नारदने पूछा - आप हमें यह बतलायें कि सलाह करते हुए दैत्योंमेंसे जो वह दैत्य बाणद्वारा बिंध गया था उसे किसने बाणसे विदीर्ण कर दिया था ॥१॥
पुलस्त्यजी बोले - महर्षे ! रघुकुलमें रिपुजित नामक एक राजा थे । उनके ऋतध्वज नामका एक पुत्र था । वह सभी गुणोंकी निधि, महात्मा, वीर, शत्रुकी सेनाओंका नाश करनेवाला, बली मित्रों, ब्राह्मणों, अन्धों, गरीबों एवं दयापात्र दीनोंमें समान होकर पातालकेतुकी पीठमें अर्धचन्द्रके सदृश बाणसे बड़ी तेजीसे मारा था ॥२ - ३॥
नारदने कहा ( पूछा ) - उस श्रेष्ठ राजपुत्रने जिस कारण बाणसे उस दैत्यको मारा, उससे गालवका कौनसा कार्य सिद्ध किया ? ॥४॥
पुलस्त्यजी बोले - पहले समयकी बात है कि गालव अपने आश्रममें तपस्यामें सदा लीन रहा करते थे । दैत्य पातालकेतु मूर्खताके कारण उनकी तपस्यामें बाधा डाला करता और उनकी समाधि ( ध्यान ) - को भंग किया करता था । वे उसको जलाकर राख कर देनेमें समर्थ होते हुए भी अपनी तपस्या क्षीण नहीं करना चाहते थे; ( क्योंकि तपोबलसे दूसरोंका अनिष्ट करनेपर तपस्या क्षीण हो जाती हैं ) । उन्होंने ऊपरकी ओर देखकर लंबा, गर्म निः श्वास छोड़ा । वह सर्वथा अनुपम था । उसके बाद आकाशके एक सुन्दर घोड़ा गिरा और अशरीरिणी वाणी - आकाशवाणी हुई कि यह बलवान् अश्व एक दिनमें हजारों योजन जा सकता है । शस्त्रसे सजे हुए उस राजा ऋतध्वजको वह घोड़ा सौंपकर वे महर्षि ( पुनः ) तपस्या करने लगे । उसके बाद राजपुत्रने दैत्यके पास जाकर उसे बाणसे घायल कर दिया ॥५ - ८॥
नारदने कहा ( पुनः पूछा ) - सुव्रत ! आप यह बतलायें कि किसने आकाशसे इस अश्वको गिराया था एवं आकाशवाणी किसकी थी ? ( इस विषयमें ) मुझे बड़ी उत्सुकता है ॥९॥
पुलस्त्यजी बोले - महेन्द्रका गुणमान करनेवाले बलशाली विश्वावसु नामके यशस्वी गन्धर्वराजने अपनी पुत्रीके लिये ऋतध्वजके हेतु उस समय अश्वको पृथ्वीपर गिराया था ॥१०॥
नारदने कहा ( फिर पूछा ) - महान् वेगशाली इस अश्वको भेजनेमें गन्धर्वराजका क्या उद्देश्य था तथा राजपुत्र राजा कुवलयाश्वका इसमें क्या लाभ था ? ( कृपया इसे भी बतलाइये । ) ॥११॥
पुलस्त्यजी बोले - विश्वावसुकी मदसे अलसायीसी मदालसा नामकी एक ( भोलीभाली ) कन्या थी । वह शील और गुणसे सम्पन्न, त्रिलोककी स्त्रियोंमें उत्तम, सुन्दरताकी खानि और चन्द्रमाकी कान्तिके समान ( कोमलकिशोरी ) थी । नन्दवनमें क्रीडा कर रही उस सौन्दर्यशालिनीको देवताओंके शत्रु पातालकेतुने देखा और तुरन्त उसे उठा ले गया । उसीके कारण वह श्रेष्ठ घोड़ा दिया गया था । दैत्यको मारनेके बाद श्रेष्ठ रुरुवाली स्त्रीको पाकर राजपुत्र्र निश्चिन्त हो गये । राजपुत्र ( उस ) मृगनयनीके साथ ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे शचीके साथ इन्द्र सुशोभित होते हैं ॥१२ - १४॥
नारदने पुनः पूछा - इस प्रकार महान् असुर तारक और महिषके निरस्त - समाप्त हो जानेपर हिरण्याक्षके बुद्धिमान् पुत्र ( अन्धक ) - ने पुनः क्या किया ? ॥१५॥
पुलस्त्यजी बोले - तारक और महिष दोनोंको संग्राममें मारे गये देखकर देवसेनाके समूहोंका नाश करनेवाला, महामूर्ख अन्धक देवताओंपर कुपित हो गया । उसके बाद थोड़ी - सी सेनाके साथ वह हाथमें परिग्थ लेकर पातालसे बाहर निकल आया और पृथ्वीपर विचरण करने लगा । उसके बाद घूमते हुए ही उसने सुन्दर कन्दराओंवाले मन्दर गिरिपर सखियोंके बीचमें गिरिनन्दिनी कल्याणी गौरीको देखा । उस सर्वाङ्गसुन्दरी गिरिराजनन्दिनीको वनमें देखकर अन्धकासुर एकाएक काम - बाणसे पीड़ित हो गया ॥१६ - १९॥
तब कामसे अंधे हुए उस मूर्ख असुर अन्धकने कहा - वनमें भ्रमण कर रही यह सर्वाङ्गसुन्दरी ललना किसकी हैं ? यदि यह मेरे अन्तः पुरमें निवास करनेवाली न हुई तो मेरे इस व्यर्थके जीवनसे क्या लाभ ? यदि इस कृशोदरी सुन्दरी ललनाका आलिङ्गन मुझे प्राप्त न हुआ तो मुझे धिक्कार है ! मेरी इस स्थायी सुन्दरतासे क्या लाभ ? मेरा वही बन्धु, वही सचिव, वही भ्राता तथा वही संकटकालका साथी है जो इस काले केशवाली मृगनयनी सुन्दरीको मुझसे मिला दे ॥२० - २३॥
दैत्यराजके इस प्रकार कहनेपर महाबुद्धिमान् प्रह्लाद दोनों हाथोंसे दोनों कानोंको ढँककर सिर हिलाते हुए बोले - दैत्येन्द्र ! इस प्रकार मत कहो । ये तो संसारकी जननी और लोकस्वामी, त्रिशूलधारी शङ्करकी पत्नी हैं । तुम कुलका सद्यः विनाश करनेवाली ऐसी दुर्बुद्धि मत करो । तुम्हारे लिये ये परस्त्री हैं । अतः रसातलमें मत गिरो; क्योंकि ( ऐसा दुष्कर्म ) सज्जनोंमें तो अत्यन्त निन्दित है ही, असत पुरुषोंमें भी निन्दित है । ऐसा दुष्कर्म - परादरा - अभिगमन तुम्हारे शत्रु करें ( जिससे उनका विनाश हो जाय ) ॥२४ - २७॥
दैत्येश ! ब्राह्मणकी गौपर प्रसक्त सेनाको देखकर गाधिराजने समस्त जगतके लिये कल्याणकारी, सत्य एवं उचित जो श्लोक कहा है क्या उसे आपने नहीं सुना है ? ( उन्होंने कहा है - ) प्राणोंका छोड़ देना अच्छा है, परंतु चुगुलखोरोंकी बातमें दिलचस्पी लेना उचित नहीं । मौन रहना अच्छा है, किंतु असत्य बोलना ठीक नहीं । नपुंसक होकर रहना ठीक है, परंतु परस्त्रीगमन उचित नहीं । भीख माँगना अच्छा है, किंतु बार - बार दूसरेके धनका उपभोग करना उचित नहीं । प्रह्लादका वचन सुननेके बाद काम - पीड़ित अन्धक क्रोधसे अंधा होकर ' यह वही शत्रुकी जननी है ' - यह कहते हुए दौड़ पड़ा । उसके बाद दूसरे और दानव भी यन्त्रसे छूटे हुए पत्थरकी गोलीके समान उसके पीछे दौड़ चले । परंतु अव्यय नन्दीने हाथमें वज्र उठाकर बलपूर्वक उन सबको रोक दिया ॥२८ - ३१॥
वज्रकी मारसे रोक दिये गये और भगाये जाते हुए वे मय एवं तारक आदि सभी दैत्य डरकर दसों दिशाओंमें भाग गये । संग्राममें अन्धकासुरने उन सभीको नन्दीद्वारा पीड़ित देखकर नन्दीको परिघसे मारकर गिरा दिया । नन्दीको गिरा हुआ और अन्धकको दौड़कर आते हुए देखकर गौरी उस दुष्टात्माके भयसे सैकड़ों रुपवाली हो गयीं । उसके बाद देवियोंके बीच घूमता हुआ ( वह ) दैत्य ऐसा लग रहा था जैसे कि वनमें हथिनियोंके बीच घूमता हुआ मदसे चञ्चल दृष्टिवाला मतवाला हाथी सुशोभित होता है ॥३२ - ३५॥
( पर ) वह नहीं समझ रहा था कि उनमें वे गिरिनन्दिनी कौन हैं ? इसमें ( उसके न समझनेमें ) कोई आश्चर्य नहीं हैं; क्योंकि संसारमें ये चार प्रकारके व्यक्ति सदा ही ( ठीक - ठीक ) नहीं देख पाते । जन्मका अन्धा नहीं देखता, प्रेममें अन्धा हुआ नहीं देखता, मदोन्मत्त नहीं देखता एवं लोभसे पराभूत भी नहीं देखता है । अतः अन्धक उस समय देखते हुए भी गिरिजाको नहीं देख पा रहा था । उस दानवने उन सभीको युवती समझकर उनपर आघात नहीं किया, फिर तो शतावरीदेवीने ( ही ) उस दुष्टात्मापर आघात कर दिया । उत्कृष्ट कोटिके शस्त्रोंसे बिंधकर वह पृथ्वीपर गिर पड़ा । अन्धकको गिरा हुआ देखकर शतरुपोंवाली विभावरी अम्बिका उस स्थानसे हटकर अन्तर्हित हो गयीं । अन्धकको गिरा हुआ देख दैत्यों एवं दानवोंके सेनापति युद्धके लिये ललकारते हुए दौड़ पड़े । आक्रमण करनेवाले उन ( दैत्यों ) - के शब्दको सुनकर गणेश्वर खड़े हो गये ॥३६ - ४१॥
क्रुद्ध हुए गणेश्वर इन्द्रके समान वज्र लेकर मयसहित दानवोंको हराकर अम्बिकाके निकट गये और ( उन्होंने ) उनके शुभ चरणोंमें प्रणाम किया । देवीने भी अपनी उन मूर्तियोंसे कहा - तुम सभी इच्छानुरुप स्थानोंको जाओ और मनुष्योंकी आराधना प्राप्त करती हुई पृथ्वीपर भ्रमण करो । तुम सबका निवास उद्यानों, वनों, वनस्पतियों एवं वृक्षोंमें होगा । अब तुम सभी निश्चिन्त होकर जाओ । पार्वतीके इस प्रकार कहनेपर वे सभी निश्चिन्त होकर जाओ । पार्वतीके इस प्रकार कहनेपर वे सभी देवियाँ अम्बिकाको प्रणामकर किन्नरोंसे स्तुत होती हुई ( दसों ) दिशाओंमें चली गयीं । अन्धक भी होशमें आनेके बाद गिरिजाको न देखकर तथा अपनी सेनाको हारी हुई समणकर पातालमें चला गया । मुने ! उसके बाद कामबाणसे घायल एवं कामके वेगसे पीड़ित दुष्टात्मा अन्धक पातालमें जाकर गौरीका चिन्तन करता हुआ न दिनमें खाता था और न रातमें सोता था - वह बेचैन - सा हो गया था ॥४२ - ४७॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें उनसठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥५९॥
वामन पुराण Vaman Puran
श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।