वामन पुराण Vaman Puran

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


श्रीवामनपुराण - अध्याय ६५


 
दण्डकने कहा - बाले ! इसी बीच यक्ष और असुरकी दोनों कन्याएँ योगीश्वर श्रीकण्ठ महादेवका दर्शन करनेके लिये आयीं । उन ऋतध्वजके चले जानेपर उन दोनोंने महादेवके चारों ओर मुर्झाये तथा सूखे हुए फूल और विसर्जनके बाद समर्पित की गयी अन्य बहुत - सी वस्तुएँ पड़ी हुई देखीं । उसके बाद उन देवेशका दर्शन कर वे दोनों कन्याएँ विधिसे दिन - रात श्रीकण्ठ भगवानको स्त्रान करातीं एवं उनका पूजन करती थीं । उसी स्थानपर उन दोनोंके रहते हुए गालव नामके ऋषि अव्यक्तस्वरुपवाले श्रीकण्ठका दर्शन करनेके लिये इस वनमें आये ॥१ - ४॥ 
उन्होंने उन दोनों कन्याओंकी देखकर ' ये किसकी कन्याएँ हैं ' - इस प्रकार सोचते - विचारते हुए कालिन्दीके विमल जलमें प्रवेश किया । गालव ऋषिने स्त्रान करनेके बाद पवित्र होकर श्रीकण्ठ महादेवकी पूजा की । उसके बाद यक्श और असुरकी दोनों कन्याओंने मधुर स्वरसे गीत गाया । तब ( उनके ) स्वरको सुनकर गालवने यह जान लिया कि ये दोनों निस्सन्देह गन्धर्वकी ही कन्याएँ हैं । गालवने विधिसे श्रीकण्ठदेवकी पूजा कर जप किया । उसके बाद दोनों कन्याओंसे अभिर्वन्दित होकर वे बैठ गये ॥५ - ८॥ 
उसके बाद उन मुनिने उन दोनों कन्याओंसे पूछा - कन्याओ ! तुम दोनों यह बतलाओं कि शङ्करमें भक्ति करनेवाली कुलकी शोभारुपा तुम दोनों किनकी कन्याएँ हो ? शुभानने ! उन दोनों कन्याओंने उन मुनिश्रेष्ठसे सत्य बातें बतलायीं । तब तपस्वियोंमें श्रेष्ठ गालवने सत्य बातें बतलायीं । तब तपस्वियोंमें श्रेष्ठ गालवने सम्पूर्ण वृत्तान्त ( पूर्णतः ) जान लिया । उन दोनोंसे सत्कृत होकर मुनिने वहाँ रात्रिमें निवास किया और प्रातः काल उठकर विधिपूर्वक गौरीपति शङ्करका पूजन किया । उसके बाद उन दोनोंके पास जाकर उन्होंने कहा - मैं परम उत्तम पुष्कर वनमें जाऊँगा । मैं तुम दोनोंसे अनुरोधकर विदा लेना चाहता हूँ । तुम दोनों मुझे अनुज्ञा ( अनुमति ) दो ॥९ - १२॥ 
उसके बाद उन दोनोंने कहा - ब्रह्मन् ! आपका दर्शन दुर्लभ है । किस कारण आप पुष्करारण्यमें जा रहे हैं । इसके बाद धार्मिक कृत्य करनेवाले महातेजस्वी ( मुनि ) - ने उन दोनोंसे आदपूर्वक कहा - आगे महीनेके अन्तमें पुष्करमें पुण्यदायिनी कार्तिकी पूर्णिमा होगी । उन दोनोंने कहा - ( तो ) आप जहाँ जायँगे, वहीं हम भी चलेंगी । ब्रह्मन् ! आपके बिना हम दोनों यहाँ नहीं रह सकतीं । ऋषिश्रेष्ठने कहा - ठीक है । उसके बाद आदरपूर्वक महेश्वरको प्रणामकर ऋषिये साथ वे दोनों ( कन्याएँ ) पुष्करारण्य चली गयीं ॥१३ - १६॥
वहाँ केवल उन ऋतध्वजके सिवाय अन्य हजारों ऋषि, राजा एवं जनपद - निवासी भी आये । उसके बाद ऋषियों एवं नाभाग तथा इक्ष्वाकु आदि महाभाग्यवान् राजाओंने कार्तिकी पूर्णिमाके दिन पुष्कर तीर्थमें स्त्रान किया । गालव भी उन दोनों कन्याओंके साथ धनुषकी आकृतिवाले मध्यम पुष्करतीर्थमें स्त्रान करनेके लिये उतरे । ( जलमें ) निमग्न होनेपर उन्होंने देखा कि एक जलचर महामत्स्य जलमें स्थित है और अनेक मत्स्य - कन्याएँ उसे पुनः - पुनः प्रसन्न करनेमें लगी हुई हैं ॥१७ - २०॥ 
उस मत्स्यने उन ( मछलियों ) - से कहा - भोली प्रकृति होनेके कारण तुम सभी लोक - धर्म नहीं जानती हो । मैं जनताद्वारा किये जानेवाले कठोर अपवाद ( निन्दा ) सहन नहीं कर सकता । ( तब ) उन सभी ( मछलियों ) - ने कहा - क्या तुम स्वच्छन्दतासे विचरते हुए तपस्वी गालवको दो कन्याओंके साथ नहीं देख रहे हो ? यदि धर्मात्मा एवं तपस्वी होते हुए भी वे लोकनिन्दासे नहीं डरते तो जलमें रहनेवाले तुम क्यों डर रहे हो ? उसके बाद उस तिमि ( मत्स्य ) - ने उनसे कहा - तपस्वी लोक - निन्दाको नहीं जानते एवं प्रेममें अन्धा होनेसे प्रचण्डमूर्ख बनकर लोक - निन्दाके भयको भी नहीं समझते ॥२१ - २४॥ 
मत्स्यके उस वचनको सुनकर गालव लज्जित हो गये । ( फिर तो ) वे जितेन्द्रिय मुनि जलमें निमग्न होनेपर भी ऊपर नहीं आये, भीतर ही डूबे रहे । वे दोनों कदली - सदृश ऊरुवाली सुन्दरियाँ स्त्रान करनेके बाद जलसे बाहर निकल कर तीरपर खड़ी हो गयीं एवं मुनिश्रेष्ठका दर्शन करनेके लिये उत्कण्ठित होकर उनकी प्रतीक्षा करने लगीं । पुष्करकी यात्रा पूरी होनेपर सभी ऋषि, राजा और नगरवासी लोग जहाँसे आये थे, वहाँ चले गये । वहाँ केवल सुन्दर दाँतोंवाली एवं पतली सुन्दर शरीरवाली विश्वकर्माकी कन्या चित्राङ्गदा उन दोनों कृशोदरियों ( कन्याओं ) - को देखती हुई रह गयी ॥२५ - २८॥ 
वे दोनों भी ( उसे ) देखती एवं गालवकी प्रतीक्षा करती हुई निर्जन तीर्थमें पड़ी रहीं और गालव जलके भीतर ही स्थित रहे । उसके बाद वेदवती नामकी गन्धर्व - कन्या वहाँ आयी । वह साध्वी घृताचीके गर्भसे उत्पन्न हुई थी एवं पर्जन्य नामक गन्धर्वकी पुत्री थी । उसने आकर मध्यम पुष्कर तीर्थके पवित्र जलमें स्त्रान किया और दोनों तटोंपर स्थित ( उन ) तीनों कन्याओंको देखा । इसके बाद चित्राङ्गदाके समीप जाकर उसने सरलतासे पूछा - तुम कौन हो ? और किस कार्यसे इस निर्जन स्थानमें स्थित हो ? ॥२९ - ३२॥
उस ( चित्राङ्गदा ) - ने उस ( वेदवती ) - से कहा - हे सुश्रोणि ! मुझे देवशिल्पी विश्वकर्माकी चित्राङ्गदा नामसे प्रसिद्ध पुत्री जानो । भद्रे ! मैं नैमिषमें धर्मकी जननी काञ्चनाक्षी नामसे प्रसिद्ध पवित्र सरस्वती नदीमें स्त्रान करने आयी थी । वहाँ आनेपर विदर्भवंशमें उत्पन्न राजा सुरथने मुझे देखा और कामपीड़ित होकर मेरी शरणमें आया । सखियोंके रोकनेपर भी मैंने उन्हें अपनेको समर्पित कर दिया । उसके बाद पिताजीने मुझे शाप दे दिया और मैं राजास्से वियोगिनी हो गयी ॥३३ - ३६॥ 
भद्रे ! मैंने मरनेका विचार किया; परंतु गुह्यकने मुझे रोक दिया । उसके बाद मैं श्रीकण्ठभगवानका दर्शन करनेके लिये गयी और वहाँसे गोदावर जलके निकट गयी, ( और अब ) वहाँसे मैं इस श्रेष्ठ उत्तम तीर्थमें आ गयी हूँ । किंतु मनको आनन्दित करनेवाले उन सुरथ पतिको मैंने नहीं देखा । बाले ! यात्राफलके समाप्त होनेपर ( पर्वकी समाप्ति हो जानेपर ) आज यहाँ आनेवाली आप कौन हैं ? भामिनि ! मुझे सच - सच बतलाओ । उसने कहा - कृशोदरि ! मैं मन्दभागिनी कौन हूँ तथा यात्राफलके समाप्त होनेपर पुष्करमें क्यों आयी हूँ, उसे सुनो ॥३७ - ४०॥
मैं पर्जन्य नामक गन्धर्वकी पुत्री हूँ तथा घृताचीके गर्भसे उत्पन्न हुई हूँ । मेरा नाम वेदवती है । सखि ! वनप्रदेशमें भ्रमण कर रही मुझको एक बन्दरने देखा । उसने समीपमें आकर मुझसे कहा - तुम कौन हो ? कहाँ जा रही हो ? ( निश्चय ही तुम ) देववती हो । पृथ्वीपर रहनेवाले आश्रमसे मेरु पर्वतपर तुम्हें कौन लाया है ? इसपर मैंने कहा - कपे ! मैं देववती नहीं हूँ, मेरा नाम वेदवती है । मेरु पर्वतपर ही मैंने अपना आश्रम बना लिया है । उसके बाद अत्यन्त दुष्ट उस बन्दरसे खदेड़ी जाती हुई मैं बन्धुजीव ( गुलदुपहरिया ) - के उत्तम वृक्षपर शीघ्रतासे चढ़ गयी ॥४१ - ४४॥
उसने शीघ्र ही पैरके आघातसे उस वृक्षको तोड़ दिया । उसके बाद मैं उस वृक्षकी एक बड़ी डालीको पकड़कर स्थित रही । फिर बन्दरने उस वृक्षको समुद्रके जलमें फेंक दिया । मैं अत्यन्त घबड़ाकर उस वृक्षके साथ ही जलमें गिर पड़ी । उसके बाद चर और अचर सभी प्राणियोंने आकाशसे गिरनेवाले उस वृक्षको देखा । उसके बाद उसीके साथ मुझको भी गिरती हुई देखकर सभी लोग हाहाकार करने लगे । सिद्ध और गन्धर्वलोग कहने लगे - हाय ! यह कष्टकी बात है । इसके सम्बन्धमें तो ब्रह्माने स्वयं कहा था कि यह कन्या हजारों यज्ञोंके करनेवाले मनुके वीर पुत्र इन्द्रद्युम्रकी राजरानी होगी ( पर यह क्या हो गया ! ) ॥४५ - ४९॥
उस मधुर वाणीको सुननेके बाद मुझे मूर्च्छा आ गयी । मैं यह नहीं जानती कि उस वृक्षको किसने सहस्त्रों टुकड़ोंमें काट डाला । उसके बाद अग्निके सखा बलवान् वायुने मुझे शीघ्रतासे यहाँ ला दिया है । सुन्दरि ! तुमको आज मैंने यहाँ देखा है । इसलिये उठो, हम दोनों चलें; और फिर पूछे तथा देखें कि पुष्कर तीर्थके उत्तरी तटपर दिखायी देनेवाली ये दोनों कन्याएँ कौन हैं ? ऐसा कहकर इस कार्यके करनेमें उत्कण्ठित वह सुन्दरी उस सुन्दर तथा दुर्बल देहवाली कन्याके साथ उस पारकी दोनों कन्याओंको देखने तथा वस्तुस्थिति पूछनेके लिये वहाँ गयी ॥५० - ५३॥ 
उसके बाद वहाँ जाकर उसने उन दोनोंसे पूछा । उन दोनोंने अपनी सच्ची घटना उन दोनोंसे बतायीं । उसके बाद चारों कन्याएँ सप्तगोदावर जलके समीप जाकर हाटकेश्वर भगवानकी पूजा करती हुई तीर्थमें रहने लगीं । इधर शकुनि, जाबलि और ऋतध्वज - ये तीनों व्यक्ति उन कन्याओंके लिये अनेक वर्षोंतक भ्रमण करते रहे । तब एक हजार वर्ष बीत जानेपर भार - वहन करनेवाले ( जाबालि ) खिन्न होकर पिताके साथ शाकल जनपदमें चले गये ॥५४ - ५७॥
वहाँ मनुके पुत्र श्रीमान् राजा इन्द्रद्युम्न निवास कर रहे थे । वे इस समाचारको जानकर अर्घपात्र हाथमें लिये बाहर निकले । उन्होंने विधिपूर्वक सुन्दर रीतिसे जाबालि और ऋतध्वजकी पूजा की तथा उस इक्ष्वाकुनन्दन बुद्धिमान् भतीजे शकुनिकी भी अर्चना की । उसके बाद ऋतध्वज मुनिने इन्द्रद्युम्नसे कहा - राजन् ! हम लोगोंकी नन्दयन्ती नामसे प्रसिद्ध ( अयानी ) कन्या खो गयी है । राजन् ! उसके लिये हम लोगोंने सारी पृथ्वीपर भ्रमण किया है । इसलिये ( कृपया ) उठिये, पता लगाइये और हमारी सहायता कीजिये ॥५८ - ६१॥
इसके बाद राजाने कहा - ब्रह्मन् ! मेरी भी एक उत्तम लाडिली कन्या खो गयी है । उसे ढूँढ़नेमें मैं परिश्रम कर चुका हूँ । उसके विषयमें मैं किससे कहूँ । सिद्धोंका वचन सुनकर आकाशसे नीचे गिरनेवाले पर्वतके समान श्रेष्ठ वृक्षको मैने बाणोंसे हजारों टुकड़ोंमें काट डाला । मेरे हस्तकौशलसे उस सुन्दरी कन्याको चोट नहीं लगी । मैं नहीं जानता हूँ कि वह कहाँ है ? अतः उसे ढूँढ़नेके लिये मैं ( भी ) चल रहा हूँ । ऐसा कहनेके बाद वे राजा शीघ्रतासे उठे । उन्होंने उन दोनों ब्राह्मणो तथा अपने भतीजेके लिये रथ दे दिये ॥६२ - ६५॥
वे रथोंपर चढ़कर शीघ्रतासे क्रमशः पृथ्वीपर खोज करने लगे । ( इस क्रममें ) उन लोगोंने बदरिकाश्रममें जाकर तपस्या करनेसे दुबले और धूल - मिट्टीसे भरे, जटा धारण किये हुए, जोर - जोरसे साँस ले रहे एक तपोमूर्ति युवकको देखा । महाबाहु राजा इन्द्रद्युम्नने उसके पास जाकर कहा - तपस्विन् ! यह बतलाओ कि युवा - अवस्थामें ही तुम अत्यन्त दुष्कर कठोर तप क्यों कर रहे हो ? यह भी बतलाओं कि तुम्हारी अभिलाषा क्या है ? उसने कहा - आप मुझझे यह बतलायें कि चिन्तासे ग्रस्त अत्यन्त दुःखी एवें तपश्चर्यासे युक्त मुझसे प्रेम - पूर्वक पूछनेवाले आप कौन हैं ? उसने कहा - तपस्विन् ! विभो ! मैं मनुका पुत्र एवं इक्ष्वाकुका प्रिय भाई शाकलपुरका राजा हूँ । मैंने अपना परिचय कह दिया । उस राजाने भी उनसे पहलेकी सारी कथा कह सुनायी ॥६६ - ७१॥
( ऊपर कही बातोंको ) सुनकर राजर्षिने कहा - तुम अपने शरीरका त्याग मत करो । तुम मेरे भतीजे हो । आओ, मैं उस सुन्दरीकी खोज करने जा रहा हूँ । इतना कहकर उन्होंने उभरी शिराओंसे भरे हुए राजाको गले लगाया और उन्हें रथपर चढ़ाकर शीघ्र उन दोनों तपस्वियोंके पास पहुँचा दिया । पुत्रके सहित ऋतध्वजने उन राजाको देखकर कहा - राजन् ! आइये ! आइये ! मैं आपका प्रिय कार्य करुँगा । आपने नैमिषारण्यमें जिस चित्राङ्गदाको देखा था, उसे मैंने ही सप्तगोदावर नामके तीर्थमें छोड़ दिया था ॥७२ - ७५॥ 
तो आइये, हम लोग सुदेवके पुत्रके कार्यसे ही वहाँ चलें । वहाँपर हम लोगोंको अन्य तीन कन्याएँ भी मिलेंगी । इस प्रकार कहकर उन्होंने ऋषि सुदेवके पुत्रको सान्त्वना दे करके एवं शकुनिको आगे कर इन्द्रद्युम्न और पुत्रके साथ घोड़े जुते रथसे सप्तगोदावर तीर्थमें जानेकी योजना बनायी - जहाँ वे कन्याएँ गयी थीं । इस बीच दुर्बलाङ्गी घृताची शोकसे चिन्तित होकर अपनी कन्याको ढूँढ़ती हुई उदयगिरिपर विचरण करने लगी ॥७६ - ७९॥
वहाँ घृताची अप्सराको वह बन्दर मिल गया । घृताची अप्सराने उससे पूछा - कपे ! मुझसे सच कहो कि क्या तुमने लड़कीको नहीं देखा है ? उसके वचनको सुनकर उस कपिने कहा - मैंने देववती नामकी बालिकाको देखा है और उसे मृगों तथा पक्षियोंसे भरे कालिन्दीके विमल तीर्थमें श्रीकण्ठके मन्दिरके सामने स्थित महाश्रममें रख दिया है । मैंने तुमसे यह सत्य बात कही है । उस ( घृताची ) - ने कहा - कपिराज ! वह वेदवती नामसे विख्यात है, वह देववती नहीं है । तो आओ; हम दोनों वहाँ चलें ॥८० - ८३॥
घृताचीकी उस बातको सुनकर बन्दर शीघ्रतासे पग बढ़ाता हुआ उसके पीछे - पीछे कौशिकी नदीकी ओर चला । वे तीनों श्रेष्ठ राजर्षि भी दोनों तपस्वियों ( जाबालि और ऋतध्वज ) - के साथ बहुत तेज चलनेवाले रथोंपर चढ़कर कौशिकी नदीके समीप पहुँचे । वे लोग रथसे उतरकर स्त्रान करनेके लिये नदीके निकट आये । घृताची भी उस परम पवित्र नदीमें स्त्रान करने आयी । बन्दर भी उनके पीछे ही आ गया । जाबालिने उसे देखा । देखते ही उन्होंने पिता एवं महाबलशाली राजासे कहा ॥८४ - ८७॥
तात ! यह वही बन्दर फिर तेजीसे ( यहाँ ) आ रहा है, जिसने पहले मुझे जबर्दस्ती जटाजालसे बड़के पेड़में बाँध दिया था । जाबालिके उस वचनको सुनकर अत्यन्त कुपित हुए शकुनिने बाणसहित धनुषको लेकर यह वचन कहा - ब्रह्मन् ! मुझे आज्ञा दीजिये; तात ! मुझसे कहिये; क्या मैं एक बाणसे ही इस बन्दरको मार डालूँ ? ऐसा कहनेपर समस्त प्राणियोंकी भलाईमें लगे रहनेवाले महर्षिने शकुनिसे अत्यन्त युक्तियुक्त वचन कहा ॥८८ - ९१॥ 
तात ! ( वस्तुतः ) न तो किसीको कोई बाँधता है और न मारता ही है । नृपतिनन्दन ! वध और बन्धन पूर्वजन्ममें किये गये कर्मोंके फलाधीन होते हैं । शकुनिसे इस प्रकार कहकर मुनिने बन्दरसे कहा - बन्दर ! आओ, आओ ! तुम्हें हम लोगोंकी सहायता करनी चाहिये । बाले ! मुनिके ऐसा कहनेपर उस श्रेष्ठ कपिने करबद्ध प्रणाम करते हुए यह कहा - ब्रह्मन् ! मुझे आज्ञा दीजिये; मुझे निर्देश दीजिये कि मैं क्या करुँ ? उसके ऐसा कहनेपर मुनिने उस कपिपतिसे यह वचन कहा - तुमने मेरे पुत्रको बड़के पेड़में जटाओंसे बाँध रखा था ॥९२ - ९५॥ 
विशेष यत्न करनेपर भी हम लोग उस पेड़से इसको उन्मुक्त ( अलग ) नहीं कर सके । इसलिये इस राजाने उस वृक्षके तीन टुकड़े कर दिये । मेरा पुत्र आजतक सिरपर उसकी डालीको ढो रहा है । अब तुम उसे उन्मुक्त कर दो । इस डालीको ढोते हुए उसको एक हजार वर्ष बीत गये हैं । ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो इसे छुड़ानेमें समर्थ हो । उस उस बन्दरने ऋषिकी बात सुनकर जाबालिकी जटाओंको धीरे - धीरे खोल दिया । वे जटाएँ क्षणभरमें ही खुल गयीं । उसके बाद प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ ऋतध्वज वर देनेके लिये तैयार हो गये ॥९६ - ९९॥
( फिर ) उन्होंने बन्दरसे कहा - तुम अपना मनोऽभिलषित वर माँगो । ऋतध्वजकी बात सुनकर कपियोनिमें स्थित महातेजस्वी विश्वकर्माने यह वर माँगा - ब्रह्मन् ! यदि आप मुझे वर देनेके लिये इच्छा कर रहे हैं तो मुझे दिये गये अपने महाघोर शापका निवारण कर दें । तपोधन ! चित्राङ्गदाके पिता मुझ त्वष्टाको आप पहचान लें । आपके शापसे ( ही ) मैं बन्दर हो गया हूँ । कपिकी ( स्वाभाविक ) चञ्चलतारुपी दोषसे मैंने जिन बहुत - से पापोंको किया है, वे सभी नष्ट हो जायँ । उसके बाद ऋतध्वजने कहा - जब तुम घृताचीस्से महाबलवान् पुत्र उत्पन्न करोगे तब शापका अन्त होगा । तब ऐसा कहनेपर वह कपिश्रेष्ठ अत्यन्त हर्षित हो गया ॥१०० - १०५॥ 
कृशोदरि ! वह शीघ्र ही महानदीमें स्त्रान करनेके लिये उतरा । उसके बाद वे सब क्रमशः स्त्रानकर पितरों और देवोंके तर्पण - अर्चन कर रथसे चले गये एवं घृताची स्वर्गमें उड़ गयी । महावेगशाली श्रेष्ठ कपिने भी उसका अनुसरण किया । उस बन्दरने रुपसे सम्पन्न घृताचीको देखा । उस कामिनी ( घृताची ) - ने भी बलवानोंमें श्रेष्ठ उत्तम कपिको देखकर एवं उसे विश्वकर्मा जानकर उसकी कामना की । उसके बाद कोलाहल नामसे विख्यात श्रेष्ठ पर्वतपर उस बन्दरने घृताचीके साथ एवं घृताचीने उस श्रेष्ठ बन्दरके साथ आनन्द - क्रीड़ा की । इस प्रकार बहुत दिनोंतक क्रीड़ा करते हुए वे दोनों विन्ध्यपर्वतपर पहुँचे ॥१०६ - ११०॥ 
वे पाँचों श्रेष्ठ व्यक्ति भी उल्लसित होकर रथद्वारा दोपहरके समय सप्तगोदावर जलवाले उस तीर्थमें पहुँचे । वहाँ जाकर वे विश्राम करनेके लिये शीघ्रतासे नीचे उतरे । उनके सारथियोंने भी स्त्रान किया एवं घोड़ोंको जल पिलाकर तथा नहला - धुलाकर ( उन्हें ) सुन्दर वन - प्रदेशमें विचरण करनेके लिये छोड़ दिया । मुहूर्तभरमें ही हरियालीसे हरे - भरे स्थानमें वे घोड़े तृप्त हो गये । उसके बाद वे सभी ( घोड़े ) उत्तम देव मन्दिरके पाद दौड़ने लगे । घोड़ोंके टापका शब्द सुनकर श्रेष्ठ स्त्रियाँ ‘ यह क्या है ’ ऐसा कहकर हाटकेश्वर ( के मन्दिरमें ) गयीं एवं छतपर चढ़कर सभी ओर देखने लगीं ॥१११ - ११५॥ 
उन कन्याओंने तीर्थके जलमें स्त्रान करते हुए उन श्रेष्ठ पुरुषोंको देखा । फिर चित्राङ्गदाने जटा - मण्डल धारण करनेवाले नृपति सुरथको देखा । रोमाञ्जित होकर उसने हँसती हुई सखीसे कहा - नीले मेघके समान वर्ण तथा लम्बी भुजाओंवाला वह जो सुन्दर युवा पुरुष दिखलायी पड़ रहा है, निश्चय ही पहले ( जन्ममें ) मैंने उसी राजपुत्रको पतिरुपसे वरण किया था । इसमें कुछ विचारनेकी आवश्यकता नहीं है । स्वर्णके समान वर्णवाले जो व्यक्ति श्वेत जटाभारको धारण किये हुए हैं वे निश्चय ही तपस्वियोंमें श्रेष्ठ ऋतध्वज ही हैं ( इसमें शङ्का नहीं है ) । उसके बाद नन्दयन्तीने सखियोंसे हर्षित होकर कहा - वह दूसरा व्यक्ति निः सन्देह इन्हीं ऋतध्वजके पुत्र जाबालि हैं । इस प्रकार कहकर वे सभी छतसे उतरीं एवं शङ्करके सामने बैठकर कल्याण करनेवाले गीतका गान करने ( स्तुति करने ) लगी ॥११६ - १२०॥ 
हे शर्व ! हे शम्भो ! हे तीन नेत्रवाले ! हे सुन्दर गात्रवाले ! हे तीनों लोकोंके स्वामिन् ! हे उमापते ! हे दक्ष यज्ञको विध्वस्त करनेवाले ! हे कामदेवके नाश करनेवाले ! हे घोर ! हे पापके नष्ट करनेवाले ! हे महापुरुष ! हे भयङ्कर मूर्तिवाले ! हे सम्पूर्ण प्राणियोंके क्षय करनेवाले ! हे शुभ करनेवाले ! हे महेश्वर ! हे त्रिशूलधारिन् ! हे कामशत्रो ! हे गुफामें रहनेवाले ! हे दिगम्बर ! हे महाशङ्खके शिरोभूषणवाले ! हे जटाधर ! हे कपालमालासे विभूषित शरीरवाले ! हे वामचक्षु ! हे वामदेव ! हे प्रजाध्यक्ष ! हे भगाक्षिके क्षयकारिन् ! हे भीमसेन ! हे महासेनानाथ ! हे पशुपते ! हे कामदेवके जलानेवाले ! हे चत्वरवासिन् ( चबूतरेपर वास करनेवाले ) ! हे शिव ! हे महादेव ! हे ईशान ! हे शङ्कर ! हे भीम ! हे भव ! हे वृषभध्वज ! हे जटिल ! हे प्रौढ ! हे महानाटयके ईश्वर ! हे भूरिरत्न ( रत्नराशि ) ! हे अविमुक्तक ! हे रुद्र ! हे रुद्रेश्वर ! हे स्थाणो ! हे एकलिङ्ग ! हे कालिन्दीप्रिय ! हे श्रीकण्ठ ! हे नीलकण्ठ ! हे अपराजित ! हे रिपुभयङ्कर ! हे सन्तोषपते ! हे वामदेव ! हे अघोर ! हे तत्पुरुष ! हे महाघोर ! हे अघोरमूर्ते ! हे शान्त ! हे सरस्वतीकान्त ! हे कीनाट ! हे सहस्त्रमूर्ति ! हे महोद्भव ! हे विभो ! हे कालाग्निरुद्र ! हे रुद्र ! हे हर ! हे महीधरप्रिय ! हे सर्वतीर्थाधिवास ! हे हंस ! हे कामेश्वर ! हे केदाराधिपते ! हे परिपूर्ण ! हे मुचुकुन्द ! हे मधुनिवासिन् ! हे कपालपाणे ! हे भयङ्कर ! हे विद्याराज ! हे सोमराज ! हे कामरा ज ! हे रञ्जक ! हे अञ्जनराजकन्या ( काली ) - के हदयमें सदा रहनेवाले ! हे समुद्रशायिन् ! हे गजमुख ! हे घण्टेश्वर ! हे गोकर्ण ! हे ब्रह्मयोने ! हे हजार मुख, आँख एवं चरणवाले ! हे हाटकेश्वर ! आपको नमस्कार है । 
इसी बीच समस्त ऋषि एवं राजालोग तीनों लोकोंके कर्ता भगवान् त्र्यम्बक हाटकेश्वरका दर्शन करने वहाँ पहुँच गये ॥१२१॥ 
और भलीभाँति स्त्रान करनेके बाद ऊपर चढ़कर उन लोगोंने देवताके अभिमुख बैठकर गीत गाती हुई ( स्तुति करनी हुई ) स्त्रियोंको देखा । उसके बाद वसुदेवके पुत्र अपनी प्रिया विश्वकर्माकी पुत्रीको देखकर हर्षसे गद्गद हो गये । योगी ऋतध्वज भी तन्वङ्गी चित्राङ्गदाको वहाँ स्थित देख एवं पहचानकर महान् हर्षमें भर गये । उसके बाद सभी व्यक्ति शीघ्र ही देवाधिदेव हाटकेश्वर भगवानके निकट गये एवं त्रिलोचनकी पूजाकर क्रमशः खड़े होकर स्तुति करने लगे ॥१२२ - १२५॥ 
चित्राङ्गदाने भी उन ऋतध्वज आदिको देखकर उन तन्वङ्गी ( कन्याओं ) - के साथ उठकर प्रणाम किया । पुत्रसहित उन तपस्वीने उन्हें आशीर्वाद दिया और वे प्रसन्नतासे राजाओंके साथ सुखपूर्वक बैठ गये । सुन्दरि ! उसके बाद गोदावरीतीर्थमें स्त्रानकर हाटकेश्वर भगवानका दर्शन करनेकी इच्छावाला वह श्रेष्ठ बन्दर भी घृताचीके साथ वहाँ पहुँचा । फिर घृताचीने अपनी शोभाशालिनी कृशाङ्गी पुत्रीको देखा । वह सुन्दरी भी अपनी उस माताको देखकर हर्षित हो गयी ॥१२६ - १२९॥ 
उसके बाद घृताचीने अपनी पुत्रीको भलीभाँति गले लगाया । स्त्रेहसे आँखोंमें आँसू भरकर वह ( अपनी ) पुत्रीको बार - बार सूँघने लगी - आशीर्वादात्मक शुभ भावना करने लगी । उसके बाद श्रीमान् ऋतध्वजने कपिसे कहा - तुम महाजन नामके गुह्यकको ले आनेके लिये अञ्जन नामक पर्वतपर चले जाओ । फिर पातालसे वीर दैत्येश्वर कन्दरमालीको और स्वर्गसे गन्धर्वराज पर्जन्यको यहाँ शीघ्र बुला लाओ । मुनिके इस प्रकार कहनेपर देववतीने बन्दरसे कहा - कपिश्रेष्ठ ! गालवको भी आप यहाँ बुला लावें ॥१३० - १३३॥ 
ऐसा कहनेपर वायुके समान पराक्रमवाला कपि अञ्जन पर्वतपर पहुँच गया और ( गुह्यकको ) आमन्त्रित कर पुनः सुमेरु पर्वतपर प्रविष्ट हो गया । वहाँ उसने पर्जन्यको आमन्त्रित किया और सप्तगोदावर तीर्थमें स्थित महाश्रममें उन्हें भेजनेके बाद वह फिर पाताललोकमें प्रविष्ट हो गया । वहाँ ( जाकर उसने ) महापराक्रमी कन्दरमालीको आमन्त्रित किया । वेगशाली बन्दर फिर पातालसे निकलकर पृथ्वीपर घूमने - फिरने लगा । तपोनिधि गालवको माहिष्मतीके निकट देखकर उसने छलाँग भरी और उन्हें शीघ्र सप्तगोदावरके जलके निकट ला दिया । वहाँ विधानसे स्त्रान करनेके बाद वह हाटकेश्वरके समीप पहुँचा और उसने वहाँ बैठी हुई नन्दयन्ती तथा देववतीको भी देखा ॥१३४ - १३८॥ उन सभीने गालवको देखकर उठकर उनको प्रणाम किया । उन्होंने भी महादेवकी पूजा कर महर्षियोमको प्रणाम किया । उन श्रेष्ठ राजाओंने भी उन तपस्वीकी पूजा की तथा वे अत्यन्त हर्षित होकर सुखपूर्वक बैठ गये । उनके बैठ जानेपर कपिद्वारा आमन्त्रित किये गये यक्ष, महानुभाव गन्धर्व एवं दानव वहाँ आ गये । उन्हें आया हुआ देखते ही उन विशालनयना पुत्रियोंके नेत्रोंमें स्त्रेहसे आँसू भर आये । वे सभी अपने - अपने पिताके गले लग गयीं । नन्दयन्ती आदिको पिताके साथ उपस्थित हुई देखकर विश्वकर्माकी सुन्दरी पुत्रीके नेत्रोंमें ( पिताकी स्मृतिमें ) आँसू छलक आये । उसके बाद ऋतध्वज मुनिने उससे सच्ची बात कह दी ॥१३९ - १४३॥
पुत्रि ! तुम उदास मत होओ । यह बन्दर ही तुम्हारा पिता है । उस वचनको सुनकर वह लजा गयी; क्योंकि मुझ कुपुत्रीके जन्म लेनेके कारण ये विश्वकर्मा इस समय बन्दर हो गये हैं; अतः ( उसने सोचा - ) मैं अपने शरीरका त्याग करुँगी । मनमें इस प्रकार विचारकर उसने ऋतध्वजसे कहा - ब्रह्मन् ! मैं पापसे नष्टमतिवाली हूँ । आप मेरी रक्षा करें । पिताका घात करनेवाली मैं मरना चाहती हूँ । अतः आप स्वीकृति दें । तब मुनिने उस तन्वङ्गीसे कहा - अब विषाद मत करो ॥१४४ - १४७॥ 
भवितव्यताका विनाश नहीं होता - होनी होकर रहती है । इसलिये देहका परित्याग मत करो । घृताचीकी कोखसे पुत्रके उत्पन्न हो जानेपर तुम्हारे पिता फिर देवताओंके शिल्पी हो जायँगे - इसमें संदेह नहीं है । मनके ऊपर नियन्त्रण रखनेवाले मुनिके इस प्रकार कहनेपर घृताचीने चित्राङ्गदाके पास जाकर उससे कहा - पुत्रि ! तुम चिन्ता करना छोड़ दो । तुम्हारे पिताद्वारा मुझसे दस महीनोंमें निः संदेह एक पुत्र उत्पन्न होगा । ( फिर सुतरां शाप - विमोचन हो जायगा । ) ऐसा कहनेपर चित्राङ्गदा हर्षित हो गयी ॥१४८ - १५१॥
सुन्दरी ( चित्राङ्गदा ) अपने विवाहमें मिलनेवाले पिताके दर्शनकी ( उत्सुकतासे ) प्रतीक्षा करने लगी । वे सुन्दरी सभी कन्याएँ भी प्रियकी प्राप्तिकी वाञ्छासे उसके विवाहके समयकी प्रतीक्षा करने लगीं । दस महीने बीत जानेपर अप्सराने उस गोदावरी तीर्थमें पुत्रको उत्पन्न हो जानेपर विश्वकर्मा भी वानरत्वसे छूट गये ॥१५२ - १५४॥ 
अपनी प्रिय पुत्रीके पास जाकर उन्होंने उसको स्त्रेहपूर्वक गले लगाया । उसके बाद प्रसन्न मनसे देवशिल्पीने देवताओं एवं किन्नरोंसहित देवराज इन्द्रका स्मरण किया । देवशिल्पीके स्मरण करनेपर इन्द्र मरुद्गणों, देवों एवं रुद्रोंके साथ हाटक नामके तीर्थमें आ गये । देवताओं, गन्धर्वों और अप्सराओंके आनेपर इन्द्रद्युम्नने मुनिश्रेष्ठ ऋतध्वजसे कहा - ब्रह्मन् ! जाबालिको कन्दरमालीकी कन्याका दान कर दें । आपका पुत्र विधिवत् दैत्यनन्दिनीका पाणिग्रहण कर ले । स्वरुपवान् शकुनि नन्दयन्तीसे विवाह करें ॥१५५ - १५९॥
यह वेदवती मेरी ( इन्द्रद्युम्नकी ) और त्वष्टा ( विश्वकर्मा ) - की पुत्री ( चित्राङ्गदा ) सुरथकी पत्नी हो । मुनिने मनुपुत्र राजासे कहा - ठीक है । उसके बाद उन लोगोंने प्रसन्नतापूर्वक भलीभाँति विवाहकी विधिको पूरा किया । विधिसे हव्यका हवन करनेवाले गालव ऋत्विक् बने । उस समय वहाँ गन्धर्वोंने गाना गाया और अप्सराओंने नृत्य किया । सबसे पहले दैत्य - कन्याने जाबालिका पाणिग्रहण किया । कल्याणि ! उसके बाद विधिपूर्वक इन्द्रद्युम्नने वेदवतीका, शकुनिने यक्ष - कन्याका तथा सुरथने चित्राङ्गदाका पाणिग्रहण किया । कृशोदरि ! इस प्रकार विवाहकार्य क्रमशः सम्पन्न हुआ ॥१६० - १६४॥
विवाह - कार्य सम्पन्न हो जानेपर मुनि ( ऋतध्वज ) - ने इन्द्र आदि देवताओंसे कहा - इस सप्तगोदावर तीर्थमें आप लोग सदा निवास करें । विशेषरुपसे इस उत्तम वैशाखके महीनेमें आप लोग यहाँ अवश्य रहें । देवता लोग ’ ऐसा ही हो ’ - ( ऐसा ) कहकर प्रसन्नतापूर्वक स्वर्ग चले गये । मुनि लोग पुत्रसहित मुनि ( ऋतध्वज ) - को सादर साथ लेकर चले गये । राजा लोग भी अपनी - अपनी पत्नीके साथ अपने - अपने नगरमें आ गये । सभी लोग प्रिय विषयोंका उपभोग करते हुए आनन्दपूर्वक रहने लगे । कल्याणि ! चित्राङ्गदाका पूर्व वृत्तान्त इस प्रकारका है । इसलिये सरोजनयने ! ललनोत्तमे ! तुम मुझे अङ्गीकार करो । ऐसा कहकर राजपुत्र ( दण्ड ) ब्राह्मणकी उस सुन्दरी मृगनयनी पुत्रीकी कोमल वाणीसे स्तुति करने लगे । उसने भी राजासे ( आगेवाला वचन ) कहा ॥१६५ - १६९॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पैंसठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥६५॥