध्य, मरुदगण, अग्नि, सूर्य, शूलधर, महेश्वर, यक्ष, पिशाच, वसु और किन्नर - ये सब तत्परतासे सदा तुम्हारा मङ्गल करें । नाग, पक्षी, नदियाँ, सरोवर, तीर्थ, पवित्र देवस्थान, समुद्र, महाबलशाली भूतगण तथा विनायकगण सदा तत्पर होकर तुम्हारा मङ्गल करें । दो पैरवालों एवं चार पैरवालोंसे तुम्हारा मङ्गल हो । बहुत पैरवालोंद्वारा तुम्हारा मङ्गल हो एवं बिना पैरवालोंसे तुम्हारी स्वस्थता बनी रहे - तुम नीरोग बने रहो ॥१८ - २१॥
वज्र धारण करनेवाले ( इन्द्र ) पूर्व दिशाकी, दण्डनायक ( यम ) दक्षिण दिशाकी, पाशधारी ( वरुण ) पश्चिम दिशाकी तथा चन्द्रमा उत्तर दिशाकी रक्षा करें । अग्नि अग्नि ( पूर्व - दक्षिण ) - कोणकी, कुबेर नैऋत्य ( दक्षिण - पश्चिम ) - कोणकी, वायुदेव वायव्य ( पश्चिम - उत्तर ) - कोणकी और शिव ईशान ( उत्तर - पूर्व ) - कोणकी ( रक्षा करें ) । ऊपरकी ओर ध्रुव, नीचेकी ओर पृथिवीको धारण करनेवाले शेषनाग एवं बीचके स्थानोंमें मुसल, हल, चक्र तथा धनुष धारण करनेवाले भगवान् विष्णु रक्षा करें । समुद्रमें वाराह, दुर्गम स्थानमें नरसिंह तथा सभी ओरसे सामवेदके ध्वनि - रुप श्रीमान् श्रीलक्ष्मीकान्त माधव तुम्हारी रक्षा करें ॥२२ - २५॥ 
पुलस्त्यजी बोले - इस प्रकार स्वस्त्ययन सम्पन्न हो जानेपर शक्ति धारण करनेवाले सेनापति कार्तिकेयजी सभी देवताओंको प्रणामकर भूतलसे आकाशकी ओर उड़ चले । प्रसन्न होकर देवताओंने जिन गणोंको गुहके लिये दिया था, उन इच्छानुकूल रुप धारण करनेवाली सभी गणोंने पक्षीका रुप धारण कर कुमारका अनुगमन किया । सभी माताएँ भी पराक्रमी स्कन्दके साथ महान् असुरोंके वधके लिये आकाशमें उड़ चलीं । उसके बाद बहुत दूर जानेपर स्कन्दने गणोंसे कहा - महापराक्रमियो ! तुम लोग शीघ्र ही पृथ्वीपर उतर जाओ ॥२६ - २९॥
गुहकी बात सुनकर सभी गण पृथ्वीपर उतर आये । उतरकर उस स्थानपर उन गणोंने एकाएक भयंकर नाद किया । वह भयंकर नाद सारी पृथ्वी एवं गगनमण्डलमें गूँज गया । फिर तो वह समुद्री छिद्रसे दानवोंके निवासस्थान पाताललोक ( तक ) - में पहुँच गया । उसके बाद मतिमान् महिष, तारक, विरोचन, जम्भ तथा कुजम्भ आदि असुरोंने उस ध्वनिको सुना । एकाएक वज्रपाताके समान उस भयंकर ध्वनिको सुनकर यह क्या है - यह सोचकर वे सभी शीघ्रतासे अन्धकके पास चले गये ॥३० - ३३॥ 
नारदजी ! वे सभी असुरश्रेष्ठ व्याकुल होकर अन्धकके साथ ही एकत्र होकर उस शब्दके विषयमें परस्पर विचार - विमर्श करने लगे । उन दैत्योंके विचार करते समय सूकर - जैसे मुखवाला दैत्यश्रेष्ठ पातालकेतु धरातलसे रसातलमें आया । बाणसे विद्ध होनेके कारण व्यथित होकर वह बारम्बार काँपता हुआ अन्धकासुरके पास आकर दैन्य वचन बोला - ॥३४ - ३६॥
पातालकेतुने कहा - दैत्येश्वर ! मैं गालवके आश्रममें गया था और उसको बलपूर्वक नष्ट करनेका उद्योग करने लगा । राजन् ! मैंने सूकरके रुपमें जैसे ही उस आश्रममें प्रवेश किया, वैसे ही पता नहीं, किस मानवने मेरे ऊपर बाण छोड़ दिया । बाणसे हँसलीके टूट जानेपर मैं उसके भयके कारण आश्रमसे तुरंत भागा । पर उसने मेरा पीछा किया । असुर ! मेरे पीठ - पीछे आ रहे ' रुको - रुको ' कहनेवाले उस वीरके घोड़ेकी टापका महान् शब्द सुनायी पड़ रहा था । उसके भयसे मैं जलनिधि दक्षिण समुद्रमें आ गया ॥३७ - ४०॥
वहाँ मैंने अनेक प्रकारके पहनावे तथा आकृतिवाले मनुष्योंको देखा । उनमें कुछ तो बादलकी भाँति गर्जन कर रहे थे और कुछ दूसरे उसी प्रकारकी प्रतिध्वनि कर रहे थे । दूसरे कह रहे थे कि हम महिषासुरको निश्चय ही मार डालेंगे और अति तेजस्वी दूसरे लोग कह रहे थे कि आज हम तारकको मारेंगे । असुरेश्वर ! उसे सुनकर मुझे बहुत डर हो गया और मैं विशाल समुद्रको छोड़कर भयभीत हो पृथ्वीके नीचे विस्तृत गङ्ढे ( सुरंग ) - के रुपमें बने हुए गुप्त मार्गसे भागा । तब भी उस बलशालीने मेरा पीछा किया । उसके डरसे मैं अपना हिरण्यपुर त्यागकर आपके पास आ गया हूँ । आप मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिये । यह बात सुनकर अन्धकने बादलकी गर्जनध्वनिमें यह बात सुनकर अन्धकने बादलकी गर्जनध्वनिमें यह वचन कहा ॥४१ - ४५॥ 
दानव ! तुम्हें उससे डरना नहीं चाहिये । मैं तुम्हारा सच्चा रक्षक हूँ । उसके बाद महिष और तारक - ये दोनों तथा बलवानोंमें श्रेष्ठ बाण - ये सभी अन्धकसे बिना पूछे ही अपने अनुगामियोंके साथ युद्ध करनेके लिये पृथ्वीपर निकल आये । मुने ! जिस स्थानपर भयंकर आकारवाले गण गर्जन कर रहे थे, उसी स्थानपर हथियारोंसे सजे - धजे दल - बलके साथ दैत्य भी आ गये । इसके बाद दैत्योंको आक्रमण करते हुए देखकर कार्तिकेयके गण तथा उग्र मातृकाएँ ( उनपर ) सहसा टूट पड़ीं ॥४६ - ४९॥ 
उन सबमें सबसे आगे बलशाली स्थाणु भगवान् लोहेकी बनी गदा लेकर क्रोधसे भरकर पशुओंके तुल्य शत्रुओंके सैन्य - बलका संहार करने लगे । असुरोंको मारते हुए महादेवजीको देखकर कलशोदर ( भी ) हाथमें कुल्हाड़ा लेकर सभी बड़े असुरोंका विनाश करने लगा । भय उत्पन्न कर देनेवाला ज्वालामुख रथ, हाथी और घोड़ोंके साथ असुरोंको हाथसे पकड़ - पकड़कर अपने फैलाये हुए मुखमें झोंकने लगा । हाथमें बर्छी लिये हुए दण्डक भी क्रुद्ध होकर महासुरोंको उनके वाहनोंसहित उठाकर समुद्रमें फेंकने लगा ॥५० - ५३॥
मुसल एवं प्रास लिये हुए जितेन्द्रिय शङ्कुकर्ण दानवोंको हलसे खींच - खींचकर इस प्रकार मटियामेट करने लगा, जैसे मन्त्री ( अनाचारी - अविचारी ) राजाको नष्ट करता जाता है । तलवार और ढाल धारण करनेवाला गणोंका स्वामी वीर पुष्पदन्त भी दैत्यों एवं दानवोंमें किसीको दो - दो, किसीको तो अनेक खण्डोंमें कर डालता था । पिङ्गल दण्डको उठाकर जहाँ - जहाँ दौड़ता, वहाँ - वहाँ दैत्योंके शवका ढेर दिखलायी पड़ने लगता । गणोंमें श्रेष्ठ वीर सहस्त्रनयन शूल घुमाते घोड़े, रथ और हाथियोंसहित असुरोंको मार रहा था ॥५४ - ५७॥
भीम भयङ्कर शिलाओंकी वर्षासे सामने आ रहे असुरोंको इस भाँति मार रहा था, जिस प्रकार इन्द्र वज्रकी वृष्टिसे उत्तम पर्वतोंको ध्वस्त करते हैं । भयङ्कर शकटचक्राक्ष और बलवान् पञ्चशिख नामक गण तेजीसे मुदगर घुमाते हुए बलपूर्वक शत्रुओंका संहार कर रहे थे । प्रबल वेगवान् गिरिभेदी युद्धमें थप्पड़ोंके भीषण आघातसे ही सवारके साथ हाथीको एवं रथीके सहित रथको चूर्ण - विचूर्ण करने लगा । मुने ! बलवान् नाडीजङ्घ पैरों, मुक्कों, घुटनों एवं वज्रके समान कोहनियोंके प्रहारसे असुरोंको मारने लगा ॥५८ - ६१॥ 
कूर्मग्रीव ग्रीवा, सिर एवं पैरोंके प्रहारोंसे तथा धक्का देकर वाहनोंके साथ दैत्योंको मारने लगा । नारदजी ! पिण्डारक अपने मुख तथा दोनों सींगोंसे गर्वीले दानवोंको छिन्न - भिन्न करने लगा । इसके बाद गणेश्वरोंद्वारा उस असीम सेनाके दलोंको मारा जाता देख गणनायक महिष एवं तारक दौड़े । उन दोनों दानवोंद्वारा उत्तम - से - उत्तम आयुधोंसे संहारे जा रहे वे सभी प्रमथगण अधिक क्रुद्ध होकर चारों ओरसे घेरकर युद्ध करने लगे ॥६२ - ६५॥
हंसास्य पट्टिशसे, षोडशाक्ष त्रिशूलसे और शतशीर्ष श्रेष्ठ तलवारसे महिषासुरको मारने लगा । श्रुतायुधने गदासे, विशोकने मुसलसे तथा बन्धुदत्तने शूलसे उस दैत्यके मस्तकपर मारा । वैसे ही अन्य पार्षदोंद्वारा शूल, शक्ति, ऋष्टि एवं पट्टिशोंसे मार खाते रहनेपर भी वह मैनाकपर्वतके समान तनिक भी विकम्पित नहीं हुआ । रणमें भद्रकाली, उलूखला एवं एकचूडाने श्रेष्ठ आयुधोंसे तारकके ऊपर प्रहार किया ॥६६ - ६९॥ 
वे दोनों महान् असुर प्रमथों और मातृशक्तियोंसे मारे जाते हुए होनेपर भी ( स्वयं ) अक्षुब्ध रहकर गणोंको क्षुब्ध कर रहे थे । उसके बाद आयुधसहित महिषासुर गदाकी बार - बार मारसे प्रमथोंको शीघ्र पराजितकर कुमारकी ओर झपटा । उस महिषको झपटते देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हुए सुचक्राक्षने चक्र उठाकर ( उस ) दनुनन्दनको ( बीचमें ही ) रोक दिया । ब्रह्मन् ! हाथोंमें गदा और चक्र धारण किये हुए असुर और गण दोनों महारथी उस समय आपसमें कभी तेज, कभी अद्भुत, कभी निपुण ( इस प्रकार विविध प्रकारकी ) लड़ाई करने लगे ॥७० - ७३॥
महिषने गदा घुमाकर सुचक्राक्षके ऊपर मारा और सुचक्राक्षने अपने चक्रको उस असुरकी ओर चलाया । अत्यन्त तीक्ष्ण अरोंसे युक्त वह चक्र गदाको टूक - टूक काट कर महिषके ऊपर चल पड़ा । उसके बद दैत्यलोग यह कहते हुए जोरसे चिल्ला उठे कि हाय ! महिष मारा गया । उसे सुननेके बाद लाल - लाल आँखोंवाला बाणासुर प्रास लेकर वेगपूर्वक दौड़ा और पाँच सौ मुष्टियोंसे चक्रपर प्रहार किया तथा पाँच सौ बाहुओंसे सुचक्राक्षको द्वारा प्रयत्नशून्य कर दिया गया ॥७४ - ७७॥
फिर, बाणासुरके द्वारा सुचक्राक्षको चक्रसहित बँधा हुआ देखकर महाबली मकराक्ष हाथमें गदा लेकर दौड़ा । महाबली मकराक्षने गदासे बाणके मस्तकपर प्रहार किया । उसके बाद कष्टसे दुःखी बाणने सुचक्राक्षको छोड़ दिया और वह मनस्वी उससे छूटकर लज्जित होता हुआ युद्ध छोड़कर सालिग्रामके समीप चला गया । बाण भी मकराक्षसे चोट खाकर युद्धसे मुख मोड़ लिया । नारदजी ! दैत्योंकी सारी सेना छिन्न - भिन्न हो गयी । उसके बाद अपनी सेनाको नष्ट हुआ देख बलवान् दैत्य तारक हाथमें तलवार लेकर गणेश्वरोंकी ओर दौड़ा ॥७८ - ८१॥ 
उसके बाद खङ्ग धारण करनेवाले उस बेजोड़ वीरने उन मातृकाओंसहित हंसवक्त्र आदि गणेश्वरोंको हरा दिया । वे सभी डरकर स्कन्दकी शरणमें गये । महेश्वरके पुत्र कुमारने अपने गणोंको निरुत्साह तथा खङ्गधारी तारकासुरको आते हुए देखकर शक्तिके प्रहारके उसका हदय विदीर्ण कर डाला । हदय फट जानेके कारण वह पृथ्वीपर गिर पड़ा । महर्षे ! उस भाईके मर जानेपर महिषासुरका अभिमान चूर हो गया । वह दुष्टात्मा डरसे व्याकुल होकर युद्धभूमिसे भागकर हिमालय पर्वतपर चला गया । वीर तारकके मारे जाने, डरकर महिषके हिमालयपर भाग जाने एवं गणोंद्वारा अपराधी सेनाका संहार किये जानेपर बाण भी डरके कारण अगाध समुद्रमें प्रवेश कर गया ॥८२ - ८५॥ 
युद्धभूमिमें तारकका संहार कर कुमारने शक्ति उठा ली और वे शिखण्डयुक्त मोरपर चढ़ गये । फिर अत्यन्त शीघ्रतासे महिषासुरको मारने लगे । हाथमें श्रेष्ठ शक्ति लिये हुए मयूरध्वज ( मोरछापकी पताकावाले ) कार्तिकेयको पीछे आते देख वह महिषासुर कैलास एवं हिमालयको छोड़कर क्रौञ्च पर्वतपर चला गया और उसकी गुफामें प्रवेश कर गया । महादेवके पुत्र भगवान् गुह ( कार्तिकेय ) पर्वतकी गुफामें प्रविष्ट हुए दैत्यकी ( अब ) प्रयत्नपूर्वक रक्षा करने लगे । वे सोचने लगे कि मैं अपने ( ममेरे ) बन्धुका विनाशकर्त्ता कैसे होऊँ ! वे ( कुछ क्षण ) स्तब्ध हो गये । उसके बाद ही कमलजन्मा ब्रह्मा, भगवान् शंकर, विष्णु और इन्द्र वहाँ आ पहुँचे । उन्होंने कहा कि शक्तिके द्वारा पर्वतसहित महिषको विदीर्ण कर दो और देवताओंका कार्य पूरा करो ॥८६ - ८९॥ 
इस प्रिय - तथ्य वचनको सुनकर हँसते हुए कार्तिकेय देवताओंसे बोले - मैं नानाके नाती, माताके भतीजे और अपने ममेरे भाईको कैसे मारुँ ? ( इस विषयमें ) यह ( इनको न मारनेकी ) प्राचीन श्रुति भी है, जिसे वेदज्ञाता महर्षिगण गाया करते हैं । ( इसी प्रकार ) गौ, ब्राह्मण, वृद्ध, यथार्थवक्ता, बालक, अपना सम्बन्धी, दोषरहित स्त्री तथा आचार्य आदि गुरुजन अपराध करनेपर भी अवध्य होते हैं । इस उत्तम श्रुतिके अनुसार आचरण करनेवाले महान् पापी भी स्वर्गलोकको जाते हैं । सुरश्रेष्ठो ! मैं इस श्रेष्ठ धर्मको जानते हुए ( ऐसी दशामेंगुफामें छिपी अवस्थामें ) अपने भाईको नहीं मार सकूँगा । जब दैत्य गुह्यके भीतरसे बाहर निकलेगा तब मैं शक्तिसे उस ( देव - ) शत्रुका संहार करुँगा ( तब हमें धर्मबाधा नहीं होगी ) ॥९० - ९३॥ 
महर्षे ! कुमारका वचन सुननेके बाद इन्द्रने अपने हदयमें विचारकर गुहसे कहा - आप मुझसे अधिक मत्तिमान् नहीं हैं । आप ( ऐसा ) क्यों बोल रहे हैं । पहले समयमें भगवान् श्रीहरिकी कही हुई बातको सुनिये । शास्त्रोंमें यह निश्चय किया गया है कि एक व्यक्तिकी रक्षाके लिये बहुतोंका संहार नहीं करना चाहिये । परंतु बहुतोंके कल्याणके लिये एकका वध करनेसे मनुष्य पापी नहीं होता । अग्निपुत्र ! इस शास्त्रनिर्णयको सुनकर पहले समयमें मैंने मेल रहनेपर भी अपने सहोदर छोटे भाई नमुचिको मार दिया । अतः बहुतोंके कल्याणके लिये तुम क्रौञ्चसहित महिषासुरका संहार अग्निद्वारा दी हुई शक्तिसे बलपूर्वक कर डालो ॥९४ - ९७॥
इन्द्रकी बात सुनकर कुमारी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं । आवेशमें काँपते हुए कुमारने इन्द्रसे कहा - मूढ़ वृत्रारि ! तुम्हारी बाहुओं और शरीरमें कितनी शक्ति है, जिसके बलपर तुम मेर ऊपर ( मतिमन्द कहकर ) आक्षेप कर रहे हो । तुम निश्चय ही बुद्धिमान् नहीं हो । हजार आँखोंवाले इन्द्रने उनसे कहा - गुह ! मैं तुमसे शक्तिशाली हूँ । गुहने इन्द्रसे कहा - यदि तुम शक्तिशाली हो तो आओ, युद्ध कर देख लो । तब इन्द्रने कहा - कृत्तिकानन्दन ! हम दोनोंमें जो पहले क्रौञ्च पर्वतकी प्रदक्षिणा कर सकेगा वही शक्तिशाली समझा जायगा ॥९८ - १०१॥ 
उस बातको सुनकर स्कन्द अपने वाहन मयूरको छोड़कर पैदल प्रदक्षिणा करनेके लिये शीघ्रतासे चल पड़े । इन्द्र भी गजराजसे उतरकर पैदल ही प्रदक्षिणाकर वहाँ आ गये । स्कन्दने उनके पास जाकर कहा - मूढ़ ! क्यों बैठे हो ? इन्द्रने उन कौटिल्य ( कुटिलाके पुत्र स्कन्द ) - से कहा - मैंने तुमसे पहले ही इसकी प्रदक्षिणा कर ली है । कुमारने इन्द्रसे कहा - तुमने पहले नहीं की है । ' मैंने पहले की है, मैंने पहले की है । ' इस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए उन दोनोंने शंकर, ब्रह्मा एवं विष्णुके पास जाकर कहा ॥१०२ - १०५॥ 
इसके बाद विष्णुने स्कन्दसे कहा कि तुम पर्वतसे पूछ सकते हो । वह जिसे पहले आया हुआ बतलायेगा, वही महाशक्तिशाली मान्य होगा । माधवकी उन बातोंको सुनकर अग्निनन्दनने क्रौञ्चपर्वतके पास जाकर उससे यह पूछा कि प्रदक्षिणा पहले किसने की हैं ? इस बातको सुनकर चतुर क्रौञ्चने कहा - कार्तिकेय ! पहले इन्द्रने प्रदक्षिणा की; इसके बाद तुमने की है । इस प्रकार कहनेवाले क्रौञ्चको क्रोधसे ओठ कँपाते हुए उस कुटिलानन्दन कुमारने शक्तिकी मारसे महिषासुरके साथ ही विदीर्ण कर दिया ॥१०६ - १०९॥ 
उस पुत्रके मार दिये जानेपर पर्वतराजपुत्र बलवान् सुनाभ शीघ्र ही वहाँ आ गये । ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, वायु, अश्विनीकुमार, वसु आदि देवता गुह ( कार्तिकेय ) - के द्वारा महिषको मारा गया देखकर स्वर्ग चले गये । अपने मामाको देखनेके बाद बलवान् कुमारने शक्ति लेकर ( उन्हें ) मारना चाहा । परंतु विष्णुने शीघ्रतासे उन्हें बाहुओंसे आलिङ्गित करते हुए ' ये गुरु हैं ' ऐसा कहकर रोक दिया । हिमालय सुनाभके निकट आये और उनका हाथ पकड़कर दूसरी ओर ले गये तथा गरुडवान विष्णु मयूरसहित कुमारको जल्दीसे स्वर्गमें लिये चले गये । इसके बाद गुहने सुरेश्वर हरिसे कहा - भगवान् ! मोहसे मेरी विचार - शक्ति नष्ट हो गयी और मैंने अपने ममेरे भाईका संहार कर दिया है । अतः ( प्रायश्चित्तमें ) मैं अपने शरीरको सुखा डालूँगा ॥११० - ११३॥
विष्णुने उनसे कहा - कुमार ! तुम पापरुपी वृक्षके लिये कुठार - स्वरुप श्रेष्ठ तीर्थ पृथूदकमें जाओ । वहाँ ओघवतीके जलमें स्त्रानकर भक्तिपूर्वक महादेवका दर्शन करनेके तुम ( निष्पाप होकर ) सूर्यके समान कान्तियुक्त हो जाओंगे । हरिके इस प्रकार कहनेपर कुमार ( पृथूदक ) तीर्थमें गये और उन्होंने महादेवका दर्शन किया । स्त्रान करनेके बाद देवताओंकी पूजा करके वे सूर्यके समान तेजस्वी होकर महादेवके निवासस्थल पर्वतपर चले गये । सुचक्रनेत्र भी केवल वायु पीकर पर्वतके महान् आश्रममें शंकरकी आराधना करता हुआ तपस्या करने लगा । तब प्रसन्न होकर शंकरने उसे वर देनेका वचन दिया । उसने अस्त्र - प्राप्तिके हेतु वर माँगा - हे भगवन् ! शत्रुकी भुजाओंको काटनेवाला ऐसा अनुपम चक्र मुझे दें, जिसस्से मैं हाथसे ही बाणासुरकी भुजाओंको काट सकूँ ॥११४ - ११७॥ 
महादेवजीने उससे कहा - जाओ ! तुमने चक्रके निमित्त जो वर माँगा, उसे मैंने दे दिया । यह बाणासुरके अत्यन्त बढ़े हुए बाहुबलको निः सन्देह काट डालेगा । त्रिपुराको मारनेवाले महेश्वरके वर देनेपर गणेश्वर ( सुचक्रनेत्र ) स्कन्दके निकट गया और ( उसने ) उनके चरणोंमें गिरकर वन्दना की । उसके बाद उनसे प्रसन्नतापूर्वक महादेवकी कृपाका वर्णन किया ॥११८ - ११९॥
इस प्रकार मैंने ( पुलस्त्यने ) तुमसे शंकरके पुत्रके द्वारा शक्तिसे महिषासुरके संहार किये जानेका वर्णन किया । शरणागतके हेतु क्रौञ्चकी मृत्यु हुई । यह आख्यान पापका विनाश एवं पुण्यकी वृद्धि करनेवाला है ॥१२०॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें अट्ठावनवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥५८॥