वामन पुराण Vaman Puran

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


श्रीवामनपुराण - अध्याय ६८


 
पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) इसी बीच दैत्योंके साथ वह अन्धक प्रमथोंसे सेवित गुफाओंवाले पर्वतश्रेष्ठ मन्दरगिरिपर आ गया । प्रमथोंने दानवोंको देखकर हर्षसूचक ’ किलकिला ’ - ध्वनि की और फिर उन्होंने बहुत - सी तुरहियाँ बजायीं । प्रलय ( कालीन ध्वनि ) - के समान वह भयङ्कर ध्वनि आकाश और पृथ्वीके बीच भर गयी । आकाशमें स्थित विघ्नराज गणेशने उस ध्वनिको सुना । प्रमथोंसे घिरे हुए वे अत्यन्त क्रुद्ध होकर पर्वतश्रेष्ठ मन्दरपर गये और उन्होंने अपने पिताको देखा ॥१ - ४॥ 
( फिर ) श्रद्धापूर्वक प्रणामकर महेश्वरसे ( यह ) वाक्य कहा - हे जगन्नाथ ! आप बैठे क्यों हैं ? युद्ध करनेके लिये प्रबल इच्छा रखकर आप उठें । विघ्नेश्वर गणेशके कहनेपर जगत्पति महादेवने अम्बिकासे कहा - मैं अन्धकको मारनेके लिये जाऊँगा, तुम सावधानीसे रहना । उसके बाद पर्वतनन्दिनीने महादेवको बार - बार गले लगाकर एवं प्रेमपूर्ण दृष्टिसे उन्हें देखकर ( मङ्गल वचन ) कहा - जाइये और अन्धकपर विजय प्राप्त कीजिये । उसके बाद गौरीने देवश्रेष्ठ शंकरको चन्दन, रोचना एवं अञ्जन लगाया तथा अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उनके चरणोंकी वन्दना की ॥५ - ८॥
उसके बाद महादेवने मालिनी, जया, विजया, जयन्ती और अपराजितासे कीर्ति बढ़ानेवाला यह वचन कहा - तुम लोग सुरक्षित घरमें सतर्कतासे रहना और प्रयत्नपूर्वक पार्वतीको असावधानीसे बचाना । उन सभीको इस प्रकार समझाने - बुझानेके बाद वृषभपर सवार होकर शूल धारण करनेवाले विजयाभिलाषी बलशाली भगवान् शंकर ( आत्मविश्वासके साथ ) संतुष्ट होकर घरसे चल पड़े । घरसे निकलते समय गणाधिपोंने शंकरको चारों ओरसे घेरकर ’ जय - जयकार ’ किया ॥९ - १२॥ 
महर्षे ! शूल धारण करनेवाले संसारके पालक महेश्वरके युद्ध करनेके लिये घरसे निकलनेपर उनकी जयके लिये शुभ, सौम्य और मङ्गलजनक लक्षण ( शकुन ) प्रकट हुए । उनकी बायीं बगलमें श्रृगालिनी स्थित होकर ऊँचे स्वरमें बोलती हुई आगे - आगे जा रही थी । मांसभक्षी प्राणियोंका समूह प्रसन्नतापूर्वक रक्तके लिये जा रहा था । शूलपाणिका सारा दायाँ अङ्ग फड़क उठा । हारीत पक्षी मौन होकर पीछेकी ओर जा रहा था । भूत, भविष्य एवं वर्तमानस्वरुप एवं व्यापक चन्द्रमौलि महादेव शंकरने इस प्रकारके लक्षणोंको देखकर शैलादि ( नन्दी ) - से प्रसन्नतापूर्वक वचन कहा ॥१३ - १६॥ 
शंकरने कहा - नन्दिन् ! गणेश्वर ! इस समय कल्याणकारी लक्षण दिखायी दे रहे हैं । इसलिये आज मेरी विजय होगी । किसी भी प्रकार पराजय नहीं हो सकती । शंकरके उस वचनको सुनकर शैलादिने उनसे कहा - महादेव ! आप शत्रुओंको जीत लेंगे, इसमें संदेह ही कौन - सा है ? ऐसा कहकर नन्दीने महापाशुपतके सहित रुद्रगणोंको युद्ध करनेके लिये आदेश दिया । ( फिर तो ) भाँति - भाँतिके शस्त्रोंको धारण करनेवाले वे वीर दानवसैन्यके पास पहुँचकर उसे ऐसे कुचलकर नष्ट करने लगे जैसे वज्र वृक्षोंको नष्ट करता है ॥१७ - २०॥
बलशाली प्रमथोंद्वारा मारे जा रहे वे दैत्यदानवगण ( भी ) हाथोंमें कूट - मुद्गर लेकर प्रमथोंको मारने लगे । उसके बाद ( युद्ध ) देखनेकी लालसासे इन्द्र, विष्णु, ब्रह्मा एवं अग्नि आदि देवगण आकाशमें एकत्र हो गये । नारदजी ! उसके बाद गाने - बजानेके साथ दुन्दुभियोंकी ध्वनि आकाशमें गूँजने लगी । फिर तो देवताओंके देखते - ही - देखते क्रुद्ध होकर महापाशुपत आदि गण दानव - सेनाका विध्वंस करने लगे ॥२१ - २४॥ 
गणेश्वरोंद्वारा चतुरङ्गिणी - रथ, हाथी, घोड़े, पैदल चार अङ्गोंवाली सेनाको मारी जाती हुई देख करके क्रुद्ध होकर तुहुण्ड तेजीसे आगे बढ़ा । ढालसे बँधे हुए लौहके बने चमचमाते भयङ्कर परिघको लेकर वह इन्द्रके ऊँचे ध्वजके समान अत्यन्त सुशोभित हो रहा था । बलशाली तुहुण्ड उस परिघको घुमाते हुए युद्धमें गणोंको मारने लगा । रुद्रसे लेकर स्कन्दतक वे सभी गण भयभीत होकर भाग चले । उस सेनाको नष्ट हुई देखकर गणनाथ विनायक दानवश्रेष्ठ तुहुण्डकी ओर तेजीसे दौड़े ॥२५ - २८॥
महाबलशाली दुष्टात्मा दैत्यने गणपतिको सामने आते देखकर ( उनके ) कुम्भस्थलमें परिघका वार कर दिया । ब्रह्मन् ! वज्रस्से अलंकृत वह परिघ विनायकके कुम्भस्थलपर ऐसे सैकड़ों टुकड़े हो गया, जैसे मेरुके शिखरपर वज्र सैकड़ों टुकड़े हो जाता है । परिघको विफल हुआ देखकर अपने मामाकी रक्षा करते हुए राहुने आनेवाले पार्षदको अपने भुजापाशमें जकड़ लिया । भुजापाशमें बँधे हुए ( होनेपर भी ) उन महोदरने दानवको बलपूर्वक खींचकर उसके मस्तकपर कुठारसे वार किया ॥२९ - ३२॥
वह काष्ठके समान दो टुकड़े होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा । फिर भी बलशाली दानवेश्वर राहुने उन्हें नहीं छोड़ा । नारदजी ! उन्होंने छूटनेका प्रयत्न तो किया, किंतु उससे वे छूट न सके । राहुद्वारा विनायकको बँधा हुआ देखकर कुण्डोदर नामके गणेश्वरने तुरंत मुसल उठा लिया और उन महात्माने दुरात्मा राहुपर ( दे ) मारा । उसके बाद कलशके ध्वजवाले गणेशने प्रासद्वारा राहुके हदयपर ( भी ) चोट कर दिया । घटोदरने गदासे तथा राक्षसोंके अधिपति सुकेशीने तलवारसे वार किया । उन चारोंद्वारा प्रहार किये जानेपर राहुने गणाधिपतिको छोड़ दिया । छूटते ही उन्होंने फरसेसे तुहुण्डके मस्तकको काट दिया ॥३३ - ३६॥ 
तुहुण्डके मारे जाने और राहुके पीठ दिखा देनेपर क्रोधरुपी विषको छोड़नेकी कामनावाले प्रलयकालकी अग्निके समान पाँचों गणेश्वर एक साथ दानवश्रेष्ठोंकी सेनामें पैठ गये । अपनी उस सेनाको मारी जाती हुई देखकर वायुके समान तीव्र गतिवाले बलशाली बलिने गदा लेकर विनायकके कुम्भस्थल, मस्तक एवं सूँड़पर वार किया । कुण्डोदरकी कमर तोड़ दी, महोदरके सिरकी खोपड़ीको विधुन दिया, कुम्भध्वजके जोड़ोंको चूर - चूर कर डाला एवं घटोदरकी जाँघोंको तोड़ दिया । उन गणाधिपोंको पीछे भगाकर वीरश्रेष्ठ वह बलशाली असुरेन्द्र तुरंत स्कन्द, विशाख आदि मुख्य - मुख्य गणेश्वरोंको मारनेके लिये दौड़ पड़ा ॥३७ - ४०॥ 
भगवान् महेश्वरने उसे आते हुए देखकर गणोंमें सर्वश्रेष्ठ शैलादिको बुलाकर कहा - वीर ! जाओ और संग्राममें दैत्योंको मारो । वृषभध्वजके ऐसा कहनेपर शिलादके पुत्र नन्दीने वज्र ले करके बलिके पास जाकर उसके सिरपर वार किया, जिससे वह अचेत होकर धरतीपर गिर पड़ा । अपने भतीजेको बेहोश जानकर बलवान् कुजम्भने क्रुद्ध हो मुसल लेकर उसे घुमाते हुए नन्दीकी ओर तेजीसे फेंका । भगवान् नन्दीने आते हुए उस मुसलको तुरंत हाथसे पकड़ लिया और उसीसे युद्धमें कुजम्भको मार दिया । वह प्राणहीन होकर भूमिपर गिर पड़ा ॥४१ - ४४॥
वीर नन्दीने कुजम्भको मुसलसे मारकर वज्रद्वारा सैकड़ों दानवोंको भी मार डाला । गणनायकद्वारा मारे जा रहे वे सभी दानव दुर्योधनकी शरणमें गये । दुर्योधनने गणाधिपद्वारा वज्रके आघातसे दैत्योंको मारा हुआ देखकर बिजलीके सदृश प्रकाशसे युक्त प्रास ले लिया तथा ‘ तुम मारे गये ’ ऐसा कहते हुए उसे नन्दीकी ओर फेंका । नन्दीने आ रहे उस ( प्रास ) - को वज्रसे इस प्रकार टुकड़े - टुकड़े काट दिया, जैसे चुगलखोर व्यक्ति गुप्त विषयका भेदन कर देता है । उसके बाद उस प्रासको विदीर्ण हुआ देख ( दुर्योधन ) मुट्ठी बाँधकर गण ( नन्दी ) - के पास पहुँचा । उसके बाद ही नन्दीने शीघ्रतासे तालके समान उसके मस्तकको कुलिशसे काट डाला । मारे जानेपर वह पृथ्वीपर गिर पड़ा और भयभीत हुए सभी दैत्य तेजीसे दसों दिशाओंमें भाग गये ॥४५ - ४८॥
हस्ती ( नामक असुर ) अपने पुत्रको मारा गया देखकर नन्दीके समीप आ गया । उसने धनुष लेकर तीव्र वेगसे यमदण्डके समान बाणोंसे वार किया । बादल जिस प्रकार जलकी धाराओंसे पर्वतोंको ढँक लेता है, उसी प्रकार उसने नन्दीके साथ वृषभध्वजके उन गणोंको ढँक दिया । असुरके बाणसमूहसे घिरे वे विनायक आदि बलशाली वीर सिंहके द्वारा आक्रमण किये जानेपर वृषभोंकी भाँति भयसे व्याकुल होकर चारों ओर भागने लगे । कुमारने गणोंको विमुख होते देख शक्तिद्वारा बाणोंको रोक दिया और तुरन्त ही शत्रुके पास पहुँचकर शक्तिसे उसके हदयको बेध डाला । शक्तिसे हदयके बिंध जानेपर हस्ती भूमिपर गिर पड़ा तथा मर गया और शत्रुसेना फिर पीठ दिखाकर विमुख हो गयी । दैत्यसेनाको छिन्न - भिन्न हुई देखकर कुपित हुए गणेश्वर नन्दीको आगे कर दानवोंको और मारने लगे; किंतु प्रमथोंद्वारा मारे जा रहे वे सभी विमुख बलशाली कार्त्तस्वरादि दैत्य फिर लौट पड़े ॥४९ - ५४॥
उन्हें लौटकर आते देख वेगशाली व्याघ्रमुख नन्दिषेण भी क्रोधसे आँखें लाल कर हाँफता हुआ लौट पड़ा । अग्निके समान प्रकाशवाले उस महासुरेन्द्रको आते देखकर गणपतिने पट्टिश घुमाकर उसके मस्तकपर मारा । कार्त्तस्वर चीत्कार करता हुआ मर गया । उस ममेरे भाईके मारे जानेपर वीर तुरङ्गकन्धरने पाशको लेकर पट्टिशके सहित नन्दिषेण गणेश्वरको बाँध लिया । नन्दिषेणको बँधा देखकर बलवानोंमें श्रेष्ठ विशाख्य क्रुद्ध होकर उसके पास गये और हाथमें शक्ति लिये हुए ( उसके सामने ) खड़े हो गये । उन्हें देखकर बलवानोंमें श्रेष्ठ अयः शिरा हाथमें पाश लेकर कुक्कुटध्वज विशाखके साथ संग्राम करने लगा ॥५५ - ६०॥ 
विशाखको अयः शिराके द्वारा युद्धमें घिरा हुआ देखकर शाख तथा नैगमेय नामके गण शीघ्रतासे शत्रुकी ओर दौड़ पड़े । विशाखको प्रसन्न करनेकी इच्छासे एक ओरसे नैगमेयने और दूसरी ओरसे शाखने शक्तिद्वारा अयः शिराको मारा । शंकरके तीनों पुत्रोंद्वारा ग्रस्त होनेपर उस अयः शिराने युद्ध छोड़ दिया । वे गणेश्वर शम्बरको देखकर शीघ्र ही उसके समीप पहुँचे । शम्बरने पाशको घुमाकर उनपर चलाया । शंकरके चार पुत्रोंने पाशपर वार किया, ( इससे वह पाश ) आकाशसे भूमिपर गिरकर नष्ठ हो गया । पाशके नष्ट हो जानेपर भयभीत होकर शम्बर ( इधर - उधर ) दिशाओंमें भाग गया और कुमार सेनाको रौंदने लगे । महर्षे ! उन रुद्र - पुत्रों एवं गणोंद्वारा मारी जा रही वह दानवी सेना दुःखी एवं भयसे व्याकुल होकर शुक्रकी शरणमें गयी ॥६१ - ६६॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें अड़सठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥६८॥