त्या वेळीं जीवक कौमारभृत्य तेथे होता. त्याला अजातशत्रू म्हणाला,'' तूं उगा का बसलास?''
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*न मोनेत मुनि होति मूळहरूपी अविद्दसु। (धम्मपद २६८)
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त्यावर जीवक म्हणाला,''महाराज, हा बुध्द भगवान आमच्या आम्रवनांत मोठया भिक्षुसंधासह राहत आहे. आज महाराजांनी त्याची भेट घ्यावी. तेणेंकरून आपले चित्त प्रसन्न होईल.''
अजातशत्रूने वाहनें सिध्द करण्यासाठी जीवकाला आज्ञा केली. त्याप्रमाणें जीवकाने सर्व तयारी केल्यावर अजातशत्रू राजा आपल्या हत्तीच्या अंबारींत बसून आणि अंत:पुरांतील स्त्रियांना निरनिराळया हत्तिणींवर बसवून मोठया परिवारासह बुध्ददर्शनाला निघाला.
जीवकाच्या आम्रवनाजवळ आल्यावर अजातशत्रू भयभीत होऊंन जीवकाला म्हणाला,''वा जीवका, मला तूं ठकवीत नाहीस ना? मला माझ्या शत्रूंच्या स्वाधीन करण्याचा तुझा बेत नाही ना? येथे येवढा मोठा भिक्षुसमुदाय आहे म्हणतोस, पण शिंक, खोकला किंवा दुसरा कोणताच आवाज ऐकूं येत नाही!''
जीवक- महाराज, भिऊं नका, भिऊं नका ! आपणाला मी ठकवीत नाही, किंवा शत्रूंच्या स्वाधीन करीत नाही. पुढे व्हा, पुढे व्हा. समोर मंडलमालांत* दिवे जळताहेत. (आजातशत्रूचे वैरी दिवे पेटवून बसतील हें संभवनीय नाही, असा याचा भावार्थ).
जेथपर्यंत हत्तीवरून जाणे शक्य होतें, तेथवर जाऊंन अजातशत्रु खाली उतरला, आणि जीवकाच्या आम्रवनांतील मंडलमालाच्या द्वारावर पायीं चालत गेला, व तेथे उभा राहून जीवकाला म्हणाला,''भगवान कोठे आहे?''
जीवक- महाराज, मंडलमालाच्या मधल्या खांबाजवळ पूर्वेला तोंड करून भगवान बसला आहे.
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* मंडलमाल म्हणजे तंबूच्या आकाराचा मंडप, ज्याची जमीन आजूबाजूच्या जमिनीहून उंच केली जात असे.
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अजातशत्रू भगवंताजवळ जाऊन उभा राहिला आणि मौन धारण करून शांतपणें बसलेल्या भिक्षुसंघाकडे पाहून उद्गारला, ''या संघांत जी शांति नांदत आहे, त्या शांतीने (माझा) उदयभद्र कुमार समन्वित होवा! अशी शांति उदयभद्र कुमाराला लाभो!''
भगवान म्हणाला,''महाराज, तुम्ही आपल्या प्रेमाला अनुसरूनच बोललांत.''
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*न मोनेत मुनि होति मूळहरूपी अविद्दसु। (धम्मपद २६८)
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त्यावर जीवक म्हणाला,''महाराज, हा बुध्द भगवान आमच्या आम्रवनांत मोठया भिक्षुसंधासह राहत आहे. आज महाराजांनी त्याची भेट घ्यावी. तेणेंकरून आपले चित्त प्रसन्न होईल.''
अजातशत्रूने वाहनें सिध्द करण्यासाठी जीवकाला आज्ञा केली. त्याप्रमाणें जीवकाने सर्व तयारी केल्यावर अजातशत्रू राजा आपल्या हत्तीच्या अंबारींत बसून आणि अंत:पुरांतील स्त्रियांना निरनिराळया हत्तिणींवर बसवून मोठया परिवारासह बुध्ददर्शनाला निघाला.
जीवकाच्या आम्रवनाजवळ आल्यावर अजातशत्रू भयभीत होऊंन जीवकाला म्हणाला,''वा जीवका, मला तूं ठकवीत नाहीस ना? मला माझ्या शत्रूंच्या स्वाधीन करण्याचा तुझा बेत नाही ना? येथे येवढा मोठा भिक्षुसमुदाय आहे म्हणतोस, पण शिंक, खोकला किंवा दुसरा कोणताच आवाज ऐकूं येत नाही!''
जीवक- महाराज, भिऊं नका, भिऊं नका ! आपणाला मी ठकवीत नाही, किंवा शत्रूंच्या स्वाधीन करीत नाही. पुढे व्हा, पुढे व्हा. समोर मंडलमालांत* दिवे जळताहेत. (आजातशत्रूचे वैरी दिवे पेटवून बसतील हें संभवनीय नाही, असा याचा भावार्थ).
जेथपर्यंत हत्तीवरून जाणे शक्य होतें, तेथवर जाऊंन अजातशत्रु खाली उतरला, आणि जीवकाच्या आम्रवनांतील मंडलमालाच्या द्वारावर पायीं चालत गेला, व तेथे उभा राहून जीवकाला म्हणाला,''भगवान कोठे आहे?''
जीवक- महाराज, मंडलमालाच्या मधल्या खांबाजवळ पूर्वेला तोंड करून भगवान बसला आहे.
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* मंडलमाल म्हणजे तंबूच्या आकाराचा मंडप, ज्याची जमीन आजूबाजूच्या जमिनीहून उंच केली जात असे.
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अजातशत्रू भगवंताजवळ जाऊन उभा राहिला आणि मौन धारण करून शांतपणें बसलेल्या भिक्षुसंघाकडे पाहून उद्गारला, ''या संघांत जी शांति नांदत आहे, त्या शांतीने (माझा) उदयभद्र कुमार समन्वित होवा! अशी शांति उदयभद्र कुमाराला लाभो!''
भगवान म्हणाला,''महाराज, तुम्ही आपल्या प्रेमाला अनुसरूनच बोललांत.''